श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय ४

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय ४                                    

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय ४ "हिरण्यकशिपु के अत्याचार और प्रह्लाद के गुणों का वर्णन"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय ४

श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: चतुर्थ अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय ४                                                        

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ७ अध्यायः ४                                                           

श्रीमद्भागवत महापुराण सातवाँ स्कन्ध चौंथा अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय ४ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीमद्भागवतम् सप्तमस्कन्धः

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ सप्तमस्कन्धः ॥

॥ चतुर्थोऽध्यायः ४ ॥

नारद उवाच

एवं वृतः शतधृतिर्हिरण्यकशिपोरथ ।

प्रादात्तत्तपसा प्रीतो वरांस्तस्य सुदुर्लभान् ॥ १॥                          

नारद जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! जब हिरण्यकशिपु ने ब्रह्मा जी से इस प्रकार के अत्यन्त दुर्लभ वर माँगे, तब उन्होंने उसकी तपस्या से प्रसन्न होने के कारण उसे वे वर दे दिये।

ब्रह्मोवाच

तातेमे दुर्लभाः पुंसां यान् वृणीषे वरान् मम ।

तथापि वितराम्यङ्ग वरान् यदपि दुर्लभान् ॥ २॥

ब्रह्मा जी ने कहा ;- बेटा! तुम जो वर मुझसे माँग रहे हो, वे जीवों के लिये बहुत ही दुर्लभ हैं; परन्तु दुर्लभ होने पर भी मैं तम्हें वे सब वर दिये देता हूँ।

ततो जगाम भगवानमोघानुग्रहो विभुः ।

पूजितोऽसुरवर्येण स्तूयमानः प्रजेश्वरैः ॥ ३॥

एवं लब्धवरो दैत्यो बिभ्रद्धेममयं वपुः ।

भगवत्यकरोद्द्वेषं भ्रातुर्वधमनुस्मरन् ॥ ४॥

स विजित्य दिशः सर्वा लोकांश्च त्रीन् महासुरः ।

देवासुरमनुष्येन्द्रान् गन्धर्वगरुडोरगान् ॥ ५॥

सिद्धचारणविद्याध्रानृषीन् पितृपतीन् मनून् ।

यक्षरक्षःपिशाचेशान् प्रेतभूतपतीनथ ॥ ६॥

सर्वसत्त्वपतीन् जित्वा वशमानीय विश्वजित् ।

जहार लोकपालानां स्थानानि सह तेजसा ॥ ७॥

देवोद्यानश्रिया जुष्टमध्यास्ते स्म त्रिविष्टपम् ।

महेन्द्रभवनं साक्षान्निर्मितं विश्वकर्मणा ।

त्रैलोक्यलक्ष्म्यायतनमध्युवासाखिलर्द्धिमत् ॥ ८॥

यत्र विद्रुमसोपाना महामारकता भुवः ।

यत्र स्फाटिककुड्यानि वैदूर्यस्तम्भपङ्क्तयः ॥ ९॥

यत्र चित्रवितानानि पद्मरागासनानि च ।

पयःफेननिभाः शय्या मुक्तादामपरिच्छदाः ॥ १०॥

कूजद्भिर्नूपुरैर्देव्यः शब्दयन्त्य इतस्ततः ।

रत्नस्थलीषु पश्यन्ति सुदतीः सुन्दरं मुखम् ॥ ११॥

तस्मिन् महेन्द्रभवने महाबलो

महामना निर्जितलोक एकराट् ।

रेमेऽभिवन्द्याङ्घ्रियुगः सुरादिभिः

प्रतापितैरूर्जितचण्डशासनः ॥ १२॥

तमङ्ग मत्तं मधुनोरुगन्धिना

विवृत्तताम्राक्षमशेषधिष्ण्यपाः ।

उपासतोपायनपाणिभिर्विना

त्रिभिस्तपोयोगबलौजसां पदम् ॥ १३॥

जगुर्महेन्द्रासनमोजसा स्थितं

विश्वावसुस्तुम्बुरुरस्मदादयः ।

गन्धर्वसिद्धा ऋषयोऽस्तुवन्

मुहुर्विद्याधराश्चाप्सरसश्च पाण्डव ॥ १४॥

स एव वर्णाश्रमिभिः क्रतुभिर्भूरिदक्षिणैः ।

इज्यमानो हविर्भागानग्रहीत्स्वेन तेजसा ॥ १५॥

अकृष्टपच्या तस्यासीत्सप्तद्वीपवती मही ।

तथा कामदुघा द्यौस्तु नानाश्चर्यपदं नभः ॥ १६॥

नारद जी कहते हैं ;- ब्रह्मा जी के वरदान कभी झूठे नहीं होते। वे समर्थ एवं भगवदरूप ही हैं। वरदान मिल जाने के बाद हिरण्यकशिपु ने उनकी पूजा की। तत्पश्चात् प्रजापतियों से अपनी स्तुति सुनते हुए वे अपने लोक को चले गये। ब्रह्मा जी से वर प्राप्त करने पर हिरण्यकशिपु का शरीर सुवर्ण के समान कान्तिमान् एवं हृष्ट-पुष्ट हो गया। वह अपने भाई की मृत्यु का स्मरण करके भगवान् से द्वेष करने लगा। उस महादैत्य ने समस्त दिशाओं, तीनों लोकों तथा देवता, असुर, नरपति, गन्धर्व, गरुड़, सर्प, सिद्ध, चारण, विद्याधर, ऋषि, पितरों के अधिपति, मनु, यक्ष, राक्षस, पिशाचराज, प्रेत, भूतपति एवं समस्त प्राणियों के राजाओं को जीतकर अपने वश में कर लिया। यहाँ तक कि उस विश्व-विजयी दैत्य ने लोकपालों की शक्ति और स्थान भी छीन लिये।

अब वह नन्दन वन आदि दिव्य उद्यानों के सौन्दर्य से युक्त स्वर्ग में ही रहने लगा था। स्वयं विश्वकर्मा का बनाया हुआ इन्द्र का भवन ही उसका निवासस्थान था। उस भवन में तीनों लोकों का सौन्दर्य मूर्तिमान् होकर निवास करता था। वह सब प्रकार की सम्पत्तियों से सम्पन्न था। उस महल में मूँगे की सीढ़ियाँ, पन्ने की गचें, स्फटिकमणि की दीवारें, वैदूर्यमणि के खंभे और माणिक की कुर्सियाँ थीं। रंग-बिरंगे चँदोवे तथा दूध के फेन के समान शय्याएँ, जिन पर मोतियों की झालरें लगी हुई थीं, शोभायमान हो रही थीं। सर्वांगसुन्दरी अप्सराएँ अपने नूपुरों से रुन-झुन ध्वनि करती हुई रत्नमय भूमि पर इधर-उधर टहला करती थीं और कहीं-कहीं उसमें अपना सुन्दर मुख देखने लगती थीं। उस महेन्द्र के महल में महाबली और महामनस्वी हिरण्यकशिपु सब लोकों को जीतकर, सबका एकच्छत्र सम्राट् बनकर बड़ी स्वतन्त्रता से विहार करने लगा। उसका शासन इतना कठोर था कि उससे भयभीत होकर देव-दानव उसके चरणों की वन्दना करते रहते थे।

युधिष्ठिर! वह उत्कट गन्ध वाली मदिरा पीकर मतवाला रहा करता था। उसकी आँखें लाल-लाल और चढ़ी हुई रहतीं। उस समय तपस्या, योग, शारीरिक और मानसिक बल का वह भंडार था। ब्रह्मा, विष्णु और महादेव के सिवा और सभी देवता अपने हाथों में भेंट ले-लेकर उसकी सेवा में लगे रहते। जब वह अपने पुरुषार्थ से इन्द्रासन पर बैठ गया, तब युधिष्ठिर! विश्वावसु, तुम्बुरु तथा हम सभी लोग उसके सामने गान करते थे। गन्धर्व, सिद्ध, ऋषिगण, विद्याधर और अप्सराएँ बार-बार उसकी स्तुति करती थीं।

युधिष्ठिर! वह इतना तेजस्वी था कि वर्णाश्रम धर्म का पालन करने वाले पुरुष जो बड़ी-बड़ी दक्षिणा वाले यज्ञ करते, उनके यज्ञों की आहुति वह स्वयं छीन लेता। पृथ्वी के सातों द्वीपों में उसका अखण्ड राज्य था। सभी जगह बिना ही जोते-बोये धरती से अन्न पैदा होता था। वह जो कुछ चाहता, अन्तरिक्ष से उसे मिल जाता तथा आकाश उसे भाँति-भाँति की आश्चर्यजनक वस्तुएँ दिखा-दिखाकर उसका मनोरंजन करता था।

रत्नाकराश्च रत्नौघांस्तत्पत्न्यश्चोहुरूर्मिभिः ।

क्षारसीधुघृतक्षौद्रदधिक्षीरामृतोदकाः ॥ १७॥

शैला द्रोणीभिराक्रीडं सर्वर्तुषु गुणान् द्रुमाः ।

दधार लोकपालानामेक एव पृथग्गुणान् ॥ १८॥

स इत्थं निर्जितककुबेकराड् विषयान् प्रियान् ।

यथोपजोषं भुञ्जानो नातृप्यदजितेन्द्रियः ॥ १९॥

एवमैश्वर्यमत्तस्य दृप्तस्योच्छास्त्रवर्तिनः ।

कालो महान् व्यतीयाय ब्रह्मशापमुपेयुषः ॥ २०॥

तस्योग्रदण्डसंविग्नाः सर्वे लोकाः सपालकाः ।

अन्यत्रालब्धशरणाः शरणं ययुरच्युतम् ॥ २१॥

तस्यै नमोऽस्तु काष्ठायै यत्रात्मा हरिरीश्वरः ।

यद्गत्वा न निवर्तन्ते शान्ताः सन्न्यासिनोऽमलाः ॥ २२॥

इति ते संयतात्मानः समाहितधियोऽमलाः ।

उपतस्थुर्हृषीकेशं विनिद्रा वायुभोजनाः ॥ २३॥

तेषामाविरभूद्वाणी अरूपा मेघनिःस्वना ।

सन्नादयन्ती ककुभः साधूनामभयङ्करी ॥ २४॥

मा भैष्ट विबुधश्रेष्ठाः सर्वेषां भद्रमस्तु वः ।

मद्दर्शनं हि भूतानां सर्वश्रेयोपपत्तये ॥ २५॥

ज्ञातमेतस्य दौरात्म्यं दैतेयापसदस्य च ।

तस्य शान्तिं करिष्यामि कालं तावत्प्रतीक्षत ॥ २६॥

यदा देवेषु वेदेषु गोषु विप्रेषु साधुषु ।

धर्मे मयि च विद्वेषः स वा आशु विनश्यति ॥ २७॥

निर्वैराय प्रशान्ताय स्वसुताय महात्मने ।

प्रह्लादाय यदा द्रुह्येद्धनिष्येऽपि वरोर्जितम् ॥ २८॥

इसी प्रकार खारे पानी, सुरा, घृत, इक्षुरस, दधि, दुग्ध और मीठे पानी के समुद्र भी अपनी पत्नी नदियों के साथ तरंगों के द्वारा उसके पास रत्नराशि पहुँचाया करते थे। पर्वत अपनी घाटियों के रूप में उसके लिये खेलने का स्थान जुटाते और वृक्ष सब ऋतुओं में फूलते-फलते। वह अकेला ही सब लोकपालों के विभिन्न गुणों को धारण करता। इस प्रकार दिग्विजयी और एकच्छत्र सम्राट् होकर वह अपने को प्रिय लगने वाले विषयों का स्वच्छन्द उपभोग करने लगा। परन्तु इतने विषयों से भी उसकी तृप्ति न हो सकी। क्योंकि अन्ततः वह इन्द्रियों का दास ही तो था।

युधिष्ठिर! इस रूप में भी वह भगवान् का वही पार्षद है, जिसे सनकादिकों ने शाप दिया था। वह ऐश्वर्य के मद से मतवाला हो रहा था तथा घमंड में चूर होकर शास्त्रों की मर्यादा का उल्लंघन कर रहा था। देखते-ही-देखते उसके जीवन का बहुत-सा समय बीत गया। उसके कठोर शासन से सब लोक और लोकपाल घबरा गये। जब उन्हें और कहीं किसी का आश्रय न मिला, तब उन्होंने भगवान् की शरण ली। (उन्होंने मन-ही-मन कहा-) जहाँ सर्वात्मा जगदीश्वर श्रीहरि निवास करते हैं और जिसे प्राप्त करके शान्त एवं निर्मल संन्यासी महात्मा फिर लौटते नहीं, भगवान् के उस परमधाम को हम नमस्कार करते हैं। इस भाव से अपनी इन्द्रियों का संयम और मन को समाहित करके उन लोगों ने खाना-पीना और सोना छोड़ दिया तथा निर्मल हृदय से भगवान् की आराधना की।

एक दिन उन्हें मेघ के समान गम्भीर आकाशवाणी सुनायी पड़ी। उसकी ध्वनि से दिशाएँ गूँज उठीं। साधुओं को अभय देने वाली वह वाणी यों थी-श्रेष्ठ देवताओं! डरो मत। तुम सब लोगों का कल्याण हो। मेरे दर्शन से प्राणियों को परम कल्याण की प्राप्ति हो जाती है। इस नीच दैत्य की दुष्टता का मुझे पहले से ही पता है। मैं इसको मिटा दूँगा। अभी कुछ दिनों तक समय की प्रतीक्षा करो। कोई भी प्राणी जब देवता, वेद, गाय, ब्राह्मण, साधु, धर्म और मुझसे द्वेष करने लगता है, तब शीघ्र ही उसका विनाश हो जाता है। जब यह अपने वैरहीन, शान्त और महात्मा पुत्र प्रह्लाद से द्रोह करेगा-उसका अनिष्ट करना चाहेगा, तब वर के कारण शक्तिसम्पन्न होने पर भी इसे मैं अवश्य मार डालूँगा।

नारद उवाच

इत्युक्ता लोकगुरुणा तं प्रणम्य दिवौकसः ।

न्यवर्तन्त गतोद्वेगा मेनिरे चासुरं हतम् ॥ २९॥

तस्य दैत्यपतेः पुत्राश्चत्वारः परमाद्भुताः ।

प्रह्लादोऽभून्महांस्तेषां गुणैर्महदुपासकः ॥ ३०॥

ब्रह्मण्यः शीलसम्पन्नः सत्यसन्धो जितेन्द्रियः ।

आत्मवत्सर्वभूतानामेकः प्रियसुहृत्तमः ॥ ३१॥

दासवत्सन्नतार्याङ्घ्रिः पितृवद्दीनवत्सलः ।

भ्रातृवत्सदृशे स्निग्धो गुरुष्वीश्वरभावनः ।

विद्यार्थरूपजन्माढ्यो मानस्तम्भविवर्जितः ॥ ३२॥

नारद जी कहते हैं ;- सबके हृदय में ज्ञान का संचार करने वाले भगवान् ने जब देवताओं को यह आदेश दिया, तब वे उन्हें प्रणाम करके लौट आये। उनका सारा उद्वेग मिट गया और उन्हें ऐसा मालूम होने लगा कि हिरण्यकशिपु मर गया।

युधिष्ठिर! दैत्यराज हिरण्यकशिपु के बड़े ही विलक्षण चार पुत्र थे। उनमें प्रह्लाद यों तो सबसे छोटे थे, परन्तु गुणों में सबसे बड़े थे। वे बड़े संत सेवी थे। ब्राह्मण भक्त, सौम्य स्वभाव, सत्य प्रतिज्ञ एवं जितेन्द्रिय थे तथा समस्त प्राणियों के साथ अपने ही समान समता का बर्ताव करते और सबके एकमात्र प्रिय और सच्चे हितैषी थे। बड़े लोगों के चरणों में सेवक की तरह झुककर रहते थे। ग़रीबों पर पिता के समान स्नेह रखते थे। बराबरी वालों से भाई के समान प्रेम करते और गुरुजनों में भगवद्भाव रखते थे। विद्या, धन, सौन्दर्य और कुलीनता से सम्पन्न होने पर भी घमंड और हेकड़ी उन्हें छू तक नहीं गयी थी।

नोद्विग्नचित्तो व्यसनेषु निःस्पृहः

श्रुतेषु दृष्टेषु गुणेष्ववस्तुदृक् ।

दान्तेन्द्रियप्राणशरीरधीः सदा

प्रशान्तकामो रहितासुरोऽसुरः ॥ ३३॥

यस्मिन् महद्गुणा राजन् गृह्यन्ते कविभिर्मुहुः ।

न तेऽधुनापिधीयन्ते यथा भगवतीश्वरे ॥ ३४॥

यं साधुगाथासदसि रिपवोऽपि सुरा नृप ।

प्रतिमानं प्रकुर्वन्ति किमुतान्ये भवादृशाः ॥ ३५॥

गुणैरलमसङ्ख्येयैर्माहात्म्यं तस्य सूच्यते ।

वासुदेवे भगवति यस्य नैसर्गिकी रतिः ॥ ३६॥

न्यस्तक्रीडनको बालो जडवत्तन्मनस्तया ।

कृष्णग्रहगृहीतात्मा न वेद जगदीदृशम् ॥ ३७॥

आसीनः पर्यटन्नश्नन् शयानः प्रपिबन् ब्रुवन् ।

नानुसन्धत्त एतानि गोविन्दपरिरम्भितः ॥ ३८॥

क्वचिद्रुदति वैकुण्ठचिन्ताशबलचेतनः ।

क्वचिद्धसति तच्चिन्ताह्लाद उद्गायति क्वचित् ॥ ३९॥

नदति क्वचिदुत्कण्ठो विलज्जो नृत्यति क्वचित् ।

क्वचित्तद्भावनायुक्तस्तन्मयोऽनुचकार ह ॥ ४०॥

क्वचिदुत्पुलकस्तूष्णीमास्ते संस्पर्शनिर्वृतः ।

अस्पन्दप्रणयानन्दसलिलामीलितेक्षणः ॥ ४१॥

स उत्तमश्लोकपदारविन्दयो-

र्निषेवयाकिञ्चनसङ्गलब्धया ।

तन्वन् परां निर्वृतिमात्मनो मुहु-

र्दुःसङ्गदीनान्यमनःशमं व्यधात् ॥ ४२॥

तस्मिन् महाभागवते महाभागे महात्मनि ।

हिरण्यकशिपू राजन्नकरोदघमात्मजे ॥ ४३॥

बड़े-बड़े दुःखों में भी वे तनिक भी घबराते न थे। लोक-परलोक के विषयों को उन्होंने देखा-सुना तो बहुत था, परन्तु वे उन्हें निःसार और असत्य समझते थे। इसलिये उनके मन में किसी भी वस्तु की लालसा न थी। इन्द्रिय, प्राण, शरीर और मन उनके वश में थे। उनके चित्त में कभी किसी पाकर की कामना नहीं उठती थी। जन्म से असुर होने पर भी उनमें आसुरी सम्पत्ति का लेश भी नहीं था। जैसे भगवन के गुण अनन्त हैं, वैसे ही प्रह्लाद के श्रेष्ठ गुणों की भी कोई सीमा नहीं है। महात्मा लोग सदा से उनका वर्णन करते और उन्हें अपनाते आये हैं। तथापि वे आज भी ज्यों-के-त्यों बने हुए हैं।

युधिष्ठिर! यों तो देवता उनके शत्रु हैं; परन्तु फिर भी भक्तों का चरित्र सुनने के लिये जब उन लोगों की सभा होती है, तब वे दूसरे भक्तों को प्रह्लाद के समान कहकर उनका सम्मान करते हैं। फिर आप-जैसे अजातशत्रु भगवद्भक्त उनका आदर करेंगे, इसमें तो सन्देह ही क्या है। उनकी महिमा का वर्णन करने के लिये अगणित गुणों के कहने-सुनने की आवश्यकता नहीं। केवल ही एक गुण भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों में स्वाभाविक, जन्मजात प्रेम उनकी महिमा को प्रकट करने के लिये पर्याप्त है।

युधिष्ठिर! प्रह्लाद बचपन में ही खेल-कूद छोड़कर भगवान् के ध्यान में जडवत् तन्मय हो जाया करते। भगवान् श्रीकृष्ण के अनुग्रहरूप ग्रह ने उनके हृदय को इस प्रकार खींच लिया था कि उन्हें जगत् की कुछ सुध-बुध ही न रहती। उन्हें ऐसा जान पड़ता कि भगवान् मुझे अपनी गोद में लेकर आलिंगन कर रहे हैं। इसलिये उन्हें सोते-बैठते, खाते-पीते, चलते-फिरते और बातचीत करते समय भी इन बातों का ध्यान बिलकुल न रहता। कभी-कभी भगवान् मुझे छोड़कर चले गये, इस भावना में उनका हृदय इतना डूब जाता कि वे जोर-जोर से रोने लगते। कभी मन-ही-मन उन्हें अपने सामने पाकर आनन्दोद्रेक से ठठाकर हँसने लगते। कभी उनके ध्यान के मधुर आनन्द का अनुभव करके जोर से गाने लगते। वे कभी उत्सुक हो बेसुरा चिल्ला पड़ते। कभी-कभी लोक-लज्जा का त्याग करके प्रेम में छककर नाचने भी लगते थे। कभी-कभी उनकी लीला के चिन्तन में इतने तल्लीन हो जाते कि उन्हें अपनी याद ही न रहती, उन्हीं का अनुकरण करने लगते। कभी भीतर-ही-भीतर भगवान् का कोमल संस्पर्श अनुभव करके आनन्द में मग्न हो जाते और चुपचाप शान्त होकर बैठ रहते। उस समय उनका रोम-रोम पुलकित हो उठता। अधखुले नेत्र अविचल प्रेम और आनन्द के आँसुओं से भरे रहते। भगवान् श्रीकृष्ण के चरणकमलों की यह भक्ति अकिंचन भगवत्प्रेमी महात्माओं के संग से ही प्राप्त होती है। इसके द्वारा वे स्वयं तो परमानन्द में मग्न रहते ही थे; जिन बेचारों का मन कुसंग के कारण अत्यन्त दीन-हीन हो रहा था, उन्हें भी बार-बार शान्ति प्रदान करते थे। युधिष्ठिर! प्रह्लाद भगवान् के परमप्रेमी भक्त, परम भाग्यवान् और ऊँची कोटि के महात्मा थे। हिरण्यकशिपु ऐसे साधुपुत्र को भी अपराधी बतलाकर उनका अनिष्ट करने की चेष्टा करने लगा।

युधिष्ठिर उवाच

देवर्ष एतदिच्छामो वेदितुं तव सुव्रत ।

यदात्मजाय शुद्धाय पितादात्साधवे ह्यघम् ॥ ४४॥

पुत्रान् विप्रतिकूलान् स्वान् पितरः पुत्रवत्सलाः ।

उपालभन्ते शिक्षार्थं नैवाघमपरो यथा ॥ ४५॥

किमुतानुवशान् साधूंस्तादृशान् गुरुदेवतान् ।

एतत्कौतूहलं ब्रह्मन्नस्माकं विधम प्रभो ।

पितुः पुत्राय यद्द्वेषो मरणाय प्रयोजितः ॥ ४६॥

युधिष्ठिर ने पूछा ;- नारद जी! आपका व्रत अखण्ड है। अब हम आपसे यह जानना चाहते हैं कि हिरण्यकशिपु ने पिता होकर भी ऐसे शुद्धहृदय महात्मा पुत्र से द्रोह क्यों किया। पिता तो स्वभाव से ही अपने पुत्रों से प्रेम करते हैं। यदि पुत्र कोई उलटा काम करता है, तो वे उसे शिक्षा देने के लिये ही डाँटते हैं, शत्रु की तरह वैर-विरोध तो नहीं करते। फिर प्रह्लाद जी-जैसे अनुकूल, शुद्ध हृदय एवं गुरुजनों में भगवद्भाव करने वाले पुत्रों से भला, कोई द्वेष कर ही कैसे सकता है। नारद जी! आप सब कुछ जानते हैं। हमें यह जानकर बड़ा कौतूहल हो रहा है कि पिता ने द्वेष के कारण पुत्र को मार डालना चाहा। आप कृपा करके मेरा यह कौतूहल शान्त कीजिये।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे प्रह्लादचरिते चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४॥

शेष जारी-आगे पढ़े............... सप्तम स्कन्ध: पञ्चमोऽध्यायः

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