श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय १५
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३
अध्याय १५ "जय-विजय को सनकादि का शाप"
श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध पञ्चदश अध्याय
श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः
३/अध्यायः १५
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३
अध्याय १५ हिन्दी अनुवाद सहित
मैत्रेय उवाच ।
प्राजापत्यं तु तत्तेजः परतेजोहनं
दितिः ।
दधार वर्षाणि शतं शङ्कमाना
सुरार्दनात् ॥ १ ॥
लोके तेनाहतालोके लोकपाला हतौजसः ।
न्यवेदयन्विश्वसृजे ध्वान्तव्यतिकरं
दिशाम् ॥ २ ॥
श्री मैत्रेय जी ने कहा ;-
विदुर जी! दिति को अपने पुत्रों से देवताओं को कष्ट पहुँचने की
आशंका थी इसलिये उसने दूसरों के तेज का नाश करने वाले उस कश्यप जी के तेज (वीर्य)
को सौ वर्षों तक अपने उदर में ही रखा। उस गर्भस्थ तेज से ही लोकों में सूर्यादि का
प्रकाश क्षीण होने लगा तथा इन्द्रादि लोकपाल भी तेजोहीन हो गये तब उन्होंने
ब्रह्मा जी के पास जाकर कहा कि सब दिशाओं में अन्धकार के कारण बड़ी अव्यवस्था हो
रही है।
देवा ऊचुः
तम एतद्विभो वेत्थ संविग्ना यद्वयं
भृशम् ।
न ह्यव्यक्तं भगवतः कालेनास्पृष्टवर्त्मनः
॥ ३ ॥
देवदेव जगद्धातः लोकनाथशिखामणे ।
परेषामपरेषां त्वं भूतानामसि
भाववित् ॥ ४ ॥
नमो विज्ञानवीर्याय माययेदमुपेयुषे
।
गृहीतगुणभेदाय नमस्तेऽव्यक्तयोनये ॥
५ ॥
ये त्वानन्येन भावेन
भावयन्त्यात्मभावनम् ।
आत्मनि प्रोतभुवनं परं सदसदात्मकम्
॥ ६ ॥
तेषां सुपक्वयोगानां
जितश्वासेन्द्रियात्मनाम् ।
लब्धयुष्मत् प्रसादानां न
कुतश्चित्पराभवः ॥ ७ ॥
यस्य वाचा प्रजाः सर्वा
गावस्तन्त्येव यन्त्रिताः ।
हरन्ति बलिमायत्ताः तस्मै मुख्याय
ते नमः ॥ ८ ॥
स त्वं विधत्स्व शं भूमन् तमसा
लुप्तकर्मणाम् ।
अदभ्रदयया दृष्ट्या आपन्नानर्हसीक्षितुम्
॥ ९ ॥
एष देव दितेर्गर्भ ओजः
काश्यपमर्पितम् ।
दिशस्तिमिरयन् सर्वा
वर्धतेऽग्निरिवैधसि ॥ १० ॥
देवताओं ने कहा ;-
भगवन्! काल आपकी ज्ञानशक्ति को कुण्ठित नहीं कर सकता, इसलिये आपसे कोई बात छिपी नहीं है। आप इस अन्धकार के विषय में भी जानते ही
होंगे, हम तो इससे बड़े ही भयभीत हो रहे हैं। देवाधिदेव! आप
जगत् के रचयिता और समस्त लोकपालों के मुकुटमणि हैं। आप छोटे-बड़े सभी जीवों का भाव
जानते हैं। देव! आओ विज्ञानबल सम्पन्न हैं; आपने माया से ही
यह चतुर्भुजरूप और रजोगुण स्वीकार किया है; आपकी उत्पत्ति के
वास्तविक कारण को कोई नहीं जान सकता। हम आपको नमस्कार करते हैं। आपमें सम्पूर्ण
भुवन स्थित हैं, कार्य-कारणरूप सारा प्रपंच आपका ही शरीर है;
किन्तु वास्तव में आप इससे परे हैं। जो समस्त जीवों के उत्पत्ति
स्थान आपका अनन्य भाव से ध्यान करते हैं, उन सिद्ध योगियों
का किसी प्रकार भी ह्रास नहीं हो सकता; क्योंकि वे आपके
कृपाकटाक्ष से कृतकृत्य हो जाते हैं तथा प्राण, इन्द्रिय और
मन को जीत लेने के कारण उनका योग भी परिपक्व हो जाता है।
रस्सी में बँधे हुए बैलों की भाँति
आपकी वेदवाणी से जकड़ी हुई सारी प्रजा आपकी अधीनता में नियमपूर्वक कर्मानुष्ठान
करके आपको बलि समर्पित करती है। आप सबके नियन्ता मुख्य प्राण हैं,
हम आपक नमस्कार करते हैं। भूमन्! इस अन्धकार के कारण दिन-रात का
विभाग अस्पष्ट हो जाने से लोकों के सारे कर्म लुप्त होते जा रहे हैं, जिससे वे दुःखी हो रहे हैं। उनका कल्याण कीजिये और हम शराणागतों की ओर
अपनी अपार दयादृष्टि से निहारिये। देव! आग जिस प्रकार ईधन पकड़कर बढ़ती रहती है,
उसी प्रकार कश्यप जी के वीर्य से स्थापित हुआ यह दिति का गर्भ सारी
दिशाओं को अन्धकारमय करता हुआ क्रमशः बढ़ रहा है।
मैत्रेय उवाच ।
स प्रहस्य महाबाहो भगवान् शब्दगोचरः
।
प्रत्याचष्टात्मभूर्देवान् प्रीणन्
रुचिरया गिरा ॥ ११ ॥
श्री मैत्रेय जी कहते हैं ;-
महाबाहो! देवताओं की प्रार्थना सुनकर भगवान ब्रह्मा जी हँसे और
उन्हें अपनी मधुर वाणी से आनन्दित करते हुए कहने लगे।
ब्रह्मोवाच ।
मानसा मे सुता युष्मत् पूर्वजाः
सनकादयः ।
चेरुर्विहायसा लोकान् लोकेषु
विगतस्पृहाः ॥ १२ ॥
त एकदा भगवतो वैकुण्ठस्यामलात्मनः ।
ययुर्वैकुण्ठनिलयं सर्वलोकनमस्कृतम्
॥ १३ ॥
वसन्ति यत्र पुरुषाः सर्वे
वैकुण्ठमूर्तयः ।
येऽनिमित्तनिमित्तेन धर्मेणाराधयन्
हरिम् ॥ १४ ॥
यत्र चाद्यः पुमानास्ते भगवान्
शब्दगोचरः ।
सत्त्वं विष्टभ्य विरजं स्वानां नो
मृडयन् वृषः ॥ १५ ॥
यत्र नैःश्रेयसं नाम वनं
कामदुघैर्द्रुमैः ।
सर्वर्तुश्रीभिर्विभ्राजत्
कैवल्यमिव मूर्तिमत् ॥ १६ ॥
श्री ब्रह्मा जी ने कहा ;-
देवताओं! तुम्हारे पूर्वज, मेरे मानस पुत्र
सनकादि लोकों की आसक्ति त्यागकर समस्त लोकों में आकाश मार्ग से विचरा करते थे। एक
बार वे भगवान विष्णु के शुद्ध-सत्त्व मय सब लोकों के शिरोभाग में स्थित, वैकुण्ठ धाम में जा पहुँचे। वहाँ सभी लोग विष्णुरूप होकर रहते हैं और वह
प्राप्त भी उन्हीं को होता है, जो अन्य सब प्रकार की कामनाएँ
छोड़कर केवल भगवच्चरण-शरण की प्राप्ति के लिये ही अपने धर्म द्वारा उनकी आराधना
करते हैं। वहाँ वेदान्तप्रति पाद्य धर्ममूर्ति श्रीआदि नारायण हम अपने भक्तों को
सुख देने के लिये शुद्ध सत्त्वमयस्वरूप धारण कर हर समय विराजमान रहते हैं। उस लोक
में नैःश्रेयस नाम का एक वन है, जो मूर्तिमान् कैवल्य-सा ही
जान पड़ता है। वह सब प्रकार की कामनाओं को पूर्ण करने वाले वृक्षों से सुशोभित है,
जो स्वयं हर समय छहों ऋतुओं की शोभा से सम्पन्न रहते हैं।
वैमानिकाः सललनाश्चरितानि यत्र ।
गायन्ति लोकशमलक्षपणानि भर्तुः ।
अन्तर्जलेऽनुविकसन् मधुमाधवीनां ।
गन्धेन खण्डितधियोऽप्यनिलं क्षिपन्तः ॥ १७ ॥
पारावतान्यभृतसारसचक्रवाक ।
दात्यूहहंसशुकतित्तिरिबर्हिणां यः ।
कोलाहलो विरमतेऽचिरमात्रमुच्चैः ।
भृङ्गाधिपे हरिकथामिव गायमाने ॥ १८ ॥
मन्दारकुन्दकुरबोत्पलचम्पकार्ण ।
पुन्नागनागबकुलाम्बुजपारिजाताः ।
गन्धेऽर्चिते तुलसिकाभरणेन तस्या ।
यस्मिंस्तपः सुमनसो बहु मानयन्ति ॥ १९ ॥
यत्सङ्कुलं हरिपदानतिमात्रदृष्टैः ।
वैदूर्यमारकतहेममयैर्विमानैः ।
येषां बृहत्कटितटाः स्मितशोभिमुख्यः
।
कृष्णात्मनां न रज आदधुरुत्स्मयाद्यैः ॥ २० ॥
श्री रूपिणी क्वणयती चरणारविन्दं ।
लीलाम्बुजेन हरिसद्मनि मुक्तदोषा ।
संलक्ष्यते स्फटिककुड्य उपेतहेम्नि
।
सम्मार्जतीव यदनुग्रहणेऽन्ययत्नः ॥ २१ ॥
वापीषु विद्रुमतटास्वमलामृताप्सु ।
प्रेष्यान्विता निजवने तुलसीभिरीशम् ।
अभ्यर्चती स्वलकमुन्नसमीक्ष्य
वक्त्रम् ।
उच्छेषितं भगवतेत्यमताङ्ग यच्छ्रीः ॥ २२ ॥
यन्न व्रजन्त्यघभिदो रचनानुवादात् ।
श्रृण्वन्ति येऽन्यविषयाः कुकथा मतिघ्नीः ।
यास्तु श्रुता
हतभगैर्नृभिरात्तसारान् ।
तांस्तान् क्षिपन्त्यशरणेषु तमःसु हन्त ॥ २३ ॥
येऽभ्यर्थितामपि च नो नृगतिं
प्रपन्ना ।
ज्ञानं च तत्त्वविषयं सहधर्मं यत्र ।
नाराधनं भगवतो वितरन्त्यमुष्य ।
सम्मोहिता विततया बत मायया ते ॥ २४ ॥
यच्च
व्रजन्त्यनिमिषामृषभानुवृत्त्या ।
दूरे यमा ह्युपरि नः स्पृहणीयशीलाः ।
भर्तुर्मिथः सुयशसः कथनानुराग ।
वैक्लव्यबाष्पकलया पुलकीकृताङ्गाः ॥ २५ ॥
वहाँ विमानचारी गन्धर्व गण अपनी
प्रियाओं के सहित अपने प्रभु की पवित्र लीलाओं का गान करते रहते हैं,
जो लोगों की सम्पूर्ण पापराशि को भस्म कर देने वाली हैं। उस समय
सरोवर में खिली हुई मकरन्दपूर्ण वासन्तिक माधवी लता की सुमधुर गन्ध उनके चित्त को
अपनी ओर खींचना चाहती हैं, परन्तु वे उसकी ओर ध्यान ही नहीं
देते वरन उस गन्ध को उड़ाकर लाने वाले वायु को ही बुरा-भला कहते हैं। जिस समय
भ्रमराज ऊँचे स्वर से गुंजार करते हुए मानो हरि कथा का गान करते हैं, उस समय थोड़ी देर के लिये कबूतर, कोयल, सारस, चकवे, पपीहे, हंस, तोते, तीतर और मोरों का
कोलाहल बंद हो जाता है-मानो वे भी उस कीर्तानानन्द में बेसुध हो जाते हैं। श्रीहरि
तुलसी से अपने श्रीविग्रह को सजाते हैं और तुलसी की गन्ध का ही अधिक आदर करते
हैं-यह देखकर वहाँ के मन्दार, कुन्द, कुरबक
(तिलक वृक्ष), उत्पल (रात्रि में खिलने वाले कमल), चम्पक, वर्ण, पुन्नाग, नाग केसर, वकील (मौलसिरी), अम्बुज
(दिन में खिलने वाले कमल) और पारिजात आदि पुष्प सुगन्धयुक्त होने पर भी तुलसी का
ही तप अधिक मानते हैं।
वह लोक वैदूर्य,
मरकतमणि (पन्ने) और सुवर्ण के विमानों से भरा हुआ है। ये सब किसी
कर्मफल से नहीं, बल्कि एकमात्र श्रीहरि के पाद पद्मों की
वन्दना करने से ही प्राप्त होते हैं। उन विमानों पर चढ़े हुए कृष्णप्राण
भगवद्भक्तों के चिट्टों में बड़े-बड़े नितम्बों वाली सुमुखी सुन्दरियाँ भी अपनी
मन्द मुस्कान एवं मनोहर हास-परिहास से कामविकार नहीं उत्पन्न कर सकतीं। परम
सौन्दर्यशालिनी लक्ष्मी जी, जिनकी कृपा प्राप्त करने के लिये
देवगण भी यत्नशील रहते हैं, श्रीहरि के भवन में चंचलतारूप
दोष को त्यागकर रहती हैं। जिस समय अपने चरणकमलों के नूपुरों की झनकार करती हुई वे
अपना लीलाकमल घुमाती हैं, उस समय उस कनकभवन कि स्फटिकमय
दीवारों में उनका प्रतिबिम्ब पड़ने से ऐसा जान पड़ता है मानो वे उन्हें बुहार रही
हों।
प्यारे देवताओं! जिस समय दासियों को
साथ लिये वे अपने क्रीडावन में तुलसीदल द्वारा भगवान् का पूजन करती हैं,
तब वहाँ के निर्मल जल से भरे हुए सरोवरों में, जिनमें मूँगे के घाट बने हुए हैं, अपना सुन्दर
अलकावली और उन्नत नासिका से सुशोभित मुखारविन्द देखकर यह भगवान् का चुम्बन किया
हुआ है' यों जानकर उसे बड़ा सौभाग्यशाली समझती हैं। जो लोग
भगवान् की पापहारिणी लीला कथाओं को छोड़कर बुद्धि को नष्ट करने वाली अर्थ-काम
सम्बन्धिनी अन्य निन्दित कथाएँ सुनते हैं, वे उस वैकुण्ठलोक
में नहीं जा सकते। हाय! जब वे अभागे लोग इन सारहीन बातों को सुनते हैं, तब ये उनके पुण्यों को नष्टकर उन्हें आश्रयहीन घोर नरकों में डाल देती
हैं। अहा! इस मनुष्य योनि की बड़ी महिमा है, हम देवता लोग भी
इसकी चाह करते हैं। इसी में तत्त्वज्ञान और धर्म की भी प्राप्ति हो सकती है। इसे
पाकर भी जो लोग भगवान् की आराधना नहीं करते, वे वास्तव में
उनकी सर्वत्र फैली हुई माया से ही मोहित हैं। देवाधिदेव श्रीहरि का निरन्तर चिन्तन
करते रहने के कारण जिनसे यमराज दूर रहते हैं, आपस में प्रभु
के सुयश की चर्चा चलने पर अनुरागजन्य विह्वलतावश जिनके नेत्रों से अविरल अश्रुधारा
बहने लगती है तथा शरीर में रोमांच हो जाता है और जिनके-से शील स्वभाव की हम लोग भी
इच्छा करते हैं-वे परमभागवत ही । हमारे लोकों से ऊपर उस वैकुण्ठधाम में जाते हैं।
तद्विश्वगुर्वधिकृतं भुवनैकवन्द्यं
।
दिव्यं विचित्रविबुधाग्र्यविमानशोचिः ।
आपुः परां मुदमपूर्वमुपेत्य योग ।
मायाबलेन मुनयस्तदथो विकुण्ठम् ॥ २६ ॥
तस्मिन्नतीत्य मुनयः षडसज्जमानाः ।
कक्षाः समानवयसावथ सप्तमायाम् ।
देवावचक्षत गृहीतगदौ परार्ध्य ।
केयूरकुण्डलकिरीटविटङ्कवेषौ ॥ २७ ॥
मत्तद्विरेफवनमालिकया निवीतौ ।
विन्यस्तयासितचतुष्टयबाहुमध्ये ।
वक्त्रं भ्रुवा कुटिलया
स्फुटनिर्गमाभ्यां ।
रक्तेक्षणेन च मनाग्रभसं दधानौ ॥ २८ ॥
द्वार्येतयोर्निविविशुर्मिषतोरपृष्ट्वा
।
पूर्वा यथा पुरटवज्रकपाटिका याः ।
सर्वत्र तेऽविषमया मुनयः
स्वदृष्ट्या ।
ये सञ्चरन्त्यविहता विगताभिशङ्काः ॥ २९ ॥
तान्वीक्ष्य वातरशनांश्चतुरः
कुमारान् ।
वृद्धान्दशार्धवयसो विदितात्मतत्त्वान् ।
वेत्रेण चास्खलयतामतदर्हणांस्तौ ।
तेजो विहस्य भगवत् प्रतिकूलशीलौ ॥ ३० ॥
ताभ्यां मिषत्स्वनिमिषेषु
निषिध्यमानाः ।
स्वर्हत्तमा ह्यपि हरेः प्रतिहारपाभ्याम् ।
ऊचुः सुहृत्तमदिदृक्षितभङ्ग ईषत् ।
कामानुजेन सहसा त उपप्लुताक्षाः ॥ ३१ ॥
जिस समय सनकादि मुनि विश्व गुरु
श्री हरि के निवास स्थान, सम्पूर्ण लोकों के
वन्दनीय और श्रेष्ठ देवताओं के विचित्र विमानों से विभूषित उस परम दिव्य और अद्भुत
वैकुण्ठधाम में अपने योगबल से पहुँचे, तब उन्हें बड़ा ही
आनन्द हुआ। भगवद्दर्शन की लालसा से अन्य दर्शनीय सामग्री की उपेक्षा करते हुए
वैकुण्ठ धाम की छः ड्योढ़ियाँ पार करके जब वे सातवीं पर पहुँचे, तब वहाँ उन्हें हाथ में गदा लिये दो समान आयु वाले देव श्रेष्ठ दिखायी
दिये- जो बाजूबंद, कुण्डल और किरीट आदि अनेकों अमूल्य
आभूषणों से अलंकृत थे। उनकी चार श्यामल भुजाओं के बीच में मतवाले मधुकारों से
गुंजायमान वनमाला सुशोभित थी तथा बाँकी भौंहें, फड़कते हुए
नासिकारन्ध्र और अरुण नयनों के कारण उनके चेहरे पर कुछ क्षोभ के-से चिह्न दिखायी
दे रहे थे।
उनके इस प्रकार देखते रहने पर भी वे
मुनिगण उनके बिना कुछ पूछताछ किये, जैसे
सुवर्ण और वज्रमय किवाड़ों से युक्त पहली छः ड्योढ़ी लाँघकर आये थे, उसी प्रकार उनके द्वार में भी घुस गये। उनकी दृष्टि तो सर्वत्र समान थी और
वे निःशंक होकर सर्वत्र बिना किसी रोक-टोक के विचरते थे। वे चारों कुमार पूर्ण
त्त्वज्ञ थे तथा ब्रह्मा की सृष्टि में आयुध में सबसे बड़े होने पर भी देखने में
पाँच वर्ष के बालकों से जान पड़ते थे और दिगम्बर वृत्ति से (नंग-धडंग) रहते थे।
उन्हें इस प्रकार निःसंकोच रूप से भीतर जाते देख उन द्वारपालों ने भगवान् के शील
स्वभाव के विपरीत सनकादि के तेज की हँसी उड़ाते हुए उन्हें बेंत अड़ाकर रोक दिया,
यद्यपि वे ऐसे दुर्व्यवहार के योग्य नहीं थे जब उन द्वारपालों ने
वैकुण्ठवासी देवताओं के सामने पूजा के सर्वश्रेष्ठ पात्र उन कुमारों को इस प्रकार
रोका, तब अपने प्रियतम प्रभु के दर्शनों में विघ्न पड़ने के
कारण उनके नेत्र सहसा कुछ-कुछ क्रोध से लाल हो उठे और वे इस प्रकार कहने लगे।
मुनय ऊचुः ।
को वामिहैत्य भगवत् परिचर्ययोच्चैः
।
तद्धर्मिणां निवसतां विषमः स्वभावः ।
तस्मिन् प्रशान्तपुरुषे गतविग्रहे
वां ।
को वात्मवत् कुहकयोः परिशङ्कनीयः ॥ ३२ ॥
न ह्यन्तरं भगवतीह समस्तकुक्षौ ।
आत्मानमात्मनि नभो नभसीव धीराः ।
पश्यन्ति यत्र युवयोः सुरलिङ्गिनोः
किं ।
व्युत्पादितं ह्युदरभेदि भयं यतोऽस्य ॥ ३३ ॥
तद्वाममुष्य परमस्य विकुण्ठभर्तुः ।
कर्तुं प्रकृष्टमिह धीमहि मन्दधीभ्याम् ।
लोकानितो व्रजतमन्तरभावदृष्ट्या ।
पापीयसस्त्रय इमे रिपवोऽस्य यत्र ॥ ३४ ॥
मुनियों ने कहा ;-
अरे द्वारपालों! जो लोग भगवान् की महती सेवा के प्रभाव से इस लोक को
प्राप्त होकर यहाँ निवास करते हैं, वे तो भगवान् के समान ही
समदर्शी होते हैं। तुम दोनों भी उन्हीं में से हो, किन्तु
तुम्हारे स्वभाव में यह विषमता क्यों है? भगवान् तो परमशान्त
स्वभाव हैं, उनका किसी से विरोध भी नहीं है, फिर यहाँ ऐसा कौन है, जिस पर शंका की जा सके?
तुम स्वयं कपटी हो, इसी से अपने ही समान
दूसरों पर शंका करते हो। भगवान् के उदर में यह सारा ब्रह्माण्ड स्थित है, इसीलिए यहाँ रहने वाले ज्ञानीजन सर्वात्मा श्रीहरि से अपना कोई भेद नहीं
देखते, बल्कि महाकाश में घटाकाश की भाँति उनमें अपना
अन्तर्भाव देखते हैं। तुम तो देवरूपधारी हो; फिर भी तुम्हें
ऐसा क्या दिखायी देता है, जिससे तुमने भगवान् के साथ कुछ
भेदभाव के कारण होने वाले भय की कल्पना कर ली। तुम हो तो इन भगवान् वैकुण्ठनाथ के
पार्षद, किन्तु तुम्हारी बुद्धि बहुत मन्द है। अतएव तुम्हारा
कल्याण करने के लिये हम तुम्हारे अपराध के योग्य दण्ड का विचार करते हैं। तुम अपनी
मन्द भेदबुद्धि के दोष से इस वैकुण्ठ लोक से निकलकर उन पापमय योनियों में जाओ,
जहाँ काम क्रोध, लोभ-प्राणियों के ये तीन
शत्रु निवास करते हैं।
तेषामितीरितमुभाववधार्य घोरं ।
तं ब्रह्मदण्डमनिवारणमस्त्रपूगैः ।
सद्यो हरेरनुचरावुरु बिभ्यतस्तत् ।
पादग्रहावपततामतिकातरेण ॥ ३५ ॥
भूयादघोनि भगवद्भिरकारि दण्डो ।
यो नौ हरेत सुरहेलनमप्यशेषम् ।
मा वोऽनुतापकलया भगवत्स्मृतिघ्नो ।
मोहो भवेदिह तु नौ व्रजतोरधोऽधः ॥ ३६ ॥
एवं तदैव भगवान् अरविन्दनाभः ।
स्वानां विबुध्य सदतिक्रममार्यहृद्यः ।
तस्मिन् यन्ययौ परमहंसमहामुनीनाम् ।
अन्वेषणीयचरणौ चलयन् सहश्रीः ॥ ३७ ॥
तं त्वागतं प्रतिहृतौपयिकं
स्वपुम्भिः ।
तेऽचक्षताक्षविषयं स्वसमाधिभाग्यम् ।
हंसश्रियोर्व्यजनयोः शिववायुलोलः ।
शुभ्रातपत्रशशिकेसरशीकराम्बुम् ॥ ३८ ॥
कृत्स्नप्रसादसुमुखं स्पृहणीयधाम ।
स्नेहावलोककलया हृदि संस्पृशन्तम्
।
श्यामे पृथावुरसि शोभितया श्रिया
स्वः ।
चूडामणिं सुभगयन्तमिवात्मधिष्ण्यम् ॥ ३९ ॥
पीतांशुके पृथुनितम्बिनि
विस्फुरन्त्या ।
काञ्च्यालिभिर्विरुतया वनमालया च ।
वल्गुप्रकोष्ठवलयं विनतासुतांसे ।
विन्यस्तहस्तमितरेण धुनानमब्जम् ॥ ४० ॥
विद्युत्क्षिपन् मकरकुण्डलमण्डनार्ह
।
गण्डस्थलोन्नसमुखं मणिमत्किरीटम् ।
दोर्दण्डषण्डविवरे हरता परार्ध्य ।
हारेण कन्धरगतेन च कौस्तुभेन ॥ ४१ ॥
अत्रोपसृष्टमिति
चोत्स्मितमिन्दिरायाः ।
स्वानां धिया विरचितं बहुसौष्ठवाढ्यम् ।
मह्यं भवस्य भवतां च भजन्तमङ्गं ।
नेमुर्निरीक्ष्य न वितृप्तदृशो मुदा कैः ॥ ४२ ॥
तस्यारविन्दनयनस्य पदारविन्द ।
किञ्जल्कमिश्रतुलसीमकरन्दवायुः ।
अन्तर्गतः स्वविवरेण चकार तेषां ।
सङ्क्षोभमक्षरजुषामपि चित्ततन्वोः ॥ ४३ ॥
सनकादि के ये कठोर वचन सुनकर और
ब्राह्मणों के शाप को किसी भी प्रकार के शस्त्रसमूह से निवारण होने योग्य न जानकर
श्रीहरि के वे दोनों पार्षद अत्यन्त दीनभाव से उनके चरण पकड़कर पृथ्वी पर लोट गये
वे जानते थे कि उनके स्वामी श्रीहरि भी ब्राह्मणों से बहुत डरते हैं। फिर उन्होंने
अत्यन्त आतुर होकर कहा- 'भगवन्! हम अवश्य
अपराधी हैं; अतः आपने हमें जो दण्ड दिया है, वह उचित ही है और वह हमें मिलना ही चाहिये। हमने भगवान का अभिप्राय न
समझकर उनकी आज्ञा का उल्लंघन किया है। इससे हमें जो पाप लगा है, वह आपके दिये हुए दण्ड से सर्वथा धुल जायेगा। किन्तु हमारी इस दुर्दशा का
विचार करके यदि करुणावश आपको थोड़ा-सा भी अनुताप हो, तो ऐसी
कृपा कीजिये कि जिससे उन अधमाधम योनियों में जाने पर भी हमें भगवत्स्मृति को नष्ट
करने वाला मोह न प्राप्त हो।
इधर जब साधु जनों के हृदयधन भगवान
कमलनाभ को मालूम हुआ कि मेरे द्वारपालों ने सनकादि साधुओं का अनादर किया है,
तब वे लक्ष्मी जी के सहित अपने उन्हीं श्रीचरणों से चलकर ही वहाँ
पहुँचे, जिन्हें परमहंस मुनिजन ढूँढ़ते रहते हैं- सहज में
पाते नहीं। सनकादि ने देखा कि उनकी समाधि के विषय श्री वैकुंठनाथ स्वयं उनके
नेत्रगोचर होकर पधारे है, उनके साथ-साथ पार्षदगण छत्र-चमरादि
लिये चल रहे हैं तथा प्रभु के दोनों ओर राजहंस के पंखों के समान दो श्वेत चँवर
डुलाये जा रहे हैं। उनकी शीतल वायु से उनके श्वेत छत्र में लगी हुई मोतियों की
झालर हिलती हुई ऐसी शोभा दे रही हैं मानो चन्द्रमा की किरणों से अमृत की बूंदें झर
रही हों। प्रभु समस्त सद्गुणों के आश्रय हैं, उनकी सौम्य
मुखमुद्रा को देखकर जान पड़ता था मानो वे सभी पर अनवरत कृपासुधा की वर्षा कर रहे
हैं।
अपनी स्नेहमयी चितवन से वे भक्तों
का हृदय स्पर्श कर रहे थे तथा उनके सुविशाल श्याम वक्षःस्थल पर स्वरिखा के रूप में
जो साक्षात् लक्ष्मी विराजमान थीं, उनसे
मानो वे समस्त दिव्यलोकों के चूड़ामणि वैकुण्ठधाम को सुशोभित कर रहे थे उनके
पीताम्बरमण्डित विशाल नितम्बों पर झिलमिलाती हुई करधनी और गले में भ्रमरों से
मुखरित वनमाला विराज रही थी; तथा वे कलाइयों में सुन्दर कंगन
पहने अपना एक हाथ गरुड़ जी के कंधे पर रख दूसरे से कमल का पुष्प घुमा रहे थे उनके
अमोल कपोल बिजली की प्रभा को भी लजाने वाले मकराकृत कुण्डलों की शोभा बढ़ा रहे थे,
उभरी हुई उघड़ नासिका थी, बड़ा ही सुन्दर मुख
था, सिर पर मणिमय मुकुट विराजमान था तथा चारों भुजाओं के बीच
महामूल्यवान् मनोहर हार की और गले में कौस्तुभ मणि की अपूर्व शोभा थी।
भगवान् का श्रीविग्रह बड़ा ही
सौन्दर्यशाली था। उसे देखकर भक्तों के मन में ऐसा वितर्क होता था कि इसके सामने
लक्ष्मी जी का सौंदर्याभिमान भी गलित हो गया है। ब्रह्मा जी कहते हैं- देवताओं! इस
प्रकार मेरे, महादेव जी के और तुम्हारे लिये
परम सुन्दर विग्रह धारण करने वाले श्रीहरि को देखकर सनकादि मुनीश्वरों ने उन्हें
सिर झुकाकर प्रणाम किया। उस समय उनकी अद्भुत छवि को निहारते-निहारते उनके नेत्र
तृप्त नहीं होते थे। सनकादि मुनीश्वर निरन्तर ब्रह्मानन्द में निमग्न रहा करते थे।
किन्तु जिस समय भगवान् कमलनयन के चरणारविन्द मकरन्द से मिली हुई तुलसी मंजरी के
गंध से सुवासित वायु को नासिका रंध्र के द्वारा उनके अन्तःकरण में प्रवेश किया,
उस समय वे अपने शरीर को सँभाल न सके और उस दिव्य गन्ध ने उनके मन
में भी खलबली पैदा कर दी।
ते वा अमुष्य वदनासितपद्मकोशम् ।
उद्वीक्ष्य सुन्दरतराधरकुन्दहासम् ।
लब्धाशिषः पुनरवेक्ष्य तदीयमङ्घ्रि
।
द्वन्द्वं नखारुणमणिश्रयणं निदध्युः ॥ ४४ ॥
पुंसां गतिं मृगयतामिह योगमार्गैः ।
ध्यानास्पदं बहुमतं नयनाभिरामम् ।
पौंस्नं वपुर्दर्शयानमनन्यसिद्धैः ।
औत्पत्तिकैः समगृणन्युतमष्टभोगैः ॥ ४५ ॥
भगवान् का मुख नीलकमल के समान था,
अति सुन्दर अधर और कुन्दकली के समान मनोहर हास से उसकी शोभा और भी
बढ़ गयी थी। उसकी झाँकी करके वे कृतकृत्य हो गये और फिर पद्मराग के समान लाल-लाल
नखों से सुशोभित उनके चरणकमल देखकर वे उन्हीं का ध्यान करने लगे। इसके पश्चात् वे
मुनिगण अन्य साधनों से सिद्ध न होने वाली स्वाभाविक अष्टसिद्धियों से सम्पन्न
श्रीहरि की स्तुति करने लगे-जो योगमार्ग द्वारा मोक्ष पद की खोज करने वाले पुरुषों
के लिये उनके ध्यान का विषय, अत्यन्त आदरणीय और नयनानन्द की
वृद्धि करने वाले पुरुषरूप प्रकट करते हैं।
कुमारा ऊचुः -
योऽन्तर्हितो हृदि गतोऽपि
दुरात्मनां त्वं ।
सोऽद्यैव नो नयनमूलमनन्त राद्धः ।
यर्ह्येव कर्णविवरेण गुहां गतो नः ।
पित्रानुवर्णितरहा भवदुद्भवेन ॥ ४६ ॥
तं त्वां विदाम भगवन्परमात्मतत्त्वं
।
सत्त्वेन सम्प्रति रतिं रचयन्तमेषाम् ।
यत्तेऽनुतापविदितैर्दृढभक्तियोगैः ।
उद्ग्रन्थयो हृदि विदुर्मुनयो विरागाः ॥ ४७ ॥
नात्यन्तिकं विगणयन्त्यपि ते
प्रसादं ।
किम्वन्यदर्पितभयं भ्रुव उन्नयैस्ते ।
येऽङ्ग त्वदङ्घ्रिशरणा भवतः कथायाः
।
कीर्तन्यतीर्थयशसः कुशला रसज्ञाः ॥ ४८ ॥
कामं भवः स्ववृजिनैर्निरयेषु नः
स्तात् ।
चेतोऽलिवद्यदि नु ते पदयो रमेत ।
वाचश्च नस्तुलसिवद्यदि तेऽङ्घ्रिशोभाः
।
पूर्येत ते गुणगणैर्यदि कर्णरन्ध्रः ॥ ४९ ॥
प्रादुश्चकर्थ यदिदं पुरुहूत रूपं ।
तेनेश निर्वृतिमवापुरलं दृशो नः ।
तस्मा इदं भगवते नम इद्विधेम ।
योऽनात्मनां दुरुदयो भगवान् प्रतीतः ॥ ५० ॥
सनकादि मुनियों ने कहा ;-
अनन्त! यद्यपि आप अन्तर्यामीरूप से दुष्टचित्त पुरुषों के हृदय में
भी स्थित रहते हैं, तथापि उनकी दृष्टि से ओझल ही रहते हैं।
किन्तु आज हमारे नेत्रों के सामने तो आप साक्षात् विराजमान हैं। प्रभो! जिस समय
आपसे उत्पन्न हुए हमारे पिता ब्रह्मा जी ने आपका रहस्य वर्णन किया था, उसी समय श्रवणरन्ध्रों द्वारा हमारी बुद्धि में तो आप आ विराजे थे;
किन्तु प्रत्यक्ष दर्शन का महान् सौभाग्य तो हमें आज ही प्राप्त हुआ
है। भगवन्! हम आपको साक्षात् परमात्मातत्त्व ही जानते हैं। इस समय आप अपने विशुद्ध
सत्त्वमय विग्रह से अपने इन भक्तों को आनन्दित कर रहे हैं। आपकी इस सगुण-साकार
मूर्ति को राग और अहंकार से मुक्त मुनिजन आपकी कृपा दृष्टि से प्राप्त हुए सुदृढ़
भक्ति योग के द्वारा अपने हृदय में उपलब्ध करते हैं।
प्रभो! आपका सुयश अत्यन्त कीर्तन और
सांसारिक दुःखों की निवृत्ति करने वाला है। आपके चरणों की शरण में रहने वाले जो
महाभाग आपकी कथाओं के रसिक हैं, वे आपके
आत्यन्तिक प्रसाद मोक्षपद को कुछ अधिक नहीं गिनते; फिर
जिन्हें आपकी जरा-सी टेढ़ी भौंह ही भयभीत कर देती है, उन
इन्द्रपद आदि अन्य भोगों के विषय में तो कहना ही क्या है।
भगवन्! यदि हमारा चित्त भौरे की तरह
आपके चरणकमलों में ही रमण करता रहे, हमारी
वाणी तुलसी के समान आपके चरणसम्बन्ध से ही सुशोभित हो और हमारे कान आपकी सुयश-सुधा
से परिपूर्ण रहें तो अपने पापों के कारण भले ही हमारा जन्म नरकादि योनियों में हो
जाये इसकी हमें कोई चिन्ता नहीं है। विपुलकीर्ति प्रभो! आपने हमारे सामने जो यह
मनोहर रूप प्रकट किया है, उससे हमारे नेत्रों को बड़ा ही सुख
मिला है, विषयासक्त अजितेन्द्रिय पुरुषों के लिये इसका
दृष्टिगोचर होना अत्यन्त कठिन है। आप साक्षात् भगवान् हैं और इस प्रकार स्पष्टतया
हमारे नेत्रों के सामने प्रकट हुए हैं। हम आपको प्रणाम करते हैं।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे जयविजयोः सनकादिशापो नाम पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥
No comments:
Post a Comment
Please do not enter any spam link in the comment box