वामनपुराण अध्याय ३

वामनपुराण अध्याय ३ 

वामनपुराण के अध्याय ३ में शंकरजी का ब्रह्महत्या से छूटने के लिये तीर्थों में भ्रमण; बदरिकाश्रम में नारायण की स्तुति; वाराणसी में ब्रह्महत्या से मुक्ति एवं कपाली नाम पड़ना का वर्णन है।

वामनपुराण अध्याय ३

श्रीवामनपुराण अध्याय ३ 

Vaman Purana chapter

श्रीवामनपुराणम् तृतीयोऽध्यायः       

वामनपुराणम् अध्यायः ३ 

वामन पुराण तीसरा अध्याय

श्रीवामनपुराण तृतीय अध्याय 

श्रीवामनपुराण

अध्याय ३ 

पुलस्त्य उवाच

ततः करतले रुद्रः कपाले दारुणे स्थिते ।

संतापमगमद् ब्रह्मंश्चिन्तया व्याकुलेन्द्रियः ॥१॥

ततः समागता रौद्रा नीलाञ्जनचयप्रभा ।

संरक्तमूर्द्धजा भीमा ब्रह्महत्या हरान्तिकम् ॥२॥

तामागतां हरो दृष्ट्वा पप्रच्छ विकरालिनीम् ।

काऽसि त्वमागता रौद्रे केनाप्यर्थेन तद्वद ॥३॥

कपालिनमथोवाच ब्रह्महत्या सुदारुणा ।

ब्रह्मवध्याऽस्मि सम्प्राप्ता मां प्रतीच्छ त्रिलोचन ॥४॥

पुलस्त्यजी बोले - नारदजी ! तत्पश्चात् शिवजी को अपने करतल में भयंकर कपाल के सट जाने से बड़ी चिन्ता हुई । उनकी इन्द्रियाँ व्याकुल हो गयीं । उन्हें बड़ा संताप हुआ । उसके बाद कालिख के समान नीले रंग की, रक्तवर्ण के केशवाली भयंकर ब्रह्महत्या शंकर के निकट आयी । उस विकराल रुपवाली स्त्री को आयी देखकर शंकरजी ने पूछा - ओ भयावनी स्त्री ! यह बतलाओ कि तुम कौन हो एवं किसलिये यहाँ आयी हो ? इस पर उस अत्यन्त दारुण ब्रह्महत्या ने उनसे कहा - मैं ब्रह्महत्या हूँ; हे त्रिलोचन ! आप मुझे स्वीकार करें - इसलिये यहाँ आयी हूँ ॥१ - ४॥

इत्येवमुक्त्वा वचनं ब्रह्महत्या विवेश ह ।

त्रिशूलपाणिनं रुद्रं सम्प्रतापितविग्रहम् ॥५॥

ब्रह्महत्याभीभूतश्च शर्वो बदरिकाश्रमम् ।

आगच्छन्न ददर्शाथ नरनारायणावृषी ॥६॥

अदृष्ट्वा धर्मतनयौ चिन्ताशोकसमन्वितः ।

जगाम यमुनां स्नातुं साऽपि शुष्कजलाऽभवत् ॥७॥

कालिन्दीं शुष्कसलिलां निरीक्ष्य वृषकेतनः ।

प्लक्षजां स्नातुमगमदन्तर्द्धानं च सा गता ॥८॥

ऐसा कहकर ब्रह्महत्या संताप से जलते शरीरवाले त्रिशूलपाणि शिव के शरीर में समा गयी । ब्रह्महत्या से अभिभूत होकर श्रीशंकर बदरिकाश्रम में आये; किंतु वहाँ नर एवं नारायण ऋषियों के उन्हें दर्शन नहीं हुए । धर्म के उन दोनों पुत्रों को वहाँ न देखकर वे चिन्ता और शोक से युक्त हो यमुनाजी में स्नान करने गये; परंतु उसका जल भी सूख गया । यमुनाजी को निर्जल देखकर भगवान् शंकर सरस्वती में स्नान करने गये; किंतु वह भी लुप्त हो गयी ॥५ - ८॥

ततो नु पुष्करारण्यं मागधारण्यमेव च ।

सैन्धवारण्यमेवासौ गत्वा स्नातो यथेच्छया ॥९॥

तथैव नैमिषारण्यं धर्मारण्यं तथेश्वरः ।

स्नातो नैव च सा रौद्रा ब्रह्महत्या व्यमुञ्चत ॥१०॥

सरित्सु तीर्थेषु तथाश्रमेषु पुण्येषु देवायतनेषु शर्वः ।

समायुतो योगयुतोऽपि पापान्नावाप मोक्षं जलदध्वजोऽसौ ॥११॥

ततो जगाम निर्विण्णः शंकरः कुरुजाङ्गलम् ।

तत्र गत्वा ददर्शाथ चक्रपाणिं खगध्वजम् ॥१२॥

तं दृष्ट्वा पुण्डरीकाक्षं शङ्खचक्रगदाधरम् ।

कृताञ्जलिपुटो भूत्वा हरः स्तोत्रमुदीरयत् ॥१३॥

फिर पुष्करारण्य, धर्मारण्य और सैन्धवारण्य में जाकर उन्होंने बहुत समय तक स्नान किया । उसी प्रकार वे नैमिषारण्य तथा सिद्धपुर में भी गये और स्नान किये; फिर भी उस भयंकर ब्रह्महत्या ने उन्हें नहीं छोड़ा । जीमूतकेतु शंकर ने अनेक नदियों, तीर्थों, आश्रमों एवं पवित्र देवायतनों की यात्रा की; पर योगी होने पर भी वे पाप से मुक्ति न प्राप्त कर सके । तत्पश्चात् वे खिन्न होकर कुरुक्षेत्र गये । वहाँ जाकर उन्होंने गरुडध्वज चक्रपाणि (विष्णु) - को देखा और उन शङ्ख - चक्र - गदाधारी पुण्डरीकाक्ष ( श्रीनारायण ) - का दर्शनकर वे हाथ जोड़कर स्तुति करने लगे - ॥९ - १३॥

विष्णुस्तोत्रम् 

हर उवाच

नमस्ते देवतानाथ नमस्ते गरुडध्वज ।

शङ्खचक्रगदापाणे वासुदेव नमोऽस्तु ते ॥१४॥

भगवान् शंकर बोले - हे देवताओं के स्वामी ! आपको नमस्कार है । गरुडध्वज ! आपको प्रणाम है । शङ्ख - चक्र - गदाधारी वासुदेव ! आपको नमस्कार हैं ।

नमस्ते निर्गुणानन्त अप्रतर्क्याय वेधसे ।

ज्ञानाज्ञान निरालम्ब सर्वालम्ब नमोऽस्तु ते ॥१५॥

निर्गुण, अनन्त एवं अतर्कनीय विधाता ! आपको नमस्कार है । ज्ञानाज्ञानस्वरुप, स्वयं निराश्रय किंतु सबके आश्रय ! आपको नमस्कार है ।

रजोयुक्त नमस्तेऽस्तु ब्रह्ममूर्ते सनातन ।

त्वया सर्वमिदं नाथ जगत्सृष्टं चराचरम् ॥१६॥

रजोगुण, सनातन, ब्रह्ममूर्ति ! आपको नमस्कार है । नाथ ! आपने इस सम्पूर्ण चराचर विश्व की रचना की है ।

सत्त्वाधिष्ठित लोकेश विष्णुमूर्ते अधोक्षज ।

प्रजापाल महाबाहो जनार्दन नमोऽस्तु ते ॥१७॥

सत्त्वगुण के आश्रय लोकेश ! विष्णुमूर्ति, अधोक्षज, प्रजापालक, महाबाहु, जनार्दन ! आपको नमस्कार है ।

तमोमूर्ते अहं ह्येष त्वदंशक्रोधसंभवः ।

गुणाभीयुक्त देवेश सर्वव्यापिन् नमोऽस्तु ते ॥१८॥

हे तमोमूर्ति ! मैं आपके अंशभूत क्रोध से उत्पन्न हूँ । हे महान् गुणवाले सर्वव्यापी देवेश ! आपको नमस्कार है।

भूरियं त्वं जगन्नाथ जलाम्बरहुताशनः ।

वायुर्बुद्धिर्मनश्चापि शर्वरी त्वं नमोऽस्तु ते ॥१९॥

जगन्नाथ ! आप ही पृथ्वी, जल, आकाश, अग्नि, वायु, बुद्धि, मन एवं रात्रि हैं; आपको नमस्कार है ।

धर्मो यज्ञस्तपः सत्यमहिंसा शौचमार्जवम् ।

क्षमा दानं दया लक्ष्मीर्ब्रह्मचर्यं त्वमीश्वर ॥२०॥

ईश्वर ! आप ही धर्म, यज्ञ, तप, सत्य, अहिंसा, पवित्रता, सरलता, क्षमा, दान, दया, लक्ष्मी एवं ब्रह्मचर्य हैं ।

त्वं साङ्गाश्चतुरो वेदास्त्वं वेद्यो वेदपारगः ।

उपवेदा भवानीश सर्वोऽसि त्वं नमोऽस्तु ते ॥२१॥

हे ईश ! आप अङ्गोंसहित चतुर्वेदस्वरुप, वेद्य एवं वेदपारगामी हैं । आप ही उपवेद हैं तथा सभी कुछ आप ही हैं; आपको नमस्कार है ।

नमो नमस्तेऽच्युत चक्रपाणे

नमोऽस्तु ते माधव मीनमूर्ते ।

लोके भवान् कारुणिको मतो

मे त्रायस्व मां केशव पापबन्धात् ॥२२॥

ममाशुभं नाशय विग्रहस्थं

यद् ब्रह्महत्याऽभिभवं बभूव ।

अच्युत ! चक्रपाणि ! आपको बारंबार नमस्कार है । मीनमूर्तिधारी ( मत्स्यावतारी ) माधव ! आपको नमस्कार है। मैं आपको लोक में दयालु मानता हूँ । केशव ! आप मेरे शरीर में स्थित ब्रह्महत्या से उत्पन्न अशुभ को नष्ट कर मुझे पाप- बन्धन से मुक्त करें ।

दग्धोऽस्मि नष्टोऽस्म्यसमीक्ष्यकारी

पुनीहि तीर्थोऽसि नमो नमस्ते ॥२३॥

बिना विचार किये कार्य करनेवाला मैं दग्ध एवं नष्ट हो गया हूँ। आप साक्षात् तीर्थ हैं, अतः आप मुझे पवित्र करें। आपको बारंबार नमस्कार है ।

पुलस्त्य उवाच

इत्थं स्तुतश्चक्रधरः शंकरेण महात्मना ।

प्रोवाच भगवान् वाक्यं ब्रह्महत्याक्षयाय हि ॥२४॥

पुलस्त्यजी ने कहा - भगवान् शंकर द्वारा इस प्रकार स्तुत होने पर चक्रधारी भगवान् विष्णु शंकर की ब्रह्महत्या को नष्ट करने के लिये उनसे वचन बोले - ॥२४॥

हरिरुवाच

महेश्वर श्रृणुष्वेमां मम वाचं कलस्वनाम् ।

ब्रह्महत्याक्षयकरीं शुभदां पुण्यवर्धनीम् ॥२५॥

भगवान् विष्णु बोले - महेश्वर ! आप ब्रह्महत्या को नष्ट करनेवाली मेरी मधुर वाणी सुनें । यह शुभप्रद एवं पुण्य को बढ़ानेवाली है ।

योऽसौ प्राङ्मण्डले पुण्ये मदंशप्रभवोऽव्ययः ।

प्रयागे वसते नित्यं योगशायीति विश्रुतः ॥२६॥

चरणाद् दक्षिणात्तस्य विनिर्याता सरिद्वरा ।

विश्रुता वरणेत्येव सर्वपापहरा शुभा ॥२७॥

सव्यादन्या द्वितीया च असिरित्येव विश्रुता ।

ते उभे तु सरिच्छ्रेष्ठे लोकपूज्ये बभूवतुः ॥२८॥

यहाँ से पूर्व प्रयाग में मेरे अंश से उत्पन्न 'योगशायी' नाम से विख्यात देवता हैं । वे अव्यय - विकाररहित पुरुष हैं। वहाँ उनका नित्य निवास है । वहीं से उनके दक्षिण चरण से 'वरणा' नाम से प्रसिद्ध श्रेष्ठ नदी निकली है । वह सब पापों को हरनेवाली एवं पवित्र है । वहीं उनके वाम पाद से 'असि' नाम से प्रसिद्ध एक दूसरी नदी भी निकली है । ये दोनों नदियाँ श्रेष्ठ एवं लोकपूज्य हैं ॥२५ - २८॥

ताभ्यां मध्ये तु यो देशस्तत्क्षेत्रं योगशायिनः ।

त्रैलोक्यप्रवरं तीर्थं सर्वपापप्रमोचनम् ।

न तादृशोऽस्ति गगने न भूम्यां न रसातले ॥२९॥

तत्रास्ति नगरी पुण्या ख्याता वाराणसी शुभा ।

यस्यां हि भोगिनोऽपीश प्रयान्ति भवतो लयम् ॥३०॥

विलासिनीनां रशनास्वनेन श्रुतिस्वनैर्ब्राह्मणपुंगवानाम् ।

शुचिस्वरत्वं गुरवो निशम्य हास्यादशासन्त मुहुर्मुहुस्तान् ॥३१॥

व्रजत्सु योषित्सु चतुष्पथेषु पदान्यलक्तारुणितानि दृष्ट्वा ।

ययौ शशी विस्मयमेव यस्यां किंस्वित् प्रयाता स्थलपदमिनीयम् ॥३२॥

तुङ्गानि यस्यां सुरमन्दिराणि रुन्धान्ति चन्द्रं रजनीमुखेषु ।

दिवाऽपि सूर्यं पवनाप्लुताभिर्दीर्घाभीरेवं सुपताकिकाभिः ॥३३॥

उन दोनों के मध्य का प्रदेश योगाशायी का क्षेत्र हैं । वह तीनों लोकों में सर्वश्रेष्ठ तथा सभी पापों से छुडा देनेवाला तीर्थ हैं । उसके समान अन्य कोई तीर्थ आकाश, पृथ्वी एवं रसातल में नही है । ईश ! वहाँ पवित्र शुभप्रद विख्यात वाराणसी नगरी है, जिसमें भोगी लोग भी आपके लोक को प्राप्त करते हैं । श्रेष्ठ ब्राह्मणों की वेदध्वनि विलासिनी स्त्रियों की करधनी की ध्वनि से मिश्रित होकर मङ्गल स्वर का रुप धारण करती है । उस ध्वनि को सुनकर गुरुजन बारंबार उपहासपूर्वक उनका शासन करते हैं । जहाँ चौराहोंपर भ्रमण करनेवाली स्त्रियोंझके अलक्त ( महावर ) - से अरुणित चरणोंको देखकर चन्द्रमाको स्थल - पद्मिनीके चलनेका भ्रम हो जाता है और जहाँ रात्रिका आरम्भ होनेपर ऊँचे - ऊँचे देवमन्दिर चन्द्रमाका ( मानो ) अवरोध करते हैं एवं दिनमें पवनान्दोलित ( हवासे फहरा रही ) दीर्घ पताकाओंसे सूर्य भी छिपे रहते हैं ॥२९ - ३३॥

भृङ्गाश्च यस्यां शशिकान्तभित्तौ प्रलोभ्यमानाः प्रतिबिम्बितेषु ।

आलेख्ययोषिद्विमलाननाब्जेष्वीयुर्भ्रमान्नैव च पुष्पकान्तरम् ॥३४॥

परिभ्रमंश्चापि पराजितेषु नरेषु संमोहनलेखनेन ।

यस्यां जलक्रीडनसंगतासु न स्त्रीषु शंभो गृहदीर्घिकासु ॥३५॥

न चैव कश्चित् परमान्दिराणि रुणद्धि शंभो सहसा ऋतेऽक्षान् ।

न चाबलानां तरसा पराक्रमं करोति यस्यां सुरतं हि मुक्त्वा ॥३६॥

पाशग्रन्थिर्गजेन्द्राणां दानच्छेदो मदच्युतौ ।

यस्यां मानमदौ पुंसां करिणां यौवनागमे ॥३७॥

जिस ( वाराणसी ) - में चन्द्रकान्तमणिकी भित्तियोंपर प्रतिबिम्बित चित्रमें निर्मित स्त्रियोंके निर्मल मुखकमलोंको देखकर भ्रमर उनपर भ्रमवश लुब्ध हो जाते हैं और दूसरे पुष्पोंकी ओर नहीं जाते । हे शम्भो ! वहाँ सम्मोहनलेखनसे पराजित पुरुषोंमें तथा घरकी बावलियोंमें जाता है, अन्यत्र किसीको ' भ्रमण ' ( चक्कर रोग ) नहीं होता ।* द्यूतक्रीडा ( जुआके खेल ) - के पासोंके सिवाय अन्य कोई भी दूसरेके ' पाश ' ( बन्धन ) - में नहीं डाला जाता तथा सुरत - समयके सिवाय स्त्रियोंके साथ कोई आवेगयुक्त पराक्रम नहीं करता ! जहाँ हाथियोंके बन्धनमें ही पाशग्रन्थि ( रस्सीकी गाँठ ) होती है, उनकी मदच्युतिमें ( मदके चूनेमें ) ही ' दानच्छेद ' ( मदकी धाराका टूटना ) एवं तर हाथियोंके यौवनागममें ही ' मान ' और ' मद ' होते हैं, अन्यत्र नहीं; तात्पर्य यह कि दान देनेकी धारा निरन्तर चलती रहती है और अभिमानी एवं मदवाले लोग नहीं हैं ॥३४ - ३७॥

* यहाँ सर्वत्र परिसंख्यालंकार है। परिसंख्यालंकार वहाँ होता है, जहाँ किसी वस्तु का एक स्थान से निषेध करके उसका दूसरे स्थान में स्थापन हो। ऐसा वर्णन आनन्दरामायण के अयोध्या-वर्णन में, कादम्बरी में, काशीखण्ड में काशी आदि के वर्णन में भी प्राप्त होता है।

प्रियदोषाः सदा यस्यां कौशिका नेतरे जनाः ।

तारागणेऽकुलीनत्वं गद्ये वृत्तच्युतिर्विभो ॥३८॥

भूतिलुब्धा विलासिन्यो भुजंगपरिवारिताः ।

चन्द्रभूषितदेहाश्च यस्यां त्वमिव शंकर ॥३९॥

ईदृशायां सुरेशान वाराणस्यां महाश्रमे ।

वसते भगवाँल्लोलः सर्वपापहरो रविः ॥४०॥

दशाश्वमेधं यत्प्रोक्तं मदंशो यत्र केशवः ।

तत्र गत्वा सुरश्रेष्ठ पापमोक्षमवास्यसि ॥४१॥

विभो ! जहाँ उलूक ही सदा दोषा ( रात्रि ) - प्रिय होते हैं, अन्य लोग दोषों के प्रेमी नहीं है । तारागणों में ही अकुलीनता ( पृथ्वी में न छिपना) हैं, लोगों में कहीं अकुलीनता का नाम नहीं है; गद्य में ही वृत्तच्युति (छन्दोभङ्ग) होती हैं, अन्यत्र वृत्त (चरित्र) - च्युति नहीं दीखती । शंकर ! जहाँ की विलासिनियाँ आपके सदृश (भस्म)' भूतिलुब्धा' 'भुजंग (सर्प) - परिवारिता' एवं 'चन्द्रभूषितदेहा' होती हैं । (यहाँ पक्षान्तर में – विलासिनियों के पक्ष में – संगति के लिये, 'भूति' पद 'भस्म' और 'धन' के अर्थ में, 'भुजङ्ग' पद 'सर्प' एवं 'जार' के अर्थ में तथा 'चन्द्र' पद 'चन्द्राभूषण' के अर्थ में प्रयुक्त हैं । ) सुरेशान ! इस प्रकार की वाराणसी के महान् आश्रम में सभी पापों को दूर करनेवाले भगवान् 'लोल' नाम के सूर्य निवास करते हैं । सुरश्रेष्ठ ! वहीं दशाश्वमेध नाम का स्थान है तथा वहीं मेरे अंशस्वरुप केशव स्थित हैं । वहाँ जाकर आप पाप से छुटकारा प्राप्त करेंगे ॥३८ - ४१॥

इत्येवमुक्तो गरुडध्वजेन वृषध्वजस्तं शिरसा प्रणम्य ।

जगाम वेगाद् गरुडो यथाऽसौ वाराणसीं पापविमोचनाय ॥४२॥

गत्वा सुपुण्यां नगरीं सुतीर्थां दृष्ट्वा च लोलं सदशाश्वमेधम् ।

स्नात्वा च तीर्थेषु विमुक्तपापः स केशवं द्रष्टुमुपाजगाम ॥४३॥

केशवं शंकरो दृष्ट्वा प्रणिपत्येदमब्रवीत् ।

त्वत्प्रसादादधृषीकेश ब्रह्महत्या क्षयं गता ॥४४॥

नेदं कपालं देवेश मद्धस्तं परिमुञ्चति ।

कारणं वेद्मि न च तदेतन्मे वक्तुमर्हसि ॥४५॥

भगवान् विष्णु के ऐसा कहने पर शिवजी ने उन्हें मस्तक झुकाकर प्रणाम किया । फिर वे पाप छुड़ाने के लिये गरुड़ के समान तेज वेग से वाराणसी गये । वहाँ परमपवित्र तथा तीर्थभूत नगरी में जाकर दशाश्वमेध के साथ 'असी' स्थान में स्थित भगवान् लोलार्क का दर्शन किया तथा ( वहाँ के ) तीर्थों में स्नान कर और पाप- मुक्त होकर वे ( वरुणासंगम पर ) केशव का दर्शन करने गये । उन्होंने केशव का दर्शन करके प्रणाम कर कहा - हृषीकेश ! आपके प्रसाद से ब्रह्महत्या तो नष्ट हो गयी, पर देवेश ! यह कपाल मेरे हाथ को नहीं छोड़ रहा है । इसका कारण मैं नहीं जानता । आप ही मुझे यह बतला सकते हैं ॥४२ - ४५॥

पुलस्त्य उवाच

महादेववचः श्रुत्वा केशवो वाक्यमब्रवीत् ।

विद्यते कारणं रुद्र तत्सर्वं कथयामि ते ॥४६॥

योऽसौ ममाग्रतो दिव्यो हदः पद्मोत्पलैर्युतः ।

एष तीर्थवरः पुण्यो देवगन्धर्वपूजितः ॥४७॥

एतस्मिन्प्रवरे तीर्थे स्नानं शंभो समाचर ।

स्नातमात्रस्य चाद्यैव कपालं परिमोक्ष्यति ॥४८॥

तत: कपाली लोके च ख्यातो रुद्र भविष्यसि ।

कपालमोचनेत्येवं तीर्थं चेदं भविष्यति ॥४९॥

पुलस्त्यजी बोले – महादेव का वचन सुनकर केशव ने यह वाक्य कहा - रुद्र ! इसके समस्त कारणों को मैं तुम्हें बतलाता हूँ । मेरे सामने कमलों से भरा यह जो दिव्य सरोवर है, यह पवित्र तथा तीर्थों में श्रेष्ठ है एवं देवताओं तथा गन्धर्वों से पूजित है । शिवजी ! आप इस परम श्रेष्ठ तीर्थ में स्नान करें । स्नान करनेमात्र से आज ही यह कपाल (आपके हाथ को) छोड़ देगा । इससे रुद्र ! संसार में आप 'कपाली' नाम से प्रसिद्ध होंगे तथा यह तीर्थ भी 'कपालमोचन' नाम से प्रसिद्ध होगा ॥४६ - ४९॥

पुलस्त्य उवाच

एवमुक्तः सुरेशेन केशवेन महेश्वरः ।

कपालमोचने सस्नौ वेदोक्तबिधिना मुने ॥५०॥

स्नातस्य तीर्थे त्रिपुरान्तकस्य परिच्युतं हस्ततलात् कपालम् ।

नाम्ना बभूवाथ कपालमोचनं तत्तीर्थवर्यं भगवत्प्रसादात् ॥५१॥

पुलस्त्यजी बोले - मुने ! सुरेश्वर केशव के ऐसा कहने पर महेश्वर ने कपालमोचनतीर्थ में वेदोक्त विधि से स्नान किया । उस तीर्थ में स्नान करते ही उनके हाथ से ब्रह्म- कपाल गिर गया । तभी से भगवान की कृपा से उस उत्तम तीर्थ का नाम 'कपालमोचन' पड़ा* ॥५० - ५१॥

* कपालमोचन तीर्थ काशी के परिसर में बकरियाकुण्ड से १ मील पर स्थित है।

इति श्रीवामपुराणे तृतीयोऽध्यायः ।। ३ ।।

॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें तीसरा अध्याय समाप्त हुआ ॥३॥

आगे जारी........ श्रीवामनपुराण अध्याय 4 

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