श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय ३

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय ३                                     

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय ३ "हिरण्यकशिपु की तपस्या और वर प्राप्ति"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय ३

श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: तृतीय अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय ३                                                         

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ७ अध्यायः ३                                                            

श्रीमद्भागवत महापुराण सातवाँ स्कन्ध तीसरा अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय ३ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीमद्भागवतम् सप्तमस्कन्धः

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ सप्तमस्कन्धः ॥

॥ तृतीयोऽध्यायः ३ ॥

नारद उवाच

हिरण्यकशिपू राजन्नजेयमजरामरम् ।

आत्मानमप्रतिद्वन्द्वमेकराजं व्यधित्सत ॥ १॥

स तेपे मन्दरद्रोण्यां तपः परमदारुणम् ।

ऊर्ध्वबाहुर्नभोदृष्टिः पादाङ्गुष्ठाश्रितावनिः ॥ २॥

जटादीधितिभी रेजे संवर्तार्क इवांशुभिः ।

तस्मिंस्तपस्तप्यमाने देवाः स्थानानि भेजिरे ॥ ३॥

तस्य मूर्ध्नः समुद्भूतः सधूमोऽग्निस्तपोमयः ।

तीर्यगूर्ध्वमधो लोकानतपद्विष्वगीरितः ॥ ४॥

चुक्षुभुर्नद्युदन्वन्तः सद्वीपाद्रिश्चचाल भूः ।

निपेतुः सग्रहास्तारा जज्वलुश्च दिशो दश ॥ ५॥

तेन तप्ता दिवं त्यक्त्वा ब्रह्मलोकं ययुः सुराः ।

धात्रे विज्ञापयामासुर्देवदेव जगत्पते ॥ ६॥

दैत्येन्द्रतपसा तप्ता दिवि स्थातुं न शक्नुमः ।

तस्य चोपशमं भूमन् विधेहि यदि मन्यसे ।

लोका न यावन्नङ्क्ष्यन्ति बलिहारास्तवाभिभूः ॥ ७॥

तस्यायं किल सङ्कल्पश्चरतो दुश्चरं तपः ।

श्रूयतां किं न विदितस्तवाथापि निवेदितः ॥ ८॥

सृष्ट्वा चराचरमिदं तपोयोगसमाधिना ।

अध्यास्ते सर्वधिष्ण्येभ्यः परमेष्ठी निजासनम् ॥ ९॥

तदहं वर्धमानेन तपोयोगसमाधिना ।

कालात्मनोश्च नित्यत्वात्साधयिष्ये तथात्मनः ॥ १०॥

अन्यथेदं विधास्येऽहमयथापूर्वमोजसा ।

किमन्यैः कालनिर्धूतैः कल्पान्ते वैष्णवादिभिः ॥ ११॥

इति शुश्रुम निर्बन्धं तपः परममास्थितः ।

विधत्स्वानन्तरं युक्तं स्वयं त्रिभुवनेश्वर ॥ १२॥

तवासनं द्विजगवां पारमेष्ठ्यं जगत्पते ।

भवाय श्रेयसे भूत्यै क्षेमाय विजयाय च ॥ १३॥

इति विज्ञापितो देवैर्भगवानात्मभूर्नृप ।

परीतो भृगुदक्षाद्यैर्ययौ दैत्येश्वराश्रमम् ॥ १४॥

न ददर्श प्रतिच्छन्नं वल्मीकतृणकीचकैः ।

पिपीलिकाभिराचीर्णमेदस्त्वङ्मांसशोणितम् ॥ १५॥

तपन्तं तपसा लोकान् यथाभ्रापिहितं रविम् ।

विलक्ष्य विस्मितः प्राह प्रहसन् हंसवाहनः ॥ १६॥

नारद जी ने कहा ;- युधिष्ठिर! अब हिरण्यकशिपु ने यह विचार किया कि मैं अजेय, अजर, अमर और संसार का एकछत्र सम्राट् बन जाऊँ, जिससे कोई मेरे सामने खड़ा तक न हो सके।इसके लिये वह मन्दराचल की एक घाटी में जाकर अत्यन्त दारुण तपस्या करने लगा। वहाँ हाथ ऊपर उठाकर आकाश की ओर देखता हुआ वह पैर के अँगूठे के बल पृथ्वी पर खड़ा हो गया। उसकी जटाएँ ऐसी चमक रही थीं, जैसे प्रलयकाल के सूर्य की किरणें। जब वह इस प्रकार तपस्या में संलग्न हो गया, तब देवता लोग अपने-अपने स्थानों और पदों पर पुनः प्रतिष्ठित हो गये।

बहुत दिनों तक तपस्या करने के बाद उसकी तपस्या की आग धूएँ के साथ सिर से निकलने लगी। वह चारों ओर फैल गयी और ऊपर-नीचे तथा अगल-बगल के लोकों को जलाने लगी। उसकी लपट से नदी और समुद्र खौलने लगे। द्वीप और पर्वतों के सहित पृथ्वी डगमगाने लगी। ग्रह और तारे टूट-टूटकर गिरने लगे तथा दसों-दिशाओं में मानो आग लग गयी। हिरण्यकशिपु की उस तमोमयी आग की लपटों से स्वर्ग के देवता भी जलने लगे। वे घबराकर स्वर्ग से ब्रह्मलोक में गये और ब्रह्मा जी से प्रार्थना करने लगे- हे देवताओं के भी आराध्यदेव जगत्पति ब्रह्मा जी! हम लोग हिरण्यकशिपु के तप की ज्वाला से जल रहे हैं। अब हम स्वर्ग में नहीं रह सकते। हे अनन्त! हे सर्वाध्यक्ष! यदि आप उचित समझें तो अपनी सेवा करने वाली जनता का नाश होने के पहले ही यह ज्वाला शान्त कर दीजिये। भगवन्! आप सब कुछ जानते ही हैं, फिर भी हम अपनी ओर से आपसे यह निवेदन कर देते हैं कि वह किस अभिप्राय से यह घोर तपस्या कर रहा है।

सुनिये, उसका विचार है कि जैसे ब्रह्मा जी अपनी तपस्या और योग के प्रभाव से इस चराचर जगत् की सृष्टि करके सब लोकों से ऊपर सत्यलोक में विराजते हैं, वैसे ही मैं भी अपनी उग्र तपस्या और योग के प्रभाव से वही पद और स्थान प्राप्त कर लूँगा। क्योंकि समय असीम है और आत्मा नित्य है। एक जन्म में नहीं, अनेक जन्म; एक युग में न सही, अनेक युगों में। अपनी तपस्या की शक्ति से मैं पाप-पुण्यादि के नियमों को पलटकर इस संसार में ऐसा उलट-फेर कर दूँगा, जैसा पहले कभी नहीं था। वैष्णवादि पदों में तो रखा ही क्या है। क्योंकि कल्प के अन्त में उन्हें भी काल के गाल में चला जाना पड़ता है।हमने सुना है कि ऐसा हठ करके ही वह घोर तपस्या में जुटा हुआ है। आप तीनों लोकों के स्वामी हैं। अब आप जो उचित समझें, वही करें।

ब्रह्मा जी! आपका यह सर्वश्रेष्ठ परमेष्ठि-पद ब्राह्मण एवं गौओं की वृद्धि, कल्याण, विभूति, कुशल और विजय के लिये है। (यदि यह हिरण्यकशिपु के हाथ में चला गया, तो सज्जनों पर संकटों का पहाड़ टूट पड़ेगा)।

युधिष्ठिर! जब देवताओं ने भगवान् ब्रह्मा जी से इस प्रकार निवेदन किया, तब वे भृगु और दक्ष आदि प्रजापतियों के साथ हिरण्यकशिपु के आश्रम पर गये।

वहाँ जाने पर पहले तो वे उसे देख ही न सके; क्योंकि दीमक की मिट्टी, घास और बाँसों से उसका शरीर ढक गया था। चीटियाँ उसकी मेदा, त्वचा, मांस और खून चाट गयी थीं। बादलों से ढके हुए सूर्य के समान वह अपनी तपस्या के तेज से लोकों को तपा रहा था। उसको देखकर ब्रह्मा जी भी विस्मित हो गये। उन्होंने हँसते हुए कहा।

ब्रह्मोवाच

उत्तिष्ठोत्तिष्ठ भद्रं ते तपःसिद्धोसि काश्यप ।

वरदोऽहमनुप्राप्तो व्रियतामीप्सितो वरः ॥ १७॥

अद्राक्षमहमेतत्ते हृत्सारं महदद्भुतम् ।

दंशभक्षितदेहस्य प्राणा ह्यस्थिषु शेरते ॥ १८॥

नैतत्पूर्वर्षयश्चक्रुर्न करिष्यन्ति चापरे ।

निरम्बुर्धारयेत्प्राणान् को वै दिव्यसमाः शतम् ॥ १९॥

व्यवसायेन तेऽनेन दुष्करेण मनस्विनाम् ।

तपोनिष्ठेन भवता जितोऽहं दितिनन्दन ॥ २०॥

ततस्त आशिषः सर्वा ददाम्यसुरपुङ्गव ।

मर्त्यस्य ते अमर्त्यस्य दर्शनं नाफलं मम ॥ २१॥

ब्रह्मा जी ने कहा ;- बेटा हिरण्यकशिपु! उठो, उठो। तुम्हारा कल्याण हो। कश्यपनन्दन! अब तुम्हारी तपस्या सिद्ध हो गयी। मैं तुम्हें वर देने के लिये आया हूँ। तुम्हारी जो इच्छा हो, बेखट के माँग लो। मैंने तुम्हारे हृदय का अद्भुत बल देखा। अरे, डाँसों ने तुम्हारी देह खा डाली है। फिर भी तुम्हारे प्राण हड्डियों के सहारे टिके हुए हैं। ऐसी कठिन तपस्या न तो पहले किसी ऋषि ने की थी और न आगे ही कोई करेगा। भला ऐसा कौन है जो देवताओं के सौ वर्ष तक बिना पानी के जीता रहे।

बेटा हिरण्यकशिपु! तुम्हारा यह काम बड़े-बड़े धीर पुरुष भी कठिनता से कर सकते हैं। तुमने इस तपोनिष्ठा से मुझे अपने वश में कर लिया है। दैत्यशिरोमणे! इसी से प्रसन्न होकर मैं तुम्हें जो कुछ मांगो, दिये देता हूँ। तुम हो मरने वाले और मैं हूँ अमर! अतः तुम्हें मेरा यह दर्शन निष्फल नहीं हो सकता।

नारद उवाच

इत्युक्त्वाऽऽदिभवो देवो भक्षिताङ्गं पिपीलिकैः ।

कमण्डलुजलेनौक्षद्दिव्येनामोघराधसा ॥ २२॥

स तत्कीचकवल्मीकात्सहओजोबलान्वितः ।

सर्वावयवसम्पन्नो वज्रसंहननो युवा ।

उत्थितस्तप्तहेमाभो विभावसुरिवैधसः ॥ २३॥

स निरीक्ष्याम्बरे देवं हंसवाहमवस्थितम् ।

ननाम शिरसा भूमौ तद्दर्शनमहोत्सवः ॥ २४॥

उत्थाय प्राञ्जलिः प्रह्व ईक्षमाणो दृशा विभुम् ।

हर्षाश्रुपुलकोद्भेदो गिरा गद्गदयागृणात् ॥ २५॥

नारद जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! इतना कहकर ब्रह्मा जी ने उसके चींटियों से खाये हुए शरीर पर अपने कमण्डलु का दिव्य एवं अमोघ प्रभावशाली जल छिड़क दिया। जैसे लकड़ी के ढेर में से आग जल उठे, वैसे ही वह जल छिड़कते ही बाँस और दीमकों की मिट्टी के बीच से उठ खड़ा हुआ। उस समय उसका शरीर सब अवयवों से पूर्ण एवं बलवान् हो गया था, इन्द्रियों में शक्ति आ गयी थी और मन सचेत हो गया था। सारे अंग वज्र के समान कठोर एवं तपाये हुए सोने की तरह चमकीले हो गये थे। वह नवयुवक होकर उठ खड़ा हुआ। उसने देखा कि आकाश में हंस पर चढ़े हुए ब्रह्मा जी खड़े हैं। उन्हें देखकर उसे बड़ा आनन्द हुआ। अपना सिर पृथ्वी पर रखकर उसने उनको नमस्कार किया। फिर अंजलि बाँधकर नम्रभाव से खड़ा हुआ और बड़े प्रेम से अपने निर्निमेष नयनों से उन्हें देखता हुआ गद्गद वाणी से स्तुति करने लगा। उस समय उसके नेत्रों में आनन्द के आँसू उमड़ रहे थे और सारा शरीर पुलकित हो रहा था।

हिरण्यकशिपुरुवाच

कल्पान्ते कालसृष्टेन योऽन्धेन तमसाऽऽवृतम् ।

अभिव्यनग्जगदिदं स्वयञ्ज्योतिः स्वरोचिषा ॥ २६॥

आत्मना त्रिवृता चेदं सृजत्यवति लुम्पति ।

रजःसत्त्वतमोधाम्ने पराय महते नमः ॥ २७॥

नम आद्याय बीजाय ज्ञानविज्ञानमूर्तये ।

प्राणेन्द्रियमनोबुद्धिविकारैर्व्यक्तिमीयुषे ॥ २८॥

त्वमीशिषे जगतस्तस्थुषश्च

प्राणेन मुख्येन पतिः प्रजानाम् ।

चित्तस्य चित्तेर्मन ऐन्द्रियाणां

पतिर्महान् भूतगुणाशयेशः ॥ २९॥

हिरण्यकशिपु ने कहा ;- कल्प के अन्त में यह सारी सृष्टि काल के द्वारा प्रेरित तमोगुण से, घने अन्धकार से ढक गयी थी। उस समय स्वयंप्रकाशस्वरूप आपने अपने तेज से पुनः इसे प्रकट किया। आप ही अपने त्रिगुणमयरूप से इसकी रचना, रक्षा और संहार करते हैं। आप रजोगुण, सत्त्वगुण और तमोगुण के आश्रय हैं। आप ही सबसे परे और महान् हैं। आपको मैं नमस्कार करता हूँ। आप ही जगत् के मूल कारण हैं। ज्ञान और विज्ञान आपकी मूर्ति हैं। प्राण, इन्द्रिय, मन और बुद्धि आदि विकारों के द्वारा आपने अपने को प्रकट किया है। आप मुख्य प्राण सूत्रात्मा के रूप से चराचर जगत् को अपने नियन्त्रण में रखते हैं। आप ही प्रजा के रक्षक भी हैं। भगवन्! चित्त, चेतना, मन और इन्द्रियों के स्वामी आप ही हैं। पंचभूत, शब्दादि विषय और उनके संस्कारों के रचयिता भी महत्तत्त्व के रूप में आप ही हैं।

त्वं सप्ततन्तून् वितनोषि तन्वा

त्रय्या चातुर्होत्रकविद्यया च ।

त्वमेक आत्माऽऽत्मवतामनादि-

रनन्तपारः कविरन्तरात्मा ॥ ३०॥

त्वमेव कालोऽनिमिषो जनाना-

मायुर्लवाद्यावयवैः क्षिणोषि ।

कूटस्थ आत्मा परमेष्ठ्यजो महांस्त्वं

जीवलोकस्य च जीव आत्मा ॥ ३१॥

त्वत्तः परं नापरमप्यनेजदेजच्च

किञ्चिद्व्यतिरिक्तमस्ति ।

विद्याः कलास्ते तनवश्च सर्वा

हिरण्यगर्भोऽसि बृहत्त्रिपृष्ठः ॥ ३२॥

व्यक्तं विभो स्थूलमिदं शरीरं

येनेन्द्रियप्राणमनोगुणांस्त्वम् ।

भुङ्क्षे स्थितो धामनि पारमेष्ठ्ये

अव्यक्त आत्मा पुरुषः पुराणः ॥ ३३॥

अनन्ताव्यक्तरूपेण येनेदमखिलं ततम् ।

चिदचिच्छक्तियुक्ताय तस्मै भगवते नमः ॥ ३४॥

यदि दास्यस्यभिमतान् वरान् मे वरदोत्तम ।

भूतेभ्यस्त्वद्विसृष्टेभ्यो मृत्युर्मा भून्मम प्रभो ॥ ३५॥

नान्तर्बहिर्दिवा नक्तमन्यस्मादपि चायुधैः ।

न भूमौ नाम्बरे मृत्युर्न नरैर्न मृगैरपि ॥ ३६॥

व्यसुभिर्वासुमद्भिर्वा सुरासुरमहोरगैः ।

अप्रतिद्वन्द्वतां युद्धे ऐकपत्यं च देहिनाम् ॥ ३७॥

सर्वेषां लोकपालानां महिमानं यथाऽऽत्मनः ।

तपोयोगप्रभावाणां यन्न रिष्यति कर्हिचित् ॥ ३८॥

जो वेद होता, अध्वर्यु, ब्रह्मा और उद्गाता-इन ऋत्विजों से होने वाले यज्ञ का प्रतिपादन करते हैं, वे आपके ही शरीर हैं। उन्हीं के द्वारा अग्निष्टोम आदि सात यज्ञों का आप विस्तार करते हैं। आप ही सम्पूर्ण प्राणियों के आत्मा हैं। क्योंकि आप अनादि, अनन्त, अपार, सर्वज्ञ और अन्तर्यामी हैं। आप ही काल हैं। आप प्रतिक्षण सावधान रहकर अपने क्षण, लव आदि विभागों के द्वारा लोगों की आयु क्षीण करते रहते हैं। फिर भी आप निर्विकार हैं। क्योंकि आप ज्ञानस्वरूप, परमेश्वर, अजन्मा, महान् और सम्पूर्ण जीवों के जीवनदाता अन्तरात्मा हैं।

प्रभो! कार्य, कारण, कल और अचल ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है, जो आपसे भिन्न हो। समस्त विद्या और कलाएँ आपके शरीर हैं। आप त्रिगुणमयी माया से अतीत स्वयं ब्रह्म हैं। यह स्वर्णमय ब्रह्माण्ड आपके गर्भ में स्थित है। आप इसे अपने में से ही प्रकट करते हैं।

प्रभो! यह व्यक्त ब्रह्माण्ड आपका स्थूल शरीर है। इससे आप इन्द्रिय, प्राण और मन के विषयों का उपभोग करते हैं। किन्तु उस समय भी आप अपने परम ऐश्वर्यमय स्वरूप में ही स्थित रहते हैं। वस्तुतः आप पुराणपुरुष, स्थूल-सूक्ष्म से परे ब्रह्मस्वरूप ही हैं। आप अपने अनन्त और अव्यक्त स्वरूप से सारे जगत् में व्याप्त हैं। चेतन और अचेतन दोनों ही आपकी शक्तियाँ हैं। भगवन्! मैं आपको नमस्कार करता हूँ।

प्रभो! आप समस्त वरदाताओं में श्रेष्ठ हैं। यदि आप मुझे अभीष्ट वर देना चाहते हैं, तो ऐसा वर दीजिये कि आपके बनाये हुए किसी भी प्राणी से-चाहे वह मनुष्य हो या पशु, प्राणी हो या अप्राणी, देवता हो या दैत्य अथवा नागादि किसी से भी मेरी मृत्यु न हो। भीतर-बाहर, दिन में, रात्रि में, आपके बनाये प्राणियों के अतिरिक्त और भी किसी जीव से, अस्त्र-शस्त्र से, पृथ्वी या आकाश में-कहीं भी मेरी मृत्यु न हो। युद्ध में कोई मेरा सामना न कर सके। मैं समस्त प्राणियों का एकच्छत्र सम्राट् होऊँ। इन्द्रादि समस्त लोकपालों में जैसी आपकी महिमा है, वैसी ही मेरी भी हो। तपस्वियों और योगियों को जो अक्षय ऐश्वर्य प्राप्त है, वही मुझे भी दीजिये।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे हिरण्यकशिपुवरयाचनं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३॥

शेष जारी-आगे पढ़े............... सप्तम स्कन्ध: चतुर्थोऽध्यायः

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