विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय ३

विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय ३  

विष्णु पुराण के प्रथम अंश के अध्याय ३ में ब्रह्मादि की आयु और काल का स्वरूप का वर्णन है।

विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय ३

विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय ३  

Vishnu Purana first part chapter 3

विष्णुपुराणम् प्रथमांशः अध्यायः ३ 

विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय ३  

श्री विष्णुपुराण प्रथम अंश तीसरा अध्याय

श्रीमैत्रेय उवाच

निर्गुणस्याप्रमेयस्य शुद्धस्याप्यमलात्मनः ।

कथं सर्गादिकर्तृत्वं ब्रह्मणोऽभ्युपगम्यते ॥१॥

श्रीमैत्रेयजी बोले ;– हे भगवन ! जो ब्रह्म निर्गुण, अप्रमेय, शुद्ध और निर्मलात्मा है उसका सर्गादिका कर्ता होना कैसे सिद्ध हो सकता है ?

श्रीपराशर उवाच

शक्तयः सर्वभावानामचिन्त्यज्ञानगोचराः ।

यतोऽतो ब्रह्मणस्तास्तु सर्गाद्या भावशक्तयः ।

भवन्ति तपतां श्रेष्ठ पावकस्य यथोष्णता ॥२॥

तन्निबोध यथा सर्गे भगवान्सम्प्रवर्त्तते ।

नारायणाख्यो भगवान्ब्रह्म लोकपितामहः ॥३॥

उप्तन्नः प्रोच्यते विद्वन्नित्यमेवोपचारतः ॥४॥

निजेन तस्य मानेन आयुर्वर्षशतं स्मृतम् ।

तत्पराख्यं तदर्द्ध च परार्द्धमभिधीयते ॥५॥

श्रीपराशरजी बोले ;– हे तपस्वियों में श्रेष्ठ मैत्रेय ! समस्त भाव-पदार्थों की शक्तियाँ अचिन्त्य ज्ञान की विषय होती है; अत: अग्नि की शक्ति उष्णता के समान ब्रह्म की भी सर्गादिरचनारूप शक्तियाँ स्वाभाविक है। अब जिस प्रकार नारायण नामक लोक-पितामह भगवान ब्रह्माजी सृष्टि की रचना में प्रवृत्त होते हैं सो सुनो , हे विद्वन ! वे सदा उपचार से ही उत्पन्न हुएकहलाते हैं। उनके अपने परिमाण से उनकी आयु सौ वर्ष की कही जाती है , उस (सौ वर्ष) का नाम पर है, उसका आधा परार्द्ध कहलाता है।

कालस्वरूपं विष्णोश्च यन्मयोक्तं तवानघ ।

तेन तस्य निबोध त्वं परिमाणोपपादनम् ॥६॥

अन्येषां चैव जन्तूनां चराणामचराश्च ये ।

भूभूभृत्सागरादीनामशेषाणां च सत्तम ॥७॥

काष्ठा पत्र्चदशाख्याता निमेषा मुनिसत्तम ।

काष्ठा पत्र्चदशाख्याता निमेषा मनिसत्तम ।

काष्ठा त्रिंशत्कला त्रिंशत्कला मौहूर्तिको विधिः ॥८॥

तावत्संख्यैरहोरात्रं मुहूर्तैर्मानुषं स्मृतम् ।

अहोरात्राणि तावानित मासः पक्षद्वयात्मकः ॥९॥

तैः षड्‌भिरयनं वर्ष द्वेऽयनें दक्षिणोत्तरे ।

अयनं दक्षिणं रात्रिर्देवानामुत्तरं दिनम् ॥१०॥

हे अनघ ! मैंने जो तुमसे विष्णु भगवान का कालस्वरूप कहा था उसी के द्वारा उस ब्रह्मा की तथा और भी जो पृथ्वी, पर्वत, समुद्र आदि चराचर जीव है उनकी आयुका परिमाण किया जाता है। हे मुनिश्रेष्ठ ! पन्द्रह निमेष को काष्ठा कहते हैं, तीस काष्ठा की एक कला तथा तीस कलाका एक मुहूर्त होता है। तीस मुहूर्त का मनुष्य का एक दिन-रात कहा जाता हैं और उतने ही दिन-रात का दो पक्षयुक्त एक मास होता है। छ: महीनों का एक अयन और दक्षिणायन तथा उत्तरायण दो अयन मिलकर एक वर्ष होता है, दक्षिणायन देवताओं की रात्रि है और उत्तरायण दिन ।

दिव्यैर्वर्षसहस्त्रैस्तु कृतत्रेतदिसंज्ञितम् ।

चतुर्युगं द्वादशभिस्तद्विभागं निबोध मे ॥११॥

चत्वारि त्रीणि द्वै चैकं कृतादिषु यथाक्रमम् ।

दिव्याब्दानां सहस्त्राणि युगेष्वाहुः पुराविदः ॥१२॥

तत्प्रमाणैः शतैः सन्ध्या पूर्वा तत्राभिधीयते ।

सन्ध्यांशश्चैव तत्तुल्यो युगस्यानन्तरो हि सः ॥१३॥

सन्ध्यासध्यांशयोरन्तर्यः कालो मुनिसत्तम ।

युगाख्यः स तु विज्ञेयः कृतत्रेतादिसंज्ञितः ॥१४॥

देवताओं के बारह हजार वर्षो के सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग नामक चार युग होते है। उनका अलग-अलग परिमाण मैं तुम्हे सुनाता हूँ। पुरातत्त्व के जाननेवाले सतयुग आदि का परिमाण क्रमश: चार, तीन, दो और एक हजार दिव्य वर्ष बतलाते है। प्रत्येक युग के पूर्व उतने ही सौ वर्ष की संध्या बतायी जाती है और युग के पीछे उतने ही परिमाणवाले संध्यांश होते है। हे मुनिश्रेष्ठ ! इन सन्ध्यांशो के बीच का जितना काल होता है., उसे ही सतयुग आदि नामवाले युग जानना चाहिये।

कृतं त्रेता द्वाररश्च कलिश्चैव चतुर्युगम् ।

प्रोच्यते तस्तहस्त्र च ब्रह्मणो दिवसं मुने ॥१५॥

ब्रह्मणो दिवसे ब्रह्मन्मनवस्तु चतुर्दश ।

भवन्ति परिमाणं च तेषां कालकृतं श्रृणु ॥१६॥

सप्तर्षयः सुराः शक्रो मनुस्तत्सूनवो नृपाः ।

एककाले हि सृज्यन्ते संह्रियन्ते च पूर्ववत् ॥१७॥

हे मुने ! सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलि ये मिलकर चतुर्युग कहलाते हैं; ऐसे हजार चतुर्युग का ब्रह्मा का एक दिन होता है। हे ब्रह्मन ! ब्रह्मा के एक दिन में चौदह मनु होते है, उनका कालकृत परिमाण सुनो । सप्तर्षि, देवगण, इंद्र, मनु और मनु के पुत्र राजालोग पूर्व कल्पानुसार एक ही काल में रचे जाते है और एक ही काल में उनका संहार किया जाता हैं।

चतुर्यगुणां संख्याता साधिका ह्रोकासप्ततिः ।

मन्वन्तरं मनोः कालः सुरादीनां च सत्तम ॥१८॥

अष्टौ शत सहस्त्राणि दिव्ययां संख्यया स्मृतम् ।

द्विपत्रचाशत्तथान्यानि सहस्त्राण्यधिकानि तु ॥१९॥

त्रिंशत्कोट्यस्तु सम्पूर्णाः संख्याताः संख्याया द्विज ।

सप्तषष्टिस्तथान्यानि नियुतानि महामुने ॥२०॥

विंशतिस्तु सह्स्त्राणि कालोऽयमधिकं विना ।

मन्वन्तरस्य सड्खयेयं मानुषैर्वत्सरैर्द्विज ॥२१॥

चतुर्दशगुणो ह्योष कालो ब्राह्ममहः स्मृतम् ।

ब्राह्मो नैमित्तिको नाम तस्यान्ते प्रतिसत्र्चरः ॥२२॥

हे सत्तम ! इकहत्तर चतुर्युग से कुछ अधिक काल का एक मन्वन्तर होता है। यही मनु और देवता आदिका काल है। इसप्रकार दिव्य वर्ष-गणना से एक मन्वन्तर में आठ लाख बावन हजार वर्ष बताये जाते है। तथा हे महामुने ! मानवी वर्ष गणना के अनुसार मन्वन्तर का परिमाण पुरे तीस करोड़ सरसठ लाख बीस हजार वर्ष है, इससे अधिक नही, इस काल का चौदह गुना ब्रह्मा का दिन होता है, इसके अनन्तर नैमित्तिक नामवाला ब्राह्म-प्रलय होता है।

तदा ही दह्राते सर्वं त्रैलोक्यं भूर्भुवादिकम् ।

जनं प्रयान्ति तापार्था महर्लोकनिवासिनः ॥२३॥

एकार्णवे तु त्रैलोक्ये ब्रह्म नारायणात्मकः ।

भोगिशय्यां गतः शेते त्रैलोक्यग्रासबृंहितः ॥२४॥

जनस्थैर्योगिभिर्देवाश्चिन्त्यमानोऽब्जसम्भवः ।

तत्प्रमाणां हि तां रात्रिं तदन्ते सृजते पुनः ॥२५॥

उस समय भूर्लोक, भुवर्लोक और स्वर्लोक तीनों जलने लगते है और महर्लोक में रहनेवाले सिद्धगण अति संतप्त होकर जनलोक को चले जाते हैं। इसप्रकार त्रिलोकी के जलमय हो जानेपर जनलोकवासी योगियोंद्वारा ध्यान किये जाते हुए नारायणरूप कमलयोनि ब्रह्माजी त्रिलोकी के ग्रास से तृप्त होकर दिन के बराबर ही परिमाणवाली उस रात्रि में शेषशय्यापर शयन करते हैं और उनके बीत जानेपर पुन: संसार की सृष्टि करते है।

एवं तु ब्रह्मणो वर्षमेवं वर्षशतं च यत् ।

शतं हि तस्य वर्षाणां परमायुर्महात्मनः ॥२६॥

एकमस्य व्यतीतं तु परार्द्ध ब्रह्मणोऽनघ ।

तस्यान्तेऽभून्महाकल्पः पाद्य इत्यभिविश्रुतः ॥२७॥

द्वितीयस्य परार्द्धस्य वर्तमानस्य वै द्विज ।

वाराह इति कल्पोऽयं प्रथमः परिकीर्तितः ॥२८॥

इसी प्रकार पक्ष, मास आदि गणना से ब्रह्मा का एक वर्ष और फिर सौ वर्ष होते है। ब्रह्मा के सौ वश ही उस महात्मा ब्रह्मा की परमायु है। हे अनघ ! उन ब्रह्माजी का एक परार्द्ध बीत चूका है। उसके अंत में पाद्य नामसे विख्यात महाकल्प हुआ था । हे द्विज ! इससमय वर्तमान उनके दूसरे परार्द्ध का यह वाराह नामक पहला कल्प कहा गया है।।

इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽशे तृतीयोऽध्यायः।।

आगे जारी........ श्रीविष्णुपुराण अध्याय 4

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