श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय ७

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय ७                                    

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय ७ "प्रह्लाद जी द्वारा माता के गर्भ में प्राप्त हुए नारद जी के उपदेश का वर्णन"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय ७

श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: सप्तम अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय ७                                                        

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ७ अध्यायः ७                                                           

श्रीमद्भागवत महापुराण सातवाँ स्कन्ध सातवाँ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय ७ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीमद्भागवतम् सप्तमस्कन्धः

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ सप्तमस्कन्धः ॥

॥ सप्तमोऽध्यायः ७ ॥

नारद उवाच

एवं दैत्यसुतैः पृष्टो महाभागवतोऽसुरः ।

उवाच स्मयमानस्तान् स्मरन् मदनुभाषितम् ॥ १॥

नारद जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! जब दैत्य बालकों ने इस प्रकार प्रश्न किया, तब भगवान् के परमप्रेमी भक्त प्रह्लाद जी को मेरी बात का स्मरण हो आया। कुछ मुसकराते हुए उन्होंने उनसे कहा।

प्रह्लाद उवाच

पितरि प्रस्थितेऽस्माकं तपसे मन्दराचलम् ।

युद्धोद्यमं परं चक्रुर्विबुधा दानवान् प्रति ॥ २॥

पिपीलिकैरहिरिव दिष्ट्या लोकोपतापनः ।

पापेन पापोऽभक्षीति वादिनो वासवादयः ॥ ३॥

तेषामतिबलोद्योगं निशम्यासुरयूथपाः ।

वध्यमानाः सुरैर्भीता दुद्रुवुः सर्वतो दिशम् ॥ ४॥

कलत्रपुत्रमित्राप्तान् गृहान् पशुपरिच्छदान् ।

नावेक्ष्यमाणास्त्वरिताः सर्वे प्राणपरीप्सवः ॥ ५॥

व्यलुम्पन् राजशिबिरममरा जयकाङ्क्षिणः ।

इन्द्रस्तु राजमहिषीं मातरं मम चाग्रहीत् ॥ ६॥

नीयमानां भयोद्विग्नां रुदतीं कुररीमिव ।

यदृच्छयाऽऽगतस्तत्र देवर्षिर्ददृशे पथि ॥ ७॥

प्राह मैनां सुरपते नेतुमर्हस्यनागसम् ।

मुञ्च मुञ्च महाभाग सतीं परपरिग्रहम् ॥ ८॥

प्रह्लाद जी ने कहा ;- जब हमारे पिताजी तपस्या करने के लिये मन्दराचल पर चले गये, तब इन्द्रादि देवताओं ने दानवों से युद्ध करने का बहुत बड़ा उद्योग किया। वे इस प्रकार कहने लगे कि जैसे चींटियाँ साँप को चाट जाती हैं, वैसे ही लोगों को सताने वाले पापी हिरण्यकशिपु को उसका पाप ही खा गया। जब दैत्य सेनापतियों को देवताओं की भारी तैयारी का पता चला, तब उनका साहस जाता रहा। वे उनका सामना नहीं कर सके। मार खाकर स्त्री, पुत्र, मित्र, गुरुजन, महल, पशु और साज-सामान की कुछ चिन्ता न करके वे अपने प्राण बचाने के लिये बड़ी जल्दी में सब-के-सब इधर-उधर भाग गये। अपनी जीत चाहने वाले देवताओं ने राजमहल में लूट-खसोट मचा दी। यहाँ तक कि इन्द्र ने राजरानी मेरी माता कयाधु को भी बन्दी बना लिया। मेरी मा भय से घबराकर कुररी पक्षी की भाँति रो रही थी और इन्द्र उसे बलात् लिये जा रहे थे। दैववश देवर्षि नारद उधर आ निकले और उन्होंने मार्ग में मेरी माँ को देख लिया। उन्होंने कहा- देवराज! यह निरपराध है। इसे ले जाना उचित नहीं। महाभाग! इस सती-साध्वी परनारी का तिरस्कार मत करो। इसे छोड़ दो, तुरंत छोड़ दो!'

इन्द्र उवाच

आस्तेऽस्या जठरे वीर्यमविषह्यं सुरद्विषः ।

आस्यतां यावत्प्रसवं मोक्ष्येऽर्थपदवीं गतः ॥ ९॥

इन्द्र ने कहा ;- 'इसके पेट में देवद्रोही हिरण्यकशिपु का अत्यन्त प्रभावशाली वीर्य है। प्रसवपर्यन्त यह मेरे पास रहे, बालक हो जाने पर उसे मारकर मैं इसे छोड़ दूँगा।'

नारद उवाच

अयं निष्किल्बिषः साक्षान्महाभागवतो महान् ।

त्वया न प्राप्स्यते संस्थामनन्तानुचरो बली ॥ १०॥

इत्युक्तस्तां विहायेन्द्रो देवर्षेर्मानयन् वचः ।

अनन्तप्रियभक्त्यैनां परिक्रम्य दिवं ययौ ॥ ११॥

ततो नो मातरमृषिः समानीय निजाश्रमम् ।

आश्वास्येहोष्यतां वत्से यावत्ते भर्तुरागमः ॥ १२॥

तथेत्यवात्सीद्देवर्षेरन्ति साप्यकुतोभया ।

यावद्दैत्यपतिर्घोरात्तपसो न न्यवर्तत ॥ १३॥

ऋषिं पर्यचरत्तत्र भक्त्या परमया सती ।

अन्तर्वर्त्नी स्वगर्भस्य क्षेमायेच्छाप्रसूतये ॥ १४॥

ऋषिः कारुणिकस्तस्याः प्रादादुभयमीश्वरः ।

धर्मस्य तत्त्वं ज्ञानं च मामप्युद्दिश्य निर्मलम् ॥ १५॥

तत्तु कालस्य दीर्घत्वात्स्त्रीत्वान्मातुस्तिरोदधे ।

ऋषिणानुगृहीतं मां नाधुनाप्यजहात्स्मृतिः ॥ १६॥

नारद जी ने कहा ;- ‘इसके गर्भ में भगवान् का साक्षात् परमप्रेमी भक्त और सेवक, अत्यन्त बली और निष्पाप महात्मा है। तुममें उसको मारने की शक्ति नहीं है।

देवर्षि नारद की यह बात सुनकर उसका सम्मान करते हुए इन्द्र ने मेरी माता को छोड़ दिया और फिर इसके गर्भ में भगवद्भक्त है, इस भाव से उन्होंने मेरी माता की प्रदक्षिणा की तथा अपने लोक में चले गये।

इसके बाद देवर्षि नारद जी मेरी माता को अपने आश्रम पर लिवा ले गये और उसे समझा-बुझाकर कहा कि- बेटी! जब तक तुम्हारा पति तपस्या करके लौटे, तब तक तुम यहीं रहो।’ ‘जो आज्ञाकहकर वह निर्भयता से देवर्षि नारद के आश्रम पर ही रहने लगी और तब तक रही, जब तक मेरे पिता घोर तपस्या से लौटकर नहीं आये। मेरी गर्भवती माता मुझ गर्भस्थ शिशु की मंगल कामना से और इच्छित समय पर (अर्थात् मेरे पिता के लौटने के बाद) सन्तान उत्पन्न करने की कामना से बड़े प्रेम तथा भक्ति के साथ नारद जी की सेवा-शुश्रूषा करती रही।

देवर्षि नारद जी बड़े दयालु और सर्वसमर्थ हैं। उन्होंने मेरी माँ को भागवत धर्म का रहस्य और विशुद्ध ज्ञान- दोनों का उपदेश किया। उपदेश करते समय उनकी दृष्टि मुझ पर भी थी। बहुत समय बीत जाने के कारण और स्त्री होने के कारण भी मेरी माता को तो अब उस ज्ञान की स्मृति नहीं रही, परन्तु देवर्षि की विशेष कृपा होने के कारण मुझे उसकी विस्मृति नहीं हुई।

भवतामपि भूयान्मे यदि श्रद्दधते वचः ।

वैशारदी धीः श्रद्धातः स्त्रीबालानां च मे यथा ॥ १७॥

जन्माद्याः षडिमे भावा दृष्टा देहस्य नात्मनः ।

फलानामिव वृक्षस्य कालेनेश्वरमूर्तिना ॥ १८॥

आत्मा नित्योऽव्ययः शुद्ध एकः क्षेत्रज्ञ आश्रयः ।

अविक्रियः स्वदृग् हेतुर्व्यापकोऽसङ्ग्यनावृतः ॥ १९॥

एतैर्द्वादशभिर्विद्वानात्मनो लक्षणैः परैः ।

अहं ममेत्यसद्भावं देहादौ मोहजं त्यजेत् ॥ २०॥

स्वर्णं यथा ग्रावसु हेमकारः

क्षेत्रेषु योगैस्तदभिज्ञ आप्नुयात् ।

क्षेत्रेषु देहेषु तथात्मयोगै-

रध्यात्मविद्ब्रह्मगतिं लभेत ॥ २१॥

अष्टौ प्रकृतयः प्रोक्तास्त्रय एव हि तद्गुणाः ।

विकाराः षोडशाचार्यैः पुमानेकः समन्वयात् ॥ २२॥

देहस्तु सर्वसङ्घातो जगत्तस्थुरिति द्विधा ।

अत्रैव मृग्यः पुरुषो नेति नेतीत्यतत्त्यजन् ॥ २३॥

अन्वयव्यतिरेकेण विवेकेनोशतात्मना ।

सर्गस्थानसमाम्नायैर्विमृशद्भिरसत्वरैः ॥ २४॥

बुद्धेर्जागरणं स्वप्नः सुषुप्तिरिति वृत्तयः ।

ता येनैवानुभूयन्ते सोऽध्यक्षः पुरुषः परः ॥ २५॥

एभिस्त्रिवर्णैः पर्यस्तैर्बुद्धिभेदैः क्रियोद्भवैः ।

स्वरूपमात्मनो बुध्येद्गन्धैर्वायुमिवान्वयात् ॥ २६॥

एतद्द्वारो हि संसारो गुणकर्मनिबन्धनः ।

अज्ञानमूलोऽपार्थोऽपि पुंसः स्वप्न इवेष्यते ॥ २७॥

तस्माद्भवद्भिः कर्तव्यं कर्मणां त्रिगुणात्मनाम् ।

बीजनिर्हरणं योगः प्रवाहोपरमो धियः ॥ २८॥

तत्रोपायसहस्राणामयं भगवतोदितः ।

यदीश्वरे भगवति यथा यैरञ्जसा रतिः ॥ २९॥

गुरुशुश्रूषया भक्त्या सर्वलब्धार्पणेन च ।

सङ्गेन साधुभक्तानामीश्वराराधनेन च ॥ ३०॥

श्रद्धया तत्कथायां च कीर्तनैर्गुणकर्मणाम् ।

तत्पादाम्बुरुहध्यानात्तल्लिङ्गेक्षार्हणादिभिः ॥ ३१॥

यदि तुम लोग मेरी इस बात पर श्रद्धा करो तो तुम्हें भी वह ज्ञान हो सकता है। क्योंकि श्रद्धा से स्त्री और बालकों की बुद्धि भी मेरे समान शुद्ध हो सकती है। जैसे ईश्वरमूर्ति काल की प्रेरणा से वृक्षों के फल लगते, ठहरते, बढ़ते, पकते, क्षीण होते और नष्ट हो जाते हैं-वैसे ही जन्म, अस्तित्व की अनुभूति, वृद्धि, परिणाम, क्षय और विनाश-ये छः भाव-विकार शरीर में ही देखे जाते हैं, आत्मा से इनका कोई सम्बन्ध नहीं है। आत्मा नित्य, अविनाशी, शुद्ध, एक, क्षेत्रज्ञ, आश्रय, निर्विकार, स्वयंप्रकाश, सबका कारण, व्यापक, असंग तथा आवरणरहित है। ये बारह आत्मा के उत्कृष्ट लक्षण हैं। इनके द्वारा आत्मतत्त्व को जानने वाले पुरुष को चाहिये कि शरीर आदि में अज्ञान के कारण जो मैंऔर मेरेका झूठा भाव हो रहा है, उसे छोड़ दे। जिस प्रकार सुवर्ण की खानों में पत्थर में मिले हुए सुवर्ण को उसके निकालने की विधि जानने वाला स्वर्णकार उन विधियों से उसे प्राप्त कर लेता है, वैसे ही अध्यात्मतत्त्व को जानने वाला पुरुष आत्मप्राप्ति के उपायों द्वारा अपने शरीररूप क्षेत्र में ही ब्रह्मपद का साक्षात्कार कर लेता है।

आचार्यों ने मूल प्रकृति, महत्तत्त्व, अहंकार और पंचतन्मात्राएँ-इन आठ तत्त्वों को प्रकृति बतलाया है। उनके तीन गुण हैं-सत्त्व, रज और तम तथा उनके विकार हैं सोलह-दस इन्द्रियाँ, एक मन और पंचमहाभूत। इन सबमें एक पुरुषतत्त्व अनुगत है। इस सबका समुदाय ही देह है। यह दो प्रकार का है-स्थावर और जंगम। इसी में अन्तःकरण, इन्द्रिय आदि अनात्मवस्तुओं का यह आत्मा नहीं है’-इस प्रकार बाध करते हुए आत्मा को ढूंढना चाहिये। आत्मा सबमें अनुगत है, परन्तु है वह सबसे पृथक्। इस प्रकार शुद्ध बुद्धि से धीरे-धीरे संसार की उत्पत्ति, स्थिति और उसके प्रलय पर विचार करना चाहिये। उतावली नहीं करनी चाहिये। जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति-ये तीनों बुद्धि की वृत्तियाँ हैं। इन अतीत, सबका साक्षी परमात्मा है। जैसे गन्ध से उसके आश्रय वायु का ज्ञान होता है, वैसे ही बुद्धि की इन कर्मजन्य एवं बदलने वाली तीनों अवस्थाओं के द्वारा इनमें साक्षीरूप से अनुगत आत्मा को जाने। गुणों और कर्मों के कारण होने वाला जन्म-मृत्यु का यह चक्र आत्मा को शरीर और प्रकृति से पृथक् न करने के कारण ही है। यह अज्ञानमूलक एवं मिथ्या है। फिर भी स्वप्न के समान जीव को इसकी प्रतीति हो रही है।

इसलिये तुम लोगों को सबसे पहले इन गुणों के अनुसार होने वाले कर्मों का बीज ही नष्ट कर देना चाहिये। इससे बुद्धि-वृत्तियों का प्रवाह निवृत्त हो जाता है। इसी को दूसरे शब्दों में योग या परमात्मा से मिलन कहते हैं। यों तो इन त्रिगुणात्मक कर्मों की जड़ उखाड़ फेंकने के लिये अथवा बुद्धि-वृत्तियों का प्रवाह बंद कर देने के लिये सहस्रों साधन हैं; परन्तु जिस उपाय से और जैसे सर्वशक्तिमान् भगवान् में स्वाभाविक निष्काम प्रेम हो जाये, वही उपाय सर्वश्रेष्ठ है। यह बात स्वयं भगवान् ने कही है। गुरु की प्रेमपूर्वक सेवा, अपने को जो कुछ मिले वह सब प्रेम से भगवान् को समर्पित कर देना, भगवत्प्रेमी महात्माओं का सत्संग, भगवान् की आराधना, उनकी कथावार्ता में श्रद्धा, उनके गुण और लीलाओं का कीर्तन, उनके चरणकमलों का ध्यान और उनके मन्दिर, मूर्ति आदि का दर्शन-पूजन आदि साधनों से भगवान् में स्वाभाविक प्रेम हो जाता है।

हरिः सर्वेषु भूतेषु भगवानास्त ईश्वरः ।

इति भूतानि मनसा कामैस्तैः साधु मानयेत् ॥ ३२॥

एवं निर्जितषड्वर्गैः क्रियते भक्तिरीश्वरे ।

वासुदेवे भगवति यया संलभते रतिम् ॥ ३३॥

निशम्य कर्माणि गुणानतुल्यान्

वीर्याणि लीलातनुभिः कृतानि ।

यदातिहर्षोत्पुलकाश्रुगद्गदं

प्रोत्कण्ठ उद्गायति रौति नृत्यति ॥ ३४॥

यदा ग्रहग्रस्त इव क्वचिद्धस-

त्याक्रन्दते ध्यायति वन्दते जनम् ।

मुहुः श्वसन् वक्ति हरे जगत्पते

नारायणेत्यात्ममतिर्गतत्रपः ॥ ३५॥

तदा पुमान् मुक्तसमस्तबन्धन-

स्तद्भावभावानुकृताशयाकृतिः ।

निर्दग्धबीजानुशयो महीयसा

भक्तिप्रयोगेण समेत्यधोक्षजम् ॥ ३६॥

अधोक्षजालम्भमिहाशुभात्मनः

शरीरिणः संसृतिचक्रशातनम् ।

तद्ब्रह्मनिर्वाणसुखं विदुर्बुधास्ततो

भजध्वं हृदये हृदीश्वरम् ॥ ३७॥

कोऽतिप्रयासोऽसुरबालका हरेरुपासने

स्वे हृदि छिद्रवत्सतः ।

स्वस्यात्मनः सख्युरशेषदेहिनां

सामान्यतः किं विषयोपपादनैः ॥ ३८॥

रायः कलत्रं पशवः सुतादयो

गृहा मही कुञ्जरकोशभूतयः ।

सर्वेऽर्थकामाः क्षणभङ्गुरायुषः

कुर्वन्ति मर्त्यस्य कियत्प्रियं चलाः ॥ ३९॥

एवं हि लोकाः क्रतुभिः कृता अमी

क्षयिष्णवः सातिशया न निर्मलाः ।

तस्माददृष्टश्रुतदूषणं परं

भक्त्यैकयेशं भजतात्मलब्धये ॥ ४०॥

यदध्यर्थ्येह कर्माणि विद्वन्मान्यसकृन्नरः ।

करोत्यतो विपर्यासममोघं विन्दते फलम् ॥ ४१॥

सुखाय दुःखमोक्षाय सङ्कल्प इह कर्मिणः ।

सदाऽऽप्नोतीहया दुःखमनीहायाः सुखावृतः ॥ ४२॥

सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीहरि समस्त प्राणियों में विराजमान हैं-ऐसी भावना से यथाशक्ति सभी प्राणियों की इच्छा पूर्ण करे और हृदय से उनका सम्मान करे। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर-इन छः शत्रुओं पर विजय प्राप्त करके जो लोग इस प्रकार भगवान् की साधन-भक्ति का अनुष्ठान करते हैं, उन्हें उस भक्ति के द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों में अनन्य प्रेम की प्राप्ति हो जाती है।

जब भगवान् के लीला शरीरों से किये हुए अद्भुत पराक्रम, उनके अनुपम गुण और चरित्रों को श्रवण करके अत्यन्त आनन्द के उद्रेक से मनुष्य का रोम-रोम खिल उठता है, आँसुओं के मारे कण्ठ गद्गद हो जाता है और वह संकोच छोड़कर जोर-जोर से गाने-चिल्लाने और नाचने लगता है; जिस समय वह ग्रहग्रस्त पागल की तरह कभी हँसता है, कभी करुण-क्रन्दन करने लगता है, कभी ध्यान करता है तो कभी भगवद्भाव से लोगों की वन्दना करने लगता है; जब वह भगवान् में ही तन्मय हो जाता है, बार-बार लंबी साँस खींचता है और संकोच छोड़कर हरे! जगत्पते!! नारायण’!! कहकर पुकारने लगता है-तब भक्तियोग के महान् प्रभाव से उसके सारे बन्धन कट जाते हैं और भगवद्भाव की ही भावना करते-करते उसका हृदय भी तदाकार-भगवन्मय हो जाता है। उस समय उसके जन्म-मृत्यु के बीजों का खजाना ही जल जाता है और वह पुरुष श्रीभगवान् को प्राप्त कर लेता है।

इस अशुभ संसार के दलदल में फँसकर अशुभमय हो जाने वाले जीव के लिये भगवान् की यह प्राप्ति संसार के चक्कर को मिटा देने वाली है। इसी वस्तु को कोई विद्वान् ब्रह्म और कोई निर्वाण-सुख के रूप में पहचानते हैं। इसलिये मित्रो! तुम लोग अपने-अपने हृदय में हृदयेश्वर भगवान् का भजन करो।

असुरकुमारो! अपने हृदय में ही आकाश के समान नित्य विराजमान भगवान् का भजन करने में कौन-सा विशेष परिश्रम है। वे समान रूप से समस्त प्राणियों के अत्यन्त प्रेमी मित्र हैं; और तो क्या, अपने आत्मा ही हैं। उनको छोड़कर भोग सामग्री इकट्ठी करने के लिये भटकना-राम! राम! कितनी मूर्खता है। अरे भाई! धन, स्त्री, पशु, पुत्र, पुत्री, महल, पृथ्वी, हाथी, खजाना और भाँति-भाँति की विभूतियाँ-और तो क्या, संसार का समस्त धन तथा भोग सामग्रियाँ इस क्षणभंगुर मनुष्य को क्या सुख दे सकती हैं। वे स्वयं ही क्षणभंगुर हैं। जैसे इस लोक की सम्पत्ति प्रत्यक्ष ही नाशवान् है, वैसे ही यज्ञों से प्राप्त होने वाले स्वर्गादि लोक भी नाशवान् और आपेक्षिक-एक-दूसरे से छोटे-बड़े, नीचे-ऊँचे हैं। इसलिये वे भी निर्दोष नहीं हैं। निर्दोष हैं केवल परमात्मा। न किसी ने उनमें दोष देखा है और न सुना है; अतः परमात्मा की प्राप्ति के लिये अनन्य भक्ति से उन्हीं परमेश्वर का भजन करना चाहिये।

इसके सिवा अपने को बड़ा विद्वान् मानने वाला पुरुष इस लोक में जिस उद्देश्य से बार-बार बहुत-से कर्म करता है, उस उद्देश्य की प्रप्ति तो दूर रही-उलटा उसे उसके विपरीत ही फल मिलता है और निस्सदेह मिलता है। कर्म में प्रवृत्त होने के दो ही उद्देश्य होते हैं-सुख पाना और दुःख से छूटना। परन्तु जो पहले कामना न होने के कारण सुख में निमग्न रहता था, उसे ही अब कामना के कारण यहाँ सदा-सर्वदा दुःख ही भोगना पड़ता है।

कामान् कामयते काम्यैर्यदर्थमिह पूरुषः ।

स वै देहस्तु पारक्यो भङ्गुरो यात्युपैति च ॥ ४३॥

किमु व्यवहितापत्यदारागारधनादयः ।

राज्यकोशगजामात्यभृत्याप्ता ममतास्पदाः ॥ ४४॥

किमेतैरात्मनस्तुच्छैः सह देहेन नश्वरैः ।

अनर्थैरर्थसङ्काशैर्नित्यानन्दमहोदधेः ॥ ४५॥

निरूप्यतामिह स्वार्थः कियान् देहभृतोऽसुराः ।

निषेकादिष्ववस्थासु क्लिश्यमानस्य कर्मभिः ॥ ४६॥

कर्माण्यारभते देही देहेनात्मानुवर्तिना ।

कर्मभिस्तनुते देहमुभयं त्वविवेकतः ॥ ४७॥

तस्मादर्थाश्च कामाश्च धर्माश्च यदपाश्रयाः ।

भजतानीहयाऽऽत्मानमनीहं हरिमीश्वरम् ॥ ४८॥

सर्वेषामपि भूतानां हरिरात्मेश्वरः प्रियः ।

भूतैर्महद्भिः स्वकृतैः कृतानां जीवसंज्ञितः ॥ ४९॥

देवोऽसुरो मनुष्यो वा यक्षो गन्धर्व एव च ।

भजन् मुकुन्दचरणं स्वस्तिमान् स्याद्यथा वयम् ॥ ५०॥

नालं द्विजत्वं देवत्वमृषित्वं वासुरात्मजाः ।

प्रीणनाय मुकुन्दस्य न वृत्तं न बहुज्ञता ॥ ५१॥

न दानं न तपो नेज्या न शौचं न व्रतानि च ।

प्रीयतेऽमलया भक्त्या हरिरन्यद्विडम्बनम् ॥ ५२॥

ततो हरौ भगवति भक्तिं कुरुत दानवाः ।

आत्मौपम्येन सर्वत्र सर्वभूतात्मनीश्वरे ॥ ५३॥

दैतेया यक्षरक्षांसि स्त्रियः शूद्रा व्रजौकसः ।

खगा मृगाः पापजीवाः सन्ति ह्यच्युततां गताः ॥ ५४॥

एतावानेव लोकेऽस्मिन् पुंसः स्वार्थः परः स्मृतः ।

एकान्तभक्तिर्गोविन्दे यत्सर्वत्र तदीक्षणम् ॥ ५५॥

मनुष्य इस लोक में सकाम कर्मों के द्वारा जिस शरीर के लिये भोग प्राप्त करना चाहता है, वह शरीर ही पराया-स्यार-कुत्तों का भोजन और नाशवान् है। कभी वह मिल जाता है तो कभी बिछुड़ जाता है। जब शरीर की ही यह दशा है-तब इससे अलग रहने वाले पुत्र, स्त्री, महल, धन, सम्पत्ति, राज्य, खजाने, हाथी-घोड़े, मन्त्री, नौकर-चाकर, गुरुजन और दूसरे अपने कहलाने वालों की तो बात ही क्या है। ये तुच्छ विषय शरीर के साथ ही नष्ट हो जाते हैं। ये जान तो पड़ते हैं पुरुषार्थ के समान, परन्तु हैं वास्तव में अनर्थरूप ही। आत्मा स्वयं ही अनन्त आनन्द का महान् समुद्र है। उसके लिये इन वस्तुओं की क्या आवश्यकता है?

भाइयों! तनिक विचार तो करो-जो जीव गर्भाधान से लेकर मृत्यु पर्यन्त सभी अवस्थाओं में अपने कर्मों के अधीन होकर क्लेश-ही-क्लेश भोगत है, उसका इस संसार में स्वार्थ ही क्या है। यह जीव सूक्ष्म शरीर को ही अपना आत्मा मानकर उसके द्वारा अनेकों प्रकार के कर्म करता है और कर्मों के कारण ही फिर शरीर ग्रहण करता है। इस प्रकार कर्म से शरीर और शरीर से कर्म की परम्परा चल पड़ती है। और ऐसा होता है अविवेक के कारण। इसलिये निष्कामभाव से निष्क्रिय आत्मस्वरूप भगवान् श्रीहरि का भजन करना चाहिये। अर्थ, धर्म और काम-सब उन्हीं के आश्रित हैं, बिना उनकी इच्छा के नहीं मिल सकते। भगवान् श्रीहरि समस्त प्राणियों के ईश्वर, आत्मा और परम प्रियतम हैं। वे अपने ही बनाये हुए पंचभूत और सूक्ष्मभूत आदि के द्वारा निर्मित शरीरों में जीव के नाम से कहे जाते हैं। देवता, दैत्य, मनुष्य, यक्ष अथवा गन्धर्व- कोई भी क्यों न हो-जो भगवान् के चरणकमलों का सेवन करता है, वह हमारे ही समान कल्याण का भाजन होता है।

दैत्यबालको! भगवान् को प्रसन्न करने के लिये ब्राह्मण, देवता या ऋषि होना, सदाचार और विविध ज्ञानों से सम्पन्न होना तथा दान, तप, यज्ञ, शारीरिक और मानसिक शौच और बड़े-बड़े व्रतों का अनुष्ठान पर्याप्त नहीं है। भगवान् केवल निष्काम प्रेम-भक्ति से ही प्रसन्न होते हैं। और सब तो विडम्बना-मात्र हैं। इसलिये दानव-बन्धुओं! समस्त प्राणियों को अपने समान ही समझकर सर्वत्र विराजमान, सर्वात्मा, सर्वशक्तिमान् भगवान् की भक्ति करो। भगवान् की भक्ति के प्रभाव से दैत्य, यक्ष, राक्षस, स्त्रियाँ, शूद्र, गो पालक अहीर, पक्षी, मृग और बहुत-से पापी जीव भी भगवद्भाव को प्राप्त हो गये हैं। इस संसार में या मनुष्य-शरीर में जीव का सबसे बड़ा स्वार्थ अर्थात् एकमात्र परमार्थ इतना ही है कि वह भगवान् श्रीकृष्ण की अनन्य भक्ति प्राप्त करे। उस भक्ति का स्वरूप है सर्वदा, सर्वत्र जब वस्तुओं में भगवान् का दर्शन।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे प्रह्लादावुचरिते दैत्यपुत्रानुशासनं नाम सप्तमोऽध्यायः ॥ ७॥

शेष जारी-आगे पढ़े............... सप्तम स्कन्ध: अष्टमोऽध्यायः

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