श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय ९

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय ९                                    

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय ९ "प्रह्लाद जी के द्वारा नृसिंह भगवान् की स्तुति"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय ९

श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: नवम अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय ९                                                        

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ७ अध्यायः ९                                                           

श्रीमद्भागवत महापुराण सातवाँ स्कन्ध नौवाँ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय ९ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीमद्भागवतम् सप्तमस्कन्धः

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ सप्तमस्कन्धः ॥

॥ नवमोऽध्यायः ९ ॥

नारद उवाच

एवं सुरादयः सर्वे ब्रह्मरुद्रपुरःसराः ।

नोपैतुमशकन् मन्युसंरम्भं सुदुरासदम् ॥ १॥

साक्षाच्छ्रीः प्रेषिता देवैर्दृष्ट्वा तन्महदद्भुतम् ।

अदृष्टाश्रुतपूर्वत्वात्सा नोपेयाय शङ्किता ॥ २॥

प्रह्लादं प्रेषयामास ब्रह्मावस्थितमन्तिके ।

तात प्रशमयोपेहि स्वपित्रे कुपितं प्रभुम् ॥ ३॥

तथेति शनकै राजन् महाभागवतोऽर्भकः ।

उपेत्य भुवि कायेन ननाम विधृताञ्जलिः ॥ ४॥

स्वपादमूले पतितं तमर्भकं

विलोक्य देवः कृपया परिप्लुतः ।

उत्थाप्य तच्छीर्ष्ण्यदधात्कराम्बुजं

कालाहिवित्रस्तधियां कृताभयम् ॥ ५॥

स तत्करस्पर्शधुताखिलाशुभः

सपद्यभिव्यक्तपरात्मदर्शनः ।

तत्पादपद्मं हृदि निर्वृतो दधौ

हृष्यत्तनुः क्लिन्नहृदश्रुलोचनः ॥ ६॥

अस्तौषीद्धरिमेकाग्रमनसा सुसमाहितः ।

प्रेमगद्गदया वाचा तन्न्यस्तहृदयेक्षणः ॥ ७॥

नारद जी कहते हैं ;- इस प्रकार ब्रह्मा, शंकर आदि सभी देवगण नृसिंह भगवान् के क्रोधावेश को शान्त न कर सके और न उनके पास जा सके। किसी को उसका ओर-छोर नहीं दीखता था। देवताओं ने उन्हें शान्त करने के लिये स्वयं लक्ष्मी जी को भेजा। उन्होंने जाकर जब नृसिंह भगवान् का वह महान् अद्भुत रूप देखा, तब भयवश वे भी उनके पास तक न जा सकीं। उन्होंने ऐसा अनूठा रूप न कभी देखा और न सुना ही था।

तब ब्रह्मा जी ने अपने पास ही खड़े प्रह्लाद को यह कहकर भेजा कि बेटा! तुम्हारे पिता पर ही तो भगवान् कुपित हुए थे। अब तुम्हीं उनके पास जाकर उन्हें शान्त करो। भगवान् के परम प्रेमी प्रह्लाद जो आज्ञाकहकर और धीरे से भगवान् के पास जाकर हाथ जोड़ पृथ्वी पर साष्टांग लोट गये। नृसिंह भगवान् ने देखा कि नन्हा-सा बालक मेरे चरणों के पास पड़ा हुआ है। उनका हृदय दया से भर गया। उन्होंने प्रह्लाद को उठाकर उनके सिर पर अपना वह करकमल रख दिया, जो कालसर्प से भयभती पुरुषों को अभयदान करने वाला है।

भगवान् के करकमलों का स्पर्श होते ही उनके बचे-खुचे अशुभ संस्कार भी झड़ गये। तत्काल उन्हें परमात्मतत्त्व का साक्षात्कार हो गया। उन्होंने बड़े प्रेम और आनन्द में मग्न होकर भगवान् के चरणकमलों को अपने हृदय में धारण किया। उस समय उनका सारा शरीर पुलकित हो गया, हृदय में प्रेम की धारा प्रवाहित होने लगी और नेत्रों से आनन्दाश्रु झरने लगे। प्रह्लाद जी भावपूर्ण हृदय और निर्निमेष नयनों से भगवान् को देख रहे थे। भाव समाधि से स्वयं एकाग्र हुए मन के द्वारा होने भगवान् के गुणों का चिन्तन करते हुए प्रेमगद्गद वाणी से स्तुति की।

प्रह्लाद उवाच

ब्रह्मादयः सुरगणा मुनयोऽथ सिद्धाः

सत्त्वैकतानमतयो वचसां प्रवाहैः ।

नाराधितुं पुरुगुणैरधुनापि पिप्रुः

किं तोष्टुमर्हति स मे हरिरुग्रजातेः ॥ ८॥

मन्ये धनाभिजनरूपतपःश्रुतौजः

तेजःप्रभावबलपौरुषबुद्धियोगाः ।

नाराधनाय हि भवन्ति परस्य पुंसो

भक्त्या तुतोष भगवान् गजयूथपाय ॥ ९॥

विप्राद्द्विषड्गुणयुतादरविन्दनाभ-

पादारविन्दविमुखाच्छ्वपचं वरिष्ठम् ।

मन्ये तदर्पितमनोवचनेहितार्थप्राणं

पुनाति स कुलं न तु भूरिमानः ॥ १०॥

नैवात्मनः प्रभुरयं निजलाभपूर्णो

मानं जनादविदुषः करुणो वृणीते ।

यद्यज्जनो भगवते विदधीत मानं

तच्चात्मने प्रतिमुखस्य यथा मुखश्रीः ॥ ११॥

प्रह्लाद जी ने कहा ;- ब्रह्मा आदि देवता, ऋषि-मुनि और सिद्ध पुरुषों की बुद्धि निरन्तर सत्त्वगुण में ही स्थित रहती है। फिर भी वे अपनी धारा-प्रवाह स्तुति और अपने विविध गुणों से आपको अब तक भी सन्तुष्ट नहीं कर सके। फिर मैं तो घोर असुर-जाति में उत्पन्न हुआ हूँ। क्या आप मुझसे सन्तुष्ट हो सकते हैं? मैं समझता हूँ कि धन, कुलीनता, रूप, तप, विद्या, ओज, तेज, प्रभाव, बल, पौरुष, बुद्धि और योग- ये सभी गुण परमपुरुष भगवान् को सन्तुष्ट करने में समर्थ नहीं हैं- परन्तु भक्ति से तो भगवान् गजेन्द्र पर भी सन्तुष्ट हो गये थे। मेरी समझ से इन बारह गुणों से युक्त ब्राह्मण भी यदि भगवान् कमलनाभ के चरणकमलों से विमुख हो तो उससे वह चाण्डालश्रेष्ठ है, जिसने अपने मन, वचन, कर्म, धन और प्राण भगवान् के चरणों में समर्पित कर रखे हैं; क्योंकि वह चाण्डाल तो अपने कुल तक को पवित्र कर देता है और बड़प्पन का अभिमान रखने वाला वह ब्राह्मण अपने को भी पवित्र नहीं कर सकता। सर्वशक्तिमान् प्रभु अपने स्वरूप के साक्षात्कार से ही परिपूर्ण हैं। उन्हें अपने लिये क्षुद्र पुरुषों की पूजा ग्रहण करने की आवश्यकता नहीं है। वे करुणावश ही भोले भक्तों के हित के लिये उनके द्वारा की हुई पूजा स्वीकार कर लेते हैं। जैसे अपने मुख का सौन्दर्य दर्पण में दीखने वाले प्रतिबिम्ब को भी सुन्दर बना देता है, वैसे ही भक्त भगवान् के प्रति जो-जो सम्मान प्रकट करता है, वह उसे ही प्राप्त होता है।

तस्मादहं विगतविक्लव ईश्वरस्य

सर्वात्मना महि गृणामि यथा मनीषम् ।

नीचोऽजया गुणविसर्गमनुप्रविष्टः

पूयेत येन हि पुमाननुवर्णितेन ॥ १२॥

सर्वे ह्यमी विधिकरास्तव सत्त्वधाम्नो

ब्रह्मादयो वयमिवेश न चोद्विजन्तः ।

क्षेमाय भूतय उतात्मसुखाय चास्य

विक्रीडितं भगवतो रुचिरावतारैः ॥ १३॥

तद्यच्छ मन्युमसुरश्च हतस्त्वयाद्य

मोदेत साधुरपि वृश्चिकसर्पहत्या ।

लोकाश्च निर्वृतिमिताः प्रतियन्ति सर्वे

रूपं नृसिंह विभयाय जनाः स्मरन्ति ॥ १४॥

नाहं बिभेम्यजित तेऽतिभयानकास्य-

जिह्वार्कनेत्रभ्रुकुटीरभसोग्रदंष्ट्रात् ।

आन्त्रस्रजःक्षतजकेसरशङ्कुकर्णा-

न्निर्ह्रादभीतदिगिभादरिभिन्नखाग्रात् ॥ १५॥

त्रस्तोऽस्म्यहं कृपणवत्सल दुःसहोग्र-

संसारचक्रकदनाद्ग्रसतां प्रणीतः ।

बद्धः स्वकर्मभिरुशत्तम तेऽङ्घ्रिमूलं

प्रीतोपवर्गशरणं ह्वयसे कदा नु ॥ १६॥

यस्मात्प्रियाप्रियवियोगसयोगजन्म-

शोकाग्निना सकलयोनिषु दह्यमानः ।

दुःखौषधं तदपि दुःखमतद्धियाहं

भूमन् भ्रमामि वद मे तव दास्ययोगम् ॥ १७॥

सोऽहं प्रियस्य सुहृदः परदेवताया

लीलाकथास्तव नृसिंह विरिञ्चगीताः ।

अञ्जस्तितर्म्यनुगृणन् गुणविप्रमुक्तो

दुर्गाणि ते पदयुगालयहंससङ्गः ॥ १८॥

बालस्य नेह शरणं पितरौ नृसिंह

नार्तस्य चागदमुदन्वति मज्जतो नौः ।

तप्तस्य तत्प्रतिविधिर्य इहाञ्जसेष्टस्तावद्विभो

तनुभृतां त्वदुपेक्षितानाम् ॥ १९॥

यस्मिन् यतो यर्हि येन च यस्य यस्माद्यस्मै

यथा यदुत यस्त्वपरः परो वा ।

भावः करोति विकरोति पृथक्स्वभावः

सञ्चोदितस्तदखिलं भवतः स्वरूपम् ॥ २०॥

इसलिये सर्वथा अयोग्य और अनधिकारी होने पर भी मैं बिना किसी शंका के अपनी बुद्धि के अनुसार सब प्रकार से भगवान् की महिमा का वर्णन कर रहा हूँ। इस महिमा के गान का ही ऐसा प्रभाव है कि अविद्यावश संसारचक्र में पड़ा हुआ जीव तत्काल पवित्र हो जाता है।

भगवन! आप सत्त्वगुण के आश्रय हैं। ये ब्रह्मा आदि देवता आपके आज्ञाकारी भक्त हैं। ये हम दैत्यों की तरह आपसे द्वेष नहीं करते। प्रभो! आप बड़े-बड़े सुन्दर-सुन्दर अवतार ग्रहण करके इस जगत् के कल्याण एवं अभ्युदय के लिये तथा उसे आत्मानन्द की प्राप्ति कराने के लिये अनेकों प्रकार की लीलाएँ करते हैं। जिस असुर को मारने के लिये आपने क्रोध किया था, वह मारा जा चुका। अब आप अपना क्रोध शान्त कीजिये। जैसे बिच्छू और साँप की मृत्यु से सज्जन भी सुखी ही होते हैं, वैसे ही इस दैत्य के संहार से सभी लोगों को बड़ा सुख मिला है। अब सब आपके शान्त स्वरूप के दर्शन की बाट जोह रहे हैं।

नृसिंहदेव! भय से मुक्त होने के लिये भक्तजन आपके इस रूप का स्मरण करेंगे। परमात्मान्! आपका मुख बड़ा भयावना है। आपकी जीभ लपलपा रही है। आँखें सूर्य के समन हैं। भौंहें चढ़ी हुई हैं। बड़ी पैनी दाढ़ें हैं। आँतों की माला, खून से लथपथ गरदन के बाल, बर्छे की तरह सीधे खड़े कान और दिग्गजों को भी भयभीत कर देने वाला सिंहनाद एवं शत्रुओं को फाड़ डालने वाले आपके इन नखों को देखकर मैं तनिक भी भयभीत नहीं हुआ हूँ। दीनबन्धों! मैं भयभीत हूँ तो केवल इस असह्य और उग्र संसारचक्र में पिसने से। मैं अपने कर्मपाशों से बँधकर इन भयंकर जंतुओं के बीच में डाल दिया गया हूँ। मेरे स्वामी! आप प्रसन्न होकर मुझे कब अपने उन चरणकमलों में बुलायेंगे, जो समस्त जीवों की एकमात्र शरण और मोक्षस्वरूप हैं?

अनन्त! मैं जिन-जिन योनियों में गया, उन सभी योनियों में प्रिय के वियोग और अप्रिय के संयोग से होने वाले शोक की आग में झुलसता रहा। उन दुःखों को मिटाने की जो दवा है, वह भी दुःख रूप ही है। मैं न जाने कब से अपने से अतिरिक्त वस्तुओं को आत्मा समझकर इधर-उधर भटक रहा हूँ। अब आप ऐसा साधन बतलाइये जिससे कि आपकी सेवा-भक्ति प्राप्त कर सकूँ। प्रभो! आप हमारे प्रिय हैं। अहैतुक हितैषी सुहृद् हैं। आप ही वास्तव में सबके परमाराध्य हैं। मैं ब्रह्मा जी के द्वारा गायी हुई आपकी लीला-कथाओं का गान करता हुआ बड़ी सुगमता से रागादि प्राकृत गुणों से मुक्त होकर इस संसार की कठिनाइयों को पार कर लाऊँगा; क्योंकि आपके चरण युगलों में रहने वाले भक्त परमहंस महात्माओं का संग तो मुझे मिलता ही रहेगा।

भगवान् नृसिंह! इस लोक में दुःखी जीवों का दुःख मिटाने के लिये जो उपाय माना जाता है, वह आपके उपेक्षा करने पर एक क्षण के लिये ही होता है। यहाँ तक कि माँ-बाप बालक की रक्षा नहीं कर सकते, ओषधि रोग नहीं मिटा सकती और समुद्र में डूबते हुए को नौका नहीं बचा सकती। सत्त्वादि गुणों के कारण भिन्न-भिन्न स्वभाव के जितने भी ब्रह्मादि श्रेष्ठ और कालादि कनिष्ठ कर्ता हैं, उनको प्रेरित करने वाले आप ही हैं। वे आपकी प्रेरणा से जिस आधार में स्थित होकर जिस निमित्त से जिन मिट्टी आदि उपकरणों से जिस समय जिन साधनों के द्वारा जिस अदृष्ट आदि की सहायता से जिस प्रयोजन के उद्देश्य से जिस विधि से जो कुछ उत्पन्न करते हैं या रूपान्तरित करते हैं, वे सब और वह सब आपका ही स्वरूप है।

माया मनः सृजति कर्ममयं बलीयः

कालेन चोदितगुणानुमतेन पुंसः ।

छन्दोमयं यदजयार्पितषोडशारं

संसारचक्रमज कोऽतितरेत्त्वदन्यः ॥ २१॥

स त्वं हि नित्यविजितात्मगुणः स्वधाम्ना

कालो वशीकृतविसृज्यविसर्गशक्तिः ।

चक्रे विसृष्टमजयेश्वर षोडशारे

निष्पीड्यमानमुपकर्ष विभो प्रपन्नम् ॥ २२॥

दृष्टा मया दिवि विभोऽखिलधिष्ण्यपानामायुः

श्रियो विभव इच्छति यान् जनोऽयम् ।

येऽस्मत्पितुः कुपितहासविजृम्भितभ्रू-

विस्फूर्जितेन लुलिताः स तु ते निरस्तः ॥ २३॥

तस्मादमूस्तनुभृतामहमाशिषो ज्ञ

आयुः श्रियं विभवमैन्द्रियमाविरिञ्च्यात् ।

नेच्छामि ते विलुलितानुरुविक्रमेण

कालात्मनोपनय मां निजभृत्यपार्श्वम् ॥ २४॥

कुत्राशिषः श्रुतिसुखा मृगतृष्णिरूपाः

क्वेदं कलेवरमशेषरुजां विरोहः ।

निर्विद्यते न तु जनो यदपीति विद्वान्

कामानलं मधुलवैः शमयन् दुरापैः ॥ २५॥

क्वाहं रजःप्रभव ईश तमोऽधिकेऽस्मिन्

जातः सुरेतरकुले क्व तवानुकम्पा ।

न ब्रह्मणो न तु भवस्य न वै रमाया

यन्मेऽर्पितः शिरसि पद्मकरः प्रसादः ॥ २६॥

नैषा परावरमतिर्भवतो ननु स्या-

ज्जन्तोर्यथाऽऽत्मसुहृदो जगतस्तथापि ।

संसेवया सुरतरोरिव ते प्रसादः

सेवानुरूपमुदयो न परावरत्वम् ॥ २७॥

एवं जनं निपतितं प्रभवाहिकूपे

कामाभिकाममनु यः प्रपतन् प्रसङ्गात् ।

कृत्वाऽऽत्मसात्सुरर्षिणा भगवन् गृहीतः

सोऽहं कथं नु विसृजे तव भृत्यसेवाम् ॥ २८॥

पुरुष की अनुमति से काल के द्वारा गुणों में क्षोभ होने पर माया मनःप्रधान लिंग शरीर का निर्माण करती है। यह लिंग शरीर बलवान्, कर्ममय एवं अनेक नाम-रूपों में आसक्त-छन्दोमय है। यही अविद्या के द्वारा कल्पित मन, दस इन्द्रिय और पाँच तन्मात्रा-इन सोलह विकाररूप अरों से युक्त संसार-चक्र है।

जन्मरहित प्रभो! आपसे भिन्न रहकर ऐसा कौन पुरुष है, जो इस मनरूप संसारचक्र को पार कर जाये? सर्वशक्तिमान् प्रभो! माया इस सोलह अरों वाले संसारचक्र में डालकर ईख के समान मुझे पेर रही है। आप अपनी चैतन्य शक्ति से बुद्धि के समस्त गुणों को सर्वदा पराजित रखते हैं और कालरूप से सम्पूर्ण साध्य और साधनों को अपने अधीन रखते हैं। मैं आपकी शरण में आया हूँ, आप मुझे इनसे बचाकर अपनी सन्निधि में खींच लीजिये।

भगवन्! जीनके लिये संसारी लोग बड़े लालायित रहते हैं, स्वर्ग में मिलने वाली समस्त लोकपालों की वह आयु, लक्ष्मी और ऐश्वर्य मैंने खूब देख लिये। जिस समय मेरे पिता तनिक क्रोध करके हँसते थे और उससे उनकी भौंहें थोड़ी टेढ़ी हो जाती थीं, तब उन स्वर्ग की सम्पत्तियों के लिये कहीं ठिकाना नहीं रह जाता था, वे लुटती फिरती थीं। किन्तु आपने मेरे उन पिता को भी मार डाला। इसलिये मैं ब्रह्मलोक की आयु, लक्ष्मी, ऐश्वर्य और वे इन्द्रिय भोग, जिन्हें संसार के प्राणी चाहा करते हैं, नहीं चाहता; क्योंकि मैं जानता हूँ कि अत्यन्त शक्तिशाली काल का रूप धारण करके आपने उन्हें ग्रस रखा है। इसलिये मुझे आप अपने दासों की सन्निधि में ले चलिये।

विषय भोग की बातें सुनने में ही अच्छी लगती हैं, वास्तव में मृगतृष्णा के जल के समान नितान्त असत्य हैं और यह शरीर भी, जिससे वे भोग भोगे जाते हैं, अगणित रोगों का उद्गम स्थान है। कहाँ वे मिथ्या विषय भोग और कहाँ यह रोगयुक्त शरीर। इन दोनों की क्षणभंगुरता और असारता जानकर भी मनुष्य इनसे विरक्त नहीं होता। वह कठिनाई से प्राप्त होने वाले भोग के नन्हे-नन्हें मधुविन्दुओं से अपनी कामना की आग बुझाने की चेष्टा करता है।

प्रभो! कहाँ तो इस तमोगुणी असुर वंश में रजोगुण से उत्पन्न हुआ मैं, और कहाँ आपकी अनन्त कृपा! धन्य है! आपने अपना परम प्रसादस्वरूप और सकल सन्तापहारी वह करकमल मेरे सिर पर रखा है, जिसे आपने ब्रह्मा, शंकर और लक्ष्मी के सिर पर कभी नहीं रखा। दूसरे संसारी जीवों के समान आपमें छोटे-बड़े का भेदभाव नहीं है; क्योंकि आप सबके आत्मा और अकारण प्रेमी हैं। फिर भी कल्पवृक्ष के समान आपका कृपा-प्रसाद भी सेवन-भजन से ही प्राप्त होता है। सेवा के अनुसार ही जीवों पर आपकी कृपा का उदय होता है, उसमें जातिगत उच्चता या नीचता कारण नहीं है। भगवन्! यह संसार एक ऐसा अँधेरा कुआँ है, जिसमें कालरूप सर्प डँसने के लिये सदा तैयार रहता है। विषय-भोगों की इच्छा वाले पुरुष उसी में गिरे हुए हैं। मैं भी संगवश उसके पीछे उसी में गिरने जा रहा था। परन्तु भगवन्! देवर्षि नारद ने मुझे अपनाकर बचा लिया। तब भला, मैं आपके भक्तजनों की सेवा कैसे छोड़ सकता हूँ।

मत्प्राणरक्षणमनन्त पितुर्वधश्च

मन्ये स्वभृत्यऋषिवाक्यमृतं विधातुम् ।

खड्गं प्रगृह्य यदवोचदसद्विधित्सु-

स्त्वामीश्वरो मदपरोऽवतु कं हरामि ॥ २९॥

एकस्त्वमेव जगदेतममुष्य यत्त्वमाद्यन्तयोः

पृथगवस्यसि मध्यतश्च ।

सृष्ट्वा गुणव्यतिकरं निजमाययेदं

नानेव तैरवसितस्तदनुप्रविष्टः ॥ ३०॥

त्वं वा इदं सदसदीश भवांस्ततोऽन्यो

माया यदात्मपरबुद्धिरियं ह्यपार्था ।

यद्यस्य जन्म निधनं स्थितिरीक्षणं च

तद्वै तदेव वसुकालवदष्टितर्वोः ॥ ३१॥

न्यस्येदमात्मनि जगद्विलयाम्बुमध्ये

शेषेऽऽत्मना निजसुखानुभवो निरीहः ।

योगेन मीलितदृगात्मनिपीतनिद्रस्तुर्ये

स्थितो न तु तमो न गुणांश्च युङ्क्षे ॥ ३२॥

तस्यैव ते वपुरिदं निजकालशक्त्या

सञ्चोदितप्रकृतिधर्मण आत्मगूढम् ।

अम्भस्यनन्तशयनाद्विरमत्समाधे-

र्नाभेरभूत्स्वकणिकावटवन्महाब्जम् ॥ ३३॥

तत्सम्भवः कविरतोऽन्यदपश्यमानस्त्वां

बीजमात्मनि ततं स्वबहिर्विचिन्त्य ।

नाविन्ददब्दशतमप्सु निमज्जमानो

जातेऽङ्कुरे कथमु होपलभेत बीजम् ॥ ३४॥

स त्वात्मयोनिरतिविस्मित आश्रितोऽब्जं

कालेन तीव्रतपसा परिशुद्धभावः ।

त्वामात्मनीश भुवि गन्धमिवातिसूक्ष्मं

भूतेन्द्रियाशयमये विततं ददर्श ॥ ३५॥

एवं सहस्रवदनाङ्घ्रिशिरःकरोरु-

नासास्यकर्णनयनाभरणायुधाढ्यम्

मायामयं सदुपलक्षितसन्निवेशं

दृष्ट्वा महापुरुषमाप मुदं विरिञ्चः ॥ ३६॥

अनन्त! जिस समय मेरे पिता ने अन्याय करने के लिये कमर कसकर हाथ में खड्ग ले लिया और वह कहने लगा कि यदि मेरे सिवा कोई और ईश्वर है तो तुझे बचा ले, मैं तेरा सिर काटता हूँ’, उस समय आपने मेरे प्राणों की रक्षा की और मेरे पिता का वध किया। मैं समझता हूँ कि आपने अपने प्रेमी भक्त सनकादि ऋषियों का वचन सत्य करने के लिये ही वैसा किया था।

भगवन! यह सम्पूर्ण जगत् एकमात्र आप ही हैं। क्योंकि इसके आदि में आप ही कारणरूप से थे, अन्त में आप ही अवधि के रूप में रहेंगे और बीच में इसकी प्रतीति के रूप में भी केवल आप ही हैं। आप अपनी माया से गुणों के परिणाम-स्वरूप इस जगत् की सृष्टि करके इसमें पहले से विद्यमान रहने पर भी प्रवेश की लीला करते हैं और उन गुणों से युक्त होकर अनेक मालूम पड़ रहे हैं।

भगवन! यह जो कुछ कार्य-कारण के रूप में प्रतीत हो रहा है, वह सब आप ही हैं और इससे भिन्न भी आप ही हैं। अपने-पराये का भेद-भाव तो अर्थहीन शब्दों की माया है; क्योंकि जिससे जिसका जन्म, स्थिति, लय और प्रकाश होता है, वह उसका स्वरूप ही होता है-जैसे बीज और वृक्ष कारण और कार्य की दृष्टि से भिन्न-भिन्न हैं, तो भी गन्ध-तन्मात्र की दृष्टि से दोनों एक ही हैं।

भगवन्! आप इस सम्पूर्ण विश्व को स्वयं ही अपने में समेटकर आत्मसुख का अनुभव करते हुए निष्क्रिय होकर प्रलयकालीन जल में शयन करते हैं। उस समय अपने स्वयं-सिद्ध योग के द्वारा बाह्य दृष्टि को बंद कर आप अपने स्वरूप के प्रकाश में निद्रा को विलीन कर लेते हैं और तुरीय ब्रह्मपद में स्थित रहते हैं। उस समय आप न तो तमोगुण से ही युक्त होते और न तो विषयों को ही स्वीकार करते हैं। आप अपनी कालशक्तिसे प्रकृति के गुणों को प्रेरित करते हैं, इसलिये यह ब्रह्माण्ड आपका ही शरीर है। पहले यह आपमें ही लीन था। जब प्रलयकालीन जल के भीतर शेष शय्या पर शयन करने वाले आपने योग निद्रा की समाधि त्याग दी, तब वट के बीज से विशाल वृक्ष के समान आपकी नाभि से ब्रह्माण्ड कमल उत्पन्न हुआ। उस पर सूक्ष्मदर्शी ब्रह्मा जी प्रकट हुए। जब उन्हें कमल के सिवा और कुछ भी दिखायी न पड़ा, तब अपने में बीजरूप से व्याप्त आपको वे न जान सके और आपको अपने से बाहर समझकर जल के भीतर घुसकर सौ वर्ष तक ढूँढ़ते रहे। परन्तु वहाँ उन्हें कुछ नहीं मिला। यह ठीक ही है, क्योंकि अंकुर उग आने पर उसमें व्याप्त बीज को कोई बाहर अलग कैसे देख सकता है।

ब्रह्मा को बड़ा आश्चर्य हुआ। वे हारकर कमल पर बैठ गये। बहुत समय बीतने पर तीव्र तपस्या करने से जब उनका हृदय शुद्ध हो गया, तब उन्हें भूत, इन्द्रिय और अन्तःकरण रूप अपने शरीर में ही ओत-प्रोत रूप से स्थित आपके सूक्ष्म रूप का साक्षात्कार हुआ-ठीक वैसे ही जैसे पृथ्वी में व्याप्त उसकी अति सूक्ष्म तन्मात्रा गन्ध का होता है। विराट् पुरुष सहस्रों मुख, चरण, सिर, हाथ, जंघा, नासिका, मुख, कान, नेत्र, आभूषण और आयुधों से सम्पन्न था। चौदहों लोक उसके विभिन्न अंगों के रूप में शोभायमान थे। वह भगवान् की एक लीलामयी मूर्ति थी। उसे देखकर ब्रह्मा जी को बड़ा आनन्द हुआ।

तस्मै भवान् हयशिरस्तनुवं हि बिभ्रद्-

वेदद्रुहावतिबलौ मधुकैटभाख्यौ ।

हत्वाऽऽनयच्छ्रुतिगणांस्तु रजस्तमश्च

सत्त्वं तव प्रियतमां तनुमामनन्ति ॥ ३७॥

इत्थं नृतिर्यगृषिदेवझषावतारैर्लोकान्

विभावयसि हंसि जगत्प्रतीपान् ।

धर्मं महापुरुष पासि युगानुवृत्तं

छन्नः कलौ यदभवस्त्रियुगोऽथ स त्वम् ॥ ३८॥

नैतन्मनस्तव कथासु विकुण्ठनाथ

सम्प्रीयते दुरितदुष्टमसाधु तीव्रम् ।

कामातुरं हर्षशोकभयैषणार्तं

तस्मिन् कथं तव गतिं विमृशामि दीनः ॥ ३९॥

जिह्वैकतोऽच्युत विकर्षति मावितृप्ता

शिश्नोऽन्यतस्त्वगुदरं श्रवणं कुतश्चित् ।

घ्राणोऽन्यतश्चपलदृक् क्व च कर्मशक्तिर्बह्व्यः

सपत्न्य इव गेहपतिं लुनन्ति ॥ ४०॥

एवं स्वकर्मपतितं भववैतरण्या-

मन्योन्यजन्ममरणाशनभीतभीतम् ।

पश्यन् जनं स्वपरविग्रहवैरमैत्रं

हन्तेति पारचर पीपृहि मूढमद्य ॥ ४१॥

को न्वत्र तेऽखिलगुरो भगवन् प्रयास

उत्तारणेऽस्य भवसम्भवलोपहेतोः ।

मूढेषु वै महदनुग्रह आर्तबन्धो

किं तेन ते प्रियजनाननुसेवतां नः ॥ ४२॥

नैवोद्विजे पर दुरत्ययवैतरण्या-

स्त्वद्वीर्यगायनमहामृतमग्नचित्तः ।

शोचे ततो विमुखचेतस इन्द्रियार्थ-

मायासुखाय भरमुद्वहतो विमूढान् ॥ ४३॥

रजोगुण और तमोगुणरूप मधु और कैटभ नाम के दो बड़े बलवान् दैत्य थे। जब वे वेदों को चुराकर ले गए, तब आपने हयग्रीव-अवतार को किया और उन दोनों को मारकर सत्त्वगुणरूप श्रुतियाँ ब्रह्मा जी को लौटा दीं। वह सत्त्वगुण ही तुम्हारा अत्यंतन्त प्रिय शरीर है-महात्मा लोग इस प्रकार वर्णन करते हैं।

पुरुषोत्तम! इस प्रकार आप मनुष्य, पशु-पक्षी, ऋषि , देवता और मत्स्य आदि अवतार लेकर लोकों का पालन और विश्व के द्रोहियों का संहार करते हैं। ये अवतारों के द्वारा आप प्रत्येक युग में उसके धर्मों की रक्षा करते हैं। कलियुग में आप छिपकर गुप्त रूप से ही रहते हैं, इसलिए आपक एक नाम 'त्रियुग' भी है।

वैकुण्ठनाथ! मेरे मन की बड़ी दुर्दशा है। वह पाप-वासनाओं से तो कलुषित है ही, स्वयं भी अत्यन्त दुष्ट है। वह प्राथमिकता: ही कामनाओं के कारण आतुर रहता है और हर्ष-शोक, भय और लोक-परलोक, धन, पत्नी, पुत्र आदि की चिन्ताओं से व्याकुल रहता है। इसे आपकी लीला-कथाओं में तो रस ही नहीं मिलता। इसके मारे मैं दीन हो रहा हूँ। ऐसा मन से मैं आपके स्वरूप का चिन्तन कैसे करूँ? अच्युत! यह कभी न अघाने की जीभ मुझे स्वादिष्ट रसों की ओर खींचती रहती है। जननेन्द्रिय सुन्दरी स्त्री की ओर, त्वचा सुकोमल स्पर्श की ओर, पेट भोजन की ओर, कान मधुर संगीत की ओर, नासिका भीनी-भीनी सुगन्ध की ओर और ये चपल नेत्र सौन्दर्य की ओर मुझे खींचते रहते हैं। उनके सिवा कर्मेन्द्रियाँ भी अपने-अपने विषयों की ओर ले जाने को जो लगाती ही रहती हैं। मेरी तो वह दशा हो रही है, जैसे किसी पुरुष की बहुत-सी पत्नियाँ उसे अपने-अपने शयन गृह में ले जाने के लिए चारों ओर से घसीट रही होंगी। इस प्रकार यह अपने कर्मों के बन्धन में पड़कर इस संसाररूप को जीवित करता हैवैतरणी नदी में गिरा हुआ है। जन्म से मृत्यु, मृत्यु से जन्म और दोनों के द्वारा कर्म भोग करते-करते यह भयभीत हो गया है। यह अपना है, यह पराया है-इस प्रकार के भेद-भाव से युक्त होकर किसी से मित्रता करता है तो किसी से शत्रुता। आप इस मूढ़ जीव-जाति की यह दुर्दशा देखकर करुणा से द्रवित हो जाइये। इस भव-नदी से सर्वदा पार रहने वाले भगवन्! इन प्राणियों को भी अब पार लगा देना।

जगद्गुरो! आप इस सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और पालन करने वाले हैं। ऐसी अवस्थाओं में इन जीवों को इस गर्व-नदी के पार उतार देने में आपको क्या प्रयास है? दीनजनों के परम हितैषी प्रभो! भूले-भटके मूढ़ ही महान् पुरुषों के विशेष अनुग्रह के पात्र होते हैं। हमें उसकी कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि हम आपके लोगों की सेवा में लगे रहते हैं, इसलिए पार जाने की हमें कभी ठंड नहीं होती। परमात्मान्! इस गर्व-वैतरणी से पार उतरना दूसरे लोगों के लिए अवश्य ही कठिन है, लेकिन मुझे तो तनिक भी भय नहीं है। क्योंकि मेरा चित्त इस वैतरणी में नहीं, आपकी उन लीलाओं के गान में मग्न रहता है, जो स्वर्गीय आश्रम को भी प्रबल करने वाली-परमामृत रूप हैं। मैं उन मूढ़ प्राणियों के लिए शोक कर रहा हूँ, जो आपके गुणगान से विमुख रहकर इन्द्रियों के विषयों का मायायम झूठा सुख प्राप्त करने के लिए अपने सिर पर सभी संसार का भार ढोते रहते हैं।

प्रायेण देव मुनयः स्वविमुक्तिकामाः

मौनं चरन्ति विजने न परार्थनिष्ठाः ।

नैतान्विहाय कृपणान्विमुमुक्ष एको

नान्यं त्वदस्य शरणं भ्रमतोऽनुपश्ये ॥ ४४॥

यन्मैथुनादिगृहमेधिसुखं हि तुच्छं

कण्डूयनेन करयोरिव दुःखदुःखम् ।

तृप्यन्ति नेह कृपणा बहुदुःखभाजः

कण्डूतिवन्मनसिजं विषहेत धीरः ॥ ४५॥

मौनव्रतश्रुततपोऽध्ययनस्वधर्म-

व्याख्यारहोजपसमाधय आपवर्ग्याः ।

प्रायः परं पुरुष ते त्वजितेन्द्रियाणां

वार्ता भवन्त्युत न वात्र तु दाम्भिकानाम् ॥ ४६॥

रूपे इमे सदसती तव वेदसृष्टे

बीजाङ्कुराविव न चान्यदरूपकस्य ।

युक्ताः समक्षमुभयत्र विचिन्वते त्वां

योगेन वह्निमिव दारुषु नान्यतः स्यात् ॥ ४७॥

त्वं वायुरग्निरवनिर्वियदम्बुमात्राः

प्राणेन्द्रियाणि हृदयं चिदनुग्रहश्च ।

सर्वं त्वमेव सगुणो विगुणश्च भूमन्

नान्यत्त्वदस्त्यपि मनोवचसा निरुक्तम् ॥ ४८॥

नैते गुणा न गुणिनो महदादयो ये

सर्वे मनः प्रभृतयः सहदेवमर्त्याः ।

आद्यन्तवन्त उरुगाय विदन्ति हि त्वामेवं

विमृश्य सुधियो विरमन्ति शब्दात् ॥ ४९॥

तत्तेर्हत्तम नमः स्तुतिकर्मपूजाः

कर्म स्मृतिश्चरणयोः श्रवणं कथायाम् ।

संसेवया त्वयि विनेति षडङ्गया किं

भक्तिं जनः परमहंसगतौ लभेत ॥ ५०॥

मेरे स्वामी! बड़े-बड़े ऋषि-मुनि तो प्रायः अपनी मुक्ति के लिये निर्जन वन में जाकर मौनव्रत धारण कर लेते हैं। वे दूसरों की भलाई के लिये कोई विशेष प्रयत्न नहीं करते। परन्तु मेरी दशा तो दूसरी ही हो रही है। मैं इन भूले हुए असहाय ग़रीबों को छोड़कर अकेला मुक्त होना नहीं चाहता और इन भटकते हुए प्राणियों के लिये आपके सिवा और कोई सहारा भी नहीं दिखायी पड़ता।

घर में फँसे हुए लोगों को जो मैथुन आदि का सुख मिलता है, वह अत्यन्त तुच्छ एवं दुःखरूप ही है-जैसे कि दोनों हाथों से खुजला रहा हो तो उस खुजली में पहले उसे कुछ थोड़ा-सा सुख मालूम पड़ता है, परन्तु पीछे से दुःख-ही-दुःख होता है। किंतु ये भूले हुए अज्ञानी मनुष्य बहुत दुःख भोगने पर भी इन विषयों से अघाते नहीं। इसके विपरीत धीर पुरुष जैसे खुजलाहट को सह लेते हैं, वैसे ही कामादि वेगों को भी सह लेते हैं। सहने से ही उनका नाश होता है।

पुरुषोत्तम! मोक्ष के दस साधन प्रसिद्ध हैं-मौन, ब्रह्मचर्य, शस्त्र-श्रवण, तपस्या, स्वाध्याय, स्वधर्मपालन, युक्तियों से शास्त्रों की व्याख्या, एकान्तसेवन, जप और समाधि। परन्तु जिनकी इन्द्रियाँ वश में नहीं हैं, उनके लिये ये सब जीविका के साधन-व्यापार मात्र रह जाते हैं और दम्भियों के लिये तो जब तक उनकी पोल खुलती नहीं, तभी तक ये जीवन निर्वाह के साधन रहते हैं और भंडाफोड़ हो जाने पर वह भी नहीं। वेदों ने बीज और अंकुर के समान आपके दो रूप बताये हैं-कार्य और कारण। वास्तव में आप प्राकृतरूप से रहित हैं। परन्तु इन कार्य और कारणरूपों को छोड़कर आपके ज्ञान का कोई और साधन भी नहीं है। काष्ठ-मन्थन के द्वारा जिस प्रकार अग्नि प्रकट की जाती है, उसी प्रकार योगीजन भक्तियोग की साधना से आपको कार्य और कारण दोनों में ही ढूँढ निकालते हैं। क्योंकि वास्तव में ये दोनों आपसे पृथक् नहीं हैं, आपके स्वरूप ही हैं।

अनन्त प्रभो! वायु, अग्नि, पृथ्वी, आकाश, जल, पंचतन्मात्राएँ, प्राण, इन्द्रिय, मन, चित्त, अहंकार, सम्पूर्ण जगत् एवं सगुण और निर्गुण-सब कुछ केवल आप ही हैं और तो क्या, मन और वाणी के द्वारा जो कुछ निरूपण किया गया है, वह सब आपसे पृथक् नहीं है। समग्र कीर्ति के आश्रय भगवन्! ये सत्त्वादि गुण और इन गुणों के परिणाम महत्तत्त्वादि, देवता, मनुष्य एवं मन आदि कोई भी आपका स्वरूप जानने में समर्थ नहीं हैं; क्योंकि ये सब आदि-अन्त वाले हैं और आप अनादि एवं अनन्त हैं। ऐसा विचार करके ज्ञानीजन शब्दों की माया से उपरत हो जाते हैं।

परमपूज्य! आपकी सेवा के छः अंग हैं-नमस्कार, स्तुति, समस्त कर्मों का समर्पण, सेवा-पूजा, चरणकमलों का चिन्तन और लीला-कथा का श्रवण। इस षडंग सेवा के बिना आपके चरणकमलों की भक्ति कैसे प्राप्त हो सकती है? और भक्ति के बिना आपकी प्रप्ति कैसे होगी? प्रभो! आप तो अपने परमप्रिय भक्तजनों के, परमहंसों के ही सर्वस्व हैं।

नारद उवाच

एतावद्वर्णितगुणो भक्त्या भक्तेन निर्गुणः ।

प्रह्लादं प्रणतं प्रीतो यतमन्युरभाषत ॥ ५१॥

नारद जी कहते हैं ;- इस प्रकार भक्त प्रह्लाद ने बड़े प्रेम से प्रकृति और प्राकृत गुणों से रहित भगवान् के स्वरूपभूत गुणों का वर्णन किया। इसके बाद वे भगवान् के चरणों में सिर झुकाकर चुप हो गये। नृसिंह भगवान् का क्रोध शान्त हो गाया और वे बड़े प्रेम तथा प्रसन्नता से बोले।

श्रीभगवानुवाच

प्रह्लाद भद्र भद्रं ते प्रीतोऽहं तेऽसुरोत्तम ।

वरं वृणीष्वाभिमतं कामपूरोऽस्म्यहं नृणाम् ॥ ५२॥

मामप्रीणत आयुष्मन् दर्शनं दुर्लभं हि मे ।

दृष्ट्वा मां न पुनर्जन्तुरात्मानं तप्तुमर्हति ॥ ५३॥

प्रीणन्ति ह्यथ मां धीराः सर्वभावेन साधवः ।

श्रेयस्कामा महाभाग सर्वासामाशिषां पतिम् ॥ ५४॥

एवं प्रलोभ्यमानोऽपि वरैर्लोकप्रलोभनैः ।

एकान्तित्वाद्भगवति नैच्छत्तानसुरोत्तमः ॥ ५५॥

श्रीनृसिंह भगवान् ने कहा ;- 'परमकल्याणस्वरूप प्रह्लाद! तुम्हारा कल्याण हो। दैत्यश्रेष्ठ! मैं तुम पर अत्यन्त प्रसन्न हूँ। तुम्हारी जो अभिलाषा हो, मुझसे माँग लो। मैं जीवों की इच्छाओं को पूर्ण करने वाला हूँ। आयुष्मन्! जो मुझे प्रसन्न नहीं कर लेता, उसे मेरा दर्शन मिलना बहुत ही कठिन है। परन्तु जब मेरे दर्शन हो जाते हैं, तब फिर प्राणी के हृदय में किसी प्रकार की जलन नहीं रह जाती। मैं समस्त मनोरथों को पूर्ण करने वाला हूँ। इसलिये सभी कल्याणकामी परमभाग्यभावान् साधुजन जितेन्द्रिय होकर अपनी समस्त वृत्तियों से मुझे प्रसन्न करने का ही यत्न करते हैं।'

असुरकुलभूषण प्रह्लाद जी भगवान् के अनन्य प्रेमी थे। इसलिये बड़े-बड़े लोगों को प्रलोभन में डालने वाले वरों के द्वारा प्रलोभित किये जाने पर भी उन्होंने उनकी इच्छा नहीं की।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे प्रह्लादचरिते भगवत्स्तवो नाम नवमोऽध्यायः ॥ ९॥

शेष जारी-आगे पढ़े............... सप्तम स्कन्ध: दशमोऽध्यायः

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