श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय २९

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध अध्याय २९

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध अध्याय २९"भक्ति का मर्म और काल की महिमा"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय २९

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्धः एकोनत्रिंश: अध्यायः

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः अध्यायः २९

श्रीमद्भागवत महापुराण तीसरा स्कन्ध उनत्तीसवाँ अध्याय

तृतीय स्कन्ध: · श्रीमद्भागवत महापुराण        

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध अध्याय २९ श्लोक का हिन्दी अनुवाद

देवहूतिरुवाच -

लक्षणं महदादीनां प्रकृतेः पुरुषस्य च ।

स्वरूपं लक्ष्यतेऽमीषां येन तत्पारमार्थिकम् ॥ १ ॥

यथा साङ्ख्येषु कथितं यन्मूलं तत्प्रचक्षते ।

भक्तियोगस्य मे मार्गं ब्रूहि विस्तरशः प्रभो ॥ २ ॥

विरागो येन पुरुषो भगवन् सर्वतो भवेत् ।

आचक्ष्व जीवलोकस्य विविधा मम संसृतीः ॥ ३ ॥

कालस्येश्वररूपस्य परेषां च परस्य ते ।

स्वरूपं बत कुर्वन्ति यद्धेतोः कुशलं जनाः ॥ ४ ॥

लोकस्य मिथ्याभिमतेरचक्षुषः

     चिरं प्रसुप्तस्य तमस्यनाश्रये ।

श्रान्तस्य कर्मस्वनुविद्धया धिया

     त्वमाविरासीः किल योगभास्करः ॥ ५ ॥

देवहूति ने पूछा ;- प्रभो! प्रकृति, पुरुष और महत्तत्त्वादि का जैसा लक्षण सांख्यशास्त्र में कहा गया है तथा जिसके द्वारा उनका वास्तविक स्वरूप अलग-अलग जाना जाता है और भक्तियोग को ही जिसका प्रयोजन कहा गया है, वह आपने मुझे बताया। अब कृपा करके भक्तियोग का मार्ग मुझे विस्तारपूर्वक बताइये। इसके सिवा जीवों की जन्म-मरणरूपा अनेक प्रकार की गतियों का भी वर्णन कीजिये; जिनके सुनने से जीव को सब प्रकार की वस्तुओं से वैराग्य होता है। जिसके भय से लोग शुभ कर्मों में प्रवृत्त होते हैं और जो ब्रह्मादि का भी शासन करने वाला है, उस सर्वसमर्थ काल का स्वरूप भी आप मुझसे कहिये। ज्ञानदृष्टि के लुप्त हो जाने के कारण देहादि मिथ्या वस्तुओं में जिन्हें आत्माभिमान हो गया तथा बुद्धि के कर्मासक्त रहने के कारण अत्यन्त श्रमिक होकर जो चिरकाल से अपार अन्धकारमय संसार में सोये पड़े हैं, उन्हें जगाने के लिये आप योगप्रकाशक सूर्य ही प्रकट हुए हैं।

मैत्रेय उवाच ।

(अनुष्टुप्)

इति मातुर्वचः श्लक्ष्णं प्रतिनन्द्य महामुनिः ।

आबभाषे कुरुश्रेष्ठ प्रीतस्तां करुणार्दितः ॥ ६ ॥

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- कुरुश्रेष्ठ विदुर जी! माता के ये मनोहर वचन सुनकर महामुनि कपिल जी ने उनकी प्रशंसा की और जीवों के प्रति दया से द्रवित हो बड़ी प्रसन्नता के साथ उनसे इस प्रकार बोले-

श्रीभगवानुवाच -

भक्तियोगो बहुविधो मार्गैर्भामिनि भाव्यते ।

स्वभावगुणमार्गेण पुंसां भावो विभिद्यते ॥ ७ ॥

अभिसन्धाय यो हिंसां दम्भं मात्सर्यमेव वा ।

संरम्भी भिन्नदृग्भावं मयि कुर्यात्स तामसः ॥ ८ ॥

विषयान् अभिसन्धाय यश ऐश्वर्यमेव वा ।

अर्चादौ अर्चयेद्यो मां पृथग्भावः स राजसः ॥ ९ ॥

कर्मनिर्हारमुद्दिश्य परस्मिन् वा तदर्पणम् ।

यजेद् यष्टव्यमिति वा पृथग्भावः स सात्त्विकः ॥ १० ॥

मद्‍गुणश्रुतिमात्रेण मयि सर्वगुहाशये ।

मनोगतिः अविच्छिन्ना यथा गङ्गाम्भसोऽम्बुधौ ॥ ११ ॥

लक्षणं भक्तियोगस्य निर्गुणस्य ह्युदाहृतम् ।

अहैतुक्यव्यवहिता या भक्तिः पुरुषोत्तमे ॥ १२ ॥

सालोक्यसार्ष्टिसामीप्य सारूप्यैकत्वमप्युत ।

दीयमानं न गृह्णन्ति विना मत्सेवनं जनाः ॥ १३ ॥

स एव भक्तियोगाख्य आत्यन्तिक उदाहृतः ।

येनातिव्रज्य त्रिगुणं मद्‍भावायोपपद्यते ॥ १४ ॥

निषेवितेनानिमित्तेन स्वधर्मेण महीयसा ।

क्रियायोगेन शस्तेन नातिहिंस्रेण नित्यशः ॥ १५ ॥

मद्धिष्ण्य दर्शनस्पर्श पूजास्तुति अभिवन्दनैः ।

भूतेषु मद्‍भावनया सत्त्वेनासङ्गमेन च ॥ १६ ॥

महतां बहुमानेन दीनानां अनुकम्पया ।

मैत्र्या चैवात्मतुल्येषु यमेन नियमेन च ॥ १७ ॥

आध्यात्मिकानुश्रवणात् नामसङ्कीर्तनाच्च मे ।

आर्जवेनार्यसङ्गेन निरहङ्‌क्रियया तथा ॥ १८ ॥

मद् धर्मणो गुणैः एतैः परिसंशुद्ध आशयः ।

पुरुषस्याञ्जसाभ्येति श्रुतमात्रगुणं हि माम् ॥ १९ ॥

श्रीभगवान् ने कहा ;- माताजी! साधकों के भाव के अनुसार भक्तियोग का अनेक प्रकार से प्रकाश होता है, क्योंकि स्वभाव और गुणों के भेद से मनुष्यों के भाव में भी विभिन्नता आ जाती है। जो भेददर्शी क्रोधी पुरुष हृदय में हिंसा, दम्भ अथवा मात्सर्य का भाव रखकर मुझसे प्रेम करता है, वह मेरा तामस भक्त है। जो पुरुष विषय, यश और ऐश्वर्य की कामना से प्रतिमादि में मेरा भेदभाव से पूजन करता है, वह राजस भक्त है। जो व्यक्ति पापों का क्षय करने के लिये, परमात्मा को अर्पण करने के लिये और मेरा पूजन करना कर्तव्य है-इस बुद्धि से मेरा भेदभाव से पूजन करता है, वह सात्त्विक भक्त है। जिस प्रकार गंगा का प्रवाह अखण्ड रूप से समुद्र की ओर बहता रहता है, उसी प्रकार मेरे गुणों के श्रवणमात्र से मन की गति का तैल धारावत् अविच्छिन्न रूप से मुझ सर्वान्तर्यामी के प्रति हो जाना तथा मुझ पुरुषोत्तम में निष्काम और अनन्य प्रेम होना-यह निर्गुण भक्तियोग का लक्षण कहा गया है। ऐसे निष्काम भक्त, दिये जाने पर भी, मेरी सेवा को छोड़कर सालोक्य, सार्ष्टि,और सायुज्य मोक्ष तक नहीं लेते-भगवत् सेवा के लिये मुक्ति का तिरस्कार करने वाला यह भक्तियोग ही परम पुरुषार्थ अथवा साध्य कहा गया है। इसके द्वारा पुरुष तीनों गुणों को लाँघकर मेरे भाव-मेरे प्रेमरूप अप्राकृत स्वरूप को प्राप्त हो जाता है।

निष्कामभाव से श्रद्धापूर्वक अपने नित्य-नैमित्तिक कर्तव्यों का पालन कर, नित्यप्रति हिंसारहित उत्तम क्रियायोग का अनुष्ठान करने, मेरी प्रतिमा का दर्शन, स्पर्श, पूजा, स्तुति और वन्दना करने, प्राणियों में मेरी भावना करने, धैर्य और वैराग्य के अवलम्बन, महापुरुषों का मान, दीनों पर दया और समान स्थिति वालों के प्रति मित्रता का व्यवहार करने, यम-नियमों का पालन, अध्यात्म शास्त्रों का श्रवण और मेरे नामों का उच्च स्वर से कीर्तन करने से तथा मन की सरलता, सत्पुरुषों के संग और अहंकार के त्याग से मेरे धर्मों का (भागवत धर्मों का) अनुष्ठान करने वाले भक्तपुरुष का चित्त अत्यन्त शुद्ध होकर मेरे गुणों के श्रवणमात्र से अनायास ही मुझमें लग जाता है।

यथा वातरथो घ्राणं आवृङ्क्ते गन्ध आशयात् ।

एवं योगरतं चेत आत्मानं अविकारि यत् ॥ २० ॥

अहं सर्वेषु भूतेषु भूतात्मावस्थितः सदा ।

तं अवज्ञाय मां मर्त्यः कुरुतेऽर्चाविडम्बनम् ॥ २१ ॥

यो मां सर्वेषु भूतेषु सन्तमात्मानमीश्वरम् ।

हित्वार्चां भजते मौढ्याद् भस्मन्येव जुहोति सः ॥ २२ ॥

द्विषतः परकाये मां मानिनो भिन्नदर्शिनः ।

भूतेषु बद्धवैरस्य न मनः शान्तिमृच्छति ॥ २३ ॥

अहमुच्चावचैर्द्रव्यैः क्रिययोत्पन्नयानघे ।

नैव तुष्येऽर्चितोऽर्चायां भूतग्रामावमानिनः ॥ २४ ॥

अर्चादौ अर्चयेत्तावद् ईश्वरं मां स्वकर्मकृत् ।

यावन्न वेद स्वहृदि सर्वभूतेष्ववस्थितम् ॥ २५ ॥

आत्मनश्च परस्यापि यः करोत्यन्तरोदरम् ।

तस्य भिन्नदृशो मृत्युः विदधे भयमुल्बणम् ॥ २६ ॥

अथ मां सर्वभूतेषु भूतात्मानं कृतालयम् ।

अर्हयेद् दानमानाभ्यां मैत्र्याभिन्नेन चक्षुषा ॥ २७ ॥

जीवाः श्रेष्ठा हि अजीवानां ततः प्राणभृतः शुभे ।

ततः सचित्ताः प्रवराः ततश्चेन्द्रियवृत्तयः ॥ २८ ॥

तत्रापि स्पर्शवेदिभ्यः प्रवरा रसवेदिनः ।

तेभ्यो गन्धविदः श्रेष्ठाः ततः शब्दविदो वराः ॥ २९ ॥

रूपभेदविदस्तत्र ततश्चोभयतोदतः ।

तेषां बहुपदाः श्रेष्ठाः चतुष्पादस्ततो द्विपात् ॥ ३० ॥

ततो वर्णाश्च चत्वारः तेषां ब्राह्मण उत्तमः ।

ब्राह्मणेष्वपि वेदज्ञो हि, अर्थज्ञोऽभ्यधिकस्ततः ॥ ३१ ॥

अर्थज्ञात्संशयच्छेत्ता ततः श्रेयान् स्वकर्मकृत् ।

मुक्तसङ्गस्ततो भूयात् अदोग्धा धर्ममात्मनः ॥ ३२ ॥

जिस प्रकार वायु के द्वारा उड़कर जाने वाला गन्ध अपने आश्रय पुष्प से घ्राणेन्द्रिय तक पहुँच जाता है, उसी प्रकार भक्तियोग में तत्पर और राग-द्वेषादि विकारों से शून्यचित्त परमात्मा को प्राप्त कर लेता है। मैं आत्मारूप से सदा सभी जीवों में स्थित हूँ; इसलिये जो लोग मुझ सर्वभूत स्थित परमात्मा का अनादर करके केवल प्रतिमा में ही मेरा पूजन करते हैं, उनकी वह पूजा स्वाँग मात्र है। मैं सबका आत्मा, परमेश्वर सभी भूतों में स्थित हूँ; ऐसी दशा में जो मोहवश मेरी उपेक्षा करके केवल प्रतिमा के पूजन में ही लगा रहता है, वह तो मानो भस्म में ही हवन करता है। जो भेददर्शी और और अभिमानी पुरुष दूसरे जीवों के साथ वैर बाँधता है और इस प्रकार उनके शरीरों में विद्यमान मुझ आत्मा से ही द्वेष करता है, उसके मन को कभी शान्ति नहीं मिलती।

माताजी! जो दूसरे जीवों का अपमान करता है, वह बहुत-सी घटिया-बढ़िया सामग्रियों से अनेक प्रकार के विधि-विधान के साथ मेरी मूर्ति का पूजन भी करे तो भी मैं उससे प्रसन्न नहीं हो सकता। मनुष्य अपने धर्म का अनुष्ठान करता हुआ तब तक मुझ ईश्वर की प्रतिमा आदि में पूजा करता रहे, जब तक उसे अपने हृदय में एवं सम्पूर्ण प्राणियों में स्थित परमात्मा का अनुभव न हो जाये। जो व्यक्ति आत्मा और परमात्मा के बीच में थोड़ा-सा भी अन्तर करता है, उस भेददर्शी को मैं मृत्युरूप महान् भय उपस्थित करता हूँ। अतः सम्पूर्ण प्राणियों के भीतर घर बनाकर उन प्राणियों के ही रूप में स्थित मुझ परमात्मा का यथायोग्य दान, मान, मित्रता के व्यवहार तथा समदृष्टि के द्वरा पूजन करना चाहिये।

माताजी! पाषाणादि अचेतनों की अपेक्षा वृक्षादि जीव श्रेष्ठ हैं, उनसे साँस लेने वाले प्राणी श्रेष्ठ हैं, उनमें भी मन वाले प्राणी उत्तम और उनसे इन्द्रिय की वृत्तियों से युक्त प्राणी श्रेष्ठ हैं। सेन्द्रिय प्राणियों में ही केवल स्पर्श का अनुभव करने वालों की अपेक्षा रस का ग्रहण कर सकने वाले मत्स्यादि उत्कृष्ट हैं तथा रसवेत्ताओं की अपेक्षा गन्ध का अनुभव करने वाले (भ्रमरादि) और गन्ध का ग्रहण करने वालों से भी शब्द का ग्रहण करने वाले (सर्पादि) श्रेष्ठ हैं। उनसे भी रूप का अनुभव करने वाले (काकादि) उत्तम हैं और उनकी अपेक्षा जिनके ऊपर-नीचे दोनों ओर दाँत होते हैं, वे जीव श्रेष्ठ हैं। उनमें भी बिना पैर वालों से बहुत-से चरणों वाले श्रेष्ठ हैं तथा बहुत चरणों वालों से भी दो चरण वाले मनुष्य श्रेष्ठ हैं। मनुष्यों में भी चार वर्ण श्रेष्ठ हैं; उसमें भी ब्राह्मण श्रेष्ठ है। ब्राह्मणों में वेद को जानने वाले उत्तम हैं और वेदज्ञों में भी वेद का तात्पर्य जानने वाले श्रेष्ठ हैं। तात्पर्य जानने वालों से संशय निवारण करने वाले, उनसे भी अपने वर्णाश्रमोचित धर्म का पालन करने वाले तथा उनसे भी आसक्ति का त्याग और अपने धर्म का निष्कामभाव से आचरण करने वाले श्रेष्ठ हैं।

तस्मान्मय्यर्पिताशेष क्रियार्थात्मा निरन्तरः ।

मय्यर्पितात्मनः पुंसो मयि सन्न्यस्तकर्मणः ।

न पश्यामि परं भूतं अकर्तुः समदर्शनात् ॥ ३३ ॥

मनसैतानि भूतानि प्रणमेद्‍बहुमानयन् ।

ईश्वरो जीवकलया प्रविष्टो भगवानिति ॥ ३४ ॥

भक्तियोगश्च योगश्च मया मानव्युदीरितः ।

ययोरेकतरेणैव पुरुषः पुरुषं व्रजेत् ॥ ३५ ॥

एतद्‍भगवतो रूपं ब्रह्मणः परमात्मनः ।

परं प्रधानं पुरुषं दैवं कर्मविचेष्टितम् ॥ ३६ ॥

रूपभेदास्पदं दिव्यं काल इत्यभिधीयते ।

भूतानां महदादीनां यतो भिन्नदृशां भयम् ॥ ३७ ॥

योऽन्तः प्रविश्य भूतानि भूतैरत्त्यखिलाश्रयः ।

स विष्ण्वाख्योऽधियज्ञोऽसौ कालः कलयतां प्रभुः ॥ ३८ ॥

न चास्य कश्चिद् दयितो न द्वेष्यो न च बान्धवः ।

आविशत्यप्रमत्तोऽसौ प्रमत्तं जनमन्तकृत् ॥ ३९ ॥

यद्‍भयाद् वाति वातोऽयं सूर्यस्तपति यद्‍भयात् ।

यद्‍भयाद् वर्षते देवो भगणो भाति यद्‍भयात् ॥ ४० ॥

यद् वनस्पतयो भीता लताश्चौषधिभिः सह ।

स्वे स्वे कालेऽभिगृह्णन्ति पुष्पाणि च फलानि च ॥ ४१ ॥

स्रवन्ति सरितो भीता नोत्सर्पत्युदधिर्यतः ।

अग्निरिन्धे सगिरिभिः भूर्न मज्जति यद्‍भयात् ॥ ४२ ॥

नभो ददाति श्वसतां पदं यन्नियमाददः ।

लोकं स्वदेहं तनुते महान् सप्तभिरावृतम् ॥ ४३ ॥

गुणाभिमानिनो देवाः सर्गादिष्वस्य यद्‍भयात् ।

वर्तन्तेऽनुयुगं येषां वश एतच्चराचरम् ॥ ४४ ॥

सोऽनन्तोऽन्तकरः कालो अनादिरादिकृदव्ययः ।

जनं जनेन जनयन् मारयन् मृत्युनान्तकम् ॥ ४५ ॥

उनकी अपेक्षा भी जो लोग अपने सम्पूर्ण कर्म, उनके फल तथा अपने शरीर को भी मुझे ही अर्पण करके भेदभाव छोड़कर मेरी उपासना करते हैं, वे श्रेष्ठ हैं। इस प्रकार मुझे ही चित्त और कर्म समर्पण करने वाले अकर्ता और समदर्शी पुरुष से बढ़कर मुझे कोई अन्य प्राणी नहीं दीखता। अतः यह मानकर कि जीवरूप अपने अंश से साक्षात् भगवान् ही सबमें अनुगत हैं, इस समस्त प्राणियों को बड़े आदर के साथ मन से प्रणाम करे।

माताजी! इस प्रकार मैंने तुम्हारे लिये भक्तियोग और अष्टांगयोग का वर्णन किया। इसमें से एक का भी साधन करने से जीव परमपुरुष भगवान् को प्राप्त कर सकता है। भगवान् परमात्मा परब्रह्म का अद्भुत प्रभाव सम्पन्न तथा जागतिक पदार्थों के नानाविध वैचित्र्य का हेतुभूत स्वरूपविशेष ही कालनाम से विख्यात है। प्रकृति और पुरुष इसी के रूप हैं तथा इनसे यह पृथक् भी है। नाना प्रकार के कर्मों का मूल अदृष्ट भी यही है तथा इसी से महत्तत्त्वादि के अभिमानी भेददर्शी प्राणियों को सदा भय लगा रहता है। जो सबका आश्रय होने के कारण समस्त प्राणियों में अनुप्रविष्ट होकर भूतों द्वारा ही उनका संहार करता है, वह जगत् का शासन करने वाले ब्रह्मादि का भी प्रभु भगवान् काल ही यज्ञों का फल देने वाला विष्णु है।

इसका न तो कोई मित्र है न कोई शत्रु और न तो कोई सगा-सम्बन्धी ही है। यह सर्वदा सजग रहता है और अपने स्वरूपभूत श्रीभगवान् को भूलकर भोगरूप प्रमाद में पड़े हुए प्राणियों पर आक्रमण करके उनका संहार करता है। इसी के भय से वायु चलता है, इसी के भय से सूर्य तपता है, इसी के भय से इन्द्र वर्षा करते हैं और इसी के भय से तारे चमकते हैं। इसी से भयभीत होकर ओषधियों के सहित लताएँ और सारी वनस्पतियाँ समय-समय पर फल-फूल धारण करती हैं। इसी के डर से नदियाँ बहती हैं और समुद्र अपनी मर्यादा से बाहर नहीं जाता। इसी के भय से अग्नि प्रज्वलित होती है और पर्वतों के सहित पृथ्वी जल में नहीं डूबती। इसी के शासन से यह आकाश जीवित प्राणियों को श्वास-प्रश्वास के लिये अवकाश देता है और महत्तत्त्व अहंकाररूप शरीर का सात आवरणों से युक्त ब्राह्मण के रूप में विस्तार करता है।

इस काल के ही भय से सत्त्वादि गुणों के नियामक विष्णु आदि देवगण, जिनके अधीन यह सारा चराचर जगत् है, अपने जगत्-रचना आदि कार्यों में युगक्रम से तत्पर रहते हैं। यह अविनाशी काल स्वयं अनादि किन्तु दूसरों का आदिकर्ता (उत्पादक) है तथा स्वयं अनन्त होकर भी दूसरों का अन्त करने वाला है। यह पिता से पुत्र की उत्पत्ति कराता हुआ सारे जगत् की रचना करता है और अपनी संहार शक्ति मृत्यु के द्वारा यमराज को भी मरवाकर इसका अन्त कर देता है।

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे एकोनत्रिंशोऽध्यायः ॥ २९ ॥

No comments:

Post a Comment

Please do not enter any spam link in the comment box