वामनपुराण अध्याय १

वामनपुराण अध्याय १

वामनपुराण के अध्याय १ में श्रीनारदजी का पुलस्त्य ऋषि से वामनाश्रयी प्रश्न, शिवजी का लीलाचरित्र और जीमूतवाहन होना का वर्णन है।

वामनपुराण अध्याय १

श्रीवामनपुराण अध्याय १

Vaman Purana chapter

श्रीवामनपुराणम् प्रथमोऽध्यायः       

वामनपुराणम् अध्यायः १

वामन पुराण पहला अध्याय

श्रीवामनपुराण प्रथम अध्याय 

॥ श्रीहरिः ॥

॥ ॐ नमो भगवते त्रिविक्रमाय ॥

श्रीवामनपुराण

अध्याय १

अथ श्रीवामनपुराणम्

नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् ।

देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ॥

भगवान् श्रीनारायण, मनुष्यों में श्रेष्ठ नर, भगवती सरस्वतीदेवी और ( पुराणों के कर्ता ) महर्षि व्यासजी को नमस्कार करके जय ( पुराणों तथा महाभारत आदि ग्रन्थों ) - का उच्चारण ( पठन ) करना चाहिये ।*

* महाभारत के उल्लेखानुसार नर-नारायण ब्रह्मर्षिरूप में विभक्त परमात्मा ही हैं, जो बाद में अर्जुन और कृष्ण हुए। ये ही नारायणीय या भागवतधर्म के प्रधान प्रचारक हैं, अतः भागवतीय ग्रन्थों में सर्वत्र इन दोनों को नमस्कार किया गया है। पुराण- प्रवचन में भी इस श्लोक को माङ्गलिक रूप में पढ़ने की प्राचीन प्रथा है।

महाभारत का प्राचीन नाम 'जय' है; पर उपलक्षण से पुराणों का भी ग्रहण किया जाता है। भविष्यपुराण का वचन है-

अष्टादश पुराणानि रामस्य चरितं तथा ।

कात्स्नं वेदपञ्चमं च यन्महाभारतं विदुः ॥

जयेति नाम चैतेषां प्रवदन्ति मनीषिणः ॥ (भविष्यपुराण १।१।५-६ )

अर्थात् अठारहों पुराण, रामायण और सम्पूर्ण (वेदार्थ) पाँचवाँ वेद, जिसे महाभारत रूप में जानते हैं इन सबको मनीषीलोग 'जय' कहते हैं।

त्रैलोक्यराज्यमाक्षिप्य बलेरिन्द्राय यो ददौ ।

श्रीधराय नमस्तस्मै छद्मवामनरूपिणे ॥१॥

जिन्होंने बलि से ( भूमि, स्वर्ग और पाताल - इन ) तीनों लोकों के राज्य को छीनकर इन्द्र को दे दिया, उन मायामय वामनरुपधारी और लक्ष्मी को हृदय में धारण करनेवाले विष्णु को नमस्कार है ।

पुलस्त्यमृषिमासीनमाश्रमेवाग्विदांवरम् ।

नारदः परिपप्रच्छ पुराणं वामनाश्रयम् ॥२॥

कथं भगवता ब्रह्मन् विष्णुना प्रभविष्णुना ।

वामनत्वं धृतं पूर्वं तन्ममाचक्ष्व पृच्छतः ॥३॥

कथं च वैष्णवो भूत्वा प्रह्लादो दैत्यसत्तमः।

त्रिदशैर्युयुधे सार्थमत्र मे संशयो महान् ॥४॥

श्रूयते च द्विजश्रेष्ठ दक्षस्य दुहिता सती ।

शंकरस्य प्रिया भार्या बभूव वरवर्णिनी ॥५॥

किमर्थं सा परित्यज्य स्वशरीरं वरानना ।

जाता हिमवतो गेहे गिरीन्द्रस्य महात्मनः ॥६॥

पुनश्च देवदेवस्य पत्नीत्वमगमच्छुभा ।

एतन्मे संशयं छिन्धि सर्ववित् त्वं मतोऽसि मे ॥७॥

तीर्थानां चैव माहात्म्यं दानानां चैव सत्तम ।

व्रतानां विविधानां च विधिमाचक्ष्व मे द्विज ॥८॥

( एक बार की बात है कि - ) वाग्मियों में श्रेष्ठ विद्वद्वर पुलस्त्य ऋषि अपने आश्रम में बैठे हुए थे; ( वहीं ) नारदजी ने उनसे वामनपुराण की कथा - ( इस प्रकार ) पूछी । उन्होंने कहा - ब्रह्मन् ! महाप्रभावशाली भगवान् विष्णु ने कैसे वामन का अवतार ग्रहण किया था, इसे आप मुझ जिज्ञासु को बतलायें । एक तो मेरी यह शङ्का है कि दैत्यवर्य प्रह्लाद ने विष्णुभक्त होकर भी देवताओं के साथ युद्ध कैसे किया और ब्राह्मणश्रेष्ठ ! दूसरी जिज्ञासा यह है कि दक्षप्रजापति की पुत्री भगवती सती, जो भगवान् शंकर की प्रिय पत्नी थीं, उन श्रेष्ठ मुखवाली ( सती ) - ने अपना शरीर त्यागकर पर्वतराज हिमालय के घर में किसलिये जन्म लिया ? और पुनः वे कल्याणी देवदेव (महादेव ) - की पत्नी कैसे बनीं ? मैं मानता हूँ कि आपको सब कुछ का ज्ञान है, अतः आप मेरी इस शंका को दूर कर दें । साथ ही सत्पुरुषों में श्रेष्ठ हे द्विज ! तीर्थों तथा दानों की महिमा और विविध व्रतों की अनुष्ठान - विधि भी मुझे बताइये ॥२ - ८॥

एवमुक्तो नारदेन पुलस्त्यो मुनिसत्तमः।

प्रोवाच वदतां श्रेष्ठो नारदं तपसो निधिम् ॥९॥

नारदजी के इस प्रकार कहने पर मुनियों में मुख्य तथा वक्ताओं में श्रेष्ठ तपोधन पुलस्त्यजी नारदजी से कहने लगे ॥९॥

पुलस्त्य उवाच

पुराणं वामनं वक्ष्ये क्रमान्निखिलमादितः।

अवधानं स्थिरं कृत्वा श्रृणुष्व मुनिसत्तम  ॥१०॥

पुरा हैमवती देवी मन्दरस्थं महेश्वरम् ।

उवाच वचनं दृष्ट्वा ग्रीष्मकालमुपस्थितम् ॥११॥

ग्रीष्मः प्रवृत्तो देवेश न च ते विद्यते गृहम् ।

यत्र वातातपौ ग्रीष्मे स्थितयोर्नौ गमिष्यतः ॥१२॥

एवमुक्तो भवान्या तु शंकरो वाक्यमब्रवीत् ।

निराश्रयोऽहं सुदती सदाऽरण्यचरः शुभे ॥१३॥

पुलस्त्यजी बोले - नारद ! आपसे मैं सम्पूर्ण वामनपुराण की कथा आदि से ( अन्त तक ) वर्णन करुँगा । मुनिश्रेष्ठ ! आप मन को स्थिर कर ध्यान से सुनें ! * प्राचीन समय में देवी हैमवती ( सती ) - ने ग्रीष्म – ऋतु का आगमन देखकर मन्दर पर्वत पर बैठे हुए भगवान् शंकर से कहा - देवेश ! ग्रीष्म - ऋतु तो आ गयी है, परंतु आपका कोई घर नहीं है, जहाँ हम दोनों ग्रीष्मकाल में निवास करते हुए वायु और तापजनित कठिन समय को बिता सकेंगे । सती के ऐसा कहने पर भगवान् शंकर बोले - हे सुन्दर दाँतोंवाली सति ! मेरा कभी कोई घर नहीं रहा । मैं तो सदा वनों में ही घूमता रहता हूँ ॥१० - १३॥

* भविष्यपुराण के प्रमाणानुसार वामनपुराण के वक्ता चतुर्मुख (ब्रह्माजी) हैं, पर यहाँ पुलस्त्यजी ऐसा उल्लेख नहीं करते कि 'पुराणं वामनं वक्ष्ये ब्रह्मणा च मया श्रुतम्।' इससे प्रतीत होता है कि एतत् सम्बन्धी श्लोक अनुपलब्ध है। मत्स्यपुराण में भी चतुर्मुख (ब्रह्मा) - के वक्ता होने का उल्लेख है-

'त्रिविक्रमस्य माहात्म्यमधिकृत्य चतुर्मुखः ।

त्रिवर्गमभ्यधात् तच्च वामनं परिकीर्तितम् ॥'

इत्युक्ता शंकरेणाथ वृक्षच्छायासु नारद ।

निदाघकालमनयत् समं शर्वेण सा सती ॥१४॥

निदाघान्ते समुद्भूतो निर्जनाचरितोऽद्भुतः।

घनान्धकारिताशो वै प्रावृट्कालोऽतिरागवान् ॥१५॥

तं दृष्ट्वा दक्षतनुजा प्रावृट्कालमुपस्थितम् ।

प्रोवाच वाक्यं देवेशं सती सप्रणयं तदा ॥१६॥

नारदजी ! भगवान् शंकर के ऐसा कहने पर सतीदेवी ने उनके साथ वृक्षों की छाया में ( जैसे - तैसे रहकर ) निदाघ ( गर्मी ) - का समय बिताया । फिर ग्रीष्म के अन्त में अद्भुत वर्षा - ऋतु आ गयी, जो अत्याधिक राग को बढ़ानेवाली होती है और जिसमें प्रायः सबका आवागमन अवरुद्ध हो जाता है । ( उस समय ) मेघों से आवृत हो जाने से दिशाएँ अन्धकारमय हो जाती हैं । उस वर्षाऋतु को आयी देखकर दक्ष - पुत्री सती ने प्रेम से महादेवजी से यह वचन कहा - ॥१४ - १६॥

विवान्ति वाता हृदयावदारणा

गर्जन्त्यमी लोयधरा महेश्वर ।

स्फुरन्ति नीलाभ्रगणेषु विद्युतो

वाशन्ति केकारवमेव बर्हिणः ॥१७॥

पतन्ति धारा गगनात् परिच्युता

बका बलाकाश्च सरन्ति तोयदान् ।

कदम्बसर्ज्जार्जुनकेतकीद्रुमाः

पुष्पाणि मुञ्चन्ति सुमारुताहताः ॥१८॥

श्रुत्वैव मेघस्य दृढं तु गर्जितं

त्यजन्ति हंसाश्च सरांसि तत्क्षणात् ।

यथाश्रयान् योगिगणः समन्तात्

प्रवृद्धमूलानपि संत्यजन्ति ॥१९॥

इमानि यूथानि वने मृगाणां

चरन्ति धावन्ति रमन्ति शंभो ।

तथाऽचिराभाः सुतरां स्फुरन्ति

पश्येह नीलेषु घनेषु देव ।

नूनं समृद्धिं सलिलस्य दृष्ट्वा

चरन्ति शूरास्तरुणद्रुमेषु ॥२०॥

उद्‌वृत्तवेगाः सहसैव निम्नगा

जाताः शशङ्काङ्कितचारुमैले ।

किमत्र चित्रं यदनुज्ज्वलं जनं

निषेव्य योषित् भवति त्वशीला ॥२१॥

महेश्वर ! हदय को विदीर्ण करनेवाली वायु वेग से चल रही है । ये मेघ भी गर्जन कर रहे हैं, नीले मेघों में बिजलियाँ कौंध रही हैं और मयूरगण केकाध्वनि कर रहे हैं । आकाश से गिरती हुए जलधाराएँ नीचे आ रही हैं । बगुले तथा बगुलों की पंक्तियाँ जलाशयों में तैर रही हैं । प्रबल वायु के झोंके खाकर कदम्ब, सर्ज, अर्जुन तथा केतकी के वृक्ष पुष्पों को गिरा रहे हैं – वृक्षों से फूल झड़ रहे हैं । मेघ का गम्भीर गर्जन सुनकर हंस तुरंत जलाशयों को छोड़कर चले जा रहे हैं, जिस प्रकार योगिजन अपने सब प्रकार से समृद्ध घर को भी छोड़ देते हैं । शिवजी ! वन में मृगों के ये यूथ आनन्दित होकर इधर - उधर दौड़ लगाकर, खेल - कूदकर आनन्दित हो रहे हैं और देव ! देखिये, नीले बादलों में विद्युत् भलीभाँति चमक रही है । लगता है, जल की वृद्धि को देखकर वीरगण हरे - भरे सुपुष्ट नये वृक्षों पर विचरण कर रहे हैं । नदियाँ सहसा उद्दाम ( बड़े ) वेग से बहने लगीं हैं । चन्द्रशेखर! ऐसे उत्तेजक समय में यदि असुवृत्त व्यक्ति के फंदे में आकर स्त्री दुःशील हो जाती है तो इसमें क्या आश्चर्य ॥१७ - २१॥

नीलैश्च मेघैश्च समावृतं नभः

पुष्पैश्च सर्ज्जा मुकुलैश्च नीपाः।

फलैश्च बिल्वाः पयसा तथापगाः

पत्रैः सपद्मैश्च महासरांसि ॥२२॥

काले सुरौद्रे ननु ते ब्रवीमि ।

गृहं कुरुष्वात्र महाचजलोत्तमे

सुनिर्वृता येन भवामि शंभो ॥२३॥

इत्थं त्रिनेत्रः श्रुतिरामणीयकं श्रुत्वा वचो वाक्यमिदं बभाषे ।

न मेऽस्ति वित्तं गृहसंचयार्थे मृगारिचर्मावरणं मम प्रिये ॥२४॥

ममोपवीतं भुजगेश्वरः शुभे कर्णेऽपि पद्मश्च तथैव पिङ्गलः।

केयूरमेकं मम कम्बलस्त्वहिर्द्वितीयमन्यो भुजगो धनंजयः ॥२५॥

नागस्तथैवाश्वतरो हि कङ्कणं सव्येतरे तक्षक उत्तरे तथा ।

नीलोऽपि नीलाञ्जनतुल्यवर्णः श्रोणीतटे राजति सुप्रतिष्ठः ॥२६॥

आकाश नीले बादलों से घिर गया है । इसी प्रकार पुष्पों के द्वारा सर्ज, मुकुलों (कलियों) - के द्वारा नीप (कदम्ब), फलों के द्वारा बिल्व - वृक्ष एवं जल के द्वारा नदियाँ और कमल - पुष्पों एवं कमल – पत्रों से बड़े - बड़े सरोवर भी ढक गये हैं । हे शंकरजी ! ऐसी दुःसह, अद्भुत तथा भयंकर दशा में आपसे प्रार्थना करती हूँ कि इस महान् तथा उत्तम पर्वत पर गृह - निर्माण कीजिये; हे शंभो ! जिससे मैं सर्वथा निश्चिन्त हो जाऊँ । कानों को प्रिय लगनेवाले सती के इन वचनों को सुनकर तीन नयनवाले भगवान् शंकरजी बोले - प्रिये ! घर बनाने के लिये (और उसकी साज- सज्जा के लिये ) मेरे पास धन नहीं है । मैं व्याघ्र की चर्ममात्र से अपना शरीर ढकता हूँ । शुभे ! (सूत्रों के अभाव में ) सर्पराज ही मेरा उपवीत ( जनेऊ ) बना है । पद्म और पिंगल नाम के दो सर्प मेरे दोनों कानों में ( कुण्डल का काम करते ) हैं । कंबल और धनंजय नाम के ये दो सर्प मेरी दोनों बाँहों के बाजूबंद हैं । मेरे दाहिने और बाँयें हाथों में भी क्रमशः अश्वतर तथा तक्षक नाग कण्डक बने हुए हैं । इसी प्रकार मेरी कमर में नीलाञ्जन के वर्णवाला नील नाम का सर्प अवस्थित होकर सुशोभित हो रहा है ॥२२ - २६॥

पुलस्त्य उवाच

इति वचनमथोग्रं शंकरात्सा मृडानी

ऋतमपि तदसत्यं श्रीमदाकर्ण्य भीता ।

अवनितलमवेक्ष्य स्वामिनो वासकृच्छ्रात्

परिवदति सरोषं लज्जयोच्छ्वस्य चोष्णम् ॥२७॥

पुलस्त्यजी बोले – महादेवजी से इस प्रकार कठोर तथा ओजस्वी एवं सत्य होने पर भी असत्य प्रतीत हो रहे वचन को सुनकर सतीजी बहुत डर गयीं और स्वामी के निवास कष्ट को देखकर गरम साँस छोड़ती हुई और पृथ्वी की ओर देखती हुई ( कुछ ) क्रोध और लज्जा से इस प्रकार कहने लगीं - ॥२७॥

देव्युवाच

कथं हि देवदेवेश प्रावट्कालो गमिष्यति ।

वृक्षमूले स्थिताया मे सुदुःखेन वदाम्यतः ॥२८॥

सतीदेवी बोलीं - देवेश ! वृक्ष के मूल में दुःखपूर्वक रहकर भी मेरा वर्षाकाल कैसे व्यतीत होगा ! इसीलिये तो मैं आपसे ( गृह के निर्माण की बात ) कहती हूँ ॥२८॥

शङ्कर उवाच

घनावस्थितदेहायाः प्रावृट्कालः प्रयास्यति ।

यथाम्बुधारा न तव निपतिष्यन्ति विग्रहे ॥२९॥

शंकरजी बोले - देवि ! मेघ – मण्डल के ऊपर अपने शरीर को स्थित कर तुम वर्षाकाल भलीभाँति व्यतीत कर सकोगी । इससे वर्षा की जलधाराएँ तुम्हारे शरीर पर नहीं गिर पायेंगी ॥२९॥

पुलस्त्य उवाच

ततो हरस्तद्घनखण्डमुन्नत

मारुह्य तस्थौ सह दक्षकन्यया ।

ततोऽभवन्नाम तदेश्वरस्य

जीमूतकेतुस्त्विति विश्रुतं दिवि ॥३०॥

पुलस्त्यजी बोले - उसके बाद महादेवजी दक्षकन्या सती के साथ आकाश में उन्नत मेघमण्डल के ऊपर चढ़कर बैठ गये । तभी से स्वर्ग में उन महादेवजी का नाम 'जीमूतकेतु' या 'जीमूतवाहन' विख्यात हो गया ॥३०॥

इति श्रीवामनपुराणे प्रथमोऽध्यायः  ॥

॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराण में पहला अध्याय समाप्त हुआ ॥१॥

आगे जारी........ श्रीवामनपुराण अध्याय 2

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