श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय २८
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय
२८ "अष्टांगयोग की विधि"
श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्धः अष्टाविंश: अध्यायः
श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ३
अध्यायः २८
श्रीमद्भागवत महापुराण तीसरा स्कन्ध
अट्ठाईसवाँ अध्याय
तृतीय
स्कन्ध: ·
श्रीमद्भागवत महापुराण
श्रीमद्भागवत
महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय २८ श्लोक का हिन्दी अनुवाद
श्रीभगवानुवाच -
योगस्य लक्षणं वक्ष्ये सबीजस्य
नृपात्मजे ।
मनो येनैव विधिना प्रसन्नं याति
सत्पथम् ॥ १ ॥
स्वधर्माचरणं शक्त्या विधर्माच्च
निवर्तनम् ।
दैवाल्लब्धेन सन्तोष आत्मवित्
चरणार्चनम् ॥ २ ॥
ग्राम्यधर्मनिवृत्तिश्च
मोक्षधर्मरतिस्तथा ।
मितमेध्यादनं शश्वद्
विविक्तक्षेमसेवनम् ॥ ३ ॥
अहिंसा सत्यमस्तेयं यावदर्थपरिग्रहः
।
ब्रह्मचर्यं तपः शौचं स्वाध्यायः
पुरुषार्चनम् ॥ ४ ॥
मौनं सदाऽऽसनजयः स्थैर्यं प्राणजयः शनैः
।
प्रत्याहारश्चेन्द्रियाणां
विषयान्मनसा हृदि ॥ ५ ॥
स्वधिष्ण्यानां एकदेशे मनसा
प्राणधारणम् ।
वैकुण्ठलीलाभिध्यानं समाधानं
तथात्मनः ॥ ६ ॥
एतैः अन्यैश्च पथिभिः मनो
दुष्टमसत्पथम् ।
बुद्ध्या युञ्जीत शनकैः जितप्राणो
ह्यतन्द्रितः ॥ ७ ॥
शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य विजितासन
आसनम् ।
तस्मिन् स्वस्ति समासीन ऋजुकायः
समभ्यसेत् ॥ ८ ॥
प्राणस्य शोधयेन्मार्गं
पूरकुम्भकरेचकैः ।
प्रतिकूलेन वा चित्तं यथा स्थिरं
अचञ्चलम् ॥ ९ ॥
मनोऽचिरात्स्याद् विरजं जितश्वासस्य
योगिनः ।
वाय्वग्निभ्यां यथा लोहं ध्मातं
त्यजति वै मलम् ॥ १० ॥
प्राणायामैः दहेद् दोषान्
धारणाभिश्च किल्बिषान् ।
प्रत्याहारेण संसर्गान् ध्यानेनान्
ईश्वरान्गुणान् ॥ ११ ॥
यदा मनः स्वं विरजं योगेन
सुसमाहितम् ।
काष्ठां भगवतो ध्यायेत्
स्वनासाग्रावलोकनः ॥ १२ ॥
प्रसन्नवदनाम्भोजं
पद्मगर्भारुणेक्षणम् ।
नीलोत्पलदलश्यामं शङ्खचक्रगदाधरम् ॥
१३ ॥
लसत्पङ्कज किञ्जल्क पीतकौशेयवाससम्
।
श्रीवत्सवक्षसं भ्राजत्
कौस्तुभामुक्तकन्धरम् ॥ १४ ॥
मत्तद्विरेफकलया परीतं वनमालया ।
परार्ध्यहारवलय किरीटाङ्गदनूपुरम् ॥
१५ ॥
काञ्चीगुणोल्लसत् श्रोणिं
हृदयाम्भोजविष्टरम् ।
दर्शनीयतमं शान्तं मनोनयन वर्धनम् ॥
१६ ॥
कपिल भगवान् कहते हैं ;-
माताजी! अब मैं तुम्हें सबीज (धयेयस्वरूप के आलम्बन से युक्त) योग
का लक्षण बताता हूँ, जिसके द्वारा चित्त शुद्ध एवं प्रसन्न
होकर परमात्मा के मार्ग में प्रवृत्त हो जाता है। यशाशक्ति शास्त्रविहित स्वधर्म
का पालन करना तथा शास्त्रविरुद्ध आचरण का परित्याग करना, प्रारब्ध
के अनुसार जो कुछ मिल जाये, उसी में सन्तुष्ट रहना
आत्मज्ञानियों के चरणों की पूजा करना, विषय-वासनाओं को
बढ़ाने वाले कर्मों से दूर रहना, संसारबन्धन से छुड़ाने वाले
धर्मों में प्रेम करना, पवित्र और परिमित भोजन करना, निरन्तर एकान्त और निर्भय स्थान में रहना, मन,
वाणी और शरीर से किसी जीव को न सताना, सत्य
बोलना, चोरी न करना, आवश्यकता से अधिक
वस्तुओं का संग्रह न करना, ब्रह्मचर्य का पालन करना, तपस्या करना (धर्मपालन के लिये कष्ट सहना), बाहर-भीतर
से पवित्र रहना, शास्त्रों का अध्ययन करना, भगवान् की पूजा करना, वाणी का संयम करना, उत्तम आसनों का अभ्यास करके स्थिरतापूर्वक बैठना, धीरे-धीरे
प्राणायाम के द्वारा श्वास को जीतना, इन्द्रियों को मन के
द्वारा विषयों से हटाकर अपने हृदय में ले जाना। मूलाधार आदि किसी एक केन्द्र में
मन के सहित प्राणों को स्थिर करना, निरन्तर भगवान् की लीलाओं
का चिन्तन और चित्त को समाहित करना। उनसे तथा व्रत-दानादि दूसरे साधनों से भी
सावधानी के साथ प्राणों को जीतकर बुद्धि के द्वारा अपने कुमार्गगामी दुष्टचित्त को
धीरे-धीरे एकाग्र करे, परमात्मा के ध्यान में लगावे।
पहले आसन को जीते,
फिर प्राणायाम के अभ्यास के लिये पवित्र देश में कुश-मृगचर्मादि
युक्त आसन बिछावे। उस पर शरीर को सीधा और स्थिर रखते हुए सुखपूर्वक बैठकर अभ्यास
करे। आरम्भ में बायें नासिका से पूरक, कुम्भक और रेचक करे,
फिर इसके विपरीत दाहिनी नासिका से प्राणायाम करके प्राण के मार्ग का
शोधन करे-जिससे चित्त स्थिर और निश्चल हो जाये। जिस प्रकार वायु और अग्नि से तपाया
हुआ सोना अपने मल को त्याग देता है, उसी प्रकार जो योगी
प्राण वायु को जीत लेता है, उसका मन बहुत शीघ्र शुद्ध हो
जाता है। अतः योगी को उचित है कि प्राणायाम से वात-पित्तादिजनित दोषों को, धारणा से पापों को, प्रत्याहार से विषयों के सम्बन्ध
को और ध्यान से भगवद्विमुख करने वाले राग-द्वेषादि दुर्गुणों को दूर करे। जब योग
का अभ्यास करते-करते चित्त निर्मल और एकाग्र हो जाये, तब
नासिका के अग्रभाग में दृष्टि जमाकर इस प्रकार भगवान् की मूर्ति का ध्यान करे।
भगवान् का मुखकमल आनन्द से प्रफुल्ल
है,
नेत्र कमलकोश के समान रतनारे हैं, शरीर
नीलकमलदल के समान श्याम हैं; हाथों में शंख, चक्र और गदा धारण किये हैं। कमल की केसर के समान पीला रेशमी वस्त्र लहरा
रहा है, वक्षःस्थल में श्रीवत्स चिह्न है और गले में कौस्तुभ
मणि झिलमिला रही है। वनमाला चरणों तक लटकी हुई है, जिसके
चारों ओर भौंरे सुगन्ध से मतवाले होकर मधुर गुंजार कर रहे हैं; अंग-प्रत्यंग में महामूल्य हार, कंकण, किरीट, भुजबन्ध और नूपुर आदि आभूषण विराजमान हैं।
कमर में करधनी की लड़ियाँ उसकी शोभा बढ़ा रही हैं; भक्तों के
हृदयकमल ही उनके आसन हैं, उनक दर्शनीय श्यामसुन्दरस्वरूप
अत्यन्त शान्त एवं मन और नयनों को आनन्दित करने वाला है।
अपीच्यदर्शनं शश्वत्
सर्वलोकनमस्कृतम् ।
सन्तं वयसि कैशोरे
भृत्यानुग्रहकातरम् ॥ १७ ॥
कीर्तन्यतीर्थयशसं पुण्यश्लोकयशस्करम्
।
ध्यायेद्देवं समग्राङ्गं यावन्न
च्यवते मनः ॥ १८ ॥
स्थितं व्रजन्तमासीनं शयानं वा
गुहाशयम् ।
प्रेक्षणीयेहितं ध्यायेत्
शुद्धभावेन चेतसा ॥ १९ ॥
तस्मिन्लब्धपदं चित्तं
सर्वावयवसंस्थितम् ।
विलक्ष्यैकत्र संयुज्याद् अङ्गे
भगवतो मुनिः ॥ २० ॥
सञ्चिन्तयेद् भगवतश्चरणारविन्दं
वज्राङ्कुशध्वज सरोरुह लाञ्छनाढ्यम् ।
उत्तुङ्गरक्तविलसन् नखचक्रवाल
ज्योत्स्नाभिराहतमहद् हृदयान्धकारम् ॥ २१ ॥
यच्छौचनिःसृतसरित् प्रवरोदकेन ।
तीर्थेन मूर्ध्न्यधिकृतेन शिवः शिवोऽभूत् ।
ध्यातुर्मनःशमलशैलनिसृष्टवज्रं
ध्यायेच्चिरं भगवतश्चरणारविन्दम् ॥ २२ ॥
जानुद्वयं जलजलोचनया जनन्या
लक्ष्म्याखिलस्य सुरवन्दितया विधातुः ।
ऊर्वोर्निधाय करपल्लवरोचिषा यत्
संलालितं हृदि विभोरभवस्य कुर्यात् ॥ २३ ॥
ऊरू सुपर्णभुजयोरधि शोभमानौ
वोजोनिधी अतसिकाकुसुमावभासौ ।
व्यालम्बिपीतवरवाससि वर्तमान
काञ्चीकलापपरिरम्भि नितम्बबिम्बम् ॥ २४ ॥
नाभिह्रदं भुवनकोशगुहोदरस्थं
यत्रात्मयोनिधिषणाखिललोकपद्मम् ।
व्यूढं हरिन्मणिवृषस्तनयोरमुष्य
ध्यायेद् द्वयं विशदहारमयूखगौरम् ॥ २५ ॥
वक्षोऽधिवासमृषभस्य महाविभूतेः
पुंसां मनोनयननिर्वृतिमादधानम् ।
कण्ठं च कौस्तुभमणेरधिभूषणार्थं
कुर्यान्मनस्यखिल लोकनमस्कृतस्य ॥ २६ ॥
बाहूंश्च मन्दरगिरेः परिवर्तनेन
निर्णिक्तबाहुवलयान् अधिलोकपालान् ।
सञ्चिन्तयेद् दशशतारमसह्यतेजः
शङ्खं च तत्करसरोरुहराजहंसम् ॥ २७ ॥
कौमोदकीं भगवतो दयितां स्मरेत
दिग्धामरातिभटशोणितकर्दमेन ।
मालां मधुव्रतवरूथगिरोपघुष्टां
चैत्यस्य तत्त्वममलं मणिमस्य कण्ठे ॥ २८ ॥
उनकी अति सुन्दर किशोर अवस्था है,
वे भक्तों पर कृपा करने के लिये आतुर हो रहे हैं। बड़ी मनोहर झाँकी
है। भगवान् सदा सम्पूर्ण लोकों से वन्दित हैं। उनका पवित्र यश परम कीर्तनीय है और
वे राजा बलि आदि परम यशस्वियों के भी यश को बढ़ाने वाले हैं। इस प्रकार
श्रीनारायणदेव का सम्पूर्ण अंगों के सहित तब तक ध्यान करे, जब
तक चित्त वहाँ से हटे नहीं। भगवान् की लीलाएँ बड़ी दर्शनीय हैं, अतः अपनी रुचि के अनुसार खड़े हुए, चलते हुए,
बैठे हुए, पौढ़े हुए अथवा अन्तर्यामीरूप से
स्थित हुए उनके स्वरूप का विशुद्ध भावयुक्त चित्त से चिन्तन करे। इस प्रकार योगी
जब यह अच्छी तरह देख ले कि भगवद्विग्रह में चित्त की स्थिति हो गयी, तब वह उनके समस्त अंगों में लगे हुए चित्त को विशेष रूप से एक-एक अंग में
लगावे।
भगवान् के चरणकमलों का ध्यान करना
चाहिये। वे वज्र, अंकुश, ध्वजा और कमल के मंगलमय चिह्नों से युक्त हैं तथा अपने उभरे हुए लाल-लाल
शोभामय नखचन्द्रमण्डल की चन्द्रिका से ध्यान करने वालों के हृदय के अज्ञानरूप घोर
अन्धकार को दूर कर देते हैं। इन्हीं की धोवन से नदियों में श्रेष्ठ श्रीगंगा जी
प्रकट हुई थीं, जिनके पवित्र मंगलरूप श्रीमहादेव जी और भी
अधिक मंगलमय हो गये। ये अपना ध्यान करने वालों के पापरूप पर्वतों पर छोड़े हुए
इन्द्र के वज्र के समान हैं। भगवान् के इन चरणकमलों का चिरकाल तक चिन्तन करे।
भवभयहारी अजन्मा श्रीहरि की दोनों पिंडलियों एवं घुटनों का ध्यान करे, जिनको विश्वविधाता ब्रह्मा जी की माता सुरवन्दिता कमललोचना लक्ष्मी जी
अपनी जाँघों पर रखकर अपने कान्तिमान् करकिसलयों की कान्ति से लाड़ लड़ाती रहती
हैं।
भगवान् की जाँघों का ध्यान करे,
जो अलसी के फूल के समन नीलवर्ण और बल की निधि हैं तथा गरुड़ जी की
पीठ पर शोभायमान हैं। भगवान् के नितम्बबिम्ब का ध्यान करे, जो
एड़ी तक लटके हुए पीताम्बर से ढका हुआ है और उस पीताम्बर के ऊपर पहली हुई
सुवर्णमयी करधनी की लड़ियों को आलिंगन कर रहा है। सम्पूर्ण लोकों के आश्रयस्थान
भगवान् के उदर देश में स्थित नाभि सरोवर का ध्यान करे; इसी
में से ब्रह्मा जी का आधारभूत सर्वलोकमय कमल प्रकट हुआ है। फिर प्रभु के श्रेष्ठ
मरकतमणि सदृश दोनों स्तनों का चिन्तन करे, जो वक्षःस्थल पर
पड़े हुए शुभ्र हारों की किरणों से गौरवर्ण जान पड़ते हैं। इसके पश्चात्
पुरुषोत्तम भगवान् के वक्षःस्थल का ध्यान करे, जो महालक्ष्मी
का निवासस्थान और लोगों के मन एवं नेत्रों को आनन्द देने वाला है।
फिर सम्पूर्ण लोकों के वन्दनीय
भगवान् के गले का चिन्तन करे, जो मानो
कौस्तुभ मणि को भी सुशोभित करने के लिये ही उसे धारण करता है। समस्त लोकपालों की
आश्रयभूता भगवान् की चारों भुजाओं का ध्यान करे, जिनमें धारण
किये हुए कंकणादि आभूषण समुद्र मन्थन के समय मन्दराचल की रगड़ से और भी उजले हो
गये हैं। इसी प्रकार जिसके तेज को सहन नहीं किया जा सकता, उस
सहस्र धारों वाले सुदर्शन चक्र का तथा उनके करकमल के राजहंस के समान विराजमान शंख
का चिन्तन करे। फिर विपक्षी वीरों के रुधिर से सनी हुई प्रभु की प्यारी कौमोदकी
गदा का, भौरों के शब्द से गुंजायमान वनमाला का और उनके कण्ठ
में सुशोभित सम्पूर्ण जीवों के निर्मल तत्त्वरूप कौस्तुभ मणि का ध्यान करे।
भृत्यानुकम्पितधियेह गृहीतमूर्तेः
सञ्चिन्तयेद् भगवतो वदनारविन्दम् ।
यद्विस्फुरन् मकरकुण्डलवल्गितेन ।
विद्योतितामलकपोलमुदारनासम् ॥ २९ ॥
यच्छ्रीनिकेतमलिभिः परिसेव्यमानं
भूत्या स्वया कुटिलकुन्तलवृन्दजुष्टम् ।
मीनद्वयाश्रयमधिक्षिपदब्जनेत्रं
ध्यायेन् मनोमयमतन्द्रित उल्लसद्भ्रु ॥ ३०
॥
तस्यावलोकमधिकं कृपयातिघोर
तापत्रयोपशमनाय निसृष्टमक्ष्णोः ।
स्निग्धस्मितानुगुणितं विपुलप्रसादं
ध्यायेच्चिरं विपुलभावनया गुहायाम् ॥ ३१ ॥
हासं हरेरवनताखिललोकतीव्र
शोकाश्रुसागरविशोषणमत्युदारम् ।
सम्मोहनाय रचितं निजमाययास्य
भ्रूमण्डलं मुनिकृते मकरध्वजस्य ॥ ३२ ॥
ध्यानायनं प्रहसितं बहुलाधरोष्ठ
भासारुणायिततनुद्विजकुन्दपङ्क्ति ।
ध्यायेत्स्वदेहकुहरेऽवसितस्य
विष्णोः
भक्त्यार्द्रयार्पितमना न पृथग्दिदृक्षेत् ॥
३३ ॥
एवं हरौ भगवति प्रतिलब्धभावो
भक्त्या द्रवद्धृदय उत्पुलकः प्रमोदात् ।
औत्कण्ठ्यबाष्पकलया मुहुरर्द्यमानः
तच्चापि चित्तबडिशं शनकैर्वियुङ्क्ते ॥ ३४ ॥
मुक्ताश्रयं यर्हि निर्विषयं
विरक्तं
निर्वाणमृच्छति मनः सहसा यथार्चिः ।
आत्मानमत्र पुरुषोऽव्यवधानमेकम्
अन्वीक्षते प्रतिनिवृत्तगुणप्रवाहः ॥ ३५ ॥
भक्तों पर कृपा करने के लिये ही
यहाँ साकाररूप धारण करने वाले श्रीहरि के मुखकमल का ध्यान करे,
जो सुधड़ नासिका से सुशोभित है और झिलमिलाते हुए मकराकृत कुण्डलों
के हिलने से अतिशय प्रकाशमान स्वच्छ कपोलों के कारण बड़ा ही मनोहर जान पड़ता है।
काली-काली घुँघराली अलकावली से
मण्डित भगवान् का मुखमण्डल अपनी छवि के द्वारा भ्रमरों से सेवित कमलकोश का भी
तिरस्कार कर रहा है और उसके कमलसदृश विशाल एवं चंचल नेत्र उस कमलकोश पर उछलते हुए
मछलियों के जोड़े की शोभा को मात कर रहे हैं। उन्नत भ्रूलताओं से सुशोभित भगवान्
के ऐसे मनोहर मुखारविन्द की मन में धारणा करके आलस्यरहित हो उसी का ध्यान करे।
हृदयगुहा में चिरकाल तक भक्तिभाव से भगवान् के नेत्रों की चितवन का ध्यान करना
चाहिये,
जो कृपा से और प्रेमभरी मुस्कान से क्षण-क्षण अधिकाधिक बढ़ती रहती है,
विपुल प्रसाद की वर्षा करती रहती है और भक्तजनों के अत्यन्त घोर
तीनों तापों को शान्त करने के लिये ही प्रकट हुई है।
श्रीहरि का हास्य प्रणतजनों के
तीव्र-से-तीव्र शोक के अश्रु सागर को सुखा देता है और अत्यन्त उदार है। मुनियों के
हित के लिये कामदेव को मोहित करने के लिये ही अपनी माया से श्रीहरि ने अपने
भ्रूमण्डल को बनाया है-उनका ध्यान करना चाहिये। अत्यन्त प्रेमार्द्रभाव से अपने
हृदय में विराजमान श्रीहरि के खिलखिलाकर हँसने का ध्यान करे,
जो वस्तुतः ध्यान के ही योग है तथा जिसमें ऊपर और नीचे के दोनों
होठों की अत्यधिक अरुण कान्ति के कारण उनके कुन्दकली के समान शुभ्र छोटे-छोटे
दाँतों पर लालिमा-सी प्रतीत होने लगी है। इस प्रकार ध्यान में तन्मय होकर उनके
सिवा किसी अन्य पदार्थ को देखने की इच्छा न करे।
इस प्रकार के ध्यान के अभ्यास से
साधक का श्रीहरि में प्रेम हो जाता है, उसका
हृदय भक्ति से द्रवित हो जाता है, शरीर में आनन्दातिरेक के
कारण रोमांच होने लगता है, उत्कण्ठाजनित प्रेमाश्रूओं की
धारा में वह बारम्बार अपने शरीर को नहलाता है और फिर मछली पकड़ने के काँटे के समान
श्रीहरि को अपनी ओर आकर्षित करने के साधनरूप अपने चित्त को भी धीरे-धीरे ध्येय
वस्तु को हटा लेता है। जैसे तेज आदि के चूक जाने पर दीपशिखा अपने कारणरूप
तेजस्-तत्त्व में लीन हो जाती है, वैसे ही आश्रय, विषय और राग से रहित होकर मन शान्त-ब्रह्माकार हो जाता है। इस अवस्था के
प्राप्त होने पर जीव गुण प्रवाहरूप देहादि उपाधि के निवृत्त हो जाने के कारण
ध्याता, ध्येय आदि विभाग से रहित एक अखण्ड परमात्मा को ही
सर्वत्र अनुगत देखता है।
सोऽप्येतया चरमया मनसो निवृत्त्या
तस्मिन् महिम्न्यवसितः सुखदुःखबाह्ये ।
हेतुत्वमप्यसति कर्तरि दुःखयोर्यत्
स्वात्मन्विधत्त उपलब्धपरात्मकाष्ठः ॥ ३६ ॥
देहं च तं न चरमः स्थितमुत्थितं वा
सिद्धो विपश्यति यतोऽध्यगमत्स्वरूपम् ।
दैवादुपेतमथ दैववशादपेतं
वासो यथा परिकृतं मदिरामदान्धः ॥ ३७ ॥
देहोऽपि दैववशगः खलु कर्म यावत्
स्वारम्भकं प्रतिसमीक्षत एव सासुः ।
तं सप्रपञ्चमधिरूढसमाधियोगः
स्वाप्नं पुनर्न भजते प्रतिबुद्धवस्तुः ॥ ३८
॥
(अनुष्टुप्)
यथा पुत्राच्च वित्ताच्च पृथङ्मर्त्यः
प्रतीयते ।
अप्यात्मत्वेनाभिमताद् देहादेः
पुरुषस्तथा ॥ ३९ ॥
यथोल्मुकाद् विस्फुलिङ्गाद्
धूमाद्वापि स्वसम्भवात् ।
अप्यात्मत्वेनाभिमताद् यथाग्निः
पृथगुल्मुकात् ॥ ४० ॥
भूतेन्द्रियान्तःकरणात् प्रधानात्
जीवसंज्ञितात् ।
आत्मा तथा पृथग्द्रष्टा भगवान्
ब्रह्मसंज्ञितः ॥ ४१ ॥
सर्वभूतेषु चात्मानं सर्वभूतानि
चात्मनि ।
ईक्षेतान् अन्यभावेन भूतेष्विव
तदात्मताम् ॥ ४२ ॥
स्वयोनिषु यथा ज्योतिः एकं नाना
प्रतीयते ।
योनीनां गुणवैषम्यात् तथात्मा
प्रकृतौ स्थितः ॥ ४३ ॥
तस्माद् इमां स्वां प्रकृतिं दैवीं
सदसदात्मिकाम् ।
दुर्विभाव्यां पराभाव्य
स्वरूपेणावतिष्ठते ॥ ४४ ॥
योगाभ्यास से प्राप्त हुई चित्त की
इस अविद्यारहित लयरूप निवृत्ति से अपनी सुख-दुःख रहित ब्रह्मरूप महिमा में स्थित
होकर परमात्मतत्त्व का साक्षात्कार कर लेने पर वह योगी जिस सुख-दुःख के भोक्तृत्व
को पहले अज्ञानवश अपने स्वरूप में देखता था, उसे
अब अविद्याकृत अहंकार में ही देखता है। जिस प्रकार मदिरा के मद से मतवाले पुरुष को
अपनी कमर पर लपेटे हुए वस्त्र के रहने या गिरने की कुछ भी सुधि नहीं रहती, उसी प्रकार चरमावस्था को प्राप्त हुए सिद्ध पुरुष को भी अपनी देह के
बैठने-उठने अथवा दैववश कहीं जाने या लौट आने के विषय में कुछ भी ज्ञान नहीं रहता;
क्योंकि वह अपने परमानन्दमयस्वरूप में स्थित है।
उसका शरीर तो पूर्वजन्म के
संस्कारों के अधीन है; अतः जब तक उसका
आरम्भक प्रारब्ध शेष है, तक तक वह इन्द्रियों के सहित जीवित
रहता है; किन्तु जिसे समाधिपर्यन्त योग की स्थिति प्राप्त हो
गयी है और जिसने परमात्मतत्त्व को भी भलीभाँति जान लिया है, वह
सिद्धपुरुष पुत्र-कलत्रादि के सहित इस शरीर को स्वप्न में प्रतीत होने वाले शरीरों
के समान फिर स्वीकार नहीं करता-फिर उसमें अहंता-ममता नहीं करता। जिस प्रकार
अत्यन्त स्नेह के कारण पुत्र और धनादि में भी साधारण जीवों की आत्मबुद्धि रहती है,
किन्तु थोड़ा-सा विचार करने से ही वे उनसे स्पष्टतया अलग दिखायी
देते हैं, उसी प्रकार जिन्हें यह अपना आत्मा मान बैठा है,
उन देहादि से भी उनका साक्षी पुरुष पृथक् ही है। जिस प्रकार जलती
हुई लकड़ी से, चिनगारी से, स्वयं अग्नि
से ही प्रकट हुए धुंएँ से तथा अग्निरूप मानी जाने वाली उस जलती हुई लकड़ी से ही
अग्नि वास्तव में पृथक् ही है-उसी प्रकार भूत, इन्द्रिय और
अन्तःकरण से उनका साक्षी आत्मा अलग है तथा जीव कहलाने वाले उस आत्मा से भी ब्रह्म
भिन्न है और प्रकृति से उसके संचालक पुरुषोत्तम भिन्न हैं।
जिस प्रकार देहदृष्टि से जरायुज,
अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज-चारों प्रकार के
प्राणी पंचभूत मात्र हैं, उसी प्रकार सम्पूर्ण जीवों में
आत्मा को और आत्मा में सम्पूर्ण जीवों को अनन्यभाव से अनुगत देखे। जिस प्रकार एक
ही अग्नि अपने पृथक्-पृथक् आश्रयों में उनकी विभिन्नता के कारण भिन्न-भिन्न आकार
का दिखायी देता है, उसी प्रकार देव-मनुष्यादि शरीरों में
रहने वाला एक ही आत्मा अपने आश्रयों के गुण-भेद के कारण भिन्न-भिन्न प्रकार का
भासता है। अतः भगवान् का भक्त जीव के स्वरूप को छिपा देने वाली कार्यकारणरूप से
परिणाम को प्राप्त हुई भगवान् की इस अचिन्त्य शक्तिमयी माया को भगवान् की कृपा से
ही जीतकर अपने वास्तविक स्वरूप-ब्रह्मरूप में स्थित होता है।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे अष्टाविंशोऽध्यायः ॥ २८ ॥
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