सतीखण्ड अध्याय ६
शिवमहापुराण
के द्वितीय रुद्रसंहिता के द्वितीयखण्ड सतीखण्ड के अध्याय ६ में सन्ध्या द्वारा
तपस्या करना, प्रसन्न हो भगवान् शिव का उसे
दर्शन देना, सन्ध्या द्वारा की गयी शिवस्तुति, सन्ध्या को अनेक वरों की प्राप्ति तथा महर्षि मेधातिथि के यज्ञ में जाने
का आदेश प्राप्त होना का वर्णन किया गया है।
रुद्रसंहिता सतीखण्ड अध्याय ६
Sati
khand chapter 6
शिवपुराणम् संहिता २ (रुद्रसंहिता) खण्डः २ (सतीखण्डः) अध्यायः ६
शिवपुराणम्
रुद्रसंहिता सतीखण्डः षष्ठोऽध्यायः
शिवमहापुराण द्वितीय रुद्रसंहिता द्वितीय-सतीखण्ड छठा अध्याय
शिवमहापुराण –
द्वितीय रुद्रसंहिता [द्वितीय-सतीखण्ड] – अध्याय
६
ब्रह्मोवाच ।।
सुतवर्य महाप्राज्ञ शृणु संध्यातपो
महत् ।।
यच्छ्रुत्वा नश्यते
पापसमूहस्तत्क्षणाद्ध्रुवम् ।। १ ।।
उपविश्य तपोभावं वसिष्ठे स्वगृहं
गते ।।
संध्यापि तपसो भावं ज्ञात्वा
मोदमवाप ह ।। २ ।।
ततस्सानंदमनसो वेषं कृत्वा तु
यादृशम् ।।
तपश्चर्तुं समारेभे बृहल्लोहिततीरगा
।। ३ ।।
यथोक्तं तु वशिष्ठेन मंत्रं तपसि
साधनम् ।।
मंत्रेण तेन सद्भक्त्या पूजयामास
शंकरम् ।।४।।
एकान्तमनसस्तस्याः कुर्वंत्या
सुमहत्तपः ।।
शंभौ विन्यस्तचित्ताया गतमेकं
चतुर्युगम् ।। ५ ।।
प्रसन्नोभूत्तदा शंभुस्तपसा तेन
तोषितः ।।
अंतर्बहिस्तथाकाशे दर्शयित्वा निजं
वपुः ।। ६ ।।
यद्रूपं चिंतयंती सा तेन
प्रत्यक्षतां गतः ।। ७ ।।
ब्रह्माजी बोले —
हे पुत्रवर ! हे महाप्राज्ञ ! अब सन्ध्या के द्वारा किये गये महान्
तप को सुनिये । जिसके सुनने से पापसमूह उसी क्षण निश्चय ही नष्ट हो जाता है ॥ १ ॥
तपस्या का उपदेश कर वसिष्ठजी के अपने घर चले जाने पर सन्ध्या भी तपस्या की विधि को
जानकर अत्यन्त हर्षित हो गयी ॥ २ ॥ वह बृहल्लोहितसर के सन्निकट प्रसन्नचित्त होकर
अनुकूल वेष धारण करके तपस्या करने लगी ॥ ३ ॥ वसिष्ठजी ने तपस्या के साधनभूत जिस
मन्त्र को बताया था, उस मन्त्र से वह शंकरजी का पूजन करने
लगी ॥ ४ ॥ इस प्रकार सदाशिव में चित्त लगाकर एकाग्र मन से घोर तपस्या करती हुई उस
सन्ध्या का एक चतुर्युग बीत गया ॥ ५ ॥ उसके पश्चात् उस तपस्या से सन्तुष्ट हुए
शिवजी उसके ऊपर प्रसन्न हो गये और बाहर-भीतर तथा आकाश में उसे अपना विग्रह दिखाकर,
वह [शिवजी के] जिस रू पका ध्यान करती थी, उसी
रूप से उसके समक्ष प्रकट हो गये ॥ ६-७ ॥
अथ सा पुरतो दृष्ट्वा मनसा चिंतितं
प्रभुम् ।।
प्रसन्नवदनं शांतं मुमोदातीव शंकरम्
।।८।।
ससाध्वसमहं वक्ष्ये किं कथं स्तौमि
वा हरम् ।।
इति चिंतापरा भूत्वा न्यमीलयत
चक्षुषी ।। ९ ।।
निमीलिताक्ष्यास्तस्यास्तु प्रविश्य
हृदयं हरः ।।
दिव्यं ज्ञानं ददौ तस्यै वाचं
दिव्ये च चक्षुषी ।। १०।।
दिव्यज्ञानं दिव्यचक्षुर्दिव्या
वाचमवाप सा ।।
प्रत्यक्षं वीक्ष्य दुर्गेशं
तुष्टाव जगतां पतिम् ।।११।। ।।
सन्ध्या अपने मन में चिन्तित,
प्रसन्नमुख तथा शान्तस्वरूप भगवान् शिव को सामने देखकर बहुत प्रसन्न
हुई ॥ ८ ॥ ‘मैं शिवजी से क्या कहूँ तथा किस प्रकार इनकी स्तुति
करूँ’ – इस प्रकार चिन्तित होकर सन्ध्या ने भयपूर्वक अपने
नेत्रों को बन्द कर लिया । तब नेत्र बन्द की हुई उस सन्ध्या के हृदय में प्रविष्ट
होकर शिवजी ने उसे दिव्य ज्ञान, दिव्य वाणी और दिव्य चक्षु
प्रदान किये ॥ ९-१० ॥ इस प्रकार उसने दिव्य ज्ञान, दिव्य
चक्षु, दिव्य वाणी प्राप्त की और जगत्पति दुर्गेश को
प्रत्यक्ष खड़ा देखकर वह उनकी इस प्रकार स्तुति करने लगी — ॥
११ ॥
संध्याकृत शिव स्तुति:
॥ संध्योवाच ॥
निराकारं ज्ञानगम्यं परं यन्नैव
स्थूलं नापि सूक्ष्मं न चोच्चम् ।
अंतश्चिंत्यं योगिभिस्तस्य रूपं
तस्मै तुभ्यं लोककर्त्रे नमोस्तु ॥ १२ ॥
सन्ध्या बोली —
जिनका रूप निराकार, ज्ञानगम्य तथा पर है;
जो न स्थूल, न सूक्ष्म, न
उच्च ही है तथा जो योगियों के द्वारा अन्तःकरण से चिन्त्य है, ऐसे रूपवाले लोककर्ता आपको नमस्कार है ॥ १२ ॥
सर्वं शांतं निर्मलं निर्विकारं
ज्ञानागम्यं स्वप्रकाशेऽविकारम् ।
खाध्वप्रख्यं
ध्वांतमार्गात्परस्तद्रूपं यस्य त्वां नमामि प्रसन्नम् ॥ १३ ॥
एकं शुद्धं दीप्यमानं तथाजं
चिदानंदं सहजं चाविकारि ।
नित्यानंदं सत्यभूतिप्रसन्नं यस्य
श्रीदं रूपमस्मै नमस्ते ॥ १४ ॥
जिनका रूप सर्वस्वरूप,
शान्त, निर्मल, निर्विकार,
ज्ञान से परे, अपने प्रकाश में स्थित, विकाररहित, आकाशमार्गस्वरूप एवं अन्धकारमार्ग से परे
तथा प्रसन्न रहनेवाला है, ऐसे आपको नमस्कार है । जिनका रूप
एक (अद्वितीय), शुद्ध, देदीप्यमान,
मायारहित, चिदानन्द, सहज,
विकाररहित, नित्यानन्दस्वरूप, सत्य और विभूति से युक्त, प्रसन्न रहनेवाला तथा
समस्त श्री को प्रदान करनेवाला है. उन आपको नमस्कार है ॥ १३-१४ ॥
विद्याकारोद्भावनीयं प्रभिन्नं
सत्त्वच्छंदं ध्येयमात्मस्वरूपम् ।
सारं पारं पावनानां पवित्रं तस्मै
रूपं यस्य चैवं नमस्ते ॥ १५ ॥
जिनका रूप महाविद्या के द्वारा
ध्यान करने योग्य, सबसे सर्वथा भिन्न,
परम सात्त्विक, ध्येयस्वरूप, आत्मस्वरूप, सारस्वरूप, संसारसागर
से पार करनेवाला है और पवित्र को भी पवित्र करनेवाला है, उन
आपको नमस्कार है ॥ १५ ॥
यत्त्वाकारं शुद्धरूपं मनोज्ञं
रत्नाकल्पं स्वच्छकर्पूरगौरम् ।
इष्टाभीती शूलमुंडे दधानं हस्तैर्नमो
योगयुक्ताय तुभ्यम् ॥ १६ ॥
जिनका आकार शुद्धरूप,
मनोज्ञ, रत्न के समान, स्वच्छ,
कर्पूर के समान गौरवर्ण और हाथों में वरअभयमुद्रा, शूल-मुण्ड को धारण करनेवाला है, उन आप योगयुक्त
[सदाशिव]-को नमस्कार है ॥ १६ ॥
गगनं भूर्दिशश्चैव सलिलं ज्योतिरेव
च ।
पुनः कालश्च रूपाणि यस्य तुभ्यं
नमोस्तु ते ॥ १७ ॥
आकाश, पृथिवी, दिशाएँ, जल, ज्योति और काल जिनके स्वरूप हैं, ऐसे आपको नमस्कार
है ॥ १७ ॥
प्रधानपुरुषौ यस्य कायत्वेन
विनिर्गतौ ।
तस्मादव्यक्तरूपाय शंकराय नमोनमः ॥
१८ ॥
जिनके शरीर से प्रधान एवं पुरुष की
उत्पत्ति हुई है, उन अव्यक्तस्वरूप
आप शंकर को बार-बार नमस्कार है ॥ १८ ॥
यो ब्रह्मा कुरुते सृष्टिं यो
विष्णुः कुरुते स्थितिम् ।
संहरिष्यति यो रुद्रस्तस्मै तुभ्यं
नमोनमः ॥ १९ ॥
जो ब्रह्मारूप होकर [इस जगत् की]
सृष्टि करते हैं, विष्णुरूप होकर
पालन करते हैं तथा रुद्ररूप होकर संहार करते हैं, उन आपको
बार-बार नमस्कार है ॥ १९ ॥
नमोनमः कारणकारणाय
दिव्यामृतज्ञानविभूतिदाय ।
समस्तलोकांतरभूतिदाय प्रकाशरूपाय
परात्पराय ॥ २० ॥
कारणों के कारण,
दिव्य अमृतस्वरूप ज्ञानसम्पदा देनेवाले, समस्त
लोकों को ऐश्वर्य प्रदान करनेवाले, प्रकाशस्वरूप तथा परात्पर
[शंकर]-को बार-बार नमस्कार है ॥ २० ॥
यस्याऽपरं नो जगदुच्यते पदात्
क्षितिर्दिशस्सूर्य इंदुर्मनौजः ।
बर्हिर्मुखा नाभितश्चान्तरिक्षं
तस्मै तुभ्यं शंभवे मे नमोस्तु ॥ २१ ॥
जिनके अतिरिक्त यह जगत् और कुछ नहीं
है । जिनके पैर से पृथिवी, दिशाएँ, सूर्य, चन्द्रमा, कामदेव तथा
बहिर्मुख (अन्य देवता) और नाभि से अन्तरिक्ष उत्पन्न हुआ है, उन आप शम्भु को मेरा नमस्कार है ॥ २१ ॥
त्वं परः परमात्मा च त्वं विद्या
विविधा हरः ।
सद्ब्रह्म च परं ब्रह्म
विचारणपरायणः ॥ २२ ॥
हे हर ! आप सर्वश्रेष्ठ तथा परमात्मा
हैं,
आप विविध विद्या हैं, सब्रह्म, परब्रह्म तथा ज्ञानपरायण हैं ॥ २२ ॥
यस्य नादिर्न मध्यं च नांतमस्ति
जगद्यतः ।
कथं स्तोष्यामि तं देवं
वाङ्मनोगोचरं हरम् ॥ २३ ॥
जिनका न आदि है,
न मध्य है तथा न अन्त है । और जिनसे यह समस्त संसार उत्पन्न हुआ है,
वाणी, तथा मन से अगोचर उन सदाशिव की स्तुति
किस प्रकार करूं ? ॥ २३ ॥
यस्य ब्रह्मादयो देव मुनयश्च
तपोधनाः ।
न विप्रण्वंति रूपाणि वर्णनीयः कथं
स मे ॥ २४ ॥
ब्रह्मा आदि देवगण तथा तपोधन महर्षि
भी जिनके रूपों का वर्णन नहीं कर पाते हैं, उनका
वर्णन मैं किस प्रकार कर सकती हूँ ? ॥ २४ ॥
स्त्रिया मया ते किं ज्ञेया
निर्गुणस्य गुणाः प्रभो ।
नैव जानंति यद्रूपं सेन्द्रा अपि
सुरासुराः ॥ २५ ॥
हे प्रभो ! इन्द्रसहित समस्त देवगण
तथा सभी असुर भी जब आपके रूप को नहीं जानते, तो
आप-जैसे निर्गुण के गुणों को मेरे-जैसी स्त्री किस प्रकार जान सकती है ॥ २५ ॥
नमस्तुभ्यं महेशान नमस्तुभ्यं तमोमय
।
प्रसीद शंभो देवेश भूयोभूयो नमोस्तु
ते ॥ २६ ॥
हे महेशान ! आपको नमस्कार है । हे तपोमय ! आपको नमस्कार है । हे शम्भो ! हे देवेश ! आपको बारबार नमस्कार है, आप [मेरे ऊपर] प्रसन्न होइये ॥ २६ ॥
ब्रह्मोवाच ।।
इत्याकर्ण्य वचस्तस्यास्संस्तुतः
परमेश्वरः ।।
सुप्रसन्नतरश्चाभूच्छंकरो
भक्तवत्सलः ।। २७ ।।
अथ तस्याश्शरीरं तु
वल्कलाजिनसंयुतम् ।।
परिच्छन्नं जटाव्रातैः पवित्रे
मूर्ध्नि राजितैः ।। २८ ।।
हिमानीतर्जितांभोजसदृशं वदनं तदा ।।
निरीक्ष्य कृपयाविष्टो हरः प्रोवाच
तामिदम् ।।२९।।
ब्रह्माजी बोले —
सन्ध्या के द्वारा स्तुत भक्तवत्सल परमेश्वर सदाशिव उसके वचन को
सुनकर परम प्रसन्न हो गये ॥ २७ ॥ शिव वल्कल तथा कृष्णमृगचर्मयुक्त उसके शरीर को,
जटा से आच्छन्न एवं पवित्री धारण किये हुए उसके सिर को तथा तुषारपात
से मुरझाये हुए कमल के समान उसके मुख को देखकर दयामय होकर उससे इस प्रकार कहने लगे
– ॥ २८-२९ ॥
महेश्वर उवाच ।।
प्रीतोस्मि तपसा भद्रे भवत्याः
परमेण वै ।।
स्तवेन च शुभप्राज्ञे वरं वरय
सांप्रतम् ।। ३० ।।
येन ते विद्यते कार्यं
वरेणास्मिन्मनोगतम् ।।
तत्करिष्ये च भद्रं ते प्रसन्नोहं
तव व्रतैः ।। ३१ ।।
महेश्वर बोले —
हे भद्रे ! तुम्हारी इस उत्कृष्ट तपस्या से तथा तुम्हारी इस स्तुति
से मैं बहुत प्रसन्न हूँ । हे शुभप्राज्ञे! अब तुम वर माँगो ॥ ३० ॥ जो भी तुम्हारा
अभीष्ट हो तथा जिससे तुम्हारा कार्य पूर्ण हो, वह सब मैं
करूँगा । हे भद्रे ! तुम्हारी इस तपस्या से मैं परम प्रसन्न हो गया हूँ ॥ ३१ ॥
ब्रह्मोवाच ।।
इति श्रुत्वा महेशस्य
प्रसन्नमनसस्तदा ।।
संध्योवाच सुप्रसन्ना प्रणम्य च
मुहुर्मुहुः ।। ३२ ।।
ब्रह्माजी बोले —
महेश्वर का वचन सुनकर सन्ध्या बड़ी प्रसन्न हुई और उन्हें बार-बार
प्रणामकर इस प्रकार कहने लगी — ॥ ३२ ॥
संध्योवाच ।। ।।
यदि देयो वरः प्रीत्या
वरयोग्यास्म्यहं यदि ।।
यदि शुद्धास्म्यहं जाता
तस्मात्पापान्महेश्वर।।३३।।
यदि देव प्रसव्रोऽसि तपसा मम
सांप्रतम् ।।
वृतस्तदायं प्रथमो वरो मम विधीयताम्
।।३४।।
उत्पन्नमात्रा देवेश प्राणिनोस्मिन्नभः
स्थले ।।
न भवंतु समेनैव सकामास्संभवंतु वै
।।३५।।
यद्धि वृत्ता हि लोकेषु त्रिष्वपि
प्रथिता यथा ।।
भविष्यामि तथा नान्या वर एको वृतो
मया ।। ३६ ।।
सकामा मम सृष्टिस्तु कुत्रचिन्न
पतिष्यति ।।
यो मे पतिर्भवेन्नाथ सोपि
मेऽतिसुहृच्च वै ।। ३७ ।।
यो द्रक्ष्यति सकामो मां
पुरुषस्तस्य पौरुषम् ।।
नाशं गमिष्यति तदा स च क्लीबो
भविष्यति ।।।३८।।
सन्ध्या बोली —
हे महेश्वर ! यदि आप प्रसन्नतापूर्वक वर देना चाहते हैं, यदि मैं आपसे वर प्राप्त करने योग्य हूँ तथा यदि मैं उस पाप से सर्वथा
विशुद्ध हो गयी हूँ और हे देव ! यदि आप इस समय मेरे तप से प्रसन्न हैं, तो पहले मैं यह वर माँगती हूँ, उसे दीजिये । हे
देवाधिदेव ! इस आकाश तथा पृथिवी में उत्पन्न होते ही कोई भी प्राणी सद्यः कामयुक्त
न हो । हे प्रभो ! मैं अपने आचरण से तीनों लोकों में इस प्रकार प्रसिद्ध होऊँ,
जैसी और कोई दूसरी स्त्री न हो, एक और वर
माँगती हूँ । मेरे द्वारा उत्पन्न की गयी कोई भी सन्तति सकाम होकर पतित न हो और हे
नाथ ! जो मेरा पति हो, वह भी मेरा अत्यन्त सुहृद् बना रहे ।
[मेरे पति के अतिरिक्त] जो कोई भी पुरुष मुझे सकाम दृष्टि से देखे, उसका पौरुष नष्ट हो जाय और वह नपुंसक हो जाय ॥ ३३-३८ ॥
ब्रह्मोवाच ।।
इति श्रुत्वा वचस्तस्यश्शंकरो
भक्तवत्सलः ।।
उवाच सुप्रसन्नात्मा
निष्पापायास्तयेरिते ।।३९।।
ब्रह्माजी बोले —
निष्पाप सन्ध्या के इस प्रकार के वचनों को सुनकर तथा उससे प्रेरित
होकर भक्तवत्सल भूतभावन शंकर प्रसन्नचित्त होकर कहने लगे – ॥
३९ ॥
महेश्वर उवाच ।।
शृणु देवि च संध्ये त्वं त्वत्पापं
भस्मतां गतम् ।।
त्वयि त्यक्तो मया क्रोधः शुद्धा
जाता तपःकरात् ।। ४०।।
यद्यद्वृतं त्वया भद्रे दत्तं
तदखिलं मया।।
सुप्रसन्नेन तपसा तव संध्ये वरेण हि
।। ४१ ।।
प्रथमं शैशवो भावः कौमाराख्यो
द्वितीयकः ।।
तृतीयो यौवनो भावश्चतुर्थो
वार्द्धकस्तथा ।।४२।।
तृतीये त्वथ संप्राप्ते वयोभागे
शरीरिणः।।
सकामास्स्युर्द्वितीयांतो भविष्यति
क्वचित् क्वचित् ।। ४३ ।।
तपसा तव मर्यादा जगति स्थापिता मया
।।
उत्पन्नमात्रा न यथा
सकामास्स्युश्शरीरिणः ।।४४।।
त्वं च लोके सतीभावं तादृशं
समवाप्नुहि ।।
त्रिषु लोकेषु नान्यस्या यादृशं
संभविष्यति ।। ४५ ।।
यः पश्यति सकामस्त्वां
पाणिग्राहमृते तव ।।
स सद्यः क्लीबतां प्राप्य दुर्बलत्वं
गमिष्यति ।। ४६ ।।
पतिस्तव महाभागस्तपोरूपसमन्वितः ।।
सप्तकल्पांतजीवी च भविष्यति सह
त्वया ।। ४७ ।।
महेश्वर बोले —
हे देवि ! हे सन्ध्ये ! मेरी बात सुनो । तुम्हारा पाप नष्ट हो गया,
अब मेरा क्रोध तुम्हारे ऊपर नहीं है और तुम तप करने से शुद्ध हो
चुकी हो । हे भद्रे ! हे सन्ध्ये ! तुमने जो-जो वरदान माँगा है, तुम्हारी श्रेष्ठ तपस्या से परम प्रसन्न होकर मैंने वह सब तुम्हें प्रदान
कर दिया ॥ ४०-४१ ॥ अब प्राणियों का प्रथम शैशव (बाल)-भाव, दूसरा
कौमार भाव, तीसरा यौवन भाव तथा चौथा वार्धक्य भाव होगा ॥ ४२
॥ शरीरधारी तीसरी अवस्था आने पर सकाम होंगे और कोई-कोई प्राणी दूसरी के अन्त तक
सकाम होंगे ॥ ४३ ॥ मैंने तुम्हारी तपस्या से संसार में यह मर्यादा स्थापित कर दी
कि शरीरधारी उत्पन्न होते ही सकाम नहीं होंगे ॥ ४४ ॥ तुम इस लोक में ऐसा सतीभाव
प्राप्त करोगी, जैसा तीनों लोकों में किसी अन्य स्त्री का
नहीं होगा ॥ ४५ ॥ तुम्हारे पति के अतिरिक्त जो तुमको सकाम दृष्टि से देखेगा,
वह तत्काल नपुंसक होकर दुर्बल हो जायगा ॥ ४६ ॥ तुम्हारा पति महान्
भाग्यशाली, तपस्वी तथा रूपवान् होगा । वह तुम्हारे साथ सात
कल्पों तक जीवित रहेगा ॥ ४७ ॥
इति ते ये वरा मत्तः प्रार्थितास्ते
कृता मया ।।
अन्यच्च ते वदिष्यामि पूर्वजन्मनि
संस्थितम् ।। ४८ ।।
अग्नौ शरीत्यागस्ते पूर्वमेव
प्रतिश्रुतः ।।
तदुपायं वदामि त्वां तत्कुरुष्व न
संशयः ।।४९।।
इस प्रकार तुमने जो-जो वर मुझसे
माँगा,
उन सभी वरों को मैंने प्रदान किया । अब मैं तुम्हारे जन्मान्तर की
कुछ बातें कहूँगा ॥ ४८ ॥ तुम अग्नि में अपने शरीरत्याग करने की प्रतिज्ञा पहले ही
कर चुकी हो, अतः उसका उपाय मैं तुमको बता रहा हूँ, उसे निश्चित रूप से करो ॥ ४९ ॥
स च मेधातिथिर्यज्ञे मुने
द्वादशवार्षिके ।।
कृत्स्नप्रज्वलिते वह्नावचिरात्
क्रियतां त्वया ।। ५०।।
एतच्छैलोपत्यकायां चंद्रभागानदीतटे
।।
मेधातिथिर्महायज्ञं कुरुते
तापसाश्रमे ।।५१।।
तत्र गत्वा स्वयं छंदं
मुनिभिर्न्नोपलक्षिता ।।
मत्प्रसादाद्वह्निजाता तस्य पुत्री
भविष्यसि ।। ५२ ।।
यस्ते वरो वाञ्छनीयः स्वामी मनसि
कश्चन ।।
तं निधाय निजस्वांते त्यज वह्नौ
वपुः स्वकम् ।। ५३ ।।
वह उपाय यही है कि तुम महर्षि
मेधातिथि के बारह वर्ष तक चलनेवाले यज्ञ में प्रचण्डरूप से जलती हुई अग्नि में
शीघ्रता से प्रवेश करो ॥ ५० ॥ इस समय मेधातिथि इसी पर्वत की तलहटी में चन्द्रभागा
नदी के तट पर तपस्वियों के आश्रम में महान् यज्ञ कर रहे हैं ॥ ५१ ॥ वहाँ तुम अपनी
इच्छा से जाकर मेरे प्रसाद से मुनियों से अलक्षित रहती हुई अग्नि में प्रवेश कर
जाओ,
फिर तुम यज्ञाग्नि से प्रकट होकर मेधातिथि की पुत्री बनोगी ॥५२॥
तुम्हारे मन में जो कोई भी श्रेष्ठ पति के रूप में वांछनीय हो, उसे अपने अन्तःकरण में रखकर अग्नि में अपना शरीर छोड़ना ॥ ५३ ॥
यदा त्वं दारुणं संध्ये तपश्चरसि
पर्वते ।।
यावच्चतुर्युगं तस्य व्यतीते तु
कृते युगे ।।५४।।
त्रेतायाः प्रथमे भागे जाता दक्षस्य
कन्यका ।।
वाक्पाश्शीलसमापन्ना यथा योग्यं
विवाहिताः।।५५।।
तन्मध्ये स ददौ कन्या विधवे
सप्तविंशतिः ।
चन्द्रोऽन्यास्संपरित्यज्य
रोहिण्यां प्रीतिमानभूत् ।।५६।।
हे सन्ध्ये ! तुम इस पर्वत पर
चारयुग से घोर तपस्या कर रही हो, कृतयुग के बीत
जानेपर और त्रेता का प्रथम भाग आने पर दक्ष की जो शीलसम्पन्न कन्याएँ उत्पन्न हुईं,
वे यथायोग्य विवाहित हुईं, उनमें से उन्होंने
सत्ताईस कन्याएँ चन्द्रमा को [विवाह विधि द्वारा] प्रदान कीं, किंतु चन्द्रमा उन सभी को छोड़कर रोहिणी में प्रीति करने लगा ॥ ५४-५६ ॥
तद्धेतोर्हि यदा चन्द्रश्शप्तो
दक्षेण कोपिना ।।
तदा भवत्या निकटे सर्वे
देवास्समागताः ।।५७।।
न दृष्टाश्च त्वया संध्ये ते देवा
ब्रह्मणा सह ।।
मयि विन्यस्तमनसा खं च दृष्ट्वा
लभेत्पुनः ।।५८।।
चंद्रस्य शापमोक्षार्थं जाता
चंद्रनदी तदा।।
सृष्टा धात्रा तदैवात्र
मेधातिथिरुपस्थितः।।५९।।
तपसा सत्समो नास्ति न भूतो न
भविष्यति।।
येन यज्ञस्समारब्धो ज्योतिष्टोमो महाविधिः।।
६०।।
इस कारण जब दक्ष ने क्रोध से
चन्द्रमा को शाप दे दिया, तब सभी देवता
तुम्हारे पास आये थे ॥ ५७ ॥ हे सन्ध्ये! उस समय तुम मेरा ध्यान कर रही थी, इसलिये वे देवगण जो ब्रह्माजी के साथ आये हुए थे, तुमने
उनकी तरफ देखा नहीं; क्योंकि तुम आकाश की ओर देख रही थी,
अब तुमने मेरा दर्शन प्राप्त कर लिया है ॥ ५८ ॥ तब ब्रह्माजी ने
चन्द्रमा के शाप को दूर करने के लिये इस चन्द्रभागा नदी का निर्माण किया है,
उसी समय यहाँ मेधातिथि उपस्थित हुए थे ॥ ५९ ॥ तपस्या में उनके समान
न तो कोई है, न कोई होनेवाला है और न कोई हुआ है । उन्होंने
ही इस चन्द्रभागा नदी के तट पर विधिपूर्वक ज्योतिष्टोम यज्ञ का आरम्भ किया है ॥ ६०
॥
तत्र प्रज्वलितो वह्निस्तस्मिन्त्यज
वपुः स्वकम् ।।
सुपवित्रा त्वमिदानीं संपूर्णोस्तु
पणस्तव ।।६१।।
एतन्मया स्थापितन्ते कार्यार्थं भो
तपस्विनि।।
तत्कुरुष्व महाभागे याहि यज्ञे
महामुनेः ।
तस्याहितं च
देवेशस्तत्रैवांतरधीयत।।६२।।
वहाँ अग्नि प्रज्वलित हो रही है,
उसीमें अपने शरीर को छोड़ो । इस समय तुम अत्यन्त पवित्र हो, तुम्हारी प्रतिज्ञा पूर्ण हो ॥ ६१ ॥ हे तपस्विनि ! अपने कार्य की सिद्धि
के लिये मैंने यह विधि बतायी है । अतः हे महाभागे ! तुम यहाँ मुनि के यज्ञ में जाओ
और इसे करो । इस प्रकार वे देवेश उसका हित करके वहीं अन्तर्धान हो गये ॥ ६२ ॥
इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां
रुद्रसंहितायां द्वितीये सतीखंडे संध्याचरित्रवर्णनं नाम षष्ठोऽध्यायः ।। ६ ।।
॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के
अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के द्वितीय सतीखण्ड में सन्ध्याचरित्रवर्णन नामक छठा
अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ६ ॥
शेष जारी .............. शिवमहापुराण रुद्रसंहिता सतीखण्ड अध्याय 7
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