वामनपुराण अध्याय २
वामनपुराण के अध्याय २ में शरदागम
होने पर शंकरजी का मन्दरपर्वत पर जाना और दक्ष यज्ञ का वर्णन है।
श्रीवामनपुराण अध्याय २
Vaman Purana
chapter 2
श्रीवामनपुराणम् द्वितीयोऽध्यायः
वामनपुराणम् अध्यायः २
वामन पुराण दूसरा अध्याय
श्रीवामनपुराण द्वितीय अध्याय
श्रीवामनपुराण
अध्याय २
पुलस्त्य उवाच
ततस्त्रिनेत्रस्य गतः प्रावृट्कालो
घनोपरि।
लोकानन्दकरी रम्या शरत् समभवन्मुने
॥१॥
त्यजन्ति नीलाम्बुधरा नभस्तलं
वृक्षांश्च कङ्काः सरितस्तटानि।
पद्माः सुगन्धं निलयानि वायसा
रुरुर्विषाणं कलुषं जलाशयः ॥२॥
विकासमायन्ति त पङ्कजानि
चन्द्रांशवो भान्ति लताः सुपुष्पाः।
नन्दन्ति हृष्टान्यपि गोकुलानि
सन्तश्च संतोषमनुव्रजन्ति ॥३॥
सरस्सु पद्म गगने च तारका
जलाशयेष्वेव तथा पयांसि।
सतां च चित्तं हि दिशां मुखैः समं
वैमल्यमायान्ति शशङ्ककान्तयः ॥४॥
पुलस्त्यजी बोले - इस प्रकार तीन
नयनवाले भगवान् शिव का वर्षाकाल मेघों पर बसते हुए ही व्यतीत हो गया। हे मुने !
तत्पश्चात् लोगों को आनन्द देनेवाली रमणीय शरद ऋतु आ गयी ! इस ऋतु में नीले मेघ
आकाश को और बगुले वृक्षों को छोड़कर अलग हो जाते हैं । नदियाँ भी तट को छोड़कर बहने
लगती हैं । इसमें कमलपुष्प सुगन्ध फैलाते हैं, कौवे
भी घोसलों को छोड़ देते हैं । रुरुमृगों के श्रृङ्ग गिर पड़ते हैं और जलाशय सर्वथा
स्वच्छ हो जाते हैं । इस समय कमल विकसित होते हैं, शुभ्र
चन्द्रमा की किरणें आनन्ददायिनी होकर फैल जाती हैं, लताएँ
पुष्पित हो जाती हैं, गौवें हष्ट - पुष्ट होकर आनन्द से
विहरती हैं तथा संतों को बड़ा सुख मिलता है । तालाबों में कमल, गगन में तारागण, जलाशयों में निर्मल जल और दिशाओं के
मुखमण्डल के साथ सज्जनों का चित्त तथा चन्द्रमा की ज्योति भी सर्वथा स्वच्छ एवं
निर्मल हो जाती हैं ॥१- ४॥
एतादृशे हरः काले
मेघपृष्ठाधिवासिनीम्।
सतीमादाय शैलेन्द्रं मन्दरं
समुपाययौ ॥५॥
ततो मन्दरपृष्ठेऽसौ स्थितः
समशिलातले।
रराम शंभुर्भगवान् सत्या सह
महाद्युतिः ॥६॥
ततो व्यतीते शरदि प्रतिबुद्धे च
केशवे।
दक्षः प्रजापतिश्रेष्ठो यष्टुमारभत
क्रतुम् ॥७॥
द्वादशेव स चादित्यान् शक्रादींश्च
सुरोत्तमान्।
सकश्यपान् समामन्त्र्य सदस्यान्
समचीकरत् ॥८॥
ऐसी शरद- ऋतु में शंकरजी मेघ के ऊपर
वास करनेवाली सत्ती को साथ लेकर श्रेष्ठ मन्दरपर्वत पर पहुँचे और महातेजस्वी (
महाकान्तिमान् ) भगवान् शंकर मन्दराचल के ऊपरी भाग में एक समतल शिला पर अवस्थित
होकर सती के साथ विश्राम करने लगे । उसके बाद शरद- ऋतु के बीत जाने पर तथा भगवान्
विष्णु के जाग जाने पर प्रजापतियों में श्रेष्ठ दक्ष ने एक विशाल यज्ञ का आयोजन
किया । उन्होंने द्वादश आदित्यों तथा कश्यप आदि ( ऋषियों ) - के साथ ही इन्द्र आदि
श्रेष्ठ देवताओं को भी निमन्त्रित कर उन्हें यज्ञ का सदस्य बनाया ॥५ - ८॥
अरुन्धत्या च सहितं वसिष्ठं
शंसितव्रतम्।
सहानसूययाऽत्रिं च सह धृत्या च
कौशिकम् ॥९॥
अहल्यया गौतमं च भरद्वाजममायया।
चन्द्रया सहितं
ब्रह्मन्नृषिमङ्गिरसं तथा ॥१०॥
आमन्त्र्य कृतवान्दक्षः सदस्यान्
यज्ञसंसदि।
विद्वान् गुणसंपन्नान्
वेदवेदाड्गपारगान् ॥११॥
धर्मं च स समाहूय भार्ययाऽहिंसया
सह।
निमन्त्र्य यज्ञवाटस्य
द्वारपालत्वमादिशत् ॥१२॥
नारदजी ! उन्होंने अरुन्धतीसहित
प्रशस्तव्रतधारी वसिष्ठ को, अनसूयासहित
अत्रिमुनि को, धृति के सहित कौशिक ( विश्वामित्र ) मुनि को,
अहल्या के साथ गौतम को, अमाया के सहित भरद्वाज
को और चन्द्रा के साथ अङ्गिरा ऋषि को आमन्त्रित किया । विद्वान् दक्ष ने इन
गुणसम्पन्न वेद - वेदाङ्गपारगामी विद्वान् ऋषियों को निमन्त्रित कर उन्हें अपने
यज्ञ में धर्म को भी उनकी पत्नी अहिंसा के साथ निमन्त्रित कर यज्ञमण्डप का
द्वारपाल नियुक्त किया ॥९ - १२॥
अरिष्टनेमिनं चक्रे
इध्माहरणकारिणम्।
भृगुं च मन्त्रसंस्कारे सम्यग्
दक्षं प्रयुक्तवान् ॥१३॥
तथा चन्द्रमसं देवं रोहिण्या सहितं
शुचिम्।
धनानामाधिपत्ये च युक्तवान् हि
प्रजापतिः ॥१४॥
जामातृदुहितुश्वैव दौहित्रांश्च
प्रजापतिः।
सशंकरां सतीं मुक्त्वा मखे सर्वान्
न्यमन्त्रयत् ॥१५॥
दक्ष ने अरिष्टनेमि को समिधा लाने का
कार्य सौंपा और भृगु को समुचित मन्त्र – पाठ में नियुक्त किया । फिर दक्षप्रजापति ने
रोहिणीसहित 'अर्थशुचि' चन्द्रमा
को कोषाध्यक्ष के पद पर नियुक्त किया । इस प्रकार दक्षप्रजापति ने केवल शंकरसहित
सती को छोड़कर अपने सभी जामाताओं, पुत्रियों एवं दौहित्रों को
यज्ञ में आमन्त्रित किया ॥१३ - १५॥
नारद उवाच
किमर्थं लोकपतिना धनाध्यक्षो
महेश्वरः।
ज्येष्ठः श्रेष्ठो वरिष्ठोऽपि
आद्योऽपि न निमन्त्रितः ॥१६॥
नारदजी ने कहा ( पूछा ) - ( पुलस्त्यजी
महाराज ! ) लोकस्वामी दक्ष ने महेश्वर को सबसे बड़े, श्रेष्ठ, वरिष्ठ, सबके आदि में
रहनेवाले एवं समग्र ऐश्वर्यों के स्वामी होने पर भी ( यज्ञ में ) क्यों नहीं
निमन्त्रित किया ? ॥१६॥
पुलस्त्य उवाच
ज्येष्ठः श्रेष्ठो वरिष्ठोऽपि
आद्योऽपि भगवान् शिवः।
कपालीति विदित्वेशो दक्षेण न
निमन्त्रितः ॥१७॥
पुलस्त्यजी ने कहा - ( नारदजी ! )
ज्येष्ठ,
श्रेष्ठ, वरिष्ठ तथा अग्रगणी होने पर भी
भगवान् शिव को कपाली जानकर प्रजापति दक्ष ने उन्हें ( यज्ञ में ) निमन्त्रित नहीं
किया ॥१७॥
नारद उवाच
किमर्थं देवताश्रेष्ठः शूलपाणिस्त्रिलोचनः
कपाली भगवाञ्जातः कर्मणा केन शंकरः
॥१८॥
नारदजी ने ( फिर ) पूछा - ( महाराज
! ) देवश्रेष्ठ शूलपाणि, त्रिलोचन भगवान्
शंकर किस कर्म से और किस प्रकार कपाली हो गये, यह बतलायें
॥१८॥
श्रृणुष्वावहितो भूत्वा कथामेतां
पुरातनीम्।
प्रोक्तमादिपुराणे च ब्रह्मणाऽव्यक्तमूर्त्तिना
॥१९॥
पुरा त्वेकार्णवं सर्वं
जगत्स्थावरजङ्गमम्।
नष्टचन्द्रार्कनक्षत्रं
प्रणष्टपवनानलम् ॥२०॥
अप्रतर्क्यमविज्ञेयं
भावाभावविवर्जितम्।
निमग्नपर्वततरु तमोभूतं सुदुर्दशम्
॥२१॥
तस्मिन् स शेते भगवान् निद्रां
वर्षसहस्रिकीम्।
रात्र्यन्ते सृजते लोकान् राजसं
रूपमास्थितः ॥२२॥
पुलस्त्यजी ने कहा - नारदजी ! आप
ध्यान देकर सुनें ! यह पुरानी कथा आदिपुराण में अव्यक्तमूर्ति ब्रह्माजी के द्वारा
कही गयी है । ( मैं उसी प्राचीन कथा को आपसे कहता हूँ । ) प्राचीन समय में समस्त
स्थावर- जङ्गमात्मक जगत् एकीभूत महासमुद्र में निमग्न ( डूबा हुआ ) था । चन्द्र,
सूर्य, नक्षत्र, वायु
एवं अग्नि – किसी का भी कोई ( अलग ) अस्तित्व नहीं था । 'भाव
' एवं 'अभाव' से
रहित जगत की उस समय की अवस्था का कोई ठीक - ठीक ज्ञान, विचार,
तर्कना या वर्णन सम्भव नहीं है । सभी पर्वत एवं वृक्ष जल में निमग्न
थे तथा सम्पूर्ण जगत् अन्धकार से व्याप्त एवं दुर्दशाग्रस्त था । ऐसे समय में
भगवान् विष्णु हजारों वर्षों की निद्रा में शयन करते हैं एवं रात्रि के अन्त में
राजस रुप ग्रहणकर वे सभी लोकों की रचना करते हैं ॥१९ - २२॥
राजसः पञ्चवदनो वेदवेदाङ्गपारगः।
स्रष्टा चराचरस्यास्य
जगतोऽद्भुतदर्शनः ॥२३॥
तमोमयस्तथैवान्यः
समुद्भूतस्त्रिलोचनः।
शूलपाणिः कपर्द्दी च अक्षमालां च
दर्शयन् ॥२४॥
ततो महात्मा ह्यसृजदहंकारं
सुदारुणम्।
येनाक्रान्तावुभौ देवौ तावेव
ब्रह्मशंकरौ ॥२५॥
अहंकारावृतो रुद्रः प्रत्युवाच
पितामहम्।
को भवानिह संप्राप्तः केन सृष्टोऽसि
मां वद ॥२६॥
इस चराचरात्मक जगत का स्त्रष्टा
भगवान् विष्णु का वह अद्भुत राजस स्वरुप पञ्चमुख एवं वेद – वेदाङ्गों का ज्ञाता था
। उसी समय तमोमय, त्रिलोचन, शूलपाणि, कपदीं तथा रुद्राक्षमाला धारण किया हुआ एक
अन्य पुरुष भी प्रकट हुआ । उसके बाद भगवान ने अतिदारुण अहंकार की रचना की, जिससे ब्रह्मा तथा शंकर - वे दोनों ही देवता आक्रान्त हो गये । अहंकार से
व्याप्त शिव ने ब्रह्मा से कहा - तुम कौन हो और यहाँ कैसे आये हो ? तुम मुझे यह भी बतलाओ कि तुम्हारी सृष्टि किसने की है ? ॥२३ - २६॥
पितामहोऽप्यहंकारात् प्रत्युवाचाथ
को भवान्।
भवतो जनकः कोऽत्र जननी वा
तदुच्यताम् ॥२७॥
इत्यन्योन्यं पुरा ताभ्यां
ब्रह्मेशाभ्यां कलिप्रिय।
परिवादोऽभवत् तत्र
उत्पत्तिर्भवतोऽभवत् ॥२८॥
भवानप्यन्तरिक्षं हि
जातमात्रस्तदोत्पतत्।
धारयन्नतुलां वीणां कुर्वन्
किलकिलाध्वनिम् ॥२९॥
ततो विनिर्जितः शंभुर्मानिना
पद्मयोनिना।
तस्थावधोमुखो दीनो ग्रहाक्रान्तो
यथा शशी ॥३०॥
( फिर ) इस पर ब्रह्मा ने भी अहंकार से उत्तर
दिया - आप भी बतलाइये कि आप कौन हैं तथा आपके माता - पिता कौन हैं ?
लोक – कल्याण के लिये कलह को प्रिय माननेवाले नारदजी ! इस प्रकार प्राचीनकाल
में ब्रह्मा और शंकर के बीच एक – दूसरे से दुर्विवाद हुआ । उसी समय आपका भी
प्रादुर्भाव हुआ । आप उत्पन्न होते ही अनुपम वीणा धारण किये किलकिला शब्द करते हुए
अन्तरिक्ष की ओर ऊपर चले गये । इसके बाद भगवान् शिव मानो ब्रह्मा द्वारा पराजित -
से होकर राहुग्रस्त चन्द्रमा के समान दीन एवं अधोमुख होकर खड़े हो गये ॥२७ - ३०॥
पराजिते लोकपतौ देवेन परमेष्टिना।
क्रोधान्धकारितं रुद्रं पञ्चमोऽथ
मुखोऽब्रवीत् ॥३१॥
अहं ते प्रतिजानामि तमोमूर्तो
त्रिलोचन।
दिग्वासा वृषभारूढो लोकक्षयकरो
भवान् ॥३२॥
इत्युक्ताः शंकरः क्रुद्धो वदनं
घोरचक्षुषा।
निर्दग्धुकामस्त्वनिशं ददर्श
भगवानजः ॥३३॥
ततस्त्रिनेत्रस्य समुद्भवन्ति
वक्त्राणि पञ्चाथ सुदर्शनानि।
श्वेतं च रक्तं कनकावदातं नीलं तथा
पिङ्गजटं च शुभ्रम् ॥३४॥
( ब्रह्मा के द्वारा ) लोकपति ( शंकर ) - के
पराजित हो जाने पर क्रोध से अन्धे हुए रुद्र से ( श्रीब्रह्माजी के ) पाँचवें मुख ने
कहा - तमोमूर्ति त्रिलोचन ! मैं आपको जानता हूँ । आप दिगम्बर,
वृषारोही एवं लोकों को नष्ट करनेवाले ( प्रलयंकारीं ) हैं । इस पर
अजन्मा भगवान् शंकर अपने तीसरे घोर नेत्र द्वारा भस्म करने की इच्छा से ब्रह्मा के
उस मुख को एकटक देखने लगे । तदनन्तर श्रीशंकर के श्वेत, रक्त,
स्वर्णिम, नील एवं पिंगल वर्ण के सुन्दर पाँच
मुख समुदभूत हो गये ॥३१ - ३४॥
वक्त्राणि दृष्ट्वाऽर्कसमानि सद्यः
पैतामहं वक्त्रमुवाच वाक्यम्।
समाहतस्याथ जलस्य बुद्बुदा भवन्ति
किं तेषु पराक्रमोऽस्ति ॥३५॥
तच्छ्रुत्वा क्रोधयुक्तेन शंकरेण
महात्मना।
नखाग्रेण शिरश्छिन्नं ब्राह्मं
परुषवादिनम् ॥३६॥
तच्छिन्नं शंकरस्यैव सव्ये
करतलेऽपतत्।
पतते न कदाचिच्च तच्छंकरकराच्छिरः
॥३७॥
अथ क्रोधावृतेनापि
ब्रह्मणाऽद्भुतकर्मणा।
सृष्टस्तु पुरुषो धीमान् कवची
कुण्डली शरी ॥३८॥
धनुष्पाणिर्महाबाहुर्बाणशक्तिधरोऽव्ययः।
चतुर्भुजो महातूणी आदित्यसमदर्शनः
॥३९॥
सूर्य के समान दीप्त ( उन ) मुखों को
देखकर पितामह के मुख ने कहा – जल में आघात करने से बुदबुद तो उत्पन्न होते हैं,
पर क्या उनमें कुछ शक्ति भी होती है ? यह
सुनकर क्रोधभरे भगवान् शंकर ने ब्रह्मा के काठोर भाषण करनेवाले सिर को अपने नख के
अग्रभाग से काट डाला; पर वह कटा हुआ ब्रह्माजी का सिर शंकरजी
के ही वाम हथेली पर जा गिरा एवं वह कपाल श्रीशंकर के उस हथेली पर जा गिरा एवं वह
कपाल श्रीशंकर के उस हथेली से ( इस प्रकार चिपक गया कि गिराने पर भी ) किसी प्रकार
न गिरा । इस पर अद्भुतकर्मी ब्रह्माजी अत्यन्त क्रुद्ध हो गये । उन्होंने कवच -
कुण्डल एवं शर धारण करनेवाले धनुर्धर विशाल बाहुवाले एक पुरुष की रचना की। वह
अव्यय, चतुर्भूज बाण, शक्ति और भारी
तरकस धारण किये था तथा सूर्य के समान तेजस्वी दीख पड़ता था ॥३५ - ३९॥
स प्राह गच्छ दुर्बुद्धे मा त्वां
शूलिन् निपातये।
भवान् पापसमायुक्तः पापिष्ठं को
जिघांसति ॥४०॥
इत्युक्ताः शंकरस्तेन पुरुषेण
महात्मना।
त्रपायुक्तो जगामाथ रुद्रो
बदरिकाश्रमम् ॥४१॥
नरनारायणस्थानं पर्वते हि
हिमाश्रये।
सरस्वती यत्र पुण्या स्यन्दते सरितां
वरा ॥४२॥
तत्र गत्वा च तं दृष्ट्वा
नारायणमुवाच ह।
भिक्षां प्रयच्छ भगवन्
महाकापालिकोऽस्मि भोः ॥४३॥
इत्युक्तो धर्मपुत्रस्तु रुद्रं
वचनमब्रवीत्।
सव्यं भुजं ताडयस्व त्रिशूलेन
महेश्वर ॥४४॥
उस नये पुरुष ने शिवजी से कहा -
दुर्बुद्धि शूलधारी शंकर ! तुम शीघ्र ( यहाँ से ) चले जाओ,
अन्यथा मैं तुम्हें मार डालूँगा । पर तुम पापयुक्त हो; भला, इतने बड़े पापी को कौन मारना चाहेगा ? जब उस महापुरुष ने शंकर से इस प्रकार कहा, तब शिवजी
लज्जित होकर हिमालय पर्वत पर स्थित बदरिकाश्रम को चले गये, जहाँ
नर – नारायण का स्थान हैं और जहाँ नदियों में श्रेष्ठ पवित्र सरस्वती नदी बहती है
। वहाँ जाकर और उन नारायण को देखकर शंकर ने कहा - भगवन् ! मैं महाकापालिक हूँ । आप
मुझे भिक्षा दें । ऐसा कहने पर धर्मपुत्र ( नारायण ) - ने रुद्र से कहा महेश्वर !
तुम अपने त्रिशूल के द्वारा मेरी बायीं भुजा पर ताड़ना करो ॥४० - ४४॥
नारायणवचः श्रुत्वा त्रिशूलेन
त्रिलोचनः।
सव्यं नारायणभुजं ताडयामास वेगवान्
॥४५॥
त्रिशूलाभिहतान्मार्गात् तिस्रो
धारा विनिर्ययुः।
एका गगनमाक्रम्य स्थिता
ताराभिमण्डिता ॥४६॥
द्वितीया न्यपतद् भूमौ तां जग्राह
तपोधनः।
अत्रिस्तस्मात् समुद्भूतो दुर्वासाः
शंकरांशतः ॥४७॥
तृतीया न्यपतद् धारा कपाले
रौद्रदर्शने।
तस्माच्छिशुः समभवत् सन्नद्धकवचो
युवा ॥४८॥
श्यामावदातः शरचापपाणिर्गर्जन्यथा
प्रावृषि तोयदोऽसौ।
इत्थं ब्रुवन् कस्य विशातयामि
स्कन्धाच्छिरस् तालफलं यथैव ॥४९॥
शिवजी ने नारायण की बात सुनकर
त्रिशूल द्वारा बड़े वेग से उनकी वाम भुजा पर आघात किया । त्रिशूल द्वारा (भुजा पर)
प्रताड़ित मार्ग से जल की तीन धाराएँ निकल पड़ीं । एक धारा आकाश में जाकर ताराओं से
मण्डित आकाशगङ्गा हुई; दूसरी धारा पृथ्वी पर
गिरी, जिसे तपोधन अत्रि ने ( मन्दाकिनी के रुप में ) प्राप्त
किया । शंकर के उसी अंश से दुर्वासा का प्रादुर्भाव हुआ । तीसरी धारा भयानक दिखायी
पड़नेवाले कपाल पर गिरी, जिससे एक शिशु उत्पन्न हुआ । वह (
जन्म लेते ही ) कवच बाँधें, श्यामवर्ण का युवक था । उसके
हाथों में धनुष और बाण था । फिर वह वर्षाकाल में मेघ – गर्जन के समान कहने लगा - '
मैं किसके स्कन्ध से सिर को तालफल के सदृश काट गिराऊँ ? ' ॥४५ - ४९॥
तं शंकरोऽभ्येत्य वचो बभाषे नरं हि
नारायणबाहुजातम्।
निपातयैनं नर दुष्टवाक्यं
ब्रह्मात्मजं सूर्यशतप्रकाशम् ॥५०॥
इत्येवमुक्तः स तु शंकरेण आद्यं
धनुस्त्वाजगवं प्रसिद्धम्।
जग्राह तूणानि तथाऽक्षयाणि युद्धाय
वीरः स मतिं चकार ॥५१॥
ततः प्रयुद्धौ सुभृशं महाबलौ
ब्रह्मात्मजो बाहुभवश्च शार्वः।
दिव्यं सहस्रं परिवत्सराणां ततो
हरोऽभ्येत्य विरञ्चिमूचे ॥५२॥
जितस्त्वदीयः पुरुषः पितामह नरेण
दिव्यद्भुतकर्मणा बली।
महापृषत्कैरभिपत्य ताडितस्तदद्भुतं चेह
दिशो दशैव ॥५३॥
ब्रह्मा तमीशं वचनं बभाषे नेहास्य
जन्मान्यजितस्य शंभो।
पराजितश्चेष्यतेऽसौ त्वदीयो नरो
मदीयः पुरुषो महात्मा ॥५४॥
इत्येवमुक्तो वचनं
त्रिनेत्रश्चिक्षेप सूर्ये पुरुषं विरिञ्चेः।
नरं नरस्यैव तदा स विग्रहे चिक्षेप
धर्मप्रभवस्य देवः ॥५५॥
श्रीनारायण की बाहु से उत्पन्न उस
पुरुष के समीप जाकर श्रीशंकर ने कहा - हे नर ! तुम सूर्य के समान प्रकाशमान,
पर कटुभाषी, ब्रह्मा से उत्पन्न इस पुरुष को
मार डालो । शंकरजी के ऐसा कहने पर उस वीर नर ने प्रसिद्ध आजगव नाम का धनुष एवं
अक्षय तूणीर ग्रहणकर युद्ध का निश्चय किया । उसके बाद ब्रह्मात्मज और नारायण की
भुजा से उत्पन्न दोनों नरों में सहस्त्र दिव्य वर्षों तक प्रबल युद्ध होता रहा ।
तत्पश्चात् श्रीशंकरजी ने ब्रह्मा के पास जाकर कहा - पितामह ! यह एक अद्भुत बात है
कि दिव्य एवं अद्भुत कर्मवाले ( मेरे ) नर ने दसों दिशाओं में व्याप्त महान् बाणों
के प्रहार से ताडित कर आपके पुरुष को जीत लिया । ब्रह्मा ने उस ईश से कहा कि इस
अजित का जन्म यहाँ दूसरों द्वारा पराजित होने के लिये नहीं हुआ है । यदि किसी को
पराजित कहा जाना अभीष्ट है तो यह तेरा नर ही है । मेरा पुरुष तो महाबली है - ऐसा
कहे जाने पर श्रीशंकरजी ने ब्रह्माजी के पुरुष को सूर्यमण्डल में फेंक दिया तथा
उन्हीं शंकर ने उस नर को धर्मपुत्र नर के शरीर में फेंक दिया ॥५० - ५५॥
इति श्रीवामनपुराणे द्वितीयोध्यायः
॥२॥
॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें दूसरा
अध्याय समाप्त हुआ ॥२॥
आगे जारी........ श्रीवामनपुराण अध्याय 3
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