श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय ३२

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध अध्याय ३२

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध अध्याय ३२"धूममार्ग और अर्चिरादि मार्ग से जाने वालों की गति का और भक्तियोग की उत्कृष्टता का वर्णन"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय ३२

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्धः द्वात्रिंश अध्यायः

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः अध्यायः ३२

श्रीमद्भागवत महापुराण तीसरा स्कन्ध बत्तीसवाँ अध्याय

तृतीय स्कन्ध: · श्रीमद्भागवत महापुराण        

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध अध्याय ३२ श्लोक का हिन्दी अनुवाद

मातुः कुक्षौ प्रविष्टस्य जीवस्य देहप्राप्तिवर्णनं गर्भस्थजीवकृता भगवत्स्तुतिः,जीवस्य बाल्यादि अवस्था क्लेशवर्णनं च -

कपिल उवाच -

अथ यो गृहमेधीयान् धर्मानेवावसन्गृहे ।

काममर्थं च धर्मान् स्वान् दोग्धि भूयः पिपर्ति तान् ॥ १ ॥

स चापि भगवद्धर्मात् काममूढः पराङ्‌मुखः ।

यजते क्रतुभिर्देवान् पितॄंश्च श्रद्धयान्वितः ॥ २ ॥

तत् श्रद्धया क्रान्तमतिः पितृदेवव्रतः पुमान् ।

गत्वा चान्द्रमसं लोकं सोमपाः पुनरेष्यति ॥ ३ ॥

यदा चाहीन्द्रशय्यायां शेतेऽनन्तासनो हरिः ।

तदा लोका लयं यान्ति ते एते गृहमेधिनाम् ॥ ४ ॥

ये स्वधर्मान्न दुह्यन्ति धीराः कामार्थहेतवे ।

निःसङ्गा न्यस्तकर्माणः प्रशान्ताः शुद्धचेतसः ॥ ५ ॥

निवृत्तिधर्मनिरता निर्ममा निरहङ्कृताः ।

स्वधर्माप्तेन सत्त्वेन परिशुद्धेन चेतसा ॥ ६ ॥

सूर्यद्वारेण ते यान्ति पुरुषं विश्वतोमुखम् ।

परावरेशं प्रकृतिं अस्योत्पत्त्यन्तभावनम् ॥ ७ ॥

द्विपरार्धावसाने यः प्रलयो ब्रह्मणस्तु ते ।

तावद् अध्यासते लोकं परस्य परचिन्तकाः ॥ ८ ॥

क्ष्माम्भोऽनलानिलवियन् मनैन्द्रियार्थ

     भूतादिभिः परिवृतं प्रतिसञ्जिहीर्षुः ।

अव्याकृतं विशति यर्हि गुणत्रयात्मा

     कालं पराख्यमनुभूय परः स्वयम्भूः ॥ ९ ॥

एवं परेत्य भगवन् तमनुप्रविष्टा

     ये योगिनो जितमरुन्मनसो विरागाः ।

तेनैव साकममृतं पुरुषं पुराणं

     ब्रह्म प्रधानमुपयान्ति अगताभिमानाः ॥ १० ॥

(अनुष्टुप्)

अथ तं सर्वभूतानां हृत्पद्मेषु कृतालयम् ।

श्रुतानुभावं शरणं व्रज भावेन भामिनि ॥ ११ ॥

आद्यः स्थिरचराणां यो वेदगर्भः सहर्षिभिः ।

योगेश्वरैः कुमाराद्यैः सिद्धैर्योगप्रवर्तकैः ॥ १२ ॥

भेददृष्ट्याभिमानेन निःसङ्गेनापि कर्मणा ।

कर्तृत्वात्सगुणं ब्रह्म पुरुषं पुरुषर्षभम् ॥ १३ ॥

स संसृत्य पुनः काले कालेनेश्वरमूर्तिना ।

जाते गुणव्यतिकरे यथापूर्वं प्रजायते ॥ १४ ॥

ऐश्वर्यं पारमेष्ठ्यं च तेऽपि धर्मविनिर्मितम् ।

निषेव्य पुनरायान्ति गुणव्यतिकरे सति ॥ १५ ॥

ये त्विहासक्तमनसः कर्मसु श्रद्धयान्विताः ।

कुर्वन्ति अप्रतिषिद्धानि नित्यान्यपि च कृत्स्नशः ॥ १६ ॥

कपिलदेव जी कहते हैं ;- माताजी! जो पुरुष घर में रहकर सकामभाव से गृहस्थ के धर्मों का पालन करता है और उनके फलस्वरूप अर्थ एवं काम का उपभोग करके फिर उन्हीं का अनुष्ठान करता रहता है, वह तरह-तरह की कामनाओं से मोहित रहने के कारण भगवद्धर्मों से विमुख हो जाता है और यज्ञों द्वारा श्रद्धापूर्वक देवता तथा पितरों की ही आराधना करता रहता है। उसकी बुद्धि उसी प्रकार की श्रद्धा से युक्त रहती है, देवता और पितर ही उसके उपास्य रहते हैं; अतः वह चन्द्रलोक में जाकर उनके साथ सोमपान करता है और फिर पुण्य क्षीण होने पर इसी लोक में लौट आता है।

जिस समय प्रलयकाल में शेषशायी भगवान् शेषशय्या पर शयन करते हैं, उस समय सकाम गृहस्थाश्रमियों को प्राप्त होने वाले ये सब लोक भी लीन हो जाते हैं। जो विवेकी पुरुष अपने धर्मों का अर्थ और भोग-विलास के लिये उपयोग नहीं करते, बल्कि भगवान् की प्रसन्नता के लिये ही उनका पालन करते हैं-वे अनासक्त, प्रशान्त, शुद्धचित्त, निवृत्ति धर्मपरायण, ममतारहित और अहंकारशून्य पुरुष स्वधर्म पालनरूप सत्त्वगुण के द्वारा सर्वथा शुद्धचित्त हो जाते हैं। वे अन्त में सूर्यमार्ग (आर्चिमार्ग या देवयान) के द्वारा सर्वव्यापी पूर्णपुरुष श्रीहरि को ही प्राप्त होते हैं-जो कार्य-कारणरूप जगत् के नियन्ता, संसार के उपादान-कारण और उसकी उत्पत्ति, पालन एवं संहार करने वाले हैं। जो लोग परमात्मदृष्टि से हिरण्यगर्भ की उपासना करते हैं, वे दो परार्द्ध में होने वाले ब्रह्मा जी के प्रलयपर्यन्त उनके सत्यलोक में ही रहते हैं। जिस समय देवतादि से श्रेष्ठ ब्रह्मा जी अपने द्विपरार्द्ध काल के अधिकार को भोगकर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, इन्द्रिय, उनके विषय (शब्दादि) और अहंकारादि के सहित सम्पूर्ण विश्व का संहार करने की इच्छा से त्रिगुणात्मिक प्रकृति के साथ एकरूप होकर निर्विशेष परमात्मा में लीन हो जाते हैं, उस समय प्राण और मन को जीते हुए वे विरक्त योगिगण भी देह त्यागकर उन भगवान् ब्रह्मा जी में ही प्रवेश करते हैं और फिर उन्हीं के साथ परमानन्दस्वरूप पुराणपरुष परब्रह्म में लीन हो जाते हैं। इससे पहले वे भगवान् में लीन नहीं हुए; क्योंकि अब तक उनमें अहंकार शेष था। इसलिये माताजी! अब तुम भी अत्यन्त भक्तिभाव से उन श्रीहरि की ही चरण-शरण में जाओ; समस्त प्राणियों का हृदयकमल ही उनका मन्दिर है और तुमने भी मुझसे उनका प्रभाव सुन ही लिया है।

वेदगर्भ ब्रह्मा जी भी-जो समस्त स्थावर-जंगम प्राणियों के आदिकारण हैं-मरीचि आदि ऋषियों, योगेश्वरों, सनकादिकों तथा योग प्रवर्तक सिद्धों के सहित निष्काम कर्म के द्वारा आदिपुरुष पुरुषश्रेष्ठ सगुण ब्रह्म को प्राप्त होकर भी भेददृष्टि और कर्तृत्वभिमान के कारण भगवदिच्छा-से, जब सर्गकाल उपस्थित होता है, तब कालरूप ईश्वर की प्रेरणा से गुणों में क्षोभ होने पर फिर पूर्ववत् प्रकट हो जाते हैं। इस प्रकार पूर्वोक्त ऋषिगण भी अपने-अपने कर्मानुसार ब्रह्मलोक के ऐश्वर्य को भोगकर भगवदिच्छा से गुणों में क्षोभ होने पर पुनः इस लोक में आ जाते हैं। जिसका चित्त इस लोक में आसक्त है और जो कर्मों में श्रद्धा रखते हैं, वे वेद में कहे हुए काम्य और नित्य कर्मों का सांगोपांग अनुष्ठान करने में ही लगे रहते हैं।

रजसा कुण्ठमनसः कामात्मानोऽजितेन्द्रियाः ।

पितॄन् यजन्ति अनुदिनं गृहेष्वभिरताशयाः ॥ १७ ॥

त्रैवर्गिकास्ते पुरुषा विमुखा हरिमेधसः ।

कथायां कथनीयोरु विक्रमस्य मधुद्विषः ॥ १८ ॥

नूनं दैवेन विहता ये चाच्युतकथासुधाम् ।

हित्वा शृण्वन्ति असद्‍गाथाः पुरीषमिव विड्भुजः ॥ १९ ॥

दक्षिणेन पथार्यम्णः पितृलोकं व्रजन्ति ते ।

प्रजामनु प्रजायन्ते श्मशानान्तक्रियाकृतः ॥ २० ॥

ततस्ते क्षीणसुकृताः पुनर्लोकमिमं सति ।

पतन्ति विवशा देवैः सद्यो विभ्रंशितोदयाः ॥ २१ ॥

तस्मात्त्वं सर्वभावेन भजस्व परमेष्ठिनम् ।

तद्‍गुणाश्रयया भक्त्या भजनीयपदाम्बुजम् ॥ २२ ॥

वासुदेवे भगवति भक्तियोगः प्रयोजितः ।

जनयत्याशु वैराग्यं ज्ञानं यद्‍ब्रह्मदर्शनम् ॥ २३ ॥

यदास्य चित्तमर्थेषु समेष्विन्द्रियवृत्तिभिः ।

न विगृह्णाति वैषम्यं प्रियं अप्रियमित्युत ॥ २४ ॥

स तदैवात्मनात्मानं निःसङ्गं समदर्शनम् ।

हेयोपादेय रहितं आरूढं पदमीक्षते ॥ २५ ॥

ज्ञानमात्रं परं ब्रह्म परमात्मेश्वरः पुमान् ।

दृश्यादिभिः पृथग्भावैः भगवान् एक ईयते ॥ २६ ॥

एतावानेव योगेन समग्रेणेह योगिनः ।

युज्यतेऽभिमतो ह्यर्थो यद् असङ्गस्तु कृत्स्नशः ॥ २७ ॥

ज्ञानमेकं पराचीनैः इन्द्रियैर्ब्रह्म निर्गुणम् ।

अवभात्यर्थरूपेण भ्रान्त्या शब्दादिधर्मिणा ॥ २८ ॥

यथा महान् अहंरूपः त्रिवृत् पञ्चविधः स्वराट् ।

एकादशविधस्तस्य वपुरण्डं जगद्यतः ॥ २९ ॥

एतद्वै श्रद्धया भक्त्या योगाभ्यासेन नित्यशः ।

समाहितात्मा निःसङ्गो विरक्त्या परिपश्यति ॥ ३० ॥

इत्येतत्कथितं गुर्वि ज्ञानं तद्‍ब्रह्मदर्शनम् ।

येन अनुबुद्ध्यते तत्त्वं प्रकृतेः पुरुषस्य च ॥ ३१ ॥

ज्ञानयोगश्च मन्निष्ठो नैर्गुण्यो भक्तिलक्षणः ।

द्वयोरप्येक एवार्थो भगवत् शब्दलक्षणः ॥ ३२ ॥

उनकी बुद्धि रजोगुण की अधिकता के कारण कुण्ठित रहती है, हृदय में कामनाओं का जाल फैला रहता है और इन्द्रियाँ उनके वश में नहीं होतीं; बस, अपने घरों में ही आसक्त होकर वे नित्यप्रति पितरों की पूजा में लगे रहते हैं। ये लोग अर्थ, धर्म और काम के ही परायण होते हैं; इसलिये जिनके महान् पराक्रम अत्यन्त कीर्तनिय हैं, उन भवभयहारी श्रीमधुसूदन भगवान् की कथा-वार्ताओं से तो ये विमुख ही रहते हैं।

हाय! विष्ठाभोगी कूकर-सूकर आदि जीवों के विष्ठा चाहने के समान जो मनुष्य भगवत्कथामृत को छोड़कर निन्दित विषय-वार्ताओं को सुनते हैं-वे तो अवश्य ही विधाता के मारे हुए हैं, उनका बड़ा ही मन्द भाग्य है। गर्भाधान से लेकर अन्त्येष्टि तक सब संस्कारों को विधिपूर्वक करने वाले ये सकामकर्मी सूर्य से दक्षिण ओर के पितृयान या धूममार्ग से पित्रीश्वर अर्यमा के लोक में जाते हैं और फिर अपनी ही सन्तति के वंश में उत्पन्न होते हैं।

माताजी! पितृलोक को भोग लेने पर जब उनके पुण्य क्षीण हो जाते हैं, तब देवता लोग उन्हें वहाँ के ऐश्वर्य से च्युत कर देते हैं और फिर उन्हें विवश होकर तुरन्त ही इस लोक में गिरना पड़ता है। इसलिये माताजी! जिनके चरणकमल सदा भजने योग्य हैं, उन भगवान् का तुम उन्हीं के गुणों का आश्रय लेने वाली भक्ति के द्वारा सब प्रकार से (मन, वाणी और शरीर से) भजन करो। भगवान् वासुदेव के प्रति किया हुआ भक्तियोग तुरंत ही संसार से वैराग्य और ब्रह्म साक्षात्काररूप ज्ञान की प्राप्ति करा देता है। वस्तुतः सभी विषय भगवद् रूप होने के कारण समान हैं। अतः जब इन्द्रियों की वृत्तियों के द्वारा भी भगवद्भक्त का चित्त उनमें प्रिय-अप्रियरूप विषता का अनुभव नहीं करता-सर्वत्र भगवान् का ही दर्शन करता है-उसी समय वह संगरहित, सब में समान रूप से स्थित, त्याग और ग्रहण करने योग्य, दोष और गुणों से रहित, अपनी महिमा में आरूढ़ अपने आत्मा का ब्रह्मरूप से साक्षात्कार करता है। वही ज्ञानस्वरूप है, वही परब्रह्म है, वही परमात्मा है, वही ईश्वर है, वही पुरुष है; वही एक भगवान् स्वयं जीव, शरीर, विषय, इन्द्रियों आदि अनेक रूपों में प्रतीत होता है।

सम्पूर्ण संसार में आसक्ति का अभाव हो जाना-बस, यही योगियों के सब प्रकार के योग साधन का एकमात्र अभीष्ट फल है। ब्रह्म एक है, ज्ञानस्वरूप और निर्गुण है, तो भी वह बाह्यवृत्तियों वाली इन्द्रियों के द्वारा भ्रान्तिवश शब्दादि धर्मों वाले विभिन्न पदार्थों के रूप में भास रहा है। जिस प्रकार एक ही परब्रह्म महत्तत्त्व, वैकारिक, राजस और तामस-तीन प्रकार का अहंकार, पंचमहाभूत एवं ग्यारह इन्द्रियरूप बन गया है और फिर वही स्वयंप्रकाश इनके संयोग से जीव कहलाया, उसी प्रकार उस जीव का शरीररूप यह ब्रह्माण्ड भी वस्तुतः ब्रह्म ही है, क्योंकि ब्रह्म से ही इसकी उत्पत्ति हुई है। किन्तु इसे ब्रह्मरूप वही देख सकता है, जो श्रद्धा, भक्ति और वैराग्य तथा निरन्तर के योगाभ्यास के द्वारा एकाग्रचित्त और असंग बुद्धि हो गया है।

पूजनीय माताजी! मैंने तुम्हें यह ब्रह्म साक्षात्कार का साधनरूप ज्ञान सुनाया, इसके द्वारा प्रकृति और पुरुष के यथार्थ स्वरूप का बोध हो जाता है। देवि! निर्गुणब्रह्म-विषयक ज्ञानयोग और मेरे प्रति किया हुआ भक्तियोग-इन दोनों का फल एक ही है। उसे ही भगवान् कहते हैं।

यथेन्द्रियैः पृथग्द्वारैः अर्थो बहुगुणाश्रयः ।

एको नानेयते तद्वद् भगवान् शास्त्रवर्त्मभिः ॥ ३३ ॥

क्रियया क्रतुभिर्दानैः तपःस्वाध्यायमर्शनैः ।

आत्मेन्द्रियजयेनापि सन्न्यासेन च कर्मणाम् ॥ ३४ ॥

योगेन विविधाङ्गेन भक्तियोगेन चैव हि ।

धर्मेणोभयचिह्नेन यः प्रवृत्तिनिवृत्तिमान् ॥ ३५ ॥

आत्मतत्त्वावबोधेन वैराग्येण दृढेन च ।

ईयते भगवानेभिः सगुणो निर्गुणः स्वदृक् ॥ ३६ ॥

प्रावोचं भक्तियोगस्य स्वरूपं ते चतुर्विधम् ।

कालस्य च अक्तगतेः योऽन्तर्धावति जन्तुषु ॥ ३७ ॥

जीवस्य संसृतीर्बह्वीः अविद्याकर्म निर्मिताः ।

यास्वङ्ग प्रविशन्नात्मा न वेद गतिमात्मनः ॥ ३८ ॥

नैतत्खलायोपदिशेन् नाविनीताय कर्हिचित् ।

न स्तब्धाय न भिन्नाय नैव धर्मध्वजाय च ॥ ३९ ॥

न लोलुपायोपदिशेत् न गृहारूढचेतसे ।

नाभक्ताय च मे जातु न मद्‍भक्तद्विषामपि ॥ ४० ॥

श्रद्दधानाय भक्ताय विनीताय अनसूयवे ।

भूतेषु कृतमैत्राय शुश्रूषाभिरताय च ॥ ४१ ॥

बहिर्जातविरागाय शान्तचित्ताय दीयताम् ।

निर्मत्सराय शुचये यस्याहं प्रेयसां प्रियः ॥ ४२ ॥

य इदं श्रृणुयाद् अम्ब श्रद्धया पुरुषः सकृत् ।

यो वाभिधत्ते मच्चित्तः स ह्येति पदवीं च मे ॥ ४३ ॥

जिस प्रकार रूप, रस एवं गन्ध आदि अनेक गुणों का आश्रयभूत एक ही पदार्थ भिन्न-भिन्न इन्द्रियों द्वारा विभिन्न रूप से अनुभूत होता है, वैसे ही शास्त्र के विभिन्न मार्गों द्वारा एक ही भगवान् की अनेक प्रकार से अनुभूति होती है। नाना प्रकार के कर्म कलाप, यज्ञ, दान, तप, वेदाध्ययन, वेद विचार (मीमांसा), मन और इन्द्रियों के संयम, कर्मों के त्याग, विविध अंगों वाले योग, भक्तियोग, निवृत्ति और प्रवृत्तिरूप सकाम और निष्काम दोनों प्रकार के धर्म, आत्मतत्त्व के ज्ञान और दृढ़ वैराग्य-इन सभी साधनों से सगुण-निर्गुणरूप स्वयंप्रकाश भगवान् को ही प्राप्त किया जाता है।

माताजी! सात्त्विक, राजस, तामस और निर्गुणभेद से चार प्रकार के भक्तियोग का और जो प्राणियों के जन्मादि विकारों का हेतु है तथा जिसकी गति जानी नहीं जाती, उस काल का स्वरूप मैं तुमसे कह ही चुका हूँ।

देवि! अविद्याजनित कर्म के कारण जीव की अनेकों गतियाँ होती हैं; उनमें जाने पर वह अपने स्वरूप को नहीं पहचान सकता। मैंने तुम्हें जो ज्ञानोपदेश दिया है-उसे दुष्ट, दुर्विनीत, घमंडी, दुराचारी और धर्मध्वजी (दम्भी) पुरुषों को नहीं सुनाना चाहिये।

जो विषयलोलुप हो, गृहासक्त हो, मेरा भक्त न हो अथवा मेरे भक्तों से द्वेष करने वाला हो, उसे भी इसका उपदेश कभी न करे। जो अत्यन्त श्रद्धालु, भक्त, विनयी, दूसरों के प्रति दोषदृष्टि न रखने वाला, सब प्राणियों से मित्रता रखने वाला, गुरु सेवा में तत्पर, बाह्य विषयों में अनासक्त, शान्तचित्त, मत्सरशून्य और पवित्रचित्त हो तथा मुझे परम प्रियतम मानने वाला हो, उसे इसका अवश्य उपदेश करे।

मा! जो पुरुष मुझमें चित्त लगाकर इसका श्रद्धापूर्वक एक बार भी श्रवण या कथन करेगा, वह मेरे परमपद को प्राप्त होगा।

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे कपिलेये द्वात्रिंशोऽध्यायः ॥ ३२ ॥

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