श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय ६

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय ६                                    

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय ६ "प्रह्लाद जी का असुर-बालकों को उपदेश"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय ६

श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: षष्ठ अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय ६                                                        

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ७ अध्यायः ६                                                           

श्रीमद्भागवत महापुराण सातवाँ स्कन्ध छठवाँ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय ६ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीमद्भागवतम् सप्तमस्कन्धः

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ सप्तमस्कन्धः ॥

॥ षष्ठोऽध्यायः ६ ॥

प्रह्लाद उवाच

कौमार आचरेत्प्राज्ञो धर्मान् भागवतानिह ।

दुर्लभं मानुषं जन्म तदप्यध्रुवमर्थदम् ॥ १॥

यथा हि पुरुषस्येह विष्णोः पादोपसर्पणम् ।

यदेष सर्वभूतानां प्रिय आत्मेश्वरः सुहृत् ॥ २॥

सुखमैन्द्रियकं दैत्या देहयोगेन देहिनाम् ।

सर्वत्र लभ्यते दैवाद्यथा दुःखमयत्नतः ॥ ३॥

तत्प्रयासो न कर्तव्यो यत आयुर्व्ययः परम् ।

न तथा विन्दते क्षेमं मुकुन्दचरणाम्बुजम् ॥ ४॥

ततो यतेत कुशलः क्षेमाय भयमाश्रितः ।

शरीरं पौरुषं यावन्न विपद्येत पुष्कलम् ॥ ५॥

पुंसो वर्षशतं ह्यायुस्तदर्धं चाजितात्मनः ।

निष्फलं यदसौ रात्र्यां शेतेऽन्धं प्रापितस्तमः ॥ ६॥

मुग्धस्य बाल्ये कौमारे क्रीडतो याति विंशतिः ।

जरया ग्रस्तदेहस्य यात्यकल्पस्य विंशतिः ॥ ७॥

दुरापूरेण कामेन मोहेन च बलीयसा ।

शेषं गृहेषु सक्तस्य प्रमत्तस्यापयाति हि ॥ ८॥

को गृहेषु पुमान् सक्तमात्मानमजितेन्द्रियः ।

स्नेहपाशैर्दृढैर्बद्धमुत्सहेत विमोचितुम् ॥ ९॥

को न्वर्थतृष्णां विसृजेत्प्राणेभ्योऽपि य ईप्सितः ।

यं क्रीणात्यसुभिः प्रेष्ठैस्तस्करः सेवको वणिक् ॥ १०॥

कथं प्रियाया अनुकम्पितायाः

सङ्गं रहस्यं रुचिरांश्च मन्त्रान् ।

सुहृत्सु तत्स्नेहसितः शिशूनां

कलाक्षराणामनुरक्तचित्तः ॥ ११॥

पुत्रान् स्मरंस्ता दुहितॄर्हृदय्या

भ्रातॄन् स्वसॄर्वा पितरौ च दीनौ ।

गृहान् मनोज्ञोरुपरिच्छदांश्च

वृत्तीश्च कुल्याः पशुभृत्यवर्गान् ॥ १२॥

प्रह्लाद जी ने कहा ;- मित्रो! इस संसार में मनुष्य-जन्म बड़ा दुर्लभ है। इसके द्वारा अविनाशी परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है। परन्तु पता नहीं कब इसका अन्त हो जाये; इसलिये बुद्धिमान् पुरुष को बुढ़ापे या जवानी के भरोसे न रहकर बचपन में ही भगवान् की प्राप्ति कराने वाले साधनों का अनुष्ठान कर लेना चाहिये। इस मनुष्य-जन्म में श्रीभगवान् के चरणों की शरण लेना ही जीवन की एकमात्र सफलता है। क्योंकि भगवान् समस्त प्राणियों के स्वामी, सुहृद्, प्रियतम और आत्मा हैं।

भाइयों! इन्द्रियों से जो सुख भोगा जाता है, वह तो- जीव चाहे जिस योनि में रहे- प्रारब्ध के अनुसार सर्वत्र वैसे ही मिलता रहता है, जैसे बिना किसी प्रकार का प्रयत्न किये, निवारण करने पर भी दुःख मिलता है। इसलिये सांसारिक सुख के उद्देश्य से प्रयत्न करने की कोई आवश्यकता नहीं है। क्योंकि स्वयं मिलने वाली वस्तु के लिये परिश्रम करना आयु और शक्ति को व्यर्थ गँवाना है। जो इनमें उलझ जाते हैं, उन्हें भगवान् के परम कल्याणस्वरूप चरणकमलों की प्राप्ति नहीं होती। हमारे सिर पर अनेकों प्रकार के भय सवार रहते हैं। इसलिये यह शरीर-जो भगवत्प्राप्ति के लिये पर्याप्त है-जब तक रोग-शोकादि ग्रस्त होकर मृत्यु के मुख में नहीं चला जाता, तभी तक बुद्धिमान् पुरुष को अपने कल्याण के लिये प्रयत्न कर लेना चाहिये।

मनुष्य की पूरी आयु सौ वर्ष की है। जिन्होंने अपनी इन्द्रियों को वश में नहीं कर लिया है, उनकी आयु का आधा हिस्सा तो यों ही बीत जाता है। क्योंकि वे रात में घोर तमोगुण-अज्ञान से ग्रस्त होकर सोते रहते हैं। बचपन में उन्हें अपने हित-अहित का ज्ञान नहीं रहता, कुछ बड़े होने पर कुमार अवस्था में वे खेल-कूद में लग जाते हैं। इस प्रकार बीस वर्ष का तो पता ही नहीं चलता। जब बुढ़ापा शरीर को ग्रस लेता है, तब अन्त के बीस वर्षों में कुछ करने-धरने की शक्ति ही नहीं रह जाती। रह गयी बीच की कुछ थोड़ी-सी आयु। उसमें कभी न पूरी होने वाली बड़ी-बड़ी कामनाएँ हैं, बलात् पकड़ रखने वाला मोह है और घर-द्वार की वह आसक्ति है, जिससे जीव इतना उलझ जाता है कि उसे कुछ कर्तव्य-अकर्तव्य का ज्ञान ही नहीं रहता। इस प्रकार बची-खुची आयु भी हाथ से निकल जाती है।

दैत्य बालकों! जिसकी इन्द्रियाँ वश में नहीं हैं, ऐसा कौन-सा पुरुष होगा, जो घर-गृहस्थी में आसक्त और माया-ममता की मजबूत फाँसी में फँसे हुए अपने-आपको उससे छुड़ाने का साहस कर सके। जिसे चोर, सेवक एवं व्यापारी अपने अत्यन्त प्यारे प्राणों की भी बाजी लगाकर संग्रह करते हैं और इसलिये उन्हें जो प्राणों से भी अधिक वांछनीय है-उस धन की तृष्णा को भला कौन त्याग सकता है। जो अपनी प्रियतमा पत्नी के एकान्त सहवास, उसकी प्रेम भरी बातों और मीठी-मीठी सलाह पर अपने को निछावर कर चुका है, भाई-बन्धु और मित्रों के स्नेह-पाश में बँध चुका है और नन्हें-नन्हें शिशुओं की तोतली बोली पर लुभा चुका है- भला, वह उन्हें कैसे छोड़ सकता है। जो अपनी ससुराल गयी हुई प्रिय पुत्रियों, पुत्रों, भाई-बहिनों और दीन अवस्था को प्राप्त पिता-माता, बहुत-सी सुन्दर-सुन्दर बहुमूल्य सामग्रियों से सजे हुए घरों, कुलपरम्परागत जीविका के साधनों तथा पशुओं और सेवकों के निरन्तर स्मरण में रम गया है, वह भला-उन्हें कैसे छोड़ सकता है।

त्यजेत कोशस्कृदिवेहमानः

कर्माणि लोभादवितृप्तकामः ।

औपस्थ्यजैह्व्यं बहु मन्यमानः

कथं विरज्येत दुरन्तमोहः ॥ १३॥

कुटुम्बपोषाय वियन्निजायुर्न

बुध्यतेऽर्थं विहतं प्रमत्तः ।

सर्वत्र तापत्रयदुःखितात्मा

निर्विद्यते न स्वकुटुम्बरामः ॥ १४॥

वित्तेषु नित्याभिनिविष्टचेता

विद्वांश्च दोषं परवित्तहर्तुः ।

प्रेत्येह चाथाप्यजितेन्द्रियस्त-

दशान्तकामो हरते कुटुम्बी ॥ १५॥

विद्वानपीत्थं दनुजाः कुटुम्बं

पुष्णन् स्वलोकाय न कल्पते वै ।

यः स्वीयपारक्यविभिन्नभावस्तमः

प्रपद्येत यथा विमूढः ॥ १६॥

यतो न कश्चित्क्व च कुत्रचिद्वा

दीनः स्वमात्मानमलं समर्थः ।

विमोचितुं कामदृशां विहार-

क्रीडामृगो यन्निगडो विसर्गः ॥ १७॥

ततो विदूरात्परिहृत्य दैत्या

दैत्येषु सङ्गं विषयात्मकेषु ।

उपेत नारायणमादिदेवं

स मुक्तसङ्गैरिषितोऽपवर्गः ॥ १८॥

न ह्यच्युतं प्रीणयतो बह्वायासोऽसुरात्मजाः ।

आत्मत्वात्सर्वभूतानां सिद्धत्वादिह सर्वतः ॥ १९॥

परावरेषु भूतेषु ब्रह्मान्तस्थावरादिषु ।

भौतिकेषु विकारेषु भूतेष्वथ महत्सु च ॥ २०॥

गुणेषु गुणसाम्ये च गुणव्यतिकरे तथा ।

एक एव परो ह्यात्मा भगवानीश्वरोऽव्ययः ॥ २१॥

प्रत्यगात्मस्वरूपेण दृश्यरूपेण च स्वयम् ।

व्याप्यव्यापकनिर्देश्यो ह्यनिर्देश्योऽविकल्पितः ॥ २२॥

केवलानुभवानन्दस्वरूपः परमेश्वरः ।

माययान्तर्हितैश्वर्य ईयते गुणसर्गया ॥ २३॥

तस्मात्सर्वेषु भूतेषु दयां कुरुत सौहृदम् ।

आसुरं भावमुन्मुच्य यया तुष्यत्यधोक्षजः ॥ २४॥

जो जननेन्द्रिय और रसनेन्द्रिय के सुखों को ही सर्वस्व मान बैठा है, जिसकी भोगवासनाएँ कभी तृप्त नहीं होतीं, जो लोभवश कर्म-पर-कर्म करता हुआ रेशम के कीड़े की तरह अपने को और भी कड़े बन्धन में जकड़ता जा रहा है और जिसके मोह की कोई सीमा नहीं है- वह उनसे किस प्रकार विरक्त हो सकता है और कैसे उनका त्याग कर सकता है। यह मेरा कुटुम्ब है, इस भाव से उसमें वह इतना रम जाता है कि उसी के पालन-पोषण के लिये अपनी अमूल्य आयु को गवाँ देता है और उसे यह भी नहीं जान पड़ता कि मेरे जीवन का वास्तविक उद्देश्य नष्ट हो रहा है। भला, इस प्रमाद की भी कोई सीमा है। यदि इन कामों में कुछ सुख मिले तो भी एक बात है; परन्तु यहाँ तो जहाँ-जहाँ वह जाता है, वहीं-वहीं दैहिक, दैविक और भौतिक ताप उसके हृदय को जलाते ही रहते हैं। फिर भी वैराग्य का उदय नहीं होता। कितनी विडम्बना है। कुटुम्ब की ममता के फेर में पड़कर वह इतना असावधान हो जाता है, उसका मन धन के चिन्तन में सदा इतना लवलीन रहता है कि वह दूसरे का धन चुराने के लौकिक-पारलौकिक दोषों को जानता हुआ भी कामनाओं को वश में न कर सकने के कारण इन्द्रियों के भोग की लालसा से चोरी कर ही बैठता है।

भाइयों! जो इस प्रकार अपने कुटुम्बियों के पेट पालने में ही लगा रहता है- कभी भगवद्भजन नहीं करता- वह विद्वान् हो, तो भी उसे परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती। क्योंकि अपने-पराये का भेद-भाव रहने के कारण उसे भी अज्ञानियों के समान ही तमःप्रधान गति प्राप्त होती है। जो कामिनियों के मनोरंजन का सामान- उनका क्रीड़ामृग बन रहा है और जिसने अपने पैरों में सन्तान की बेड़ी जकड़ ली है, वह बेचारा गरीब-चाहे कोई भी हो, कहीं भी हो- किसी भी प्रकार से अपना उद्धार नहीं कर सकता। इसलिये भाइयों! तुम लोग विषयासक्त दैत्यों का संग दूर से ही छोड़ दो और आदिदेव भगवान् नारायण की शरण ग्रहण करो। क्योंकि जिन्होंने संसार की आसक्ति छोड़ दी है, उन महात्माओं के वे ही परम प्रियतम और परम गति हैं।

मित्रो! भगवान् को प्रसन्न करने के लिये कोई बहुत परिश्रम या प्रयत्न नहीं करना पड़ता। क्योंकि वे समस्त प्राणियों के आत्मा हैं और सर्वत्र सबकी सत्ता के रूप में स्वयं सिद्ध वस्तु हैं। ब्रह्मा से लेकर तिनके तक छोड़े-बड़े समस्त प्राणियों में, पंचभूतों से बनी हुई वस्तुओं में, पंचभूतों में, सूक्ष्म तन्मात्राओं में, महत्तत्त्व में, तीनों गुणों में और गुणों की साम्यावस्था प्रकृति में एक ही अविनाशी परमात्मा विराजमान हैं। वे ही समस्त सौन्दर्य, माधुर्य और ऐश्वर्यों की खान हैं। वे ही अन्तर्यामी द्रष्टा के रूप में हैं और वे ही दृश्य जगत् के रूप में भी हैं। सर्वथा अनिर्वचनीय तथा विकल्परहित होने पर द्रष्टा और दृश्य, व्याप्य और व्यापक के रूप में उनका निर्वचन किया जाता है। वस्तुतः उनमें एक भी विकल्प नहीं है। वे केवल अनुभवस्वरूप, आनन्दस्वरूप एकमात्र परमेश्वर ही हैं। गुणमयी सृष्टि करने वाली माया के द्वारा ही उनका ऐश्वर्य छिप रहा है। इसके निवृत्त होते ही उनके दर्शन हो जाते हैं। इसलिये तुम लोग अपने दैत्यपने का, आसुरी सम्पत्ति का त्याग करके समस्त प्राणियों पर दया करो। प्रेम से उनकी भलाई करो। इसी से भगवान् प्रसन्न होते हैं।

तुष्टे च तत्र किमलभ्यमनन्त आद्ये

किं तैर्गुणव्यतिकरादिह ये स्वसिद्धाः ।

धर्मादयः किमगुणेन च काङ्क्षितेन

सारंजुषां चरणयोरुपगायतां नः ॥ २५॥

धर्मार्थकाम इति योऽभिहितस्त्रिवर्ग

ईक्षा त्रयी नयदमौ विविधा च वार्ता ।

मन्ये तदेतदखिलं निगमस्य सत्यं

स्वात्मार्पणं स्वसुहृदः परमस्य पुंसः ॥ २६॥

ज्ञानं तदेतदमलं दुरवापमाह

नारायणो नरसखः किल नारदाय ।

एकान्तिनां भगवतस्तदकिञ्चनानां

पादारविन्दरजसाऽऽप्लुतदेहिनां स्यात् ॥ २७॥

श्रुतमेतन्मया पूर्वं ज्ञानं विज्ञानसंयुतम् ।

धर्मं भागवतं शुद्धं नारदाद्देवदर्शनात् ॥ २८॥

आदि नारायण अनन्त भगवान् के प्रसन्न हो जाने पर ऐसी कौन-सी वस्तु है, जो नहीं मिल जाती? लोक और परलोक के लिये जिन धर्म, अर्थ आदि की आवश्यकता बतलायी जाती है-वे तो गुणों के परिणाम से बिना प्रयास के स्वयं ही मिलने वाले हैं। जब हम श्रीभगवान् के चरणामृत का सेवन करने और उनके नाम-गुणों का कीर्तन करने में लगे हैं, तब हमें मोक्ष की भी क्या आवश्यकता है। यों शास्त्रों में धर्म, अर्थ और काम- इन तीनों पुरुषार्थों का भी वर्णन है।

आत्मविद्या, कर्मकाण्ड, न्याय (तर्कशास्त्र), दण्डनीति और जीविका के विविध साधन- ये सभी वेदों के प्रतिपाद्य विषय हैं; परन्तु यदि ये अपने परम हितैषी, परम पुरुष भगवान् श्रीहरि को आत्मसमर्पण करने में सहायक हैं, तभी मैं इन्हें सत्य (सार्थक) मानता हूँ। अन्यथा ये सब-के-सब निरर्थक हैं।

यह निर्मल ज्ञान जो मैंने तुम लोगों को बतलाया है, बड़ा ही दुर्लभ है। इसे पहले नर-नारायण ने नारद जी को उपदेश किया था और यह ज्ञान उन सब लोगों को प्राप्त हो सकता है, जिन्होंने भगवान् के अनन्य प्रेमी एवं अकिंचन भक्तों के चरणकमलों की धूलि से अपने शरीर को नहला लिया है। यह विज्ञान सहित ज्ञान विशुद्ध भागवत धर्म है। इसे मैंने भगवान् का दर्शन कराने वाले देवर्षि नारद जी के मुँह से ही पहले-पहल सुना था।

दैत्यपुत्रा ऊचुः

प्रह्लाद त्वं वयं चापि नर्तेन्यं विद्महे गुरुम् ।

एताभ्यां गुरुपुत्राभ्यां बालानामपि हीश्वरौ ॥ २९॥

बालस्यान्तःपुरस्थस्य महत्सङ्गो दुरन्वयः ।

छिन्धि नः संशयं सौम्य स्याच्चेद्विश्रम्भकारणम् ॥ ३०॥

प्रह्लाद जी के सहपाठियों ने पूछा- प्रह्लाद जी! इन दोनों गुरुपुत्रों को छोड़कर और किसी गुरु को तो न तुम जानते हो और न हम। ये ही हम सब बालकों के शासक हैं। तुम एक तो अभी छोटी अवस्था के हो और दूसरे जन्म से ही महल में अपनी माँ के पास रहे हो। तुम्हारा महात्मा नारद जी से मिलना कुछ असंगत-सा जान पड़ता है। प्रियवर! यदि इस विषय में विश्वास दिलाने वाली कोई बात हो तो तुम उसे कहकर हमारी शंका मिटा दो।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे प्रह्लादचरिते षष्ठोऽध्यायः ॥ ६॥

शेष जारी-आगे पढ़े............... सप्तम स्कन्ध: सप्तमोऽध्यायः

No comments:

Post a Comment

Please do not enter any spam link in the comment box