विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय ४

विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय ४   

विष्णु पुराण के प्रथम अंश के अध्याय ४ में ब्रह्माजी की उत्पत्ति वराहभगवान्द्वारा पृथ्वी का उद्धार और ब्रह्माजी की लोक-रचना का वर्णन है।

विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय ४

विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय ४   

Vishnu Purana first part chapter 4

विष्णुपुराणम् प्रथमांशः चतुर्थोऽध्यायः  

विष्णुपुराणम्/प्रथमांशः/अध्यायः ४

श्रीविष्णुपुराण प्रथम अंश चौथा अध्याय

श्रीमैत्रेय उवाच ।

ब्रह्मानारायणाख्योऽसौ कल्पादौ भगवान्यथा ।

ससर्ज सर्वभूतानि तदाचक्ष्व महामुने ॥१॥

श्रीमैत्रेय बोले - हे महामुने ! कल्पके आदिमें नारायणाख्य भगवान् ब्रह्माजीने जिस प्रकार समस्त भूतोंकी रचना की वह आप वर्णन किजिये ॥१॥

श्रीपराशर उवाच ।

प्रजाः ससर्ज भगवान्ब्रह्मा नारायणात्मकः ।

प्रजापतिपतिर्देवो यथा तन्मे निशामय ॥२॥

श्रीपराशरजी बोले- प्रजापतियोंके स्वामी नारायणस्वरूप भगवान् ब्रह्माजीने जिस प्रकार प्रजाकी सृष्टि की थी वह मुझसे सुनो ॥२॥

अतीतकल्पावसाने निशासुप्तोत्थितः प्रभुः ।

सत्त्वोद्रि क्तस्तथा ब्रह्मा शून्यं लोकमवैक्षत ॥३॥

पिछले कल्पका अन्त होनेपर रात्रिमें सोकर उठनेपर सत्त्वगुणके उद्रेकसे युक्त भगवान् ब्रह्माजीने सम्पूर्ण लोकोंको शून्यमय देखा ॥३॥

नारायणः परोऽचिन्त्यः परोषामपि स प्रभुः ।

ब्रह्मस्वरूपी भगवाननादिः सर्वसम्भवः ॥४॥

वे भगवान नारायण पर हैं, अचिन्त्य हैं, ब्रह्मा, शिव आदि ईश्वरोंके भी ईश्वर हैं, ब्रह्मस्वरूप हैं, अनादि हैं और सबकी उत्पत्तिके स्थान हैं ॥४॥

इमं चोदाहरन्त्यत्र श्लोकं नारायणं प्रति ।

ब्रह्मस्वरूपिणं देवं जगतः प्रभवाप्ययम् ॥५॥

(मनु आदि स्मृतिकार) उन ब्रह्मस्वरूप श्रीनारायदेवके विषयमें जो एस जगतकी उप्तत्ति और लयके स्थान हैं , यह श्‍लोक कहते हैं ॥५॥

आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनवः ।

अयनं तस्य ताः पूर्वं तेन नारायणः स्मृतः ॥६॥

नर ( अर्थात्‌ पुरुष-भगवान् पुरुषोत्तम ) से उप्तन्न होनेके कारण जल को 'नार' कहते हैं, वह नार ( जल ) ही उनका प्रथम अयन ( निवास-स्थान ) है । इसलिये भगवान्‌ को 'नारायण' कहा है ॥६॥

तोयान्तःस्थां महीं ज्ञात्वा जगत्येकार्णवीकृते ।

अनुमानात्तदुद्धारं कर्तुकामः प्रजापतिः ॥७॥

अकरोत्स्वतनूमन्यां कल्पादिषु यथा पुरा ।

सत्स्यकूर्मादिकां तद्वद्वाराहं वरुरास्थितः ॥८॥

वेदयज्ञमयं रूपमश्षोजगतः स्थितौ ।

स्थितः स्थिरात्मा सर्वात्मा परमात्मा प्रजापतिः ॥९॥

जनलोकगतैस्सिद्धैस्सनकाद्यैरभिष्टुतः ।

प्रविवेश तदा तोयमात्माधारो धराधरः ॥१०॥

सम्पूर्ण जगत जलमय हो रहा था । इसलिये प्रजापति ब्रह्मजी ने अनुमान से पृथिवी को जल के भीतर जान उसे बाहर निकालनेकी इच्छासे एक दुसरा शरीर धारण किया । उन्होंने पूर्व-कल्पोंके आदिमें जैसे मत्स्य, कूर्म आदि रूप धारण किये थे वैसे ही इस वाराह कल्पके आरम्भमें वेदयज्ञमय वाराह शरीर ग्रहण किया और सम्पूर्ण जगतकी स्थितिमें तत्पर हो सबके अन्तरात्मा और अविचल रूप वे परमत्मा प्रजापति ब्रह्माजी, जो पृथिवीको धारण करनेवाले और अपने ही आश्रयसे स्थित हैं, जन लोकस्थित सनकादि सिद्धेश्वरोसे स्तुति किये जाते हुए जलमें प्रविष्ट हुए ॥७-१०॥

निरीक्ष्य तं तदा देवी पातालातलमागतम् ।

तुष्टाव प्रणता भूत्वा भक्तिनम्रा वसुन्धरा ॥११॥

तब उन्हें पाताललोकर्में आये देख देवी वसुन्धरा अति भक्तिविनम्र हो उनकी स्तुति करने लगी ॥११॥

श्रीपृथिव्युवाच ।

नमस्ते पुण्डरीकाक्ष शंखचक्रगदाधर ।

मामुद्धरास्मादद्य त्वं त्वत्तोऽहं पूर्वमुत्थिता ॥१२॥

पृथिवी बोली - हे शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण करनेवाले कमलनयन भगवन् ! आपको नमस्कार है । आज आप इस पातालतल से मेरा उद्धार कीजिये । पूर्वकाल में आप ही से मैं उत्पन्न हूई थी ॥१२॥

त्वयाहमुद्धृता पूर्वं त्वन्मयाहं जनार्दन ।

तथान्यानि च भूतानि गगनादीन्यश्षोतः ॥१३॥

हे जनार्दन ! पहले भी आप ही ने मेरा उद्धार किया था । और हे प्रभो ! मेरे तथा आकाशादि अन्य सब भूतो कें भी आप ही उपादान कारण हैं ॥१३॥

नमस्ते परमात्मात्मन्पुरुषात्मन्नमोस्तु ते ।

प्रधानव्यक्तभूताय कालभूताय ते नमः ॥१४॥

हे परमात्मस्वरूप ! आपको नमस्कार है । हे पुरुषात्मन् ! आपको नमस्कार है । हे प्रधान ( कारण ) और व्यक्तः (कार्य) रूप ! आपको नमस्कार है । हे कलस्वरूप ! आपको बारम्बार नमस्कार है ॥१४॥

त्वं कर्ता सर्वभूतानां त्वं पाता त्वं विनाशकृत् ।

सर्गादिषु प्रभो ब्रह्मविष्णुरुद्रा त्मरूपधृक् ॥१५॥

हे प्रभो ! जगत‌ की सृष्टि आदि के लिये ब्रह्मा, विष्णु और रुद्ररूप धारण करनेवाले आप ही सम्पूर्ण भूतों की उप्तत्ति, पालन और नाश करनेवाले हैं ॥१५॥

सम्भक्षयित्वा सकलं जगत्येकार्णवीकृते ।

श्षोए! त्वमेव गोविंद चिन्त्यमानो मनीषिभिः ॥१६॥

और जगत्‌‍ के एकार्णवरूप ( जलमय ) हो जाने पर, हे गोविन्द । सबको भक्षण कर अन्त में आप ही मनीषिजनों द्वारा चिन्तित होते हुए जल में शयन करते हैं ॥१६॥

भवतो यत्परं तत्त्वं तन्न जानाति कश्चन ।

अवतारेषु यद्रू पं तदर्चन्ति दिवौकसः ॥१७॥

हे प्रभो ! आपका जो परतत्त्व है उसे तो कोई भी नहीं जानता; अतः आपका जो रूप अवतारों में प्रकट होता है उसी की देवगण पूजा करते हैं ॥१७॥

त्वामाराध्य परं ब्रह्म याता मुक्तिं मुमुक्षवः ।

वासुदेवमनाराध्य को मोक्षं समवाप्स्यति ॥१८॥

आप परब्रह्म की ही आराधना करके मुमुक्षुजन मुक्त है, भला वासुदेव की आराधना किये बिना कौन मोक्ष प्राप्त कर सकता हैं ? ॥१८॥

यत्किंचिन्मनसा ग्राह्यं यद्ग्राह्यं चक्षुरादिभिः ।

बुद्ध्या च यत्परिच्छेद्यं तद्रू पमखिलं तव ॥१९॥

मनसे जो कुछ ग्रहण (संकल्प) किया जाता हैं, चक्षु आदि इन्द्रियों से जो कुछ ग्रहण (विषय) करने योग्य है, बुद्धि द्वारा जो कुछ विचारणीय है वह सब आप ही का रुप है ॥१९॥

त्वन्मयाहं त्वदाधारा त्वत्सृष्टा त्वत्समाश्रया ।

माधवीमिति लोकोयमभिधत्ते ततो हि माम् ॥२०॥

हे प्रभो ! मैं आप ही का रूप हूँ, आप ही के आश्रित हूँ और आप ही के द्वारा रची गयी हूँ तथा आप ही की शरण में हूँ। इसीलिये लोक में मुझे माधवीभी कहते हैं ॥२०॥

जयाखिलज्ञानमय जय स्थूलमयाव्यय ।

जयाऽनन्त जयाव्यक्त जय व्यक्तमय प्रभो ॥२१॥

हे सम्पूर्ण ज्ञानमय ! हे स्थूलमय ! हे अव्यय ! आपकी जय हो ! हे अनंत ! हे अव्यक्त ! हे व्यक्तमय प्रभो ! आपकी जय हो ॥२१॥

परापरात्मन्विश्वात्मञ्जय यज्ञपतेऽनघ ।

त्वं यज्ञस्त्वं वषट्कारस्त्वमॐकारस्त्वमग्नयः ॥२२॥

हे परापर-स्वरुप ! हे विश्वात्मन ! जे यज्ञपते ! हे अनघ ! आपकी जय हो ! हे प्रभो ~! आप ही यज्ञ हैं, आप ही वषट्कार हैं, आप ही ओंकार हैं और आप ही (आहवानीयादि) अग्नियाँ हैं ॥२२॥

त्वं वेदास्त्वं तदङ्गानि त्वं यज्ञपुरुषो हरे ।

सूर्यादयो ग्रहास्तारा नक्षत्राण्यखितं जगत् ॥२३॥

हे हरे ! आप ही वेद, वेदांग और यज्ञपुरुष हैं तथा सूर्य आदि ग्रह, तारे, नक्षत्र और सम्पूर्ण जगत भी आप ही हैं ॥२३॥

मूर्तामूर्तमदृश्यं च दृश्यं च पुरुषोत्तम ।

यच्चोक्तं यच्च नैवोक्तं मयात्र परमेश्वर ।

तत्सर्वं त्वं नमस्तुभ्यं भूयोभूयो नमोनमः ॥२५॥

हे पुरुषोत्तम ! हे परमेश्वर ! मूर्त-अमृर्त, दृश्य-अदृश्य तथा जो कुछ मैने कहा है और जो नहीं कहा, वह सब आप ही हैं । अतः आपको नमस्कार है, बारम्बार नमस्कार है ॥२४॥

श्रीपराशर उवाच ।

एवं संस्तूयमानस्तु पृथिव्या धरणीधरः ।

सामस्वरध्वनिः श्रीमाञ् जगर्ज परिघर्घरम् ॥२६॥

श्रीपराशरजी बोले- पृथिवी द्वारा इस प्रकार स्तुति किये जाने पर सामस्वर ही जिनकी ध्वनि है उन भगवान् धरणीधर ने घर्घर शब्द से गर्जना की ॥२५॥

ततः समुत्क्षिप्य धरां स्वदंष्ट्रया महावराहः स्फुटपद्मलोचनः ।

रसातलादुत्पलपत्रसन्निभः समुत्थितो नील इवाचलो महान् ॥२७॥

फिर विकसित कमल के समान नेत्रोंवाले उन महावराह ने अपनी डाढ़ों से पृथिवी को उठा लिया और वे कमल दल के समान श्याम तथा नीलाचल के सदृश विशालकाय भगवान् रसातल से बाहर निकले ॥२६॥

उत्तिष्ठता तेन मुखानिलाहतं तत्संभवाम्भो जनलोकसंश्रयान् ।

प्रक्षालयामास हि तान्महाद्युतीन् सनान्दनादीनपकल्मषान् मुनीन् ॥२८॥

निकलते समय उनके मुख के श्वास से उछलते हुए जलने जनलोकमें रहनेवाले महातेजस्वी और निष्पाप सनन्दनादि मुनीश्वरों को भिगो दिया ॥२७॥

प्रयान्ति तोयानि खुराग्रविक्षतरसातलेऽधः कृतशब्दसन्तति ।

श्वासानिलास्ताः परितः प्रयांति सिद्धा जने ये नियता वसन्ति ॥२९॥

जल बड़ा शब्द करता हुआ उनके खुरोंसे विदीर्ण हुए रसातलमें नीचेकी ओर जाने लगा और जनलोकमें रहनेवाले सिद्धगण उनके श्वास वायुसे विक्षिप्त होकर इधर उधर भागने लगे ॥२८॥

उत्तिष्ठतस्तस्य जलार्द्र कुक्षेर्महावराहस्य महीं विगृह्य ।

विधुन्वतो वेदमयं शरीरं रोमान्तरस्था मुनयः स्तुवन्ति ॥३०॥

जिनकी कुक्षि जलमें भोगी हुई है वे महावराह जिस समय अपने वेदमय शरीरको कँपाते हुए पृथिवीको लेकर बाहर निकले उस समय उनकी रोमावलीमें स्थित मुनिजन स्तुति करने लगे ॥२९॥

तं तुष्टुवुस्तोषपरीतचेतसो लोके जने ये निवसन्ति योगिनः ।

सनन्दनाद्या ह्यतिनम्रकन्धरा धराधरं धीरतरोद्धतेक्षणम् ॥३१॥

उन निश्शंक और उन्नत दृष्टिवाले धराधर भगवान्‌की जनलोकमें रहनेवाले सनन्दनादि योगीश्वरोंने प्रसन्नचित्तसे अति नम्रतापूर्वक सिर झुकाकर इस प्रकार स्तुति की ॥३०॥

जयेश्वराणां परमेश केशव प्रभो गदाशंखधरासिचक्रधृक् ।

प्रसूतिनाशस्थितिहेतुरीश्वरस्त्वमेव नान्यत्परमं च यत्पदम् ॥३२॥

हे ब्रह्मदि ईश्वरों के भी परम ईश्वर ! हे केशव ! हे शंख गदाधर ! हे खड्ग चक्रधारी प्रभो ! आपकी जय हो ! आप ही संसार की उप्तत्ति, स्थिति और नाश के कारण हैं, तथा आप ही ईश्‍वर हैं और जिसे परम पद कहते हैं वह भी आपसे अतिरिक्त और कुछ नहीं है ॥३१॥

पादेषु वेदास्तव यूपदंष्ट्रा दन्तेषु जज्ञाश्चितयश्च वक्त्रे ।

हुताशजिह्वोसि तनूरुहाणि दर्भाः प्रभो यज्ञपुमांस्त्वमेव ॥३३॥

हे यूपरूपी डाढ़ोवाले प्रभो! आप ही यज्ञपुरुष हैं आपके चरणों मे चारों वेद हैं, दाँतों मे यज्ञ हैं, मुख में (श्येन चित आदि) चितियाँ हैं । हुताशन (यज्ञाग्नि) आपकी जिह्वा है तथा कुशाएँ रोमावलि हैं ॥३२॥

विलोचने रात्र्! यहनी महात्मन्सर्वाश्रयं ब्रह्मपरं शिरस्ते ।

सूक्तान्यश्षोआ!णि सटाकलापो घ्राणं समस्तानि हवींषि देव ॥३४॥

हे महात्मन् ! रात और दिन आपके नेत्र हैं तथा सबका आधारभूत परब्रह्म आपका सिर है । हे देव ! वैष्णव आदि समस्त सूक्त आपके सटाकलाप ( स्कन्ध के रोम गुच्छ ) है और समग्र हवि आपके प्राण हैं ॥३३॥

स्रुक्तुण्डसामस्वरधीरनादप्राग्वंशकायाखिलसत्रसन्धे ।

पूर्तेष्टधर्मश्रवणोसि देव सनातनात्मन्भगवन्प्रसीद ॥३५॥

हे प्रभो ! स्त्रुक् आपका तुण्ड ( थूथनी ) है, सामस्वर धीर गम्भीर शब्द है, प्राग्वंश ( यजमानगृह ) शरीर है तथा सत्र शरीर की सन्धियाँ हैं । हे देव ! इष्ट ( श्रौत ) और पूर्त ( स्मार्त ) धर्म आपके कान हैं । हे नित्यस्वरूप भगवन ! प्रसन्न होइये ॥३४॥

पदक्रमाक्रान्तभुवं भवन्तमादिस्थितं चाक्षरविश्वमूर्ते ।

विश्वस्य विद्मः परमेश्वरोऽसि प्रसीद नाथोसि परावरस्य ॥३६॥

हे अक्षर ! हे विश्वमूर्ते ! अपने पाद प्रहार से भूमंडल को व्याप्त करनेवाले आपको हम विश्व के आदिकारण समझते हैं। आप सम्पूर्ण चराचर जगत्‌ के परमेश्वर और नाथ हैं; अत; प्रसन्न होइये ॥३५॥

दंष्ट्राग्रविन्यस्तमश्षोमेतद्भूमण्डलं नाथ विभाव्यते ते ।

विगाहतः पद्मवनं विलग्नं सरोजिनीपत्रमिवोढपंकम् ॥३७॥

हे नाथ ! आपकी डाढ़ों पर रखा हुआ यह सम्पूर्ण भूमंडल ऐसा प्रतीत होता है मानो कमलवन को रौंदते हुए गजराज के दाँतों से कोई कीचड़ में सना हुआ कमल का पत्ता लगा हो ॥३६॥

द्यावापृथिव्योरतुलप्रभाव यदन्तरं तद्वपुषा तवैव ।

व्याप्तं जगद्व्याप्तिसमर्थदीप्ते हिताय विश्वस्य विभो भव त्वम् ॥३८॥

हे अनुपम प्रभावशाली प्रभो ! पृथिवी और आकाश के बीच में जितना अन्तर है वह आपके शरीर से ही व्याप्त है । हे विश्व को व्याप्त करने में समर्थ तेजयुक्त प्रभो ! आप विश्व का कल्याण कीजिये ॥३७॥

परमार्थस्त्वमेवैको नान्योस्ति जगतः पते ।

तवैष महिमा येन व्याप्तमेतच्चराचरम् ॥३९॥

हे जगत्पते ! परमार्थ (सत्य वस्तु ) तो एकमात्र आप ही हैं, आपके अतिरिक्त और कोई भी नहीं है । यह आपकी ही महिमा ( माया ) है जिससे यह सम्पूर्ण चराचर जगत् व्याप्त हैं ॥३८॥

यदेतदृश्यते मूर्त्तमेतज्ज्ञानात्मनस्तव ।

भ्रान्तिज्ञानेन पश्यन्ति जगद्रू पमयोगिनः ॥४०॥

यह जो कुछ भी मूर्तिमान् जगत दिखायी देता है ज्ञानस्वरूप आप ही का रूप है । अजितेन्द्रिय लोग भ्रम से इसे जगत् रूप देखते हैं ॥३९॥

ज्ञानस्वरूपमखिलं जगदेतदबुद्धयः ।

अर्थस्वरूपं पश्यन्तो भ्राम्यन्ते मोहसंप्लवे ॥४१॥

इस सम्पूर्ण ज्ञान स्वरूप जगत्‌ को बुद्धीहीन लोग अर्थरूप देखते हैं, अतः वे निरन्तर मोहमय संसार सागर में भटका करते हैं ॥४०॥

ये तु ज्ञानविदः शुद्धचेतसस्तेऽखिलं जगत् ।

ज्ञानात्मकं प्रपश्यन्ति त्वद्रू पं परमेश्वर ॥४२॥

हे परमेश्वर ! जो लोग शुद्धचित्त और विज्ञानवेत्ता हैं वे इस सम्पूर्ण संसार को आपका ज्ञानत्मक स्वरूप ही देखतें हैं ॥४१॥

प्रसीद सर्व सर्वात्मन्भवाय जगतामिमाम् ।

उद्धरोर्वीममेयात्मञ्छन्नो देह्यब्जलोचन ॥४३॥

हे सर्व ! हे सर्वात्मन ! प्रसन्न होइये । हे अप्रमेयात्मन् ! हे कमलनयन ! संसार के निवास के लिये पृथिवी का उद्धार करके हमको शान्ति प्रदान कीजिये ॥४२॥

सत्त्वोद्रि क्तोऽसि भगवन् गोविंद पृथिवीमिमाम् ।

समुद्धर भवायेश शन्नो देह्यब्जलोचन ॥४४॥

हे भगवन ! हे गोविन्द ! इस समय आप सत्त्वप्रधान है; अतः हे ईश ! जगत के उद्भव के लिये आप इस पृथिवी का उद्धार कीजिये और हे कमलनयन ! हमको शान्ति प्रदान कीजिये ॥४३॥

सर्गप्रवृत्तिर्भवतो जगतामुपकारिणी ।

भवत्वेषा नमस्तेऽस्तु शन्नो देह्यब्जलोचन ॥४५॥

आपके द्वारा यह सर्ग की प्रवृत्ति संसार का उपकार करनेवाली हो ! हे कमलनयन ! आपको नमस्कार है, आप हमको शान्ति प्रदान कीजिये ॥४४॥

श्रीपराशर उवाच ।

एवं संस्तूयमानस्तु परमात्मा महीधरः ।

उज्जहार क्षितिं क्षिप्रं न्यस्तवांश्च महाम्भसि ॥४६॥

श्रीपराशरजी बोले - इस प्रकार स्तुति किये जानेपर पृथिवीको धारण करनेवाले परमात्मा वराहजीने उसे शीघ्र ही उठाकर अपार जलके ऊपर स्थापित कर दिया ॥४५॥

तस्योपरि जलौघस्य महती नौरिव स्थिता ।

विततत्त्वात्तु देहस्य न मही याति संप्लवम् ॥४७॥

उस जलसमूहके ऊपर वह एक बहुत बडीं नौकाके समान स्थित है और बहुत विस्तृत आकार होनेके कारण उसमें डुबती नहीं है ॥४६॥

ततः क्षितिं समां कृत्वा पृथिव्यां सोचिनोद्गिरीन् ।

यथाविभागं भगवाननादिः परमेश्वरः ॥४८॥

फिर उन अनादि परमेश्वरने पृथ्विवीको समतल कर उसपर जहाँ-तहाँ पर्वतोंको विभाग करके स्थापित कर दिया ॥४७॥

प्राक्यसर्गदग्धानखिलान्पर्वतान्पृथिवीतले ।

अमोघेन प्रभावेण ससर्जामोघवाञ्छितः ॥४९॥

सत्यसंकल्प भगवानने अपने अमोघ प्रभावसे पूर्वकल्पके अन्तमें दग्ध हुए समस्त पर्वतोंको पृथिवी तलपर यथास्थान रच दिया ॥४८॥

भूविभागं ततः कृत्वा सप्तद्वीपान्यथातथम् ।

भूराद्यांश्चतुरो लोकान्पूर्ववत्समकल्पयत् ॥५०॥

तदनन्तर उन्होंने सप्तद्वेपादि क्रमसे पृथिवीका यथायोग्य विभाग कर भूर्लोकादि चारों लोकोंकी पूर्ववत कल्पना कर दी ॥४९॥

ब्रह्मरूपधरो देवस्ततोऽसौ रजसा वृतः ।

चकार सृष्टिं भगवांश्चतुर्वक्त्रधरो हरिः ॥५१॥

फिर उन भगवान् हरिने रजोगुणसे युक्त हो चतुर्मुखधारी ब्रह्मारूप धारण कर सृष्टिकी रचना की ॥५०॥

निमित्तमात्रमेवाऽसौ सृज्यानां सर्गकर्मणि ।

प्रधानकारणीभूता यतो वै सृज्यशक्तयः ॥५२॥

सृष्टिकी रचनामें भगवान् तो केवल निमित्तमात्र ही हैं, क्योंकि उसकी प्रधान कारण तो केवल निमित्तमात्र ही हैं, क्योकिं उसकी प्रधान कारण तो सृज्य पदार्थोकी शक्तियाँ ही हैं ॥५१॥

निमित्तमात्रं मुक्त्वैवं नान्यत्किंचिदपेक्षते ।

नीयते तपतां श्रेष्ठ स्वशक्त्या वस्तु वस्तुताम् ॥५३॥

हे तपस्वियोंमें श्रेष्ठ मैत्रेय ! वस्तुओंकीं रचनामें निमित्तमात्रको छोड्कर और किसी बातकी आवश्यकता भी नहीं है, क्योंकि वस्तु तो अपनी ही ( परिणाम ) शक्तिसे वस्तुता ( स्थूलरूपता ) को प्राप्त हो जाती है ॥५२॥

इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमांऽशो पृथिव्युद्धारश्चतुर्थोऽध्यायः ॥४॥

आगे जारी........ श्रीविष्णुपुराण अध्याय 5

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