श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय ३१
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय
३१"मनुष्य योनि को प्राप्त हुए जीव की गति का वर्णन"
श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्धः एकत्रिंश अध्यायः
श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ३
अध्यायः ३१
श्रीमद्भागवत महापुराण तीसरा स्कन्ध
इकत्तीसवाँ अध्याय
तृतीय
स्कन्ध: ·
श्रीमद्भागवत महापुराण
श्रीमद्भागवत
महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय ३१ श्लोक का हिन्दी अनुवाद
श्रीभगवानुवाच -
कर्मणा दैवनेत्रेण
जन्तुर्देहोपपत्तये ।
स्त्रियाः प्रविष्ट उदरं पुंसो
रेतःकणाश्रयः ॥ १ ॥
कललं त्वेकरात्रेण पञ्चरात्रेण बुद्बुदम्
।
दशाहेन तु कर्कन्धूः पेश्यण्डं वा
ततः परम् ॥ २ ॥
मासेन तु शिरो द्वाभ्यां
बाह्वङ्घ्र्याद्यङ्गविग्रहः ।
नखलोमास्थिचर्माणि लिङ्गच्छिद्रोद्
भवस्त्रिभिः ॥ ३ ॥
चतुर्भिर्धातवः सप्त पञ्चभिः
क्षुत्तृडुद्भवः ।
षड्भिर्जरायुणा वीतः कुक्षौ भ्राम्यति
दक्षिणे ॥ ४ ॥
मातुर्जग्धान्नपानाद्यैः एधद्
धातुरसम्मते ।
शेते विण्मूत्रयोर्गर्ते स
जन्तुर्जन्तुसम्भवे ॥ ५ ॥
कृमिभिः क्षतसर्वाङ्गः
सौकुमार्यात्प्रतिक्षणम् ।
मूर्च्छां आप्नोति उरुक्लेशः
तत्रत्यैः क्षुधितैर्मुहुः ॥ ६ ॥
कटुतीक्ष्णोष्णलवण रूक्षाम्लादिभिरुल्बणैः
।
मातृभुक्तैरुपस्पृष्टः
सर्वाङ्गोत्थितवेदनः ॥ ७ ॥
उल्बेन संवृतस्तस्मिन् अन्त्रैश्च
बहिरावृतः ।
आस्ते कृत्वा शिरः कुक्षौ
भुग्नपृष्ठशिरोधरः ॥ ८ ॥
अकल्पः स्वाङ्गचेष्टायां शकुन्त इव
पञ्जरे ।
तत्र लब्धस्मृतिर्दैवात् कर्म
जन्मशतोद्भवम् ।
स्मरन् दीर्घमनुच्छ्वासं शर्म किं
नाम विन्दते ॥ ९ ॥
आरभ्य सप्तमान् मासात् लब्धबोधोऽपि
वेपितः ।
नैकत्रास्ते सूतिवातैः विष्ठाभूरिव
सोदरः ॥ १० ॥
नाथमान ऋषिर्भीतः सप्तवध्रिः
कृताञ्जलिः ।
स्तुवीत तं विक्लवया वाचा
येनोदरेऽर्पितः ॥ ११ ॥
श्रीभगवान् कहते हैं ;-
माताजी! जब जीव को मनुष्य-शरीर में जन्म लेना होता है, तो वह भगवान् की प्रेरणा से अपने पूर्वकर्मानुसार देहप्राप्ति के लिये
पुरुष के वीर्यकण के द्वारा स्त्री के उदर में प्रवेश करता है। वहाँ वह एक रात्रि
में स्त्री के रज में मिलकर एकरूप कलल बन जाता है, पाँच
रात्रि में बुद्बुदरूप हो जाता है, दस दिन में बेर के समान
कुछ कठिन हो जाता है और उसके बाद मांसपेशी अथवा अण्डज प्राणियों में अण्डे के रूप
में परिणत हो जाता है। एक महीने में उसके सिर निकल आता है, दो
मास में हाथ-पाँव आदि अंगों का विभाग हो जाता है और तीन मास में नख, रोम, अस्थि, चर्म, स्त्री-पुरुष के चिह्न तथा अन्य छिद्र उत्पन्न हो जाते हैं।
चार मास में उसमें मांसादि सातों
धातुएँ पैदा हो जाती हैं, पाँचवें महीने में
भूख-प्यास लगने लगती है और छठे मास में झिल्ली से लिपटकर वह दाहिनी कोख में घूमने
लगता है। उस समय माता के खाये हुए अन्न-जल आदि से उसकी सब धातुएँ पुष्ट होने लगती
हैं और वह कृमि आदि जंतुओं के उत्पत्ति स्थान उस जघन्य मल-मूत्र के गढ़े में पड़ा
रहता है। वह सुकुमार तो होता ही है; इसलिये जब वहाँ के भूखे
कीड़े उसके अंग-प्रत्यंग नोचते हैं, तब अत्यन्त क्लेश के
कारण वह क्षण-क्षण में अचेत हो जाता है। माता के खाये हुए कड़वे, तीखे, गरम, नमकीन, रूखे और खट्टे आदि उग्र पदार्थों का स्पर्श होने से उसके सारे शरीर में
पीड़ा होने लगती है। वह जीव माता के गर्भाशय में झिल्ली से लिपटा और आँतों से घिरा
रहता है। उसका सिर पेट की ओर तथा पीठ और गर्दन कुण्डलाकार मुड़े रहते हैं। वह
पिंजड़े में बंद पक्षी के समान पराधीन एवं अंगों को हिलाने-डुलाने में भी असमर्थ
रहता है। इसी समय अदृष्ट की प्रेरणा से उसे स्मरणशक्ति प्राप्त होती है। तब अपने
सैकड़ों जन्मों के कर्म याद आ जाते हैं और वह बेचैन हो जाता है तथा उसका दम घुटने
लगता है। ऐसी अवस्था में उसे क्या शान्ति मिल सकती है?
सातवाँ महीना आरम्भ होने पर उसमें
ज्ञान-शक्ति का भी उन्मेष हो जाता है; परन्तु
प्रसूतिवायु से चलायमान रहने के कारण वह उसी उदर में उत्पन्न हुए विष्ठा के कीड़ों
के समान एक स्थान पर नहीं रह सकता। तब सप्तधातुमय स्थूल शरीर से बँधा हुआ वह
देहात्मदर्शीजीव अत्यन्त भयभीत होकर दीन वाणी से कृपा-याचना करता हुआ, हाथ जोड़कर उस प्रभु की स्तुति करता है, जिसने उसे
माता के गर्भ में डाला है।
जन्तुरुवाच -
तस्योपसन्नमवितुं जगदिच्छयात्त
नानातनोर्भुवि चलत् चरणारविन्दम् ।
सोऽहं व्रजामि शरणं ह्यकुतोभयं मे
येनेदृशी गतिरदर्श्यसतोऽनुरूपा ॥ १२ ॥
यस्त्वत्र बद्ध इव कर्मभिरावृतात्मा
भूतेन्द्रियाशयमयीमवलम्ब्य मायाम् ।
आस्ते विशुद्धमविकारमखण्डबोधम्
आतप्यमानहृदयेऽवसितं नमामि ॥ १३ ॥
यः पञ्चभूतरचिते रहितः शरीरे
च्छन्नोऽयथेन्द्रियगुणार्थचिदात्मकोऽहम् ।
तेनाविकुण्ठमहिमानमृषिं तमेनं
वन्दे परं प्रकृतिपूरुषयोः पुमांसम् ॥ १४ ॥
यन्माययोरुगुणकर्म निबन्धनेऽस्मिन्
सांसारिके पथि चरन् तदभिश्रमेण ।
नष्टस्मृतिः पुनरयं प्रवृणीत लोकं
युक्त्या कया महदनुग्रहमन्तरेण ॥ १५ ॥
ज्ञानं यदेतद् अदधात्कतमः स देवः
त्रैकालिकं स्थिरचरेष्वनुवर्तितांशः ।
तं जीवकर्मपदवीं अनुवर्तमानाः
तापत्रयोपशमनाय वयं भजेम ॥ १६ ॥
देह्यन्यदेहविवरे जठराग्निनासृग्
विण्मूत्रकूपपतितो भृशतप्तदेहः ।
इच्छन्नितो विवसितुं गणयन्
स्चमासान्
निर्वास्यते कृपणधीर्भगवन् कदा नु ॥ १७ ॥
येनेदृशीं गतिमसौ दशमास्य ईश
सङ्ग्राहितः पुरुदयेन भवादृशेन ।
स्वेनैव तुष्यतु कृतेन स दीननाथः
को नाम तत्प्रति विनाञ्जलिमस्य कुर्यात् ॥
१८ ॥
पश्यत्ययं धिषणया ननु सप्तवध्रिः
शारीरके दमशरीर्यपरः स्वदेहे ।
यत्सृष्टयाऽऽसं तमहं पुरुषं पुराणं
पश्ये बहिर्हृदि च चैत्यमिव प्रतीतम् ॥ १९ ॥
सोऽहं वसन्नपि विभो बहुदुःखवासं
गर्भान्न निर्जिगमिषे बहिरन्धकूपे ।
यत्रोपयातमुपसर्पति देवमाया
मिथ्या मतिर्यदनु संसृतिचक्रमेतत् ॥ २० ॥
तस्मादहं विगतविक्लव उद्धरिष्य
आत्मानमाशु तमसः सुहृदाऽऽत्मनैव ।
भूयो यथा व्यसनमेतदनेकरन्ध्रं
मा मे भविष्यदुपसादितविष्णुपादः ॥ २१ ॥
जीव कहता है ;-
मैं बड़ा अधम हूँ; भगवान् ने मुझे जो इस
प्रकार की गति दिखायी है, वह मेरे योग्य ही है। वे अपनी शरण
में आये हुए इस नश्वर जगत् की रक्षा के लिये ही अनेक प्रकार के रूप धारण करते हैं;
अतः मैं भी भूतल पर विचरण करने वाले उन्हीं के निर्भय चरणारविन्दों
की शरण लेता हूँ। जो मैं (जीव) इस माता के उदर में देह, इन्द्रिय
और अन्तःकरणरूपा माया का आश्रय कर पुण्य-पापरूप कर्मों से आच्छादित रहने के कारणबद्ध
की तरह हूँ, वही मैं यहीं अपने सन्तप्त हृदय में प्रतीत होने
वाले उन विशुद्ध (उपाधिरहित), अविकारी और अखण्ड बोधस्वरूप
परमात्मा को नमस्कार करता हूँ।
मैं वस्तुतः शरीरादि से रहित (असंग)
होने पर भी देखने में पांचभौतिक शरीर से सम्बद्ध हूँ और इसीलिये इन्द्रिय,
गुण, शब्दादि विषय और चिदाभास (अहंकार) रूप
जान पड़ता हूँ। अतः इस शरीरादि के आवरण से जिनकी महिमा कुण्ठित नहीं हुई है,
उन प्रकृति और पुरुष नियन्ता सर्वज्ञ (विद्याशक्ति सम्पन्न)
परमपुरुष की मैं वन्दना करता हूँ। उन्हीं की माया से अपने स्वरूप की स्मृति नष्ट
हो जाने के कारण यह जीव अनेक प्रकार के सत्त्वादि गुण और कर्म के बन्धन से युक्त
इस संसार मार्ग में तरह-तरह के कष्ट झेलता हुआ भटकता रहता है; अतः उन परमपुरुष परमात्मा की कृपा के बिना और किस युक्ति से इसे अपने
स्वरूप का ज्ञान हो सकता है।
मुझे जो यह त्रैकालिक ज्ञान हुआ है,
यह भी उनके सिवा और किसने दिया है; क्योंकि
स्थावर-जंगम समस्त प्राणियों में एकमात्र वे ही तो अन्तर्यामीरूप अंश से विद्यमान
हैं। अतः जीवरूप कर्मजनित पदवी का अनुवर्तन करने वाले हम अपने त्रिविध तापों की
शान्ति के लिये उन्हीं का भजन करते हैं।
भगवन्! यह देहधारी जीव दूसरी (माता
के) देह के उदर के भीतर मल, मूत्र और रुधिर के
कुएँ में गिरा हुआ है, उसकी जठराग्नि से इसका शरीर अत्यन्त
सन्तप्त हो रहा है। उससे निकलने की इच्छा करता हुआ यह अपने महीने गिन रहा है।
भगवन्! अब इस दीन को यहाँ से कब निकाला जायेगा? स्वामिन्! आप
बड़े दयालु हैं, आप-जैसे उदार प्रभु ने ही इस दस मास के जीव
को ऐसा उत्कृष्ट ज्ञान दिया है। दीनबन्धों! इस अपने किये हुए उपकार से ही आप
प्रसन्न हों; क्योंकि आपको हाथ जोड़ने के सिवा आपके उस उपकार
का बदला तो कोई दे भी क्या सकता है।
प्रभो! संसार के ये पशु-पक्षी आदि
अन्य जीव तो अपनी मूढ़ बुद्धि के अनुसार अपने शरीर में होने वाले सुख-दुःखादि ही
अनुभव करते हैं; किन्तु मैं तो आपकी कृपा से
शम-दमादि साधन सम्पन्न शरीर से युक्त हुआ हूँ, अतः आपकी दी
हुई विवेकवती बुद्धि से आप पुराणपुरुष को अपने शरीर के बाहर और भीतर अहंकार के
आश्रयभूत आत्मा की भाँति प्रत्यक्ष अनुभव करता हूँ। भगवन्! इस अत्यन्त दुःख से भरे
हुए गर्भाशय में यद्यपि मैं बड़े कष्ट से रह रहा हूँ, तो भी
इससे बाहर निकलकर संसारमय अन्धकूप में गिरने की मुझे बिलकुल इच्छा नहीं है;
क्योंकि उसमें जाने वाले जीव को आपकी माया घेर लेती है। जिसके कारण
उसकी शरीर में अहंबुद्धि हो जाती है और उसके परिणाम में उसे फिर इस संसारचक्र में
ही पड़ता होता है। अतः मैं व्याकुलता को छोड़कर हृदय में श्रीविष्णु भगवान् के
चरणों को स्थापित कर अपनी बुद्धि की सहायता से ही अपने को बहुत शीघ्र इस संसाररूप
समुद्र के पार लगा दूँगा, जिससे मुझे अनेक प्रकार के दोषों
से युक्त यह संसार-दुःख फिर न प्राप्त हो।
कपिल उवाच -
(अनुष्टुप्)
एवं कृतमतिर्गर्भे दशमास्यः
स्तुवन्नृषिः ।
सद्यः क्षिपत्यवाचीनं प्रसूत्यै
सूतिमारुतः ॥ २२ ॥
तेनावसृष्टः सहसा कृत्वावाक् शिर
आतुरः ।
विनिष्क्रामति कृच्छ्रेण
निरुच्छ्वासो हतस्मृतिः ॥ २३ ॥
पतितो भुव्यसृङ्मूत्रे विष्ठाभूरिव
चेष्टते ।
रोरूयति गते ज्ञाने विपरीतां गतिं
गतः ॥ २४ ॥
परच्छन्दं न विदुषा पुष्यमाणो जनेन
सः ।
अनभिप्रेतमापन्नः
प्रत्याख्यातुमनीश्वरः ॥ २५ ॥
शायितोऽशुचिपर्यङ्के जन्तुः स्वेदजदूषिते
।
नेशः कण्डूयनेऽङ्गानां
आसनोत्थानचेष्टने ॥ २६ ॥
तुदन्त्यामत्वचं दंशा मशका
मत्कुणादयः ।
रुदन्तं विगतज्ञानं कृमयः कृमिकं
यथा ॥ २७ ॥
इत्येवं शैशवं भुक्त्वा दुःखं
पौगण्डमेव च ।
अलब्धाभीप्सितोऽज्ञानाद् इद्धमन्युः
शुचार्पितः ॥ २८ ॥
सह देहेन मानेन वर्धमानेन मन्युना ।
करोति विग्रहं कामी कामिष्वन्ताय
चात्मनः ॥ २९ ॥
भूतैः पञ्चभिरारब्धे देहे
देह्यबुधोऽसकृत् ।
अहं ममेत्यसद्ग्राहः करोति
कुमतिर्मतिम् ॥ ३० ॥
तदर्थं कुरुते कर्म यद्बद्धो याति
संसृतिम् ।
योऽनुयाति ददत्क्लेशं
अविद्याकर्मबन्धनः ॥ ३१ ॥
यद्यसद्भि पथि पुनः
शिश्नोदरकृतोद्यमैः ।
आस्थितो रमते जन्तुः तमो विशति
पूर्ववत् ॥ ३२ ॥
सत्यं शौचं दया मौनं बुद्धिः
श्रीर्ह्रीर्यशः क्षमा ।
शमो दमो भगश्चेति यत्सङ्गाद्याति
सङ्क्षयम् ॥ ३३ ॥
तेष्वशान्तेषु मूढेषु
खण्डितात्मस्वसाधुषु ।
सङ्गं न कुर्याच्छोच्येषु योषित्
क्रीडामृगेषु च ॥ ३४ ॥
न तथास्य भवेन्मोहो
बन्धश्चान्यप्रसङ्गतः ।
योषित्सङ्गात् यथा पुंसो यथा तत्सङ्गिसङ्गतः
॥ ३५ ॥
प्रजापतिः स्वां दुहितरं दृष्ट्वा
तद् रूपधर्षितः ।
रोहिद्भूतां सोऽन्वधावद् ऋक्षरूपी
हतत्रपः ॥ ३६ ॥
कपिलदेव जी कहते हैं ;-
माता! वह दस महीने का जीव गर्भ में ही जब इस प्रकार विवेक सम्पन्न
होकर भगवान् की स्तुति करता है, तब उस अधोमुख बालक को
प्रसवकाल की वायु तत्काल बाहर आने के लिये ढकेलती है। उसके सहसा ठकेलने पर वह बालक
अत्यन्त व्याकुल हो नीचे सिर करके बड़े कष्ट से बाहर निकलता है। उस समय उसके श्वास
की गति रुक जाती है और पूर्वस्मृति नष्ट हो जाती है। पृथ्वी पर माता के रुधिर और
मूत्र में पड़ा हुआ वह बालक विष्ठा के कीड़े के समान छटपटाता है। उसका गर्भवास का
सारा ज्ञान नष्ट हो जाता है और वह विपरीत गति (देहाभिमानरूप अज्ञान-दशा) को
प्राप्त होकर बार-बार जोर-जोर से रोता है। फिर जो लोग उसका अभिप्राय नहीं समझ सकते,
उनके द्वारा उसका पालन-पोषण होता है। ऐसी अवस्था में उसे जो
प्रतिकूलता प्राप्त होती है, उसका निषेध करने की शक्ति भी
उसमें नहीं होती। जब उस जीव को शिशु-अवस्था में मैली-कुचैली खाट पर सुला दिया जाता
है, जिसमें खटमल आदि स्वेदज जीव चिपटे रहते हैं, तब उसमें शरीर को खुजलाने, उठाने अथवा करवट बदलने की
सामर्थ्य न होने के कारण वह बड़ा कष्ट पाता है। उसकी त्वचा बड़ी कोमल होती है;
उसे डांस, मच्छर और खटमल आदि उसी प्रकार काटते
रहते हैं, जैसे बड़े कीड़े को छोटे कीड़े। इस समय उसका
गर्भावस्था का सारा ज्ञान जाता रहता है, सिवा रोने के वह कुछ
नहीं कर सकता।
इसी प्रकार बाल्य (कौमार) और
पौगण्ड-अवस्थाओं के दुःख भोगकर वह बालक युवावस्था में पहुँचता है। इस समय उसे यदि
कोई इच्छित भोग नहीं प्राप्त होता, तो
अज्ञानवश उसका क्रोध उद्दीप्त हो उठता है और वह शोकाकुल हो जाता है। देह के
साथ-ही-साथ अभिमान और क्रोध बढ़ जाने के कारण वह कामपरवश जीव अपना ही नाश करने के
लिये दूसरे कामी पुरुषों के साथ वैर ठानता है। खोटी बुद्धि वाला वह अज्ञानी जीव
पंचभूतों से रचे हुए इस देह में मिथ्याभिनिवेश के कारण निरन्तर मैं-मेरेपन का
अभिमान करने लगता है। जो शरीर इसे वृद्धावस्था आदि अनेक प्रकार के कष्ट ही देता है
तथा अविद्या और कर्म के सूत्र से बँधा रहने के कारण सदा इसके पीछे लगा रहता है,
उसी के लिये यह तरह-तरह के कर्म करता रहता है-जिनमें बँध जाने के
कारण इसे बार-बार संसारचक्र में पड़ना होता है।
सन्मार्ग में चलते हुए यदि इसका
किन्हीं जिह्वा और उपस्थेन्द्रिय के भोगों में लगे हुए विषयी पुरुषों से समागम हो
जाता है और यह उनमें आस्था करके उन्हीं का अनुगमन करने लगता है,
तो पहले के समान ही फिर नारकी योनियों में पड़ता है। जिनके संग से
इसके सत्य, शौच (बाहर-भीतर की पवित्रता), दया, वाणी का संयम, बुद्धि,
धन-सम्पत्ति, लज्जा, यश,
क्षमा, मन और इन्द्रियों का संयम तथा ऐश्वर्य
आदि सभी सद्गुण नष्ट हो जाते हैं। उन अत्यन्त शोचनीय, स्त्रियों
के क्रीड़ामृग (खिलौना), अशान्त, मूढ़
और देहात्मदर्शी असत्पुरुषों का संग कभी नहीं करना चाहिये। क्योंकि इस जीव को किसी
और का संग करने से ऐसा मोह और बन्धन नहीं होता, जैसा स्त्री
और स्त्रियों के संगियों का संग करने से होता है। एक बार अपनी पुत्री सरस्वती को
देखकर ब्रह्मा जी भी उसके रूप-लावण्य से मोहित हो गये थे और उसके मृगीरूप होकर
भागने पर उसके पीछे निर्लज्जतापूर्वक मृगरूप होकर दौड़ने लगे।
तत्सृष्टसृष्टसृष्टेषु को
न्वखण्डितधीः पुमान् ।
ऋषिं नारायणमृते योषिन् मय्येह
मायया ॥ ३७ ॥
बलं मे पश्य मायायाः स्त्रीमय्या
जयिनो दिशाम् ।
या करोति पदाक्रान्तान्
भ्रूविजृम्भेण केवलम् ॥ ३८ ॥
सङ्गं न कुर्यात्प्रमदासु जातु
योगस्य पारं परमारुरुक्षुः ।
मत्सेवया प्रतिलब्धात्मलाभो
वदन्ति या निरयद्वारमस्य ॥ ३९ ॥
योपयाति शनैर्माया योषिद्
देवविनिर्मिता ।
तामीक्षेतात्मनो मृत्युं तृणैः
कूपमिवावृतम् ॥ ४० ॥
यां मन्यते पतिं मोहान्
मन्मायामृषभायतीम् ।
स्त्रीत्वं स्त्रीसङ्गतः प्राप्तो
वित्तापत्यगृहप्रदम् ॥ ४१ ॥
तां आत्मनो विजानीयात्
पत्यपत्यगृहात्मकम् ।
दैवोपसादितं मृत्युं मृगयोर्गायनं
यथा ॥ ४२ ॥
देहेन जीवभूतेन लोकात् लोकमनुव्रजन्
।
भुञ्जान एव कर्माणि करोत्यविरतं
पुमान् ॥ ४३ ॥
जीवो ह्यस्यानुगो देहो
भूतेन्द्रियमनोमयः ।
तन्निरोधोऽस्य मरणं आविर्भावस्तु
सम्भवः ॥ ४४ ॥
द्रव्योपलब्धिस्थानस्य
द्रव्येक्षायोग्यता यदा ।
तत्पञ्चत्वं अहंमानाद्
उत्पत्तिर्द्रव्यदर्शनम् ॥ ४५ ॥
यथाक्ष्णोर्द्रव्यावयव
दर्शनायोग्यता यदा ।
तदैव चक्षुषो द्रष्टुः
द्रष्टृत्वायोग्यतानयोः ॥ ४६ ॥
तस्मान्न कार्यः सन्त्रासो न
कार्पण्यं न सम्भ्रमः ।
बुद्ध्वा जीवगतिं धीरो
मुक्तसङ्गश्चरेदिह ॥ ४७ ॥
सम्यग्दर्शनया बुद्ध्या
योगवैराग्ययुक्तया ।
उन्हीं ब्रह्मा जी ने मरीचि आदि
प्रजापतियों की तथा मरीचि आदि ने कश्यपादि की और कश्यपादि ने देव-मनुष्यादि
प्राणियों की सृष्टि की। अतः इनमें एक ऋषिप्रवर नारायण को छोड़कर ऐसा कौन पुरुष हो
सकता है,
जिसकी बुद्धि स्त्रीरूपिणी माया से मोहित न हो।
अहो! मेरी इस स्त्रीरूपिणी माया का
बल तो देखो, जो अपने भ्रुकुटि-विलासमात्र से
बड़े-बड़े दिग्विजयी वीरों को पैरों से कुचल देती है। जो पुरुष योग के परमपद पर
आरुढ़ होना चाहता हो अथवा जिसे मेरी सेवा के प्रभाव से आत्मा-अनात्मा का विवेक हो
गया हो, वह स्त्रियों का संग कभी न करे; क्योंकि उन्हें ऐसे पुरुष के लिये नरक का खुला द्वार बताया गया है। भगवान्
की रची हुई यह जो स्त्रीरूपिणी माया धीरे-धीरे सेवा आदि के मिस से पास आती है,
इसे तिनकों से ढके हुए कुएँ के समान अपनी मृत्यु ही समझे।
स्त्री में आसक्त रहने के कारण तथा
अन्त समय में स्त्री का ही ध्यान रहने से जीव को स्त्रीयोनि प्राप्त होती है। इस प्रकार
स्त्रीयोनि को प्राप्त हुआ जीव पुरुषरूप में प्रतीत होने वाली मेरी माया को ही धन,
पुत्र और गृह आदि देने वाला अपना पति मानता रहता है; सो जिस प्रकार व्याधे का गान कानों को प्रिय लगने पर भी बेचारे भोले-भाले
पशु-पक्षियों को फँसाकर उनके नाश का ही कारण होता है-उसी प्रकार उन पुत्र, पति और गृह आदि को विधाता की निश्चित की हुई अपनी मृत्यु ही जाने।
देवि! जीव के उपाधिभूत लिंगदेह के
द्वारा पुरुष एक लोक से दूसरे लोक में जाता है और अपने प्रारब्ध कर्मों को भोगता
हुआ निरन्तर अन्य देहों की प्राप्ति के लिये दूसरे कर्म करता रहता है। जीव का
उपाधिरूप लिंग शरीर तो मोक्ष पर्यन्त उसके साथ रहता है तथा भूत,
इन्द्रिय और मन का कार्यरूप स्थूल शरीर इसका भोगाधिष्ठान है। इन
दोनों का परस्पर संगठित होकर कार्य न करना ही प्राणी की ‘मृत्यु’
है और दोनों का साथ-साथ प्रकट होना ‘जन्म’
कहलाता है।
पदार्थों की उपलब्धि के स्थानरूप इस
स्थूल शरीर में जब उनको ग्रहण करने की योग्यता नहीं रहती,
यह उसका मरण है और यह स्थूल शरीर ही मैं हूँ-इस अभिमान के साथ उसे
देखना उसका जन्म है। नेत्रों में जब किसी दोष के कारण रूपादि को देखने की योगता
नहीं रहती, तभी उनमें रहने वाली चक्षु-इन्द्रिय भी रूप देखने
में असमर्थ हो जाती है और जब नेत्र और उनमें रहने वाली इन्द्रिय दोनों ही रूप
देखने में असमर्थ हो जाते हैं, तभी इन दोनों के साक्षी जीव
में भी वह योग्यता नही रहती। अतः मुमुक्ष पुरुष को मरणादि से भय, दीनता अथवा मोह नहीं करना चाहिये। उसे जीव के स्वरूप को जानकर धैर्यपूर्वक
निःसंगभाव से विचरना चाहिये तथा इस मायामय संसार में योग-वैराग्य-युक्त सम्यक्
ज्ञानमयी बुद्धि से शरीर को निक्षेप (धरोहर) की भाँति रखकर उसके प्रति अनासक्त
रहते हुए विचरण करना चाहिये।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे कपिलेयोपाख्याने जीवगतिर्नाम एकयस्त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३१ ॥
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