श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय ३०
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय
३०"देह-गेह में आसक्त पुरुषों की अधोगति का वर्णन"
श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्धः त्रिंश: अध्यायः
श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ३
अध्यायः ३०
श्रीमद्भागवत महापुराण तीसरा स्कन्ध
तीसवाँ अध्याय
तृतीय
स्कन्ध: ·
श्रीमद्भागवत महापुराण
श्रीमद्भागवत
महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय ३० श्लोक का हिन्दी अनुवाद
कपिल उवाच -
तस्यैतस्य जनो नूनं नायं
वेदोरुविक्रमम् ।
काल्यमानोऽपि बलिनो वायोरिव घनावलिः
॥ १ ॥
यं यं अर्थमुपादत्ते दुःखेन
सुखहेतवे ।
तं तं धुनोति भगवान् पुमान्छोचति
यत्कृते ॥ २ ॥
यदध्रुवस्य देहस्य सानुबन्धस्य
दुर्मतिः ।
ध्रुवाणि मन्यते मोहाद्
गृहक्षेत्रवसूनि च ॥ ३ ॥
जन्तुर्वै भव एतस्मिन् यां यां
योनिमनुव्रजेत् ।
तस्यां तस्यां स लभते निर्वृतिं न
विरज्यते ॥ ४ ॥
नरकस्थोऽपि देहं वै न पुमान्
त्यक्तुमिच्छति ।
नारक्यां निर्वृतौ सत्यां
देवमायाविमोहितः ॥ ५ ॥
आत्मजायासुतागार पशुद्रविण बन्धुषु
।
निरूढमूलहृदय आत्मानं बहु मन्यते ॥
६ ॥
सन्दह्यमानसर्वाङ्ग एषां उद्वहनाधिना
।
करोति अविरतं मूढो दुरितानि दुराशयः
॥ ७ ॥
आक्षिप्तात्मेन्द्रियः स्त्रीणां असतीनां
च मायया ।
रहो रचितयालापैः शिशूनां कलभाषिणाम्
॥ ८ ॥
गृहेषु कूटधर्मेषु
दुःखतन्त्रेष्वतन्द्रितः ।
कुर्वन् दुखप्रतीकारं सुखवन्मन्यते
गृही ॥ ९ ॥
अर्थैरापादितैर्गुर्व्या हिंसयेतः
ततश्च तान् ।
पुष्णाति येषां पोषेण
शेषभुग्यात्यधः स्वयम् ॥ १० ॥
वार्तायां लुप्यमानायां आरब्धायां
पुनः पुनः ।
लोभाभिभूतो निःसत्त्वः परार्थे
कुरुते स्पृहाम् ॥ ११ ॥
कुटुम्बभरणाकल्पो मन्दभाग्यो
वृथोद्यमः ।
श्रिया विहीनः कृपणो ध्यायन्
श्वसिति मूढधीः ॥ १२ ॥
एवं स्वभरणाकल्पं तत्कलत्रादयस्तथा
।
नाद्रियन्ते यथा पूर्वं कीनाशा इव
गोजरम् ॥ १३ ॥
तत्राप्यजातनिर्वेदो भ्रियमाणः
स्वयम्भृतैः ।
जरयोपात्तवैरूप्यो मरणाभिमुखो गृहे
॥ १४ ॥
आस्तेऽवमत्योपन्यस्तं गृहपाल
इवाहरन् ।
आमयाव्यप्रदीप्ताग्निः
अल्पाहारोऽल्पचेष्टितः ॥ १५ ॥
वायुनोत्क्रमतोत्तारः
कफसंरुद्धनाडिकः ।
कासश्वासकृतायासः कण्ठे घुरघुरायते
॥ १६ ॥
श्रीकपिल देव जी कहते हैं ;-
माताजी! जिस प्रकार वायु के द्वारा उड़ाया जाने वाला मेघसमूह उसके
बल को नहीं जानता, उसी प्रकार यह जीव भी बलवान् काल की
प्रेरणा से भिन्न-भिन्न अवस्थाओं तथा योनियों में भ्रमण करता रहता है, किन्तु उसके प्रबल पराक्रम को नहीं जानता। जीव सुख की अभिलाषा से जिस-जिस
वस्तु को बड़े कष्ट से प्राप्त करता है, उसी-उसी को भगवान्
काल विनष्ट कर देता है-जिसके लिये उसे बड़ा शोक होता है। इसका कारण यही है कि यह
मन्दमति जीव अपने इस नाशवान् शरीर तथा उसके सम्बन्धियों के घर, खेत और धन आदि को मोहवश नित्य मान लेता है। इस संसार में यह जीव जिस-जिस
योनि में जन्म लेता है, उसी-उसी में आनन्द मानने लगता है और
उस से विरक्त नहीं होता। यह भगवान् की माया से ऐसा मोहित हो रहा है कि कर्मवश
नारकी योनियों में जन्म लेने पर भी वहाँ के विष्ठा आदि भोगों में ही सुख मानने के
कारण उसे भी छोड़ना नहीं चाहता।
यह मूर्ख अपने शरीर,
स्त्री, पुत्र, गृह,
पशु, धन और बन्धु-बान्धवों में अत्यन्त आसक्त
होकर उनके सम्बन्ध में नाना प्रकार के मनोरथ करता हुआ अपने को बड़ा भाग्यशाली
समझता है। इनके पालन-पोषण की चिन्ता से इसके सम्पूर्ण अंग जलते रहते हैं; तथापि दुर्वासनाओं से दूषित हृदय होने के कारण यह मूढ़ निरन्तर इन्हीं के
लिये तरह-तरह के पाप करता रहता है। कुलटा स्त्रियों के द्वारा एकान्त में
सम्भोगादि के समय प्रदर्शित किये हुए कपटपूर्ण प्रेम में तथा बालकों की मीठी-मीठी
बातों में मन और इन्द्रियों के फँस जाने से गृहस्थ पुरुष घर के दुःख प्रधान
कपटपूर्ण कर्मों में लिप्त हो जाता है। उस समय बहुत सावधानी करने पर यदि उसे किसी
दुःख का प्रतीकार करने में सफलता मिल जाती है, तो उसे ही वह
सुख-सा मान लेता है। जहाँ-तहाँ से भयंकर हिंसावृत्ति के द्वारा धन संचय कर यह ऐसे लोगों
का पोषण करता है, जिनके पोषण से नरक में जाता है। स्वयं तो
उनके खाने-पीने से बचे हुए अन्न को ही खाकर रहता है।
बार-बार प्रयत्न करने पर भी जब इसकी
कोई जीविका नहीं चलती, तो यह लोभवश अधीर
हो जाने से दूसरे के धन की इच्छा करने लगता है। जब मन्दभाग्य के कारण इसका कोई
प्रयत्न नहीं चलता और यह मन्दबुद्धि धनहीन होकर कुटुम्ब के भरण-पोषण में असमर्थ हो
जाता है, तब अत्यन्त दीन और चिन्तातुर होकर लंबी-लंबी साँसे
छोड़ने लगता है। इसे अपने पालन-पोषण में असमर्थ देखकर वे स्त्री-पुत्रादि इसका
पहले के समान आदर नहीं करते, जैसे कृपण किसान बूढ़े बैल की
उपेक्षा कर देते हैं। फिर भी इसे वैराग्य नहीं होता। जिन्हें उसने स्वयं पाला था,
वे ही अब उसका पालन करते हैं, वृद्धावस्था के
कारण इसका रूप बिगड़ जाता है, शरीर रोगी हो जाता है, अग्नि मन्द पड़ जाती है, भोजन और पुरुषार्थ दोनों ही
कम हो जाते हैं। वह मरणोन्मुख होकर घर में पड़ा रहता है और कुत्ते की भाँति
स्त्री-पुत्रादि के अपमानपूर्वक दिये हुए टुकड़े खाकर जीवन-निर्वाह करता है।
मृत्यु का समय निकट आने पर वायु के उत्क्रमण से इसकी पुतलियाँ चढ़ जाती हैं,
श्वास-प्रश्वास की नलिकाएँ कफ से रुक जाती हैं, खाँसने और साँस लेने में भी इसे बड़ा कष्ट होता है तथा कफ बढ़ जाने के
कारण कण्ठ में घुरघुराहट होने लगती है।
शयानः परिशोचद्भिः परिवीतः
स्वबन्धुभिः ।
वाच्यमानोऽपि न ब्रूते कालपाशवशं
गतः ॥ १७ ॥
एवं कुटुम्बभरणे
व्यापृतात्माजितेन्द्रियः ।
म्रियते रुदतां स्वानां
उरुवेदनयास्तधीः ॥ १८ ॥
यमदूतौ तदा प्राप्तौ भीमौ
सरभसेक्षणौ ।
स दृष्ट्वा त्रस्तहृदयः शकृन्
मूत्रं विमुञ्चति ॥ १९ ॥
यातनादेह आवृत्य पाशैर्बद्ध्वा गले
बलात् ।
नयतो दीर्घमध्वानं दण्ड्यं राजभटा
यथा ॥ २० ॥
तयोर्निर्भिन्नहृदयः
तर्जनैर्जातवेपथुः ।
पथि श्वभिर्भक्ष्यमाण आर्तोऽघं
स्वमनुस्मरन् ॥ २१ ॥
क्षुत्तृट्परीतोऽर्कदवानलानिलैः
सन्तप्यमानः पथि तप्तवालुके ।
कृच्छ्रेण पृष्ठे कशया च ताडितः
चलत्यशक्तोऽपि निराश्रमोदके ॥ २२ ॥
तत्र तत्र पतन्छ्रान्तो मूर्च्छितः
पुनरुत्थितः ।
पथा पापीयसा नीतस्तरसा यमसादनम् ॥
२३ ॥
योजनानां सहस्राणि नवतिं नव चाध्वनः
।
त्रिभिर्मुहूर्तैर्द्वाभ्यां वा
नीतः प्राप्नोति यातनाः ॥ २४ ॥
आदीपनं स्वगात्राणां
वेष्टयित्वोल्मुकादिभिः ।
आत्ममांसादनं क्वापि स्वकृत्तं
परतोऽपि वा ॥ २५ ॥
जीवतश्चान्त्राभ्युद्धारः
श्वगृध्रैर्यमसादने ।
सर्पवृश्चिक दंशाद्यैः दशद्भिश्चात्मवैशसम्
॥ २६ ॥
कृन्तनं चावयवशो गजादिभ्यो भिदापनम्
।
पातनं गिरिशृङ्गेभ्यो रोधनं
चाम्बुगर्तयोः ॥ २७ ॥
यास्तामिस्रान्धतामिस्रा
रौरवाद्याश्च यातनाः ।
भुङ्क्ते नरो वा नारी वा मिथः
सङ्गेन निर्मिताः ॥ २८ ॥
अत्रैव नरकः स्वर्ग इति मातः प्रचक्षते
।
या यातना वै नारक्यः ता
इहाप्युपलक्षिताः ॥ २९ ॥
एवं कुटुम्बं बिभ्राण उदरम्भर एव वा
।
विसृज्येहोभयं प्रेत्य भुङ्क्ते
तत्फलमीदृशम् ॥ ३० ॥
एकः प्रपद्यते ध्वान्तं हित्वेदं
स्वकलेवरम् ।
कुशलेतरपाथेयो भूतद्रोहेण यद् भृतम्
॥ ३१ ॥
दैवेनासादितं तस्य शमलं निरये
पुमान् ।
भुङ्क्ते कुटुम्बपोषस्य हृतवित्त
इवातुरः ॥ ३२ ॥
केवलेन हि अधर्मेण
कुटुम्बभरणोत्सुकः ।
याति जीवोऽन्धतामिस्रं चरमं तमसः
पदम् ॥ ३३ ॥
अधस्तात् नरलोकस्य यावतीर्यातनादयः
।
क्रमशः समनुक्रम्य
पुनरत्राव्रजेच्छुचिः ॥ ३४ ॥
यह अपने शोकातुर बन्धु-बान्धवों से
घिरा हुआ पड़ा रहता है और मृत्युपाश के वशीभूत हो जाने से उनके बुलाने पर भी नहीं
बोल सकता। इस प्रकार जो मूढ़ पुरुष इन्द्रियों को न जीतकर निरन्तर कुटुम्ब-पोषण
में ही लगा रहता है, वह रोते हुए
स्वजनों के बीच अत्यन्त वेदना से अचेत होकर मृत्यु को प्राप्त होता है। इस अवसर पर
उसे लेने के लिये अति भयंकर और रोषयुक्त नेत्रों वाले जो दो यमदूत आते हैं,
उन्हें देखकर वह भय के कारण मल-मूत्र कर देता है। वे यमदूत उसे
यातनादेह में डाल देते हैं और फिर जिस प्रकार सिपाही किसी अपराधी को ले जाते हैं,
उसी प्रकार उसके गले में रस्सी बाँधकर बलात् यमलोक की लंबी यात्रा
में उसे ले जाते हैं।
उनकी घुड़कियों से उसका हृदय फटने
और शरीर काँपने लगता है, मार्ग में उसे
कुत्ते नोचते हैं। उस समय अपने पापों को याद करके वह व्याकुल हो उठता है।
भूख-प्यास उसे बेचैन कर देती है तथा घाम, दावानल और लूओं से
वह तप जाता है। ऐसी अवस्था में जल और विश्रामस्थान से रहित उस तप्तबालुकामय मार्ग
में जब उसे एक पग आगे बढ़ने की ही शक्ति नहीं रहती, यमदूत
उसकी पीठ पर कोड़े बरसाते हैं, तब बड़े कष्ट से उसे चलना ही
पड़ता है। वह जहाँ-तहाँ थककर गिर जाता है, मूर्च्छा आ जाती
है, चेतना आने पर फिर उठता है। इस प्रकार अति दुःखमय अँधेरे
मार्ग से अत्यन्त क्रूर यमदूत उसे शीघ्रता से यमपुरी को ले जाते हैं। यमलोक का
मार्ग निन्यानबे हजार योजन है। इतने लम्बे मार्ग को दो-ही-तीन मुहूर्त में तय करके
वह नरक में तरह-तरह की यातनाएँ भोगता है। वहाँ उसके शरीर को धधकती लकड़ियों आदि के
बीच में डालकर जलाया जाता है, कहीं स्वयं और दूसरों के
द्वारा काट-काटकर उसे अपना ही मांस खिलाया जाता है। यमपुरी के कुत्तों अथवा
गिद्धों द्वारा जीते-जी उसकी आँतें खींची जाती हैं। साँप, बिच्छू
और डांस आदि डसने वाले तथा डंक मारने वाले जीवों से शरीर को पीड़ा पहुँचायी जाती
है। शरीर को काटकर टुकड़े-टुकड़े किये जाते हैं। उसे हाथियों से चिरवाया जाता है,
पर्वत शिखरों से गिराया जाता है अथवा जल या गढ़े में डालकर बन्द कर
दिया जाता है। ये सब यातनाएँ तथा इसी प्रकार तामिस्त्र, अन्धतामिस्त्र
एवं रौरव आदि नरकों की और भी अनेकों यन्त्रणाएँ, स्त्री हो
या पुरुष, उस जीव को पारस्परिक संसर्ग से होने वाले पाप के
कारण भोगनी ही पड़ती हैं।
माताजी! कुछ लोगों का कहना है कि
स्वर्ग और नरक तो इसी लोक में हैं, क्योंकि
जो नारकी यातनाएँ हैं, वे यहाँ भी देखी जाती हैं। इस प्रकार
अनेक कष्ट भोगकर अपने कुटुम्ब का ही पालन करने वाला अथवा केवल अपना ही पेट भरने
वाला पुरुष उन कुटुम्ब और शरीर-दोनों को यहीं छोड़कर मरने के बाद अपने किये हुए
पापों का ऐसा फल भोगता है। अपने इस शरीर को यही छोड़कर प्राणियों से द्रोह करके
एकत्रित किये हुए पापरूप पाथेय को साथ लेकर वह अकेला ही नरक में जाता है। मनुष्य
अपन कुटुम्ब का पेट पालने में जो अन्याय करता है, उसका
दैवविहित कुफल वह नरक में जाकर भोगता है। उस समय वह ऐसा व्याकुल होता है, मानो उसका सर्वस्व लुट गया हो। जो पुरुष निरी पाप की कमाई से ही अपने परिवार
का पालन करने में व्यस्त रहता है, वह अन्धतामिस्त्र नरक में
जाता है-जो नरकों में चरम सीमा का कष्टप्रद स्थान है। मनुष्य-जन्म मिलने के पूर्व
जितनी भी यातनाएँ हैं तथा शूकर-कुकरादि योनियों के जितने कष्ट हैं, उन सबको क्रम से भोगकर शुद्ध हो जाने पर वह फिर मनुष्य योनि में जन्म लेता
है।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३० ॥
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