श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय ५

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय ५                                    

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय ५ "हिरण्यकशिपु के द्वारा प्रह्लाद के वध का प्रयत्न"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय ५

श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: पंचम अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय ५                                                        

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ७ अध्यायः ५                                                           

श्रीमद्भागवत महापुराण सातवाँ स्कन्ध पांचवां अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय ५ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीमद्भागवतम् सप्तमस्कन्धः

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ सप्तमस्कन्धः ॥

॥ पञ्चमोऽध्यायः ५ ॥

नारद उवाच

पौरोहित्याय भगवान् वृतः काव्यः किलासुरैः ।

षण्डामर्कौ सुतौ तस्य दैत्यराजगृहान्तिके ॥ १॥

तौ राज्ञा प्रापितं बालं प्रह्लादं नयकोविदम् ।

पाठयामासतुः पाठ्यानन्यांश्चासुरबालकान् ॥ २॥

यत्तत्र गुरुणा प्रोक्तं शुश्रुवेऽनुपपाठ च ।

न साधु मनसा मेने स्वपरासद्ग्रहाश्रयम् ॥ ३॥

एकदासुरराट् पुत्रमङ्कमारोप्य पाण्डव ।

पप्रच्छ कथ्यतां वत्स मन्यते साधु यद्भवान् ॥ ४॥

नारद जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! दैत्यों ने भगवान् श्रीशुक्राचार्य जी को अपना पुरोहित बनाया था। उनके दो पुत्र थे- शण्ड और अमर्क। वे दोनों राजमहल के पास ही रहकर हिरण्यकशिपु के द्वारा भेजे हुए नीति निपुण बालक प्रह्लाद को और दूसरे पढ़ाने योग्य दैत्य-बालकों को राजनीति, अर्थनीति आदि पढ़ाया करते थे। प्रह्लाद गुरु जी का पढ़ाया हुआ पाठ सुन लेते थे और उसे ज्यों-का-त्यों उन्हें सुना भी दिया करते थे। किन्तु वे उसे मन से अच्छा नहीं समझते थे। क्योंकि उस पाठ का मूल आधार था अपने और पराये का झूठा आग्रह।

युधिष्ठिर! एक दिन हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्र प्रह्लाद को बड़े प्रेम से गोद में लेकर पूछा- बेटा! बताओ तो सही, तुम्हें कौन-सी बात अच्छी लगती है?'

प्रह्लाद उवाच

तत्साधु मन्येऽसुरवर्य देहिनां

सदा समुद्विग्नधियामसद्ग्रहात् ।

हित्वात्मपातं गृहमन्धकूपं

वनं गतो यद्धरिमाश्रयेत ॥ ५॥

प्रह्लाद जी ने कहा ;- "पिताजी! संसार के प्राणी मैंऔर मेरेके झूठे आग्रह में पड़कर सदा ही अत्यन्त उद्विग्न रहते हैं। ऐसे प्राणियों के लिये मैं यही ठीक समझता हूँ कि वे अपने अधःपतन के मूल कारण, घास से ढके हुए अँधेरे कुएँ के समान इस घर को छोड़कर वन में चले जायँ और भगवान् श्रीहरि की शरण ग्रहण करें।"

नारद उवाच

श्रुत्वा पुत्रगिरो दैत्यः परपक्षसमाहिताः ।

जहास बुद्धिर्बालानां भिद्यते परबुद्धिभिः ॥ ६॥

सम्यग्विधार्यतां बालो गुरुगेहे द्विजातिभिः ।

विष्णुपक्षैः प्रतिच्छन्नैर्न भिद्येतास्य धीर्यथा ॥ ७॥

गृहमानीतमाहूय प्रह्लादं दैत्ययाजकाः ।

प्रशस्य श्लक्ष्णया वाचा समपृच्छन्त सामभिः ॥ ८॥

वत्स प्रह्लाद भद्रं ते सत्यं कथय मा मृषा ।

बालानति कुतस्तुभ्यमेष बुद्धिविपर्ययः ॥ ९॥

बुद्धिभेदः परकृत उताहो ते स्वतोऽभवत् ।

भण्यतां श्रोतुकामानां गुरूणां कुलनन्दन ॥ १०॥

नारद जी कहते हैं ;- प्रह्लाद जी के मुँह से शत्रुपक्ष की प्रशंसा से भरी बात सुनकर हिरण्यकशिपु ठठाकर हँस पड़ा। उसने कहा- दूसरों के बहकाने से बच्चों की बुद्धि यों ही बिगड़ जाया करती है। जान पड़ता है गुरु जी एक घर पर विष्णु के पक्षपाती कुछ ब्राह्मण वेष बदलकर रहते हैं। बालक की भलीभाँति देख-रेख की जाये, जिससे अब इसकी बुद्धि बहकने ने पाये।'

जब दैत्यों ने प्रह्लाद को गुरु जी के घर पहुँचा दिया, तब पुरोहितों ने उनको बहुत पुचकारकर और फुसलाकर बड़ी वाणी से पूछा- 'बेटा प्रह्लाद! तुम्हारा कल्याण हो। ठीक-ठीक बतलाना। देखो, झूठ न बोलना। यह तुम्हारी बुद्धि उलटी कैसे हो गयी? और किसी बालक की बुद्धि तो ऐसी नहीं हुई। कुलनन्दन प्रह्लाद! बताओ तो बेटा! हम तुम्हारे गुरुजन यह जानना चाहते हैं कि तुम्हारी बुद्धि स्वयं ऐसी हो गयी या किसी ने सचमुच तुमको बहका दिया है?'

प्रह्लाद उवाच

स्व: परश्चेत्यसद्ग्राहः पुंसां यन्मायया कृतः ।

विमोहितधियां दृष्टस्तस्मै भगवते नमः ॥ ११॥

स यदानुव्रतः पुंसां पशुबुद्धिर्विभिद्यते ।

अन्य एष तथान्योऽहमिति भेदगतासती ॥ १२॥

स एष आत्मा स्वपरेत्यबुद्धिभि-

र्दुरत्ययानुक्रमणो निरूप्यते ।

मुह्यन्ति यद्वर्त्मनि वेदवादिनो

ब्रह्मादयो ह्येष भिनत्ति मे मतिम् ॥ १३॥

यथा भ्राम्यत्ययो ब्रह्मन् स्वयमाकर्षसन्निधौ ।

तथा मे भिद्यते चेतश्चक्रपाणेर्यदृच्छया ॥ १४॥

प्रह्लाद ने कहा ;- "जिन मनुष्यों की बुद्धि मोह से ग्रस्त हो रही है, उन्हीं को भगवान् की माया से यह झूठा दुराग्रह होता देखा गया है कि यह अपनाहै और यह पराया। उन मायापति भगवान् को मैं नमस्कार करता हूँ। वे भगवान् ही जब कृपा करते हैं, तब मनुष्यों की पाशविक बुद्धि नष्ट होती है। इस पशु बुद्धि के कारण ही तो यह मैं हूँ और यह मुझसे भिन्न हैइस प्रकार का झूठा भेदभाव पैदा होता है। वही परमात्मा यह आत्मा है। अज्ञानी लोग अपने और पराये का भेद करके उसी का वर्णन किया करते हैं। उनका न जानना भी ठीक ही है; क्योंकि उसके तत्त्व को जानना बहुत कठिन है और ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े वेदज्ञ भी उसके विषय में मोहित हो जाते हैं। वही परमात्मा आप लोगों के शब्दों में मेरी बुद्धि बिगाड़रहा है। गुरुजी! जैसे चुम्बक के पास लोहा स्वयं खिंच आता है, वैसे ही चक्रपाणि भगवान् की स्वच्छन्द इच्छाशक्ति से मेरा चित्त भी संसार से अलग होकर उनकी ओर बरबस खिंच जाता है।

नारद उवाच

एतावद्ब्राह्मणायोक्त्वा विरराम महामतिः ।

तं निर्भर्त्स्याथ कुपितः सुदीनो राजसेवकः ॥ १५॥

आनीयतामरे वेत्रमस्माकमयशस्करः ।

कुलाङ्गारस्य दुर्बुद्धेश्चतुर्थोऽस्योदितो दमः ॥ १६॥

दैतेयचन्दनवने जातोऽयं कण्टकद्रुमः ।

यन्मूलोन्मूलपरशोर्विष्णोर्नालायितोऽर्भकः ॥ १७॥

इति तं विविधोपायैर्भीषयंस्तर्जनादिभिः ।

प्रह्लादं ग्राहयामास त्रिवर्गस्योपपादनम् ॥ १८॥

तत एनं गुरुर्ज्ञात्वा ज्ञातज्ञेयचतुष्टयम् ।

दैत्येन्द्रं दर्शयामास मातृमृष्टमलङ्कृतम् ॥ १९॥

पादयोः पतितं बालं प्रतिनन्द्याशिषासुरः ।

परिष्वज्य चिरं दोर्भ्यां परमामाप निर्वृतिम् ॥ २०॥

आरोप्याङ्कमवघ्राय मूर्धन्यश्रुकलाम्बुभिः ।

आसिञ्चन् विकसद्वक्त्रमिदमाह युधिष्ठिर ॥ २१॥

नारद जी कहते हैं ;- परमज्ञानी प्रह्लाद अपन गुरु जी से इतना कहकर चुप हो गये। पुरोहित बेचारे राजा के सेवक एवं पराधीन थे। वे डर गये। उन्होंने क्रोध से प्रह्लाद को झिड़क दिया और कहा- अरे, कोई मेरा बेंत तो लाओ। यह हमारी कीर्ति में कलंक लगा रहा है। इस दुर्बुद्धि कुलांगार को ठीक करने के लिये चौथा उपाय दण्ड ही उपयुक्त होगा। दैत्यवंश के चन्दनवन में यह काँटेदार बबूल कहाँ से पैदा हुआ? जो विष्णु इस वन की जड़ काटने में कुल्हाड़े का काम करते हैं, यह नादान बालक उन्हीं की बेंट बन रहा है; सहायक हो रहा है। इस प्रकार गुरु जी ने तरह-तरह से डाँट-डपटकर प्रह्लाद को धमकाया और अर्थ, धर्म एवं काम सम्बन्धी शिक्षा दी।

कुछ समय के बाद जब गुरु जी ने देखा कि प्रह्लाद ने साम, दान, भेद और दण्ड के सम्बन्ध की सारी बातें जान ली हैं, तब वे उन्हें उनकी मा के पास ले गये। माता ने बड़े लाड़-प्यार से उन्हें नहला-धुलाकर अच्छी तरह गहने कपड़ों से सजा दिया। इसके बाद वे उन्हें हिरण्यकशिपु के पास ले गये। प्रह्लाद अपने पिता में चरणों में लोट गये। हिरण्यकशिपु ने उन्हें आशीर्वाद दिया और दोनों हाथों से उठाकर बहुत देर तक गले से लगाये रखा। उस समय दैत्यराज का हृदय आनन्द से भर रहा था।

युधिष्ठिर! हिरण्यकशिपु ने प्रसन्नमुख प्रह्लाद को अपनी गोद में बैठाकर उनका सिर सूँघा। उनके नेत्रों से प्रेम के आँसूं गिर-गिरकर प्रह्लाद के शरीर को भिगोने लगे। उसने अपने पुत्र से पूछा।

हिरण्यकशिपुरुवाच

प्रह्लादानूच्यतां तात स्वधीतं किञ्चिदुत्तमम् ।

कालेनैतावतायुष्मन् यदशिक्षद्गुरोर्भवान् ॥ २२॥

हिरण्यकशिपु ने कहा ;- चिरंजीव बेटा प्रह्लाद! इतने दिनों में तुमने गुरु जी से जो शिक्षा प्राप्त की है, उसमें से कोई अच्छी-सी बात हमें सुनाओ।

प्रह्लाद उवाच

श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् ।

अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥ २३॥

इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्चेन्नवलक्षणा ।

क्रियेत भगवत्यद्धा तन्मन्येऽधीतमुत्तमम् ॥ २४॥

निशम्यैतत्सुतवचो हिरण्यकशिपुस्तदा ।

गुरुपुत्रमुवाचेदं रुषा प्रस्फुरिताधरः ॥ २५॥

ब्रह्मबन्धो किमेतत्ते विपक्षं श्रयतासता ।

असारं ग्राहितो बालो मामनादृत्य दुर्मते ॥ २६॥

सन्ति ह्यसाधवो लोके दुर्मैत्राश्छद्मवेषिणः ।

तेषामुदेत्यघं काले रोगः पातकिनामिव ॥ २७॥

प्रह्लाद जी ने कहा ;- "पिताजी! विष्णु भगवान् की भक्ति के नौ भेद हैं- भगवान् के गुण-लीला-नाम आदि का श्रवण, उन्हीं का कीर्तन, उनके रूप-नाम आदि का स्मरण, उनके चरणों की सेवा, पूजा-अर्चा, वन्दन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन। यदि भगवान् के प्रति समर्पण के भाव से यह नौ प्रकार की भक्ति की जाये, तो मैं उसी को उत्तम अध्ययन समझता हूँ।"

प्रह्लाद की यह बात सुनते ही क्रोध के मारे हिरण्यकशिपु के ओठ फड़कने लगे। उसने गुरुपुत्र से कहा- 'रे नीच ब्राह्मण! यह तेरी कैसी करतूत है; दुर्बुद्धि! तूने मेरी कुछ भी परवाह न करके इस बच्चे को कैसी निस्सार शिक्षा दे दी? अवश्य ही तू हमारे शत्रुओं के आश्रित है। संसार में ऐसे दुष्टों की कमी नहीं है, जो मित्र का बाना धारण कर छिपे-छिपे शत्रु का काम करते हैं। परन्तु उनकी कलई ठीक वैसे ही खुल जाती है, जैसे छिपकर पाप करने वालों का पाप समय पर रोग के रूप में प्रकट होकर उनकी पोल खोल देता है।'

गुरुपुत्र उवाच

न मत्प्रणीतं न परप्रणीतं

सुतो वदत्येष तवेन्द्रशत्रो ।

नैसर्गिकीयं मतिरस्य राजन्

नियच्छ मन्युं कददाः स्म मा नः ॥ २८॥

गुरुपुत्र ने कहा ;- 'इन्द्रशत्रो! आपका पुत्र जो कुछ कह रहा है, वह मेरे या और किसी के बहकाने से नहीं कह रहा है। राजन्! यह तो इसकी जन्मजात स्वाभाविक बुद्धि है। आप क्रोध शान्त कीजिये। व्यर्थ में हमें दोष न लगाइये।'

नारद उवाच

गुरुणैवं प्रतिप्रोक्तो भूय आहासुरः सुतम् ।

न चेद्गुरुमुखीयं ते कुतोऽभद्रासती मतिः ॥ २९॥

नारद जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! जब गुरु जी ने ऐसा उत्तर दिया, तब हिरण्यकशिपु ने फिर प्रह्लाद से पूछा- क्यों रे! यदि तुझे ऐसी अहित करने वाली खोटी बुद्धि गुरुमुख से नहीं मिली तो बता, कहाँ से प्राप्त हुई?

प्रह्लाद उवाच

मतिर्न कृष्णे परतः स्वतो वा

मिथोऽभिपद्येत गृहव्रतानाम् ।

अदान्तगोभिर्विशतां तमिस्रं

पुनः पुनश्चर्वितचर्वणानाम् ॥ ३०॥

न ते विदुः स्वार्थगतिं हि विष्णुं

दुराशया ये बहिरर्थमानिनः ।

अन्धा यथान्धैरुपनीयमाना

वाचीशतन्त्यामुरुदाम्नि बद्धाः ॥ ३१॥

नैषां मतिस्तावदुरुक्रमाङ्घ्रिं

स्पृशत्यनर्थापगमो यदर्थः ।

महीयसां पादरजोऽभिषेकं

निष्किञ्चनानां न वृणीत यावत् ॥ ३२॥

इत्युक्त्वोपरतं पुत्रं हिरण्यकशिपू रुषा ।

अन्धीकृतात्मा स्वोत्सङ्गान्निरस्यत महीतले ॥ ३३॥

आहामर्षरुषाविष्टः कषायीभूतलोचनः ।

वध्यतामाश्वयं वध्यो निःसारयत नैरृताः ॥ ३४॥

अयं मे भ्रातृहा सोऽयं हित्वा स्वान् सुहृदोऽधमः ।

पितृव्यहन्तुर्यः पादौ विष्णोर्दासवदर्चति ॥ ३५॥

विष्णोर्वा साध्वसौ किं नु करिष्यत्यसमञ्जसः ।

सौहृदं दुस्त्यजं पित्रोरहाद्यः पञ्चहायनः ॥ ३६॥

परोऽप्यपत्यं हितकृद्यथौषधं

स्वदेहजोऽप्यामयवत्सुतोऽहितः ।

छिन्द्यात्तदङ्गं यदुतात्मनोऽहितं

शेषं सुखं जीवति यद्विवर्जनात् ॥ ३७॥

सर्वैरुपायैर्हन्तव्यः सम्भोजशयनासनैः ।

सुहृल्लिङ्गधरः शत्रुर्मुनेर्दुष्टमिवेन्द्रियम् ॥ ३८॥

नैरृतास्ते समादिष्टा भर्त्रा वै शूलपाणयः ।

तिग्मदंष्ट्रकरालास्यास्ताम्रश्मश्रुशिरोरुहाः ॥ ३९॥

नदन्तो भैरवान्नादान् छिन्धि भिन्धीति वादिनः ।

आसीनं चाहनन् शूलैः प्रह्लादं सर्वमर्मसु ॥ ४०॥

परे ब्रह्मण्यनिर्देश्ये भगवत्यखिलात्मनि ।

युक्तात्मन्यफला आसन्नपुण्यस्येव सत्क्रियाः ॥ ४१॥

प्रह्लाद ने कहा ;- पिताजी! संसार के लोग तो पिसे हुए को पीस रहे हैं, चबाये हुए को चबा रहे हैं। उनकी इन्द्रियाँ वश में न होने के कारण वे भोगे हुए विषयों को ही फिर-फिर भोगने के लिये संसाररूप नरक की ओर जा रहे हैं। ऐसे गृहासक्त पुरुषों की बुद्धि अपने-आप किसी के सिखाने से अथवा अपने ही जैसे लोगों के संग से भगवान् श्रीकृष्ण में नहीं लगती। जो इन्द्रियों से दीखने वाले बाह्य विषयों को परम इष्ट समझकर मूर्खतावश अन्धों के पीछे अन्धों की तरह गड्ढ़े में गिरने के लिये चले जा रहे हैं और वेदवाणीरूप रस्सी के-काम्यकर्मों के दीर्घ बन्धन में बँधे हुए हैं, उनको यह बात मालूम नहीं कि हमारे स्वार्थ और परमार्थ भगवान् विष्णु ही हैं-उन्हीं की प्राप्ति से हमें सब पुरुषार्थों की प्राप्ति हो सकती है। जिनकी बुद्धि भगवान् के चरणकमलों का स्पर्श कर लेती है, उनके जन्म-मृत्युरूप अनर्थ का सर्वथा नाश हो जाता है। परन्तु जो लोग अकिंचन भगवत्प्रेमी महात्माओं के चरणों की धूल में स्नान नहीं कर लेते, उनकी बुद्धि काम्यकर्मों का पूरा सेवन करने पर भी भगवच्चरणों का स्पर्श नहीं कर सकती।

प्रह्लाद जी इतना कहकर चुप हो गये। हिरण्यकशिपु ने क्रोध के मारे अन्धा होकर उन्हें अपनी गोद से उठाकर भूमि पर पटक दिया। प्रह्लाद की बात को वह सह न सका। रोष के मारे उसके नेत्र लाल हो गये। वह कहने लगा ;- ‘दैत्यों! इसे यहाँ से बाहर ले जाओ और तुरंत मार डालो। यह मार ही डालने योग्य है। देखो तो सही- जिसने इसके चाचा को मार डाला, अपने सुहृद्-स्वजनों को छोड़कर यह नीच दास के समान उसी विष्णु के चरणों की पूजा करता है। हो-न-हो, इसके रूप में मेरे भाई को मारने वाला विष्णु ही आ गया है। अब यह विश्वास के योग्य नहीं है। पाँच बरस की अवस्था में ही जिसने अपने माता-पिता के दुस्त्यज वात्सल्य स्नेह को भुला दिया- वह कृतघ्न भला विष्णु का ही क्या हित करेगा। कोई दूसरा भी यदि औषध के समान भलाई करे तो वह एक प्रकार से पुत्र ही है। पर यदि अपना पुत्र भी अहित करने लगे तो रोग के समान वह शत्रु है। अपने शरीर के ही किसी अंग से सारे शरीर को हानि होती हो तो उसको काट डालना चाहिये। क्योंकि उसे काट देने से शेष शरीर सुख से जी सकता है। यह स्वजन का बाना पहनकर मेरा कोई शत्रु ही आया है। जैसे योगी की भोग लोलुप इन्द्रियाँ उसका अनिष्ट करती हैं, वैसे ही यह मेरा अहित करने वाला है। इसलिये खाने, सोने, बैठने आदि के समय किसी भी उपाय से इसे मार डालो

जब हिरण्यकशिपु ने दैत्यों को इस प्रकार आज्ञा दी, तब तीखी दाढ़, विकराल वदन, लाल-लाल दाढ़ी-मूँछ एवं केशों वाले दैत्य हाथों में त्रिशूल ले-लेकर मारो, काटो’- इस प्रकार बड़े जोर से चिल्लाने लगे। प्रह्लाद चुपचाप बैठे हुए थे और दैत्य उनके सभी मर्मस्थानों में शूल से घाव कर रहे थे। उस समय प्रह्लाद जी का चित्त उन परमात्मा में लगा हुआ था, जो मन-वाणी के अगोचर, सर्वात्मा, समस्त शक्तियों के आधार एवं परब्रह्म हैं। इसलिये उनके सारे प्रहार ठीक वैसे ही निष्फल हो गये, जैसे भाग्यहीनों के बड़े-बड़े उद्योग-धंधे व्यर्थ होते हैं।

प्रयासेऽपहते तस्मिन् दैत्येन्द्रः परिशङ्कितः ।

चकार तद्वधोपायान् निर्बन्धेन युधिष्ठिर ॥ ४२॥

दिग्गजैर्दन्दशूकैश्च अभिचारावपातनैः ।

मायाभिः सन्निरोधैश्च गरदानैरभोजनैः ॥ ४३॥

हिमवाय्वग्निसलिलैः पर्वताक्रमणैरपि ।

न शशाक यदा हन्तुमपापमसुरः सुतम् ।

चिन्तां दीर्घतमां प्राप्तस्तत्कर्तुं नाभ्यपद्यत ॥ ४४॥

एष मे बह्वसाधूक्तो वधोपायाश्च निर्मिताः ।

तैस्तैर्द्रोहैरसद्धर्मैर्मुक्तः स्वेनैव तेजसा ॥ ४५॥

वर्तमानोऽविदूरे वै बालोऽप्यजडधीरयम् ।

न विस्मरति मेऽनार्यं शुनःशेप इव प्रभुः ॥ ४६॥

अप्रमेयानुभावोऽयमकुतश्चिद्भयोऽमरः ।

नूनमेतद्विरोधेन मृत्युर्मे भविता न वा ॥ ४७॥

इति तच्चिन्तया किञ्चिन्म्लानश्रियमधोमुखम् ।

शण्डामर्कावौशनसौ विविक्त इति होचतुः ॥ ४८॥

जितं त्वयैकेन जगत्त्रयं भ्रुवो-

र्विजृम्भणत्रस्तसमस्तधिष्ण्यपम् ।

न तस्य चिन्त्यं तव नाथ चक्ष्महे

न वै शिशूनां गुणदोषयोः पदम् ॥ ४९॥

इमं तु पाशैर्वरुणस्य बद्ध्वा

निधेहि भीतो न पलायते यथा ।

बुद्धिश्च पुंसो वयसार्यसेवया

यावद्गुरुर्भार्गव आगमिष्यति ॥ ५०॥

तथेति गुरुपुत्रोक्तमनुज्ञायेदमब्रवीत् ।

धर्मा ह्यस्योपदेष्टव्या राज्ञां यो गृहमेधिनाम् ॥ ५१॥

धर्ममर्थं च कामं च नितरां चानुपूर्वशः ।

प्रह्लादायोचतू राजन् प्रश्रितावनताय च ॥ ५२॥

यथा त्रिवर्गं गुरुभिरात्मने उपशिक्षितम् ।

न साधु मेने तच्छिक्षां द्वन्द्वारामोपवर्णिताम् ॥ ५३॥

यदाचार्यः परावृत्तो गृहमेधीयकर्मसु ।

वयस्यैर्बालकैस्तत्र सोपहूतः कृतक्षणैः ॥ ५४॥

अथ तान् श्लक्ष्णया वाचा प्रत्याहूय महाबुधः ।

उवाच विद्वांस्तन्निष्ठां कृपया प्रहसन्निव ॥ ५५॥

ते तु तद्गौरवात्सर्वे त्यक्तक्रीडापरिच्छदाः ।

बाला न दूषितधियो द्वन्द्वारामेरितेहितैः ॥ ५६॥

पर्युपासत राजेन्द्र तन्न्यस्तहृदयेक्षणाः ।

तानाह करुणो मैत्रो महाभागवतोऽसुरः ॥ ५७॥

युधिष्ठिर! जब शूलों की मार से प्रह्लाद के शरीर पर कोई असर नहीं हुआ, तब हिरण्यकशिपु को बड़ी शंका हुई। अब वह प्रह्लाद को मार डालने के लिये बड़े हठ से भाँति-भाँति के उपाय करने लगा। उसने उन्हें बड़े-बड़े मतवाले हाथियों से कुचलवाया, विषधर साँपों से डंसवाया, पुरोहितों से कृत्या राक्षसी उत्पन्न करायी, पहाड़ की चोटी से नीचे डलवा दिया, शम्बरासुर से अनेकों प्रकार की माया का प्रयोग करवाया, अँधेरी कोठरियों में बंद करा दिया, विष पिलाया और खाना बंद कर दिया। बर्फीली जगह, दहकती हुई आग और समुद्र में बारी-बार से डलवाया, आँधी में छोड़ दिया तथा पर्वतों के नीचे दबवा दिया; परन्तु इनमें से किसी भी उपाय से वह अपने पुत्र निष्पाप प्रह्लाद का बाल भी बाँका न कर सका। अपनी विवशता देखकर हिरण्यकशिपु को बड़ी चिन्ता हुई। उसे प्रह्लाद को मारने के लिये और कोई उपाय नहीं सूझ पड़ा। वह सोचने लगा- इसे मैंने बहुत कुछ बुरा-भला कहा, मार डालने के बहुत-से उपाय किये। परन्तु यह मेरे द्रोह और दुर्व्यवहारों से बिना किसी की सहायता से अपने प्रभाव से ही बचता गया। यह बालक होने पर भी समझदार है और मेरे पास ही निःशंक भाव से रहता है। हो-न-हो इसमें कुछ सामर्थ्य अवश्य है। जैसे शुनः-शेप[1] अपने पिता की करतूतों से उसका विरोधी हो गया था, वैसे ही यह भी मेरे किये अपकारों को न भूलेगा। न तो यह किसी से डरता है और न इसकी मृत्यु ही होती है। इसकी शक्ति की थाह नहीं है। अवश्य ही इसके विरोध से मेरी मृत्यु होगी। सम्भव है, न भी हो

इस प्रकार सोच-विचार करते-करते उसका चेहरा कुछ उतर गया। शुक्राचार्य के पुत्र शण्ड और अमर्क ने जब देखा कि हिरण्यकशिपु तो मुँह लटकाकर बैठा हुआ है, तब उन्होंने एकान्त में जाकर उससे यह बात कही- स्वामी! आपने अकेले ही तीनों लोकों पर विजय प्राप्त कर ली। आपके भौंहें टेढ़ी करने पर ही लोकपाल काँप उठते हैं। हमारे देखने में तो आपके लिये चिन्ता की कोई बात नहीं है। भला, बच्चों के खिलवाड़ में भी भलाई-बुराई सोचने की कोई बात है। जब तक हमारे पिता शुक्राचार्य जी नहीं आ जाते, तब तक यह डरकर कहीं भाग न जाये। इसलिये उसे वरुण पाशों से बाँध रखिये। प्रायः ऐसा होता है कि अवस्था की वृद्धि के साथ-साथ और गुरुजनों की सेवा से बुद्धि सुधर जाया करती है

हिरण्यकशिपु ने अच्छा, ठीक हैकहकर गुरुपुत्रों की सलाह मान ली और कहा कि इसे उन धर्मों का उपदेश करना चाहिये, जिनका पालन गृहस्थ नरपति किया करते हैं

युधिष्ठिर! इसके बाद पुरोहित उन्हें लेकर पाठशाला में गये और क्रमशः धर्म, अर्थ और काम- इन तीन पुरुषार्थों की शिक्षा देने लगे। प्रह्लाद वहाँ अत्यन्त नम्र सेवक की भाँति रहते थे। परन्तु गुरुओं की वह शिक्षा प्रह्लाद को अच्छी न लगी। क्योंकि गुरु जी उन्हें केवल अर्थ, धर्म और काम की ही शिक्षा देते थे। यह शिक्षा केवल उन लोगों के लिये है, जो राग-द्वेष आदि द्वन्द और विषय भोगों में रस ले रहे हों।

एक दिन गुरु जी गृहस्थी के काम से कहीं बाहर चले गये थे। छुट्टी मिल जाने के कारण समवयस्क बालकों ने प्रह्लाद जी को खेलने के लिये पुकारा। प्रह्लाद जी परम ज्ञानी थे, उनका प्रेम देखकर उन्होंने उन बालकों को ही बड़ी मधुर वाणी से पुकारकर अपने पास बुला लिया। उनसे उनके जन्म-मरण की गति भी छिपी नहीं थी। उन पर कृपा करके हँसते हुए-से उन्हें उपदेश करने लगे। युधिष्ठिर! वे सब अभी बालक ही थे, इसलिये राग-द्वेषपरायण विषय भोगी पुरुषों के उपदेशों से और चेष्टाओं से उनकी बुद्धि अभी दूषित नहीं हुई थी। इसी से, और प्रह्लाद के प्रति आदर-बुद्धि होने से उन सबने अपनी खेल-कूद सामग्रियों को छोड़ दिया तथा प्रह्लाद जी के पास जाकर उनके चारों ओर बैठ गये और उनके उपदेश में मन लगाकर बड़े प्रेम से एकटक उनकी ओर देखने लगे। भगवान् के परमप्रेमी भक्त प्रह्लाद का हृदय उनके प्रति करुणा और मैत्री के भाव से भर गया तथा वे उनसे कहने लगे।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे प्रह्लादचरिते पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५॥

शेष जारी-आगे पढ़े............... सप्तम स्कन्ध: षष्ठोऽध्यायः

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