श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय २१
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय
२१ "कर्दम जी की तपस्या और भगवान् का वरदान"
श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्धः एकविंश अध्यायः
श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ३
अध्यायः २१
श्रीमद्भागवत महापुराण तीसरा स्कन्ध
इक्कीसवाँ अध्याय
तृतीय
स्कन्ध: ·
श्रीमद्भागवत महापुराण
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३अध्याय
२१ श्लोक का हिन्दी अनुवाद
विदुर उवाच ।
स्वायम्भुवस्य च मनोः अंशः
परमसम्मतः ।
कथ्यतां भगवन्यत्र मैथुनेनैधिरे
प्रजाः ॥ १ ॥
प्रियव्रतोत्तानपादौ सुतौ
स्वायम्भुवस्य वै ।
यथाधर्मं जुगुपतुः सप्तद्वीपवतीं
महीम् ॥ २ ॥
तस्य वै दुहिता ब्रह्मन् देवहूतीति
विश्रुता ।
पत्नी प्रजापतेरुक्ता कर्दमस्य
त्वयानघ ॥ ३ ॥
तस्यां स वै महायोगी युक्तायां
योगलक्षणैः ।
ससर्ज कतिधा वीर्यं तन्मे शुश्रूषवे
वद ॥ ४ ॥
रुचिर्यो भगवान् ब्रह्मन् दक्षो वा
ब्रह्मणः सुतः ।
यथा ससर्ज भूतानि लब्ध्वा भार्यां च
मानवीम् ॥ ५ ॥
विदुर जी ने पूछा ;-
भगवन्! स्वयाम्भुव मनु का वंश बड़ा आदरणीय माना गया है। उसमें मैथुन
धर्म के द्वारा प्रजा की वृद्धि हुई थी। अब आप मुझे उसी की कथा सुनाइये। बह्मन्!
आपने कहा था कि स्वायम्भुव मनु के पुत्र प्रियव्रत और उत्तानपाद ने सातों द्वीपों
वाली पृथ्वी का धर्मपूर्वक पालन किया था तथा उनकी पुत्री जो देवहूति नाम से
विख्यात थी, कर्दम प्रजापति को ब्याही गयी थी। देवहूति योग
के लक्षण यमादि से सम्पन्न थी, उससे महायोगी कर्दम जी ने
कितनी संतानें उत्पन्न कीं? वह सब प्रसंग आप मुझे सुनाइये,
मुझे उसके सुनने की बड़ी इच्छा है। इसी प्रकार भगवान् रुचि और
ब्रह्मा जी के पुत्र दक्ष प्रजापति ने भी मनु जी की कन्याओं का पाणिग्रहण करके
उनसे किस प्रकार क्या-क्या सन्तान उत्पन्न की, वह सब चरित भी
मुझे सुनाइये।
मैत्रेय उवाच -
प्रजाः सृजेति भगवान् कर्दमो
ब्रह्मणोदितः ।
सरस्वत्यां तपस्तेपे सहस्राणां समा
दश ॥ ६ ॥
ततः समाधियुक्तेन क्रियायोगेन
कर्दमः ।
सम्प्रपेदे हरिं भक्त्या
प्रपन्नवरदाशुषम् ॥ ७ ॥
तावत्प्रसन्नो भगवान् पुष्कराक्षः
कृते युगे ।
दर्शयामास तं क्षत्तः शाब्दं ब्रह्म
दधद्वपुः ॥ ८ ॥
स तं विरजमर्काभं
सितपद्मोत्पलस्रजम् ।
स्निग्धनीलालकव्रात वक्त्राब्जं
विरजोऽम्बरम् ॥ ९ ॥
किरीटिनं कुण्डलिनं शङ्खचक्रगदाधरम्
।
श्वेतोत्पलक्रीडनकं
मनःस्पर्शस्मितेक्षणम् ॥ १० ॥
विन्यस्तचरणाम्भोजं अंसदेशे
गरुत्मतः ।
दृष्ट्वा खेऽवस्थितं वक्षः श्रियं
कौस्तुभकन्धरम् ॥ ११ ॥
जातहर्षोऽपतन्मूर्ध्ना क्षितौ
लब्धमनोरथः ।
गीर्भिस्त्वभ्यगृणात्प्रीति
स्वभावात्मा कृताञ्जलिः ॥ १२ ॥
मैत्रेय जी ने कहा ;-
विदुर जी! जब ब्रह्मा जी ने भगवान् कर्दम को आज्ञा दी कि तुम संतान
उत्पत्ति करो तो उन्होंने दस हजार वर्षों तक सरस्वती नदी के तीर पर तपस्या की। वे
एकाग्रचित्त से प्रेमपूर्वक पूजनोपचार द्वारा शरणागत वरदायक श्रीहरि की आराधना
करने लगे। तब सत्ययुग के आरम्भ में कमलनयन भगवान् श्रीहरि ने उनकी तपस्या से
प्रसन्न होकर उन्हें अपने शब्द ब्रह्ममयस्वरूप से मूर्तिमान् होकर दर्शन दिये।
भगवान् की वह भव्यमूर्ति सूर्य के समान तेजोमयी थी। वे गले में श्वेत कमल और कुमुद
के फूलों की माला धारण किये हुए थे, मुखकमल नीली और चिकनी
अलकावली से सुशोभित था। वे निर्मल वस्त्र धारण किये हुए थे। सिर पर झिलमिलाता हुआ
सुवर्णमय मुकुट, कानों में जगमगाते हुए कुण्डल और करकमलों
में शंख, चक्र, गदा आदि आयुध विराजमान
थे। उनके एक हाथ में क्रीड़ा के लिये श्वेत कमल सुशोभित था। प्रभु की मधुर मुस्कान
भरी चितवन चित्त को चुराये लेती थी। उनके चरणकमल गरुड़ जी के कंधों पर विराजमान थे,
तथा वक्षःस्थल में श्रीलक्ष्मी जी और कण्ठ में कौस्तुभ मणि सुशोभित
थी। प्रभु की इस आकाशास्थित मनोहर मूर्ति का दर्शन करके कर्दम जी को बड़ा हर्ष हुआ,
मानो उनकी सभी कामनाएँ पूर्ण हो गयीं। उन्होंने सानन्दहृदय से
पृथ्वी पर सिर टेककर भगवान् को साष्टांग प्रणाम किया और फिर प्रेमप्रवणचित्त से
हाथ जोड़कर सुमधुर वाणी से वे उनकी स्तुति करने लगे।
ऋषिरुवाच -
जुष्टं बताद्याखिलसत्त्वराशेः
सांसिध्यमक्ष्णोस्तव दर्शनान्नः ।
यद्दर्शनं जन्मभिरीड्य सद्भिः
आशासते योगिनो रूढयोगाः ॥ १३ ॥
ये मायया ते हतमेधसस्त्वत्
पादारविन्दं भवसिन्धुपोतम् ।
उपासते कामलवाय तेषां
रासीश कामान् निरयेऽपि ये स्युः ॥ १४ ॥
तथा स चाहं परिवोढुकामः
समानशीलां गृहमेधधेनुम् ।
उपेयिवान् मूलमशेषमूलं
दुराशयः कामदुघाङ्घ्रिपस्य ॥ १५ ॥
कर्दम जी ने कहा ;-
स्तुति करने योग्य परमेश्वर! आप सम्पूर्ण सत्त्वगुण के आधार हैं।
योगिजन उत्तरोत्तर शुभ योनियों में जन्म लेकर अन्त में योगस्थ होने पर आपके
दर्शनों की इच्छा करते हैं; आज आपका वही दर्शन पाकर हमें
नेत्रों का फल मिल गया। आपके चरणकमल भवसागर से पार जाने के लिये जहाज हैं। जिनकी
बुद्धि आपकी माया से मारी गयी है, वे ही उन तुच्छ क्षणिक
विषय-सुखों के लिये, जो नरक में भी मिल सकते हैं, उन चरणों का आश्रय लेते हैं; किन्तु स्वामिन्! आप तो
उन्हें वे विषय-भोग भी दे देते हैं।
प्रभो! आप कल्पवृक्ष हैं। आपके चरण
समस्त मनोरथों को पूर्ण करने वाले हैं। मेरा हृदय काम-कलुषित है। मैं भी अपने
अनुरूप स्वभाव-वाली और गृहस्थ धर्म के पालन में सहायक शीलवती कन्या से विवाह करने
के लिये आपके चरणकमलों की शरण में आया हूँ।
प्रजापतेस्ते वचसाधीश तन्त्या
लोकः किलायं कामहतोऽनुबद्धः ।
अहं च लोकानुगतो वहामि
बलिं च शुक्लानिमिषाय तुभ्यम् ॥ १६ ॥
लोकांश्च लोकानुगतान् पशूंश्च
हित्वा श्रितास्ते चरणातपत्रम् ।
परस्परं त्वद्गुणवादसीधु
पीयूषनिर्यापितदेहधर्माः ॥ १७ ॥
न तेऽजराक्षभ्रमिरायुरेषां
त्रयोदशारं त्रिशतं षष्टिपर्व ।
षण्नेम्यनन्तच्छदि यत्त्रिणाभि
करालस्रोतो जगदाच्छिद्य धावत् ॥ १८ ॥
एकः स्वयं सन्जगतः सिसृक्षया
अद्वितीययात्मन् अधि योगमायया ।
सृजस्यदः पासि पुनर्ग्रसिष्यसे
यथोर्णनाभिः भगवन् स्वशक्तिभिः ॥ १९ ॥
नैतद्बताधीश पदं तवेप्सितं
यन्मायया नस्तनुषे भूतसूक्ष्मम् ।
अनुग्रहायास्त्वपि यर्हि मायया
लसत्तुलस्या तनुवा विलक्षितः ॥ २० ॥
तं त्वानुभूत्योपरतक्रियार्थं
स्वमायया वर्तितलोकतन्त्रम् ।
नमाम्यभीक्ष्णं नमनीयपाद
सरोजमल्पीयसि कामवर्षम् ॥ २१ ॥
सर्वेश्वर! आप सम्पूर्ण लोकों के
अधिपति हैं। नाना प्रकार की कामनाओं में फँसा हुआ यह लोक आपकी वेद-वाणीरूप डोरी
में बँधा है। धर्ममूर्ते! उसी का अनुगमन करता हुआ मैं भी कालरूप आपको आज्ञापालनरूप
पुजोपहारादि समर्पित करता हूँ।
प्रभो! आपके भक्त विषयासक्त लोगों
और उन्हीं के मार्ग का अनुसरण करने वाले मुझ-जैसे कर्मजड़ पशुओं को कुछ भी न गिनकर
आपके चरणों की छत्रच्छाया का ही आश्रय लेते हैं तथा परस्पर आपके गुणगानरूप मादक
सुधा का ही पान करके अपने क्षुधा-पिपासादि देहधर्मों को शान्त करते रहते हैं।
प्रभो! यह कालचक्र बड़ा प्रबल है। साक्षात् ब्रह्म ही इसके घूमने की धुरी है,
अधिक माससहित तेरह महीने अरे हैं, तीन सौ साठ
दिन जोड़ हैं, छः ऋतुएँ नेमि (हाल) हैं, अनन्त क्षण-पल आदि इसमें पत्राकार धाराएँ हैं तथा तीन चातुर्मास्य इसके
आधारभूत नाभि हैं। यह अत्यन्त वेगवान् संवत्सररूप कालचक्र चराचर जगत् की आयु का
छेदन करता हुआ घूमता रहता है, किंतु आपके भक्तों की आयु का
ह्रास नहीं कर सकता।
भगवन्! जिस प्रकार मकड़ी स्वयं ही
जाले को फैलाती, उसकी रक्षा करती और अन्त में
उसे निगल जाती है-उसी प्रकार आप अकेले ही जगत् की रचना करने के लिये अपने में
अभिन्न अपनी योगमाया को स्वीकार कर उसे अभीव्यक्त हुई अपनी सत्त्वादि शक्तियों
द्वारा स्वयं ही इस जगत् की रचना, पालन और संहार करते हैं।
प्रभो! इस समय आपने हमें अपनी तुलसी मालामण्डित, माया से
परिच्छिन्न-सी दिखायी देने वाली सगुणमूर्ति से दर्शन दिया है। आप हम भक्तों को जो
शब्दादि विषय-सुख प्रदान करते हैं, वे मायिक होने के कारण
यद्यपि आपकी पसंद नहीं हैं, तथापि परिणाम में हमारा शुभ करने
के लिये वे हमें प्राप्त हों-नाथ! आप स्वरूप से निष्क्रिय होने पर भी माया के
द्वारा सारे संसार का व्यवहार चलाने वाले हैं तथा थोड़ी-सी उपासना करने वाले पर भी
समस्त अभिलाषित वस्तुओं की वर्षा करते रहते हैं। आपके चरणकमल वन्दनीय हैं, मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ।
ऋषिरुवाच ।
इत्यव्यलीकं प्रणुतोऽब्जनाभः
तं आबभाषे वचसामृतेन ।
सुपर्णपक्षोपरि रोचमानः
प्रेमस्मित उद्वीक्षणविभ्रमद्भ्रूः ॥ २२ ॥
मैत्रेय जी कहते हैं ;-
भगवान् की भौंहें प्रणय मुस्कान भरी चितवन से चंचल हो रही थीं,
वे गरुड़ जी के कंधे पर विराजमान थे। जब कर्दम जी ने इस प्रकार
निष्कपट भाव से उनकी स्तुति की, तब वे उनसे अमृतमयी वाणी से
कहते लगे।
श्रीभगवानुवाच -
विदित्वा तव चैत्यं मे पुरैव समयोजि
तत् ।
यदर्थं आत्मनियमैः त्वयैवाहं
समर्चितः ॥ २३ ॥
न वै जातु मृषैव स्यात् प्रजाध्यक्ष
मदर्हणम् ।
भवद्विधेष्वतितरां मयि
सङ्गृभितात्मनाम् ॥ २४ ॥
प्रजापतिसुतः सम्राट्
मनुर्विख्यातमङ्गलः ।
ब्रह्मावर्तं योऽधिवसन् शास्ति
सप्तार्णवां महीम् ॥ २५ ॥
स चेह विप्र राजर्षिः महिष्या
शतरूपया ।
आयास्यति दिदृक्षुस्त्वां परश्वो
धर्मकोविदः ॥ २६ ॥
आत्मजां असितापाङ्गीं वयःशीलगुणान्विताम्
।
मृगयन्तीं पतिं दास्यति अनुरूपाय ते
प्रभो ॥ २७ ॥
समाहितं ते हृदयं यत्र इमान्
परिवत्सरान् ।
सा त्वां ब्रह्मन् नृपवधूः काममाशु
भजिष्यति ॥ २८ ॥
श्रीभगवान् ने कहा ;-
जिसके लिये तुमने आत्मसंयमादि के द्वारा मेरी आराधना की है, तुम्हारे हृदय के उस भाव को जानकर मैंने पहले से ही उसकी व्यवस्था कर दी
है। प्रजापते! मेरी आराधना तो कभी भी निष्फल नहीं होती; फिर
जिसका चित्त निरन्तर एकान्तरूप से मुझमें ही लगा रहता है, उन
तुम-जैसे महात्माओं के द्वारा की हुई उपासना का तो और भी अधिक फल होता है।
प्रसिद्ध यशस्वी सम्राट् स्वायम्भुव मनु ब्रह्मावर्त में रहकर सात समुद्र वाली
सारी पृथ्वी का शासन करते हैं। विप्रवर! वे परम धर्मज्ञ महाराज महारानी शतरूपा के
साथ तुमसे मिलने के लिये परसों यहाँ आयेंगे। उनकी एक रूप-यौवन, शील और गुणों से सम्पन्न श्यामलोचना कन्या इस समय विवाह के योग्य है।
प्रजापते! तुम सर्वथा उसके योग्य हो, इसलिये वे तुम्हीं को
वह कन्या अर्पण करेंगे। ब्रह्मन्! गत अनेकों वर्षों से तुम्हारा चित्त जैसी भार्या
के लिये समाहित रहा है, अब शीघ्र ही वह राजकन्या तुम्हारी
वैसी ही पत्नी होकर यथेष्ट सेवा करेगी।
या ते आत्मभृतं वीर्यं नवधा
प्रसविष्यति ।
वीर्ये त्वदीये ऋषय आधास्यन्ति
अञ्जसात्मनः ॥ २९ ॥
त्वं च सम्यग् अनुष्ठाय निदेशं मे
उशत्तमः ।
मयि तीर्थीकृताशेष क्रियार्थो मां
प्रपत्स्यसे ॥ ३० ॥
कृत्वा दयां च जीवेषु दत्त्वा
चाभयमात्मवान् ।
मय्यात्मानं सह जगद्
द्रक्ष्यस्यात्मनि चापि माम् ॥ ३१ ॥
सहाहं स्वांशकलया त्वद्वीर्येण
महामुने ।
तव क्षेत्रे देवहूत्यां प्रणेष्ये
तत्त्वसंहिताम् ॥ ३२ ॥
वह तुम्हारा वीर्य अपने गर्भ में
धारणकर उससे नौ कन्याएँ उत्पन्न करेगी और फिर तुम्हारी उन कन्याओं से लोकरीति के
अनुसार मरीचि आदि ऋषिगण पुत्र उत्पन्न करेंगें। तुम भी मेरी आज्ञा का अच्छी तरह
पालन करने से शुद्धचित्त हो, फिर अपने सब
कर्मों का फल मुझे अर्पण कर मुझको ही प्राप्त होओगे। जीवों पर दया करते हुए तुम
आत्मज्ञान प्राप्त करोगे और फिर सबको अभयदान दे अपने सहित सम्पूर्ण जगत् को मुझमें
और मुझको अपने में स्थित देखोगे। महामुने! मैं भी अपने अंश-कलारूप से तुम्हारे
वीर्य द्वारा तुम्हारी पत्नी देवहूति के गर्भ में अवतीर्ण होकर सांख्य शास्त्र की
रचना करूँगा।
मैत्रेय उवाच -
एवं तं अनुभाष्याथ भगवान्
प्रत्यगक्षजः ।
जगाम बिन्दुसरसः सरस्वत्या
परिश्रितात् ॥ ३३ ॥
निरीक्षतस्तस्य ययावशेष
सिद्धेश्वराभिष्टुतसिद्धमार्गः ।
आकर्णयन् पत्ररथेन्द्रपक्षैः
उच्चारितं स्तोममुदीर्णसाम ॥ ३४ ॥
अथ सम्प्रस्थिते शुक्ले कर्दमो
भगवान् ऋषिः ।
आस्ते स्म बिन्दुसरसि तं कालं
प्रतिपालयन् ॥ ३५ ॥
मनुः स्यन्दनमास्थाय
शातकौम्भपरिच्छदम् ।
आरोप्य स्वां दुहितरं सभार्यः
पर्यटन् महीम् ॥ ३६ ॥
तस्मिन् सुधन्वन्नहनि भगवान्
यत्समादिशत् ।
उपायादाश्रमपदं मुनेः शान्तव्रतस्य
तत् ॥ ३७ ॥
यस्मिन्भगवतो नेत्रान् न्यपतन्
अश्रुबिन्दवः ।
कृपया सम्परीतस्य प्रपन्नेऽर्पितया
भृशम् ॥ ३८ ॥
तद्वै बिन्दुसरो नाम सरस्वत्या
परिप्लुतम् ।
पुण्यं शिवामृतजलं महर्षिगणसेवितम्
॥ ३९ ॥
पुण्यद्रुमलताजालैः कूजत्
पुण्यमृगद्विजैः ।
सर्वर्तुफलपुष्पाढ्यं वनराजिश्रियान्वितम्
॥ ४० ॥
मत्त-द्विजगणैर्घुष्टं मत्तभ्रमर
विभ्रमम् ।
मत्त-बर्हिनटाटोपं आह्वयन्
मत्तकोकिलम् ॥ ४१ ॥
कदम्ब चम्पकाशोक करञ्ज बकुलासनैः ।
कुन्दमन्दारकुटजैः चूतपोतैः
अलङ्कृतम् ॥ ४२ ॥
कारण्डवैः प्लवैर्हंसैः कुररैः
जलकुक्कुटैः ।
सारसैः चक्रवाकैश्च चकोरैः वल्गु
कूजितम् ॥ ४३ ॥
तथैव हरिणैः क्रोडैः श्वावित् गवय
कुञ्जरैः ।
गोपुच्छैः हरिभिः मर्कैः नकुलैः
नाभिभिर्वृतम् ॥ ४४ ॥
मैत्रेय जी कहते हैं ;-
विदुर जी! कर्दम ऋषि से इस प्रकार सम्भाषण करके, इन्द्रियों के अन्तर्मुख होने पर प्रकट होने वाले श्रीहरि सरस्वती नदी से
घिरे हुए बिन्दुसर तीर्थ से (जहाँ कर्दम ऋषि तप कर रहे थे) अपने लोक को चले गये।
भगवान के सिद्धमार्ग (वैकुण्ठ मार्ग) की सभी सिद्धेश्वर प्रशंसा करते हैं। वे
कर्दम जी के देखते-देखते अपने लोक को सिधार गये। उस समय गरुड़ जी के पक्षों से जो
साम की आधार भूता ऋचाएँ निकल रही थीं, उन्हें वे सुनते जाते
थे।
विदुर जी! श्रीहरि के चले जाने पर
भगवान कर्दम उनके बताये हुए समय की प्रतीक्षा करते हुए बिन्दु सरोवर पर ही ठहरे
रहे।
वीरवर! इधर मनु जी भी महारानी
शतरूपा के साथ सुवर्णजटित रथ पर सवार होकर तथा उस पर अपनी कन्या को भी बिठाकर
पृथ्वी पर विचरते हुए, जो दिन भगवान ने
बताया था, उसी दिन शान्तिपरायण महर्षि कर्दम के उस आश्रम पर
पहुँचे। सरस्वती के जल से भरा हुआ यह बिन्दु सरोवर वह स्थान है, जहाँ अपने शरणागत भक्त कर्दम के प्रति उत्पन्न हुई अत्यन्त करुणा के
वशीभूत हुए भगवान् के नेत्रों से आँसुओं की बूँदें गिरी थीं। यह तीर्थ बड़ा पवित्र
है, इसका जल कल्याणमय और अमृत के समान मधुर है तथा महर्षिगण
सदा इसका सेवन करते हैं।
उस समय बिन्दु सरोवर पवित्र
वृक्ष-लताओं से घिरा हुआ था, जिनमें
तरह-तरह की बोली बोलने वाले पवित्र मृग और पक्षी रहते थे, वह
स्थान सभी ऋतुओं के फल और फूलों से सम्पन्न था और सुन्दर वन श्रेणी भी उसकी शोभा
बढ़ाती थी। वहाँ झुंड-के-झुंड मतवाले पक्षी चहक रहे थे, मतवाले
भौंरे मंडरा रहे थे, उन्मत्त मयूर अपने पिच्छ फैला-फैलाकर नट
की भाँति नृत्य कर रहे थे और मतवाले कोकिल कुहू-कुहू करके मानो एक-दूसरे को बुला
रहे थे। वह आश्रम कदम्ब, चम्पक, अशोक,
करंज, बकुल, असन,
कुन्द, मन्दार, कुटज और
नये-नये आम के वृक्षों से अलंकृत था। वहाँ जलकाग, बत्तख आदि
जल पर तैरने वाले पक्षी हंस, कुरर, जलमुर्ग,
सारस, चकवा और चकोर मधुर स्वर से कलरव कर रहे
थे। हरिन, सूअर, स्याही, नीलगाय, हाथी, लंगूर, सिंह, वानर, नेवले और कस्तूरी
मृग आदि पशुओं से भी वह आश्रम घिरा हुआ था।
प्रविश्य तत्तीर्थवरं आदिराजः
सहात्मजः ।
ददर्श मुनिमासीनं तस्मिन्
हुतहुताशनम् ॥ ४५ ॥
विद्योतमानं वपुषा तपसि उग्रयुजा
चिरम् ।
नातिक्षामं भगवतः
स्निग्धापाङ्गावलोकनात् ।
तद्व्याहृतामृतकला पीयूषश्रवणेन च ॥
४६ ॥
प्रांशुं पद्मपलाशाक्षं जटिलं
चीरवाससम् ।
उपसंश्रित्य मलिनं यथार्हणं
असंस्कृतम् ॥ ४७ ॥
अथोटजमुपायातं नृदेवं प्रणतं पुरः ।
सपर्यया पर्यगृह्णात्
प्रतिनन्द्यानुरूपया ॥ ४८ ॥
गृहीतार्हणमासीनं संयतं प्रीणयन्
मुनिः ।
स्मरन् भगवदादेशं इत्याह श्लक्ष्णया
गिरा ॥ ४९ ॥
नूनं चङ्क्रमणं देव सतां संरक्षणाय
ते ।
वधाय चासतां यस्त्वं हरेः शक्तिर्हि
पालिनी ॥ ५० ॥
योऽर्केन्दु अग्नीन्द्रवायूनां
यमधर्मप्रचेतसाम् ।
रूपाणि स्थान आधत्से तस्मै शुक्लाय
ते नमः ॥ ५१ ॥
न यदा रथमास्थाय जैत्रं
मणिगणार्पितम् ।
विस्फूर्जत् चण्डकोदण्डो रथेन
त्रासयन् अघान् ॥ ५२ ॥
स्वसैन्यचरणक्षुण्णं वेपयन् मण्डलं
भुवः ।
विकर्षन् बृहतीं सेनां पर्यटसि
अंशुमानिव ॥ ५३ ॥
तदैव सेतवः सर्वे
वर्णाश्रमनिबन्धनाः ।
भगवद् रचिता राजन् भिद्येरन् बत दस्युभिः
॥ ५४ ॥
अधर्मश्च समेधेत
लोलुपैर्व्यङ्कुशैर्नृभिः ।
शयाने त्वयि लोकोऽयं दस्युग्रस्तो
विनङ्क्ष्यति ॥ ५५ ॥
अथापि पृच्छे त्वां वीर यदर्थं त्वं
इहागतः ।
तद्वयं निर्व्यलीकेन प्रतिपद्यामहे
हृदा ॥ ५६ ॥
आदिराज महाराज मनु ने उस उत्तम
तीर्थ में कन्या के सहित पहुँचकर देखा कि मुनिवर कर्दम अग्निहोत्र से निवृत्त होकर
बैठे हुए हैं। बहुत दिनों तक उग्र तपस्या करने के कारण वे शरीर से बड़े तेजस्वी
दीख पड़ते थे तथा भगवान् के स्नेहपूर्ण चितवन के दर्शन और उनके उच्चारण किये हुए
कर्णामृतरूप सुमधुर वचनों को सुनने से, इतने
दिनों तक तपस्या करने पर भी वे विशेष दुर्बल नहीं जान पड़ते थे। उनका शरीर लम्बा
था, नेत्र कमलदल के समान विशाल और मनोहर थे, सिर पर जटाएँ सुशोभित थीं और कमर में चीर-वस्त्र थे। वे निकट से देखने पर
बिना सान पर चढ़ी हुई महामूल्य मणि के समान मलिन जान पड़ते थे।
महाराज स्वायम्भुव मनु को अपनी कुटी
में आकर प्रणाम करते देख उन्होंने उन्हें आशीर्वाद से प्रसन्न किया और यथोचित
आतिथ्य की रीति से उनका स्वागत-सत्कार किया। जब मनु जी उनकी पूजा ग्रहण कर
स्वस्थचित्त से आसन पर बैठ गये, तब मुनिवर
कर्दम ने भगवान् की आज्ञा का स्मरण कर उन्हें मधुर वाणी से प्रसन्न करते हुए इस
प्रकार कहा- ‘देव! आप भगवान् विष्णु की पालनशक्तिरूप हैं,
इसलिये आपका घूमना-फिरना निःसन्देह सज्जनों की रक्षा और दुष्टों के
संहार के लिए ही होता है। आप साक्षात् विशुद्ध विष्णुस्वरूप हैं तथा भिन्न-भिन्न
कार्यों के लिये सूर्य, चन्द्र, अग्नि,
इन्द्र, वायु, यम,
धर्म और वरुण आदि रूप धारण करते हैं; आपको
नमस्कार है।
आप मणियों से जड़े हुए जयदायक रथ पर
सवार हो अपने प्रचण्ड धनुष की टंकार करते हुए उस रथ की घरघराहट से ही पापियों को
भयभीत कर देते हैं और अपनी सेना के चरणों से रौंदे हुए भूमण्डल को कँपाते अपनी उस
विशाल सेना को साथ लेकर पृथ्वी पर सूर्य के समान विचरते हैं। यदि आप ऐसा न करें तो
चोर-डाकू भगवान् की बनायी हुई वर्णाश्रम धर्म की मर्यादा को तत्काल नष्ट कर दें
तथा विषयलोलुप निरंकुश मानवों द्वारा सर्वत्र अधर्म फैल जाये। यदि आप संसार की ओर
से निश्चिन्त हो जायें तो यह लोक दुराचारियों के पंजे में पड़कर नष्ट हो जाये। तो
भी वीरवर! मैं आपसे पूछता हूँ कि इस समय यहाँ आपका आगमन किस प्रयोजन से हुआ है;
मेरे लिये जो आज्ञा होगी, उसे मैं निष्कपट भाव
से सहर्ष स्वीकार करूँगा।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे
पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे एकविंशोऽध्यायः ॥ २१ ॥
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ का
पूर्व भाग पढ़े-
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