श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय १६

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध अध्याय १६ 

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध अध्याय १६  "जय-विजय का वैकुण्ठ से पतन"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय १६

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्धः षोडश अध्यायः

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः अध्यायः १६

श्रीमद्भागवत महापुराण तीसरा स्कन्ध सोलहवाँ अध्याय

तृतीय स्कन्ध: · श्रीमद्भागवत महापुराण        

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध अध्याय १६ श्लोक का हिन्दी अनुवाद

ब्रह्मोवाच -

इति तद्‌गृणतां तेषां मुनीनां योगधर्मिणाम् ।

प्रतिनन्द्य जगादेदं विकुण्ठनिलयो विभुः ॥ १ ॥

श्रीब्रह्मा जी ने कहा ;- देवगण! जब योगनिष्ठ सनकादि मुनियों ने इस प्रकार स्तुति की, तब वैकुण्ठ-निवास श्रीहरि ने उनकी प्रशंसा करते हुए यह कहा।

श्रीभगवानुवाच -

एतौ तौ पार्षदौ मह्यं जयो विजय एव च ।

कदर्थीकृत्य मां यद्वो बह्वक्रातामतिक्रमम् ॥ २ ॥

यस्त्वेतयोर्धृतो दण्डो भवद्‌भिर्मामनुव्रतैः ।

स एवानुमतोऽस्माभिः मुनयो देवहेलनात् ॥ ३ ॥

तद्वः प्रसादयाम्यद्य ब्रह्म दैवं परं हि मे ।

तद्धीत्यात्मकृतं मन्ये यत्स्वपुम्भिरसत्कृताः ॥ ४ ॥

यन्नामानि च गृह्णाति लोको भृत्ये कृतागसि ।

सोऽसाधुवादस्तत् कीर्तिं हन्ति त्वचमिवामयः ॥ ५ ॥

यस्यामृतामलयशःश्रवणावगाहः

     सद्यः पुनाति जगदाश्वपचाद्विकुण्ठः ।

सोऽहं भवद्‍भ्य उपलब्धसुतीर्थकीर्तिः

     छिन्द्यां स्वबाहुमपि वः प्रतिकूलवृत्तिम् ॥ ६ ॥

यत्सेवया चरणपद्मपवित्ररेणुं

     सद्यः क्षताखिलमलं प्रतिलब्धशीलम् ।

न श्रीर्विरक्तमपि मां विजहाति यस्याः

     प्रेक्षालवार्थ इतरे नियमान् वहन्ति ॥ ७ ॥

नाहं तथाद्मि यजमानहविर्वितानेः

     च्योतद्‍घृतप्लुतमदन् हुतभुङ्‌‌मुखेन ।

यद्‍ब्राह्मणस्य मुखतश्चरतोऽनुघासं

     तुष्टस्य मय्यवहितैर्निजकर्मपाकैः ॥ ८ ॥

येषां बिभर्म्यहमखण्डविकुण्ठयोग

     मायाविभूतिरमलाङ्‌‌घ्रिरजः किरीटैः ।

विप्रांस्तु को न विषहेत यदर्हणाम्भः

     सद्यः पुनाति सहचन्द्रललामलोकान् ॥ ९ ॥

ये मे तनूर्द्विजवरान्दुहतीर्मदीया

     भूतान्यलब्धशरणानि च भेदबुद्ध्या ।

द्रक्ष्यन्त्यघक्षतदृशो ह्यहिमन्यवस्तान्

     गृध्रा रुषा मम कुषन्त्यधिदण्डनेतुः ॥ १० ॥

ये ब्राह्मणान्मयि धिया क्षिपतोऽर्चयन्तः

     तुष्यद्‌धृदः स्मितसुधोक्षितपद्मवक्त्राः ।

वाण्यानुरागकलयात्मजवद् गृणन्तः

     सम्बोधयन्ति अहमिवाहमुपाहृतस्तैः ॥ ११ ॥

तन्मे स्वभर्तुरवसायमलक्षमाणौ

     युष्मद्व्यतिक्रमगतिं प्रतिपद्य सद्यः ।

भूयो ममान्तिकमितां तदनुग्रहो मे

     यत्कल्पतामचिरतो भृतयोर्विवासः ॥ १२ ॥

श्रीभगवान् ने कहा ;- मुनिगण! ये जय-विजय मेरे पार्षद हैं। उन्होंने मेरी कुछ भी परवा न करके आपका बहुत बड़ा अपराध किया है। आप लोग भी मेरे अनुगत भक्त हैं; अतः इस प्रकार मेरी ही अवज्ञा करने के कारण आपने इन्हें जो दण्ड दिया है, वह मुझे भी अभिमत है। ब्राह्मण मेरे परम आराध्य हैं; मेरे अनुचरों के द्वारा आप लोगों का जो तिरस्कार हुआ है, उसे मैं अपना ही किया हुआ मानता हूँ। इसलिये मैं आप लोगों से प्रसन्नता की भिक्षा माँगता हूँ। सेवकों के अपराध करने पर संसार उनके स्वामी का ही नाम लेता है। वह अपयश उसकी कीर्ति को इस प्रकार दूषित कर देता है, जैसे त्वचा को चर्मरोग।        

मेरी निर्मल सुयश-सुधा में गोता लगाने से चाण्डालपर्यन्त सारा जगत् तुरंत पवित्र हो जाता है, इसीलिये मैं वैकुण्ठकहलाता हूँ। किन्तु यह पवित्र कीर्ति मुझे आप लोगों से ही प्राप्त हुई है। इसलिये जो कोई आपके विरुद्ध आचरण करेगा, वह मेरी भुजा हो क्यों न हो-मैं उसे तुरन्त काट डालूँगा। आप लोगों की सेवा करने से ही मेरी चरणरज को ऐसी पवित्रता प्राप्त हुई है कि वह सारे पापों को तत्काल नष्ट कर देती है और मुझे ऐसा सुन्दर स्वभाव मिला है कि मेरे उदासीन रहने पर भी लक्ष्मी जी मुझे एक क्षण के लिये भी नहीं छोड़ती-यद्यपि इन्हीं के लेशमात्र कृपाकटाक्ष के लिये अन्य ब्रह्मादि देवता नाना प्रकार के नियमों एवं व्रतों का पालन करते हैं। जो अपने सम्पूर्ण कर्म फल मुझे अर्पण कर सदा सन्तुष्ट रहते हैं, वे निष्काम ब्राह्मण ग्रास-ग्रास पर तृप्त होते हुए घी से तर तरह-तरह के पकवानों का जब भोजन करते हैं, तब उनके मुख से मैं जैसा तृप्त होता हूँ वैसा यज्ञ में अग्निरूप मुख से यजमान की दी हुई आहुतियों को ग्रहण करके नहीं होता।

योगमाया का अखण्ड और असीम ऐश्वर्य मेरे अधीन है तथा मेरी चरणोदकरूपिणी गंगाजी चन्द्रमा को मस्तक पर धारण करने वाले भगवान् शंकर के सहित समस्त लोकों को पवित्र करती हैं। ऐसा परम पवित्र एवं परमेश्वर होकर भी मैं जिनकी पवित्र चरण-रज को अपने मुकुट पर धारण करता हूँ, उन ब्राह्मणों के कर्म को कौन नहीं सहन करेगा। ब्राह्मण, दूध देने वाली गौएँ और अनाथ प्राणी-ये मेरे ही शरीर हैं। पापों के द्वारा विवेकदृष्टि नष्ट हो जाने के कारण जो लोग इन्हें मुझसे भिन्न समझते हैं, उन्हें मेरे द्वारा नियुक्त यमराज के गृध-जैसे दूत-जो सर्प के समान क्रोधी हैं-अत्यन्त क्रोधित होकर अपनी चोंचो से नोचते हैं।

ब्राह्मण तिरस्कारपूर्वक कटुभाषण भी करे, तो भी जो उसमें मेरी भावना मुखकमल से उसका आदर करते हैं तथा जैसे रूठे हुए पिता को पुत्र और आप लोगों को मैं मानता हूँ, उसी प्रकार जो प्रेमपूर्ण वचनों से प्रार्थना करते हुए उन्हें शान्त करते हैं, वे मुझे अपने वश में कर लेते हैं। मेरे इन सेवकों ने मेरा अभिप्राय न समझकर ही आप लोगों का अपमान किया है। इसलिये मेरे अनुरोध से आप केवल इतनी कृपा कीजिये कि इनका यह निर्वासन काल शीघ्र ही समाप्त हो जाये, ये अपने अपराध के अनुरूप अधम गति को भोगकर शीघ्र ही मेरे पास लौट आयें।

ब्रह्मोवाच -

अथ तस्योशतीं देवीं ऋषिकुल्यां सरस्वतीम् ।

नास्वाद्य मन्युदष्टानां तेषां आत्माप्यतृप्यत ॥ १३ ॥

सतीं व्यादाय शृण्वन्तो लघ्वीं गुर्वर्थगह्वराम् ।

विगाह्यागाधगम्भीरां न विदुस्तच्चिकीर्षितम् ॥ १४ ॥

ते योगमाययारब्ध पारमेष्ठ्यमहोदयम् ।

प्रोचुः प्राञ्जलयो विप्राः प्रहृष्टाः क्षुभितत्वचः ॥ १५ ॥

श्रीब्रह्मा जी कहते हैं ;- देवताओं! सनकादि मुनि क्रोधरूप सर्प से डसे हुए थे, तो भी उनका चित्त अन्तःकरण को प्रकाशित करने वाली भगवान् की मन्त्रमयी सुमधुर वाणी सुनते-सुनते तृप्त नहीं हुआ। भगवान् की उक्ति बड़ी ही मनोहर और थोड़े अक्षरों वाली थी; किन्तु वह इतनी अर्थपूर्ण, सारयुक्त, दुर्विज्ञेय और गम्भीर थी कि बहुत ध्यान देकर सुनने और विचार करने पर भी वे यह न जान सके कि भगवान् क्या करना चाहते हैं। भगवान् की इस अद्भुत उदारता को देखकर वे बहुत आनन्दित हुए और उनका अंग-अंग पुलकित हो गया। फिर योगमाया के प्रभाव से अपने परम ऐश्वर्य का प्रभाव प्रकट करने वाले प्रभु से वे हाथ जोड़कर कहने लगे।

ऋषय ऊचुः -

न वयं भगवन् विद्मः तव देव चिकीर्षितम् ।

कृतो मेऽनुग्रहश्चेति यदध्यक्षः प्रभाषसे ॥ १६ ॥

ब्रह्मण्यस्य परं दैवं ब्राह्मणाः किल ते प्रभो ।

विप्राणां देवदेवानां भगवान् आत्मदैवतम् ॥ १७ ॥

त्वत्तः सनातनो धर्मो रक्ष्यते तनुभिस्तव ।

धर्मस्य परमो गुह्यो निर्विकारो भवान्मतः ॥ १८ ॥

तरन्ति ह्यञ्जसा मृत्युं निवृत्ता यदनुग्रहात् ।

योगिनः स भवान् किंस्विद् अनुगृह्येत यत्परैः ॥ १९ ॥

यं वै विभूतिरुपयात्यनुवेलमन्यैः

     अर्थार्थिभिः स्वशिरसा धृतपादरेणुः ।

धन्यार्पिताङ्‌‌घ्रितुलसीनवदामधाम्नो

     लोकं मधुव्रतपतेरिव कामयाना ॥ २० ॥

यस्तां विविक्तचरितैः अनुवर्तमानां

     नात्याद्रियत्परमभागवतप्रसङ्‌गः ।

स त्वं द्विजानुपथपुण्यरजः पुनीतः

     श्रीवत्सलक्ष्म किमगा भगभाजनस्त्वम् ॥ २१ ॥

धर्मस्य ते भगवतस्त्रियुग त्रिभिः स्वैः

     पद्‌भिश्चराचरमिदं द्विजदेवतार्थम् ।

नूनं भृतं तदभिघाति रजस्तमश्च

     सत्त्वेन नो वरदया तनुवा निरस्य ॥ २२ ॥

न त्वं द्विजोत्तमकुलं यदि हात्मगोपं

     गोप्ता वृषः स्वर्हणेन ससूनृतेन ।

तर्ह्येव नङ्‌क्ष्यति शिवस्तव देव पन्था

     लोकोऽग्रहीष्यद् ऋषभस्य हि तत्प्रमाणम् ॥ २३ ॥

तत्तेऽनभीष्टमिव सत्त्वनिधेर्विधित्सोः

     क्षेमं जनाय निजशक्तिभिरुद्‌धृतारेः ।

नैतावता त्र्यधिपतेर्बत विश्वभर्तुः

     तेजः क्षतं त्ववनतस्य स ते विनोदः ॥ २४ ॥

यं वानयोर्दममधीश भवान्विधत्ते

     वृत्तिं नु वा तदनुमन्महि निर्व्यलीकम् ।

अस्मासु वा य उचितो ध्रियतां स दण्डो

     येऽनागसौ वयमयुङ्‌क्ष्महि किल्बिषेण ॥ २५ ॥

मुनियों ने कहा ;- स्वप्रकाश भगवन्! आप सर्वेश्वर होकर भी जो यह कह रहे हैं कि यह आपने मुझ पर बड़ा अनुग्रह कियासो इससे आपका क्या अभिप्राय है-यह हम नहीं जान सके हैं।

प्रभो! आप ब्राह्मणों के परम हितकारी हैं; इससे लोक शिक्षा के लिये आप भले ही ऐसा मानें कि ब्राह्मण मेरे आराध्यदेव हैं। वस्तुतः तो ब्राह्मण तथा देवताओं के भी देवता ब्रह्मादि के भी आप ही आत्मा और आराध्यदेव हैं। सनातन धर्म आपसे ही उत्पन्न हुआ है, आपके अवतारों द्वारा ही समय-समय पर उसकी रक्षा होती है तथा निर्विकारस्वरूप आप ही धर्म के परमगुह्य रहस्य हैं-यह शास्त्रों का मत है। आपकी कृपा से निवृत्तिपरायण योगीजन सहज में ही मृत्युरूप संसार सागर से पार हो जाते हैं; फिर भला, दूसरा कोई आप पर क्या कृपा कर सकता है।

भगवन्! दूसरे अर्थार्थी जन जिनकी चरणरज सर्वदा अपने मस्तक पर धारण करते हैं, वे लक्ष्मी जी निरन्तर आपकी सेवा में लगी रहती हैं; सो ऐसा जान पड़ता है कि भाग्यवान् भक्तजन आपके चरणों पर जो नूतन तुलसी की मालाएँ अर्पण करते हैं, उन पर गुंजार करते हुए भौरों के समान वे भी आपके पादपद्मों को ही अपना निवास स्थान बनाना चाहती हैं। किन्तु अपने पवित्र चरित्रों से निरन्तर सेवा में तत्पर रहने वाली उन लक्ष्मी जी का भी आप विशेष आदर नहीं करते, आप तो अपने भक्तों से ही विशेष प्रेम रखते हैं। आप स्वयं ही सम्पूर्ण भजनीय गुणों के आश्रय हैं; क्या जहाँ-तहाँ विचरते हुए ब्राह्मणों के चरणों में लगने से पवित्र हुई मार्ग की धूलि और श्रीवत्स का चिह्न आपको पवित्र कर सकते हैं? क्या इनसे आपकी शोभा बढ़ सकती है?

भगवन्! आप साक्षात् धर्म स्वरूप हैं। आप सत्यादि तीनों युगों में प्रत्यक्ष रूप से विद्यमान रहते हैं तथा ब्राह्मण और देवताओं के लिये तप, शौच और दया-अपने इन तीन चरणों से इस चराचर जगत् की रक्षा करते हैं। अब आप अपनी शुद्धसत्त्वमयी वरदायिनी मूर्ति से हमारे धर्मविरोधी रजोगुण-तमोगुण को दूर कर दीजिये देव! यह ब्राह्मणकुल आपके द्वारा अवश्य रक्षणीय है। यदि साक्षात् धर्मरूप होकर भी आप सुमधुर वाणी और पूजनादि के द्वारा इस उत्तम कुल की रक्षा न करें तो आपका निश्चित किया हुआ कल्याण मार्ग ही नष्ट हो जाये; क्योंकि लोक तो श्रेष्ठ पुरुषों के आचरण को ही प्रमाणरूप से ग्रहण करता है।

प्रभो! आप सत्त्वगुण की खान हैं और सभी जीवों का कल्याण करने के लिये उत्सुक हैं। इसी से आप अपनी शक्तिरूप राजा आदि के द्वारा धर्म के शत्रुओं का संहार करते हैं; क्योंकि वेदमार्ग का उच्छेद आपको अभीष्ट नहीं है। आप त्रिलोकीनाथ और जगत्प्रतिपालक होकर भी ब्राह्मणों के प्रति इतने नम्र रहते हैं, इससे आपके तेज की कोई हानि नहीं होती; यह तो आपकी लीलामात्र है।

सर्वेश्वर! इन द्वारपालों को आप जैसा उचित समझें वैसा दण्ड दें अथवा पुरस्कार रूप में इनकी वृत्ति बढ़ा दें-हम निष्कपट भाव से सब प्रकार आपसे सहमत हैं अथवा हमने आपके इन निरपराध अनुचरों को शाप दिया है, इसके लिये हमीं को उचित दण्ड दें; हमें वह भी सहर्ष स्वीकार है।

श्रीभगवानुवाच -

एतौ सुरेतरगतिं प्रतिपद्य सद्यः

     संरम्भसम्भृतसमाध्यनुबद्धयोगौ ।

भूयः सकाशमुपयास्यत आशु यो वः

     शापो मयैव निमितस्तदवेत विप्राः ॥ २६ ॥

श्रीभगवान् ने कहा ;- मुनिगण! आपने इन्हें जो शाप दिया है-सच जानिये, वह मेरी ही प्रेरणा से हुआ है। अब ये शीघ्र ही दैत्ययोनि को प्राप्त होंगे और वहाँ क्रोधावेश से बढ़ी हुई एकाग्रता के कारण सुदृढ़ योग सम्पन्न होकर फिर जल्दी ही मेरे पास लौट आयेंगे।

ब्रह्मोवाच -

अथ ते मुनयो दृष्ट्वा नयनानन्दभाजनम् ।

वैकुण्ठं तदधिष्ठानं विकुण्ठं च स्वयंप्रभम् ॥ २७ ॥

भगवन्तं परिक्रम्य प्रणिपत्यानुमान्य च ।

प्रतिजग्मुः प्रमुदिताः शंसन्तो वैष्णवीं श्रियम् ॥ २८ ॥

भगवाननुगावाह यातं मा भैष्टमस्तु शम् ।

ब्रह्मतेजः समर्थोऽपि हन्तुं नेच्छे मतं तु मे ॥ २९ ॥

एतत्पुरैव निर्दिष्टं रमया क्रुद्धया यदा ।

पुरापवारिता द्वारि विशन्ती मय्युपारते ॥ ३० ॥

मयि संरम्भयोगेन निस्तीर्य ब्रह्महेलनम् ।

प्रत्येष्यतं निकाशं मे कालेनाल्पीयसा पुनः ॥ ३१ ॥

द्वाःस्थावादिश्य भगवान् विमानश्रेणिभूषणम् ।

सर्वातिशयया लक्ष्म्या जुष्टं स्वं धिष्ण्यमाविशत् ॥ ३२ ॥

तौ तु गीर्वाणऋषभौ दुस्तरात् हरिलोकतः ।

हतश्रियौ ब्रह्मशापाद् अभूतां विगतस्मयौ ॥ ३३ ॥

तदा विकुण्ठधिषणात् तयोर्निपतमानयोः ।

हाहाकारो महानासीद् विमानाग्र्येषु पुत्रकाः ॥ ३४ ॥

तावेव ह्यधुना प्राप्तौ पार्षदप्रवरौ हरेः ।

दितेर्जठरनिर्विष्टं काश्यपं तेज उल्बणम् ॥ ३५ ॥

तयोरसुरयोरद्य तेजसा यमयोर्हि वः ।

आक्षिप्तं तेज एतर्हि भगवान् तद्विधित्सति ॥ ३६ ॥

विश्वस्य यः स्थितिलयोद्‍भवहेतुराद्यो

     योगेश्वरैरपि दुरत्यययोगमायः ।

क्षेमं विधास्यति स नो भगवांस्त्र्यधीशः

     तत्रास्मदीयविमृशेन कियानिहार्थः ॥ ३७ ॥

श्रीब्रह्मा जी कहते हैं ;- तदनन्तर उन मुनीश्वरों ने नयनाभिराम भगवान् विष्णु और उनके स्वयंप्रकाश वैकुण्ठधाम के दर्शन करके प्रभु की परिक्रमा की और उन्हें प्रणाम कर तथा उनकी आज्ञा पा भगवान् के ऐश्वर्य का वर्णन करते हुए प्रमुदित हो वहाँ से लौट गये। फिर भगवान् ने अपने अनुचरों से कहा, ‘जाओ, मन में किसी प्रकार का भय मत करो; तुम्हारा कल्याण होगा। मैं सब कुछ करने में समर्थ होकर भी ब्रह्मतेज को मिटाना नहीं चाहता; क्योंकि ऐसा ही मुझे अभिमत भी है।        

एक बार जब मैं योगनिद्रा में स्थित हो गया था, तब तुमने द्वार में प्रवेश करती हुई लक्ष्मी जी को रोका था। उस समय उन्होंने क्रुद्ध होकर पहले ही तुम्हें यह शाप दे दिया था। अब दैत्ययोनि में मेरे प्रति क्रोधाकार वृत्ति रहने से तुम्हें जो एकाग्रता होगी, उससे तुम इस विप्र-तिरस्कारजनित पाप से मुक्त हो जाओगे और फिर थोड़े ही समय में मेरे पास लौट आओगे।

द्वारपालों को इस प्रकार आज्ञा दे, भगवान् ने विमानों की श्रेणियों से सुसज्जित अपने सर्वादिक श्रीसम्पन्न धाम में प्रवेश किया। वे देवश्रेष्ठ जय-विजय तो ब्रह्मशाप के कारण उस अलंघनीय भगवद्धाम में ही श्रीहीन हो गये तथा उनका सारा गर्व गलित हो गया।

पुत्रों! फिर जब वे वैकुण्ठलोक से गिरने लगे, तब वहाँ श्रेष्ठ विमानों पर बैठे हुए वैकुण्ठवासियों में महान् हाहाकार मच गया। इस समय दिति के गर्भ में स्थित जो कश्यप जी का उग्र तेज है, उसमें भगवान् के उन पार्षद प्रवरों ने ही प्रवेश किया है। उन दोनों असुरों के तेज से ही तुम सबका तेज फीका पड़ गया है। इस समय भगवान् ऐसा ही करना चाहते हैं, जो आदिपुरुष संसार की उत्पत्ति, स्थिति और लय के कारण हैं, जिनकी योगमाया को बड़े-बड़े योगिजन भी बड़ी कठिनता से पार पाते हैं-वे सत्त्वादि तीनों गुणों के नियन्ता श्रीहरि ही हमारा कल्याण करेंगे। अब इस विषय में हमारे विशेष विचार करने से क्या लाभ हो सकता है।

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे षोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥                             

No comments:

Post a Comment

Please do not enter any spam link in the comment box