श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय १४

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय १४

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय १४ "दिति का गर्भधारण"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय १४

श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध चतुर्दश अध्याय

श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः ३/अध्यायः १४

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय १४ हिन्दी अनुवाद सहित

श्रीशुक उवाच ।

निशम्य कौषारविणोपवर्णितां

    हरेः कथां कारणसूकरात्मनः ।

पुनः स पप्रच्छ तमुद्यताञ्जलिः

    न चातितृप्तो विदुरो धृतव्रतः ॥ १ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं ;- राजन्! प्रयोजनवश सूकर बने श्रीहरि की कथा को मैत्रेयजी के मुख से सुनकर भी भक्तिव्रतधारी विदुरजी की पूर्ण तृप्ति न हुई; अतः उन्होंने हाथ जोड़कर फिर पूछा।

विदुर उवाच ।

तेनैव तु मुनिश्रेष्ठ हरिणा यज्ञमूर्तिना ।

आदिदैत्यो हिरण्याक्षो हत इत्यनुशुश्रुम ॥ २ ॥

तस्य चोद्धरतः क्षौणीं स्वदंष्ट्राग्रेण लीलया ।

दैत्यराजस्य च ब्रह्मन् कस्माद् हेतोरभून्मृधः ॥ ३ ॥

विदुरजी ने कहा ;- मुनिवर! हमने यह बात आपके मुख से अभी सुनी है कि आदिदैत्य हिरण्याक्ष को भगवान् यज्ञमूर्ति ने ही मारा था। ब्रह्मन्! जिस समय भगवान् लीला से ही अपनी दाढ़ों पर रखकर पृथ्वी को जल में से निकाल रहे थे, उस समय उनसे दैत्यराज हिरण्याक्ष की मूठभेड़ किस कारण हुई ?

मैत्रेय उवाच ।

साधु वीर त्वया पृष्टं अवतारकथां हरेः ।

यत्त्वं पृच्छसि मर्त्यानां मृत्युपाशविशातनीम् ॥ ४ ॥

ययोत्तानपदः पुत्रो मुनिना गीतयार्भकः ।

मृत्योः कृत्वैव मूर्ध्न्यङ्‌घ्रिं आरुरोह हरेः पदम् ॥ ५ ॥

अथात्रापीतिहासोऽयं श्रुतो मे वर्णितः पुरा ।

ब्रह्मणा देवदेवेन देवानां अनुपृच्छताम् ॥ ६ ॥

दितिर्दाक्षायणी क्षत्तः मारीचं कश्यपं पतिम् ।

अपत्यकामा चकमे सन्ध्यायां हृच्छयार्दिता ॥ ७ ॥

इष्ट्वाग्निजिह्वं पयसा पुरुषं यजुषां पतिम् ।

निम्लोचत्यर्क आसीनं अग्न्यगारे समाहितम् ॥ ८ ॥

श्रीमैत्रेयजी ने कहा ;- विदुरजी! तुम्हारा प्रश्न बड़ा ही सुन्दर है; क्योंकि तुम श्रीहरि की अवतार कथा के विषय में ही पूछ रहे हो, जो मनुष्यों के मृत्युपाश का छेदन करने वाली है। देखो! उत्तानपाद का पुत्र ध्रुव बालकपन में श्रीनारदजी की सुनायी हुई हरिकथा के प्रभाव से ही मृत्यु के सिर पर पैर रखकर भगवान् के परमपद पर आरूढ़ हो गया था। पूर्वकाल में एक बार इसी वराह भगवान् और हिरण्याक्ष के युद्ध के विषय में देवताओं के प्रश्न करने पर करने पर देवदेव श्रीब्रम्हा जी ने उन्हें यह इतिहास सुनाया था और उसी के परम्परा से मैंने सुना है। विदुरजी! एक बार दक्ष की पुत्री दिति ने पुत्रप्राप्ति की इच्छा से कामातुर होकर सायंकाल के समय ही अपने पति मरीचिनन्दन कश्यपजी से प्रार्थना की। उस समय कश्यपजी खीर की आहुतियों द्वारा अग्निजिन्ह भगवान् यज्ञपति की आराधना कर सूर्यास्त का समय जान अग्निशाला में ध्यानस्थ होकर बैठे थे।

दितिरुवाच ।

एष मां त्वत्कृते विद्वन् काम आत्तशरासनः ।

दुनोति दीनां विक्रम्य रम्भामिव मतङ्गजः ॥ ९ ॥

तद्‍भवान् दह्यमानायां सपत्‍नीनां समृद्धिभिः ।

प्रजावतीनां भद्रं ते मय्यायुङ्क्तामनुग्रहम् ॥ १० ॥

भर्तर्याप्तोरुमानानां लोकानाविशते यशः ।

पतिर्भवद्विधो यासां प्रजया ननु जायते ॥ ११ ॥

पुरा पिता नो भगवान् दक्षो दुहितृवत्सलः ।

कं वृणीत वरं वत्सा इत्यपृच्छत नः पृथक् ॥ १२ ॥

स विदित्वात्मजानां नो भावं सन्तानभावनः ।

त्रयोदशाददात्तासां यास्ते शीलमनुव्रताः ॥ १३ ॥

अथ मे कुरु कल्याण कामं कञ्जविलोचन ।

आर्तोपसर्पणं भूमन् अमोघं हि महीयसि ॥ १४ ॥

इति तां वीर मारीचः कृपणां बहुभाषिणीम् ।

प्रत्याहानुनयन् वाचा प्रवृद्धानङ्गकश्मलाम् ॥ १५ ॥

एष तेऽहं विधास्यामि प्रियं भीरु यदिच्छसि ।

तस्याः कामं न कः कुर्यात् सिद्धिस्त्रैवर्गिकी यतः ॥ १६ ॥

सर्वाश्रमानुपादाय स्वाश्रमेण कलत्रवान् ।

व्यसनार्णवमत्येति जलयानैर्यथार्णवम् ॥ १७ ॥

दिति ने कहा ;- विद्वन्! मतवाला हाथी जैसे केले के वृक्ष को मसल डालता है, उसी प्रकार यह प्रसिद्ध धनुर्धर कामदेव मुझ अबला पर जोर जताकर आपके लिये मुझे बेचैन कर रहा है। अपनी पुत्रवती सौतों की सुख-समृद्धि को देखकर मैं ईर्ष्या की आग से जलील जाती हूँ। अतः आप मुझ पर कृपा कीजिये, आपका कल्याण हो। जिनके गर्भ से आप-जैसा पति पुत्ररूप से उत्पन्न होता है, वे ही स्त्रियाँ अपने पतियों से सम्मानिता समझी जाती हैं। उनका सुयश संसार में सर्वत्र फैल जाता । हमारे पिता प्रजापति दक्ष का अपनी पुत्रियों पर बड़ा स्नेह था। एक बार उन्होंने हम सबको अलग-अलग बुलाकर पूछा कि तुम किसे अपना पति बनाना चाहती हो ?’ वे अपनी सन्तान की सब प्रकार की चिन्ता रखते थे। अतः हमारा भाव जानकर उन्होंने उनमें से हम तेरह पुत्रियों को, जो आपके गुण-स्वभाव के अनुरूप थीं, आपके साथ ब्याह दिया। अतः मंगलमूर्ते! कमलनयन! आप मेरी इच्छा पूर्ण कीजिये; क्योंकि हे महत्तम! आप-जैसे महापुरुषों के पास दीनजनों का आना निष्फल नहीं होता।

विदुरजी! दिति कामदेव के वेग से अत्यन्त बेचैन और बेबस हो रही थी। उसने इसी प्रकार बहुत-सी बातें बनाते हुए दीन होकर कश्यपजी से प्रार्थना की, तब उन्होंने उसे सुमधुर वाणी से समझाते हुए कहा। भीरु! तुम्हारी इच्छा के अनुसार मैं अभी-अभी तुम्हारा प्रिय अवश्य करूँगा। भला, जिसके द्वारा अर्थ, कर्म और कामतीनों की सिद्धि होती है, अपनी ऐसी पत्नी की कामना कौन पूर्ण नहीं करेगा ? जिस जहाज पर चढ़कर मनुष्य महासागर को पार कर लेता है, उसी प्रकार ग्रहस्थाश्रमी दूसरे आश्रमों को आश्रय देता हुआ अपने आश्रम द्वारा स्वयं भी दुःखसमुद्र के पार हो जाता है।

यामाहुरात्मनो ह्यर्धं श्रेयस्कामस्य मानिनि ।

यस्यां स्वधुरमध्यस्य पुमांश्चरति विज्वरः ॥ १८ ॥

यामाश्रित्येन्द्रियारातीन् दुर्जयानितराश्रमैः ।

वयं जयेम हेलाभिः दस्यून् दुर्गपतिर्यथा ॥ १९ ॥

न वयं प्रभवस्तां त्वां अनुकर्तुं गृहेश्वरि ।

अप्यायुषा वा कार्त्स्न्येन ये चान्ये गुणगृध्नवः ॥ २० ॥

अथापि काममेतं ते प्रजात्यै करवाण्यलम् ।

यथा मां नातिरोचन्ति मुहूर्तं प्रतिपालय ॥ २१ ॥

एषा घोरतमा वेला घोराणां घोरदर्शना ।

चरन्ति यस्यां भूतानि भूतेशानुचराणि ह ॥ २२ ॥

एतस्यां साध्वि सन्ध्यायां भगवान् भूतभावनः ।

परीतो भूतपर्षद्‌भिः वृषेणाटति भूतराट् ॥ २३ ॥

श्मशानचक्रानिलधूलिधूम्र

    विकीर्णविद्योतजटाकलापः ।

भस्मावगुण्ठामलरुक्मदेहो

    देवस्त्रिभिः पश्यति देवरस्ते ॥ २४ ॥

न यस्य लोके स्वजनः परो वा

    नात्यादृतो नोत कश्चिद्विगर्ह्यः ।

वयं व्रतैर्यत् चरणापविद्धां

    आशास्महेऽजां बत भुक्तभोगाम् ॥ २५ ॥

यस्यानवद्याचरितं मनीषिणो

    गृणन्त्यविद्यापटलं बिभित्सवः ।

निरस्तसाम्यातिशयोऽपि यत्स्वयं

    पिशाचचर्यामचरद्‍गतिः सताम् ॥ २६ ॥

हसन्ति यस्याचरितं हि दुर्भगाः

    स्वात्मन् रतस्याविदुषः समीहितम् ।

यैर्वस्त्रमाल्याभरणानुलेपनैः

    श्वभोजनं स्वात्मतयोपलालितम् ॥ २७ ॥

ब्रह्मादयो यत्कृतसेतुपाला

    यत्कारणं विश्वमिदं च माया ।

आज्ञाकरी यस्य पिशाचचर्या

    अहो विभूम्नश्चरितं विडम्बनम् ॥ २८ ॥

मानिनी! स्त्री को तो विविध पुरुषार्थ की कामना वाले पुरुष का आधा अंग कहा गया है। उस पर अपनी गृहस्थी का भार डालकर पुरुष निश्चिन्त होकर बिचरता है। इन्द्रिय रूप शत्रु अन्य आश्रम वालों के लिये अत्यन्त दुर्जय हैं; किन्तु जिस प्रकार किले का स्वामी सुगमता से ही लूटने वाले शत्रुओं को अपने अधीन कर लेता है, उसी प्रकार हम अपनी विवाहिता पत्नी का आश्रय लेकर इन इन्द्रियरूप शत्रुओं को सहज में ही जीत लेते हैं।

गृहेश्वरि! तुम-जैसी भार्या के उपकारों का बदला तो हम अथवा और कोई गुणग्राही पुरुष अपनी सारी उम्र अथवा जन्मान्तर में भी पूर्णरूप से नहीं चुका सकते। तो भी तुम्हारी इस सन्तान प्राप्ति की इच्छा को मैं यथाशक्ति अवश्य पूर्ण करूँगा। परन्तु अभी तुम एक मुहूर्त ठहरो, जिससे लोग मेरी निन्दा न करें। यह अत्यन्त घोर समय राक्षसादि घोर जीवों का है और देखने में भी बड़ा भयानक है। इसमें भगवान् भूतनाथ के गण भूत-प्रेतादि घूमा करते हैं। साध्वी! इस सन्ध्याकाल में भूतभावन भूतपति भगवान् शंकर अपने गण भूत-प्रेतादि को साथ लिये बैल पर चढ़कर बिचरा करते हैं। जिनका जटाजूट श्मशाम भूमि से उठे हुए बवंडर की धूलि से धूसरित होकर देदीप्यमान हो रहा है तथा जिनके सुवर्ण-कान्तिमय गौर शरीर में भस्म लगी हुई है, वे तुम्हारे देवर (श्वशुर) महादेव जी अपने सूर्य, चन्द्रमा और अग्निरूप तीन नेत्रों से सभी को देखते रहते हैं। संसार में उनका कोई अपना या पराया नहीं है। न कोई अधिक आदरणीय और न निन्दनीय ही है। हम लोग तो अनेक प्रकार के व्रतों का पालन करके उनकी माया को ही ग्रहण करना चाहते हैं, जिसे उन्होंने भोगकर लात मार दी है। विवेकी पुरुष अविद्या के आवरण को हटाने की इच्छा से उनके निर्मल चरित्र का गान किया करते हैं, उनसे बढ़कर तो क्या, उनके समान भी कोई नहीं है और उन तक केवल सत्पुरुषों की ही पहुँच है। यह सब होने पर भी वे स्वयं पिशाचों का-सा आचरण करते हैं। यह नर शरीर कुत्तों का भोजन है; जो अविवेकी पुरुष आत्मा मानकर वस्त्र, आभूषण, माला और चन्दनादि से इसी को सजाते-सँवारते रहते हैं वे अभागे ही आत्माराम भगवान् शंकर के आचरण पर हँसते हैं। हम लोग तो क्या, ब्रह्मादि लोकपाल भी उन्हीं की बाँधी हुई धर्म-मर्यादा का पालन करते हैं; वे ही इस विश्व के अधिष्ठान हैं तथा यह माया भी उन्हीं की आज्ञा का अनुसरण करने वाली है। ऐसे होकर भी वे प्रेतों का-सा आचरण करते हैं। अहो! उन जगद्व्यापक प्रभु की यह अद्भुत लीला कुछ समझ में नहीं आती।

मैत्रेय उवाच ।

सैवं संविदिते भर्त्रा मन्मथोन् मथितेन्द्रिया ।

जग्राह वासो ब्रह्मर्षेः वृषलीव गतत्रपा ॥ २९ ॥

स विदित्वाथ भार्यायाः तं निर्बन्धं विकर्मणि ।

नत्वा दिष्टाय रहसि तयाथोपविवेश हि ॥ ३० ॥

अथोपस्पृश्य सलिलं प्राणानायम्य वाग्यतः ।

ध्यायन् जजाप विरजं ब्रह्म ज्योतिः सनातनम् ॥ ३१ ॥

दितिस्तु व्रीडिता तेन कर्मावद्येन भारत ।

उपसङ्गम्य विप्रर्षिं अधोमुख्यभ्यभाषत ॥ ३२ ॥

मैत्रेय जी ने कहा ;- पति के इस प्रकार समझाने पर भी कामातुरा दिति ने वेश्या के समान निर्लज्ज होकर ब्रह्मार्षि कश्यप जी का वस्त्र पकड़ लिया। तब कश्यप जी ने उस निन्दित कर्म में अपनी भार्या का बहुत आग्रह देख दैव को नमस्कार किया और एकान्त में उसके साथ समागम किया। फिर जल में स्नान कर प्राण और वाणी का संयम करके विशुद्ध ज्योतिर्मय सनातन ब्रह्म का ध्यान करते हुए उसी का जप करने लगे।

विदुर जी! दिति को भी उस निन्दित कर्म के कारण बड़ी लज्जा आयी और वह ब्रह्मार्षि के पास जा, सिर नीचा करके इस प्रकार कहने लगी।

दितिरुवाच ।

न मे गर्भमिमं ब्रह्मन् भूतानां ऋषभोऽवधीत् ।

रुद्रः पतिर्हि भूतानां यस्याकरवमंहसम् ॥ ३३ ॥

नमो रुद्राय महते देवायोग्राय मीढुषे ।

शिवाय न्यस्तदण्डाय धृतदण्डाय मन्यवे ॥ ३४ ॥

स नः प्रसीदतां भामो भगवानुर्वनुग्रहः ।

व्याधस्याप्यनुकम्प्यानां स्त्रीणां देवः सतीपतिः ॥ ३५ ॥

दिति बोली ;- ब्रह्मन्! भगवान रुद्र भूतों के स्वामी हैं, मैंने उनका अपराध किया है, किन्तु वे भूतश्रेष्ठ मेरे इस गर्भ को नष्ट न करें। मैं भक्तवाञ्छाकल्पतरु, उग्र एवं रुद्ररूप महादेव को नमस्कार करती हूँ। वे सत्पुरुषों के लिये कल्याणकारी एवं दण्ड देने के भाव से रहित हैं, किन्तु दुष्टों के लिये क्रोध मूर्ति दण्डपाणि हैं। हम स्त्रियों पर तो व्याध भी दया करते हैं, फिर वे सतीपति तो मेरे बहनोई और परम कृपालु हैं; अतः वे मुझ पर प्रसन्न हों।

मैत्रेय उवाच ।

स्वसर्गस्याशिषं लोक्यां आशासानां प्रवेपतीम् ।

निवृत्तसन्ध्यानियमो भार्यामाह प्रजापतिः ॥ ३६ ॥

श्रीमैत्रेयजी ने कहा ;- विदुर जी! प्रजापति कश्यप ने सायंकालीन सन्ध्या-वन्दनादि कर्म से निवृत्त होने पर देखा कि दिति थर-थर काँपती हुई अपनी सन्तान की लौकिक और पारलौकिक उन्नति के लिये प्रार्थना कर रही है। तब उन्होंने उससे कहा।

कश्यप उवाच ।

अप्रायत्यादात्मनस्ते दोषान्मौहूर्तिकादुत ।

मन्निदेशातिचारेण देवानां चातिहेलनात् ॥ ३७ ॥

भविष्यतस्तवाभद्रौ अभद्रे जाठराधमौ ।

लोकान्सपालांस्त्रींश्चण्डि मुहुराक्रन्दयिष्यतः ॥ ३८ ॥

प्राणिनां हन्यमानानां दीनानां अकृतागसाम् ।

स्त्रीणां निगृह्यमाणानां कोपितेषु महात्मसु ॥ ३९ ॥

तदा विश्वेश्वरः क्रुद्धो भगवान् लोकभावनः ।

हनिष्यत्यवतीर्यासौ यथाद्रीन् शतपर्वधृक् ॥ ४० ॥

कश्यप जी ने कहा ;- तुम्हारा चित्त कामवासना से मलिन था, वह समय भी ठीक नहीं था और तुमने मेरी बात भी नहीं मानी तथा देवताओं की भी अवहेलना की। अमंगलमयी चण्डी! तुम्हारी कोख से दो बड़े ही अमंगलमय और अधम पुत्र उत्पन्न होंगे। वे बार-बार सम्पूर्ण लोक और लोकपालों को अपने अत्याचारों से रुलायेंगे। जब उनके हाथ से बहुत-से निरपराध और दीन प्राणी मारे जाने लगेंगे, स्त्रियों पर अत्याचार होने लगेंगे और महात्माओं को क्षुब्ध किया जाने लगेगा, उस समय सम्पूर्ण लोकों की रक्षा करने वाले श्रीजगदीश्वर कुपित होकर अवतार लेंगे और इन्द्र जैसे पर्वतों का दमन करता है, उसी प्रकार उनका वध करेंगे।

दितिरुवाच ।

वधं भगवता साक्षान् सुनाभोदारबाहुना ।

आशासे पुत्रयोर्मह्यं मा क्रुद्धाद्‍ब्राह्मणाद् विभो ॥ ४१ ॥

न ब्रह्मदण्डदग्धस्य न भूतभयदस्य च ।

नारकाश्चानुगृह्णन्ति यां यां योनिमसौ गतः ॥ ४२ ॥

दिति ने कहा ;- प्रभो! यही मैं भी चाहती हूँ कि यदि मेरे पुत्रों का वध हो तो वह साक्षात् भगवान् चक्रपाणि के हाथ से ही हो, कुपित ब्राह्मणों के शापादि से न हो। जो जीव ब्राह्मणों के शाप से दग्ध अथवा प्राणियों को भय देने वाला होता है, वह किसी भी योनि में जाये-उस पर नारकी जीव भी दया नहीं करते।

कश्यप उवाच ।

कृतशोकानुतापेन सद्यः प्रत्यवमर्शनात् ।

भगवत्युरुमानाच्च भवे मय्यपि चादरात् ॥ ४३ ॥

पुत्रस्यैव च पुत्राणां भवितैकः सतां मतः ।

गास्यन्ति यद्यशः शुद्धं भगवद्यशसा समम् ॥ ४४ ॥

योगैर्हेमेव दुर्वर्णं भावयिष्यन्ति साधवः ।

निर्वैरादिभिरात्मानं यच्छीलमनुवर्तितुम् ॥ ४५ ॥

यत्प्रसादादिदं विश्वं प्रसीदति यदात्मकम् ।

स स्वदृग्भगवान् यस्य तोष्यतेऽनन्यया दृशा ॥ ४६ ॥

स वै महाभागवतो महात्मा

    महानुभावो महतां महिष्ठः ।

प्रवृद्धभक्त्या ह्यनुभाविताशये

    निवेश्य वैकुण्ठमिमं विहास्यति ॥ ४७ ॥

अलम्पटः शीलधरो गुणाकरो

    हृष्टः परर्ध्या व्यथितो दुःखितेषु ।

अभूतशत्रुर्जगतः शोकहर्ता

    नैदाघिकं तापमिवोडुराजः ॥ ४८ ॥

अन्तर्बहिश्चामलमब्जनेत्रं

    स्वपूरुषेच्छानुगृहीतरूपम् ।

पौत्रस्तव श्रीललनाललामं

    द्रष्टा स्फुरत्कुण्डलमण्डिताननम् ॥ ४९ ॥

कश्यप जी ने कहा ;- देवि! तुमने अपने किये पर शोक और पश्चाताप प्रकट किया है, तुम्हें शीघ्र ही उचित-अनुचित का विचार भी हो गया तथा भगवान विष्णु, शिव और मेरे प्रति भी तुम्हारा बहुत आदर जान पड़ता है; इसलिये तुम्हारे एक पुत्र के चार पुत्रों में से एक ऐसा होगा, जिसका सत्पुरुष भी मान करेंगे और जिसके पवित्र यश को भक्तजन भगवान् के गुणों के साथ गायेंगे। जिस प्रकार खोटे सोने को बार-बार तपाकर शुद्ध किया जाता है, उसी प्रकार साधुजन उसके स्वभाव का अनुकरण करने के लिये निर्वेता आदि उपायों से अपने अन्तःकरण को शुद्ध करेंगे। जिनकी कृपा से उन्हीं का स्वरूपभूत यह जगत् आनन्दित होता है, वे स्वयंप्रकाश भगवान् भी उसकी अनन्यभक्ति से सन्तुष्ट हो जायेंगे।

दिति! वह बालक बड़ा ही भगवद्भक्त, उदारहृदय, प्रभावशाली और महान् पुरुषों का भी पूज्य होगा तथा प्रौढ़ भक्तिभाव से विशुद्ध और भावान्वित हुए अन्तःकरण में श्रीभगवान् को स्थापित करके देहाभिमान को त्याग देगा। वह विषयों में अनासक्त, शीलवान्, गुणों का भंडार तथा दूसरों की समृद्धि में सुख और दुःख में दुःख मानने वाला होगा उसका कोई शत्रु न होगा तथा चन्द्रमा जैसे ग्रीष्म ऋतु के ताप को हर लेता है, वैसे ही वह संसार के शोक को शान्त करने वाला होगा जो इस संसार के बाहर भीतर सब और विराजमान हैं, अपने भक्तों के इच्छानुसार समय-समय पर मंगलविग्रह प्रकट करते हैं और लक्ष्मीरूप लावण्यमूर्ति ललना की भी शोभा बढ़ाने वाले हैं तथा जिनका मुखमण्डल झिलमिलाते हुए कुण्डलों से सुशोभित है-उन परम पवित्र कमलनयन श्रीहरि का तुम्हारे पौत्र को प्रत्यक्ष दर्शन होगा।

मैत्रेय उवाच ।

श्रुत्वा भागवतं पौत्रं अमोदत दितिर्भृशम् ।

पुत्रयोश्च वधं कृष्णाद् विदित्वाऽऽसीन् महामनाः ॥ ५० ॥

श्री मैत्रेय जी कहते हैं ;-  विदुर जी! दिति ने जब सुना कि मेरा पौत्र भगवान् का भक्त होगा, तब उसे बड़ा आनन्द हुआ तथा यह जानकर कि मेरे पुत्र साक्षात् श्रीहरि के हाथ से मारे जायेंगे, उसे और भी अधिक उत्साह हुआ।

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे दितिकश्यपसंवादे चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥

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