श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय १३
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३
अध्याय १३"वाराह-अवतार की कथा"
श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध त्रयोदश अध्याय
श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः
३/अध्यायः १३
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३
अध्याय १३ हिन्दी अनुवाद सहित
श्रीशुक उवाच ।
निशम्य वाचं वदतो मुनेः पुण्यतमां
नृप ।
भूयः पप्रच्छ कौरव्यो
वासुदेवकथादृतः ॥ १ ॥
श्रीशुकदेवजी ने कहा ;-
राजन्! मुनिवर मैत्रेयजी के मुख से यह परम पुण्यमयी कथा सुनकर
श्रीविदुरजी ने फिर पूछा; क्योंकि भगवान् की लीला-कथा में
इनका अत्यन्त अनुराग हो गया था।
विदुर उवाच ।
स वै स्वायम्भुवः सम्राट् प्रियः
पुत्रः स्वयम्भुवः ।
प्रतिलभ्य प्रियां पत्नीं किं चकार
ततो मुने ॥ २ ॥
चरितं तस्य राजर्षेः आदिराजस्य
सत्तम ।
ब्रूहि मे श्रद्दधानाय
विष्वक्सेनाश्रयो ह्यसौ ॥ ३ ॥
श्रुतस्य पुंसां सुचिरश्रमस्य
नन्वञ्जसा सूरिभिरीडितोऽर्थः ।
तत्तद्गुणानुश्रवणं मुकुन्द
पादारविन्दं हृदयेषु येषाम् ॥ ४ ॥
विदुरजी ने कहा ;-
मुने! स्वयम्भू ब्रम्हाजी के प्रिय पुत्र महाराज स्वायम्भु मनु ने
अपनी प्रिय पत्नी शतरूपा को पाकर फिर क्या किया ? आप
साधुशिरोमणि हैं। आप मुझे आदिराज राजर्षि स्वायम्भुव मनु का पवित्र चरित्र
सुनाइये। वे श्रीविष्णु भगवान् के शरणापन्न थे, इसलिये उनका
चरित्र सुनने में मेरी बहुत श्रद्धा है। जिनके ह्रदय में श्रीमुकुन्द के
चरणारविन्द विराजमान हैं, उन भक्तजनों के गुणों को श्रवण
करना ही मनुष्यों के बहुत दिनों तक किये हुए शास्त्राभ्यास के श्रम का मुख्य फल है,
ऐसा विद्वानों का श्रेष्ठ मत है।
श्रीशुक उवाच ।
इति ब्रुवाणं विदुरं विनीतं
सहस्रशीर्ष्णश्चरणोपधानम् ।
प्रहृष्टरोमा भगवत्कथायां
प्रणीयमानो मुनिरभ्यचष्ट ॥ ५ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं ;-
राजन्! विदुरजी सहस्त्रशीर्षा भगवान् श्रीहरि के चरणाश्रित भक्त थे।
उन्होंने जब विनयपूर्वक भगवान् की कथा के लिये प्रेरणा की, तब
मुनिवर मैत्रेय का रोम-रोम खिल उठा। उन्होंने कहा।
मैत्रेय उवाच ।
यदा स्वभार्यया सार्धं जातः
स्वायम्भुवो मनुः ।
प्राञ्जलिः प्रणतश्चेदं
वेदगर्भमभाषत ॥ ६ ॥
त्वमेकः सर्वभूतानां जन्मकृत्
वृत्तिदः पिता ।
तथापि नः प्रजानां ते शुश्रूषा केन
वा भवेत् ॥ ७ ॥
तद्विधेहि नमस्तुभ्यं
कर्मस्वीड्यात्मशक्तिषु ।
यत्कृत्वेह यशो विष्वक् अमुत्र च
भवेद्गतिः ॥ ८ ॥
श्रीमैत्रेयजी बोले ;-
जब अपनी भार्या शतरूपा के साथ स्वायम्भुव मनु का जन्म हुआ, तब उन्होंने बड़ी नम्रता से हाथ जोड़कर श्रीब्रम्हा से कहा। ‘भगवन्! एकमात्र आप ही समस्त जीवों के जन्मदाता और जीविका प्रदान करने वाले
पिता है। तथापि हम आपकी सन्तान ऐसा कौन-सा कर्म करें, जिससे
आपकी सेवा बन सके ? पूज्यपाद! हम आपको नमस्कार करते हैं। आप
हमसे हो सकने योग्य किसी ऐसे कार्य के लिये हमें आज्ञा दीजिये, जिससे इस लोक में हमारी सर्वत्र कीर्ति हो और परलोक में सद्गति प्राप्त हो
सके’।
ब्रह्मोवाच
प्रीतस्तुभ्यमहं तात स्वस्ति
स्ताद्वां क्षितीश्वर ।
यन्निर्व्यलीकेन हृदा शाधि
मेत्यात्मनार्पितम् ॥ ९ ॥
एतावत्यात्मजैर्वीर कार्या
ह्यपचितिर्गुरौ ।
शक्त्याप्रमत्तैर्गृह्येत सादरं
गतमत्सरैः ॥ १० ॥
स त्वमस्यामपत्यानि सदृशान्यात्मनो
गुणैः ।
उत्पाद्य शास धर्मेण गां यज्ञैः
पुरुषं यज ॥ ११ ॥
परं शुश्रूषणं मह्यं
स्यात्प्रजारक्षया नृप ।
भगवांस्ते प्रजाभर्तुः
हृषीकेशोऽनुतुष्यति ॥ १२ ॥
येषां न तुष्टो भगवान् यज्ञलिङ्गो
जनार्दनः ।
तेषां श्रमो ह्यपार्थाय यदात्मा
नादृतः स्वयम् ॥ १३ ॥
श्रीब्रम्हाजी ने कहा ;-
तात! पृथ्वीपते! तुम दोनों का कल्याण हो। मैं तुमसे बहुत प्रसन्न
हूँ; क्योंकि तुमने निष्कपट भाव से ‘मुझे
आज्ञा दीजिये’ यों कहकर मुझे आत्मसमर्पण किया है। वीर!
पुत्रों को अपने पिता की इसी रूप में पूजा करनी चाहिये। उन्हें उचित है कि दूसरों के
प्रति ईर्ष्या का भाव न रखकर जहाँ तक बने, उनकी आज्ञा का आदर
पूर्वक सावधानी से पालन करें। तुम अपनी इस भार्या से अपने ही समान गुणवती सन्तति
उत्पन्न करके धर्मपूर्वक पृथ्वी का पालन करो और यज्ञों द्वारा श्रीहरि की आराधना
करो। राजन्! प्रजापालन से मेरी बड़ी सेवा होगी और तुम्हें प्रजा का पालन करते
देखकर भगवान् श्रीहरि भी तुमसे प्रसन्न होंगे। जिन पर यज्ञमूर्ति जनार्दन भगवान्
प्रसन्न नहीं होते, उनका सारा श्रम व्यर्थ ही होता है;
क्योंकि वे तो एक प्रकार से अपने आत्मा का ही अनादर करते हैं।
मनुरुवाच ।
आदेशेऽहं भगवतो वर्तेयामीवसूदन ।
स्थानं त्विहानुजानीहि प्रजानां मम
च प्रभो ॥ १४ ॥
यदोकः सर्वसत्त्वानां मही मग्ना
महाम्भसि ।
अस्या उद्धरणे यत्नो देव देव्या
विधीयताम् ॥ १५ ॥
मनुजी ने कहा ;-
पाप का नाश करने वाले पिताजी! मैं आपकी आज्ञा का पालन अवश्य करूँगा;
किन्तु आप इस जगत् में मेरे और मेरी भावी प्रजा के रहने के लिये
स्थान बतलाइ। देव! सब जीवों का निवास स्थान पृथ्वी इस समय प्रलय के जल में डूबी
हुई है। आप इस देवी के उद्धार का प्रयत्न कीजि।
मैत्रेय उवाच ।
परमेष्ठी त्वपां मध्ये तथा
सन्नामवेक्ष्य गाम् ।
कथमेनां समुन्नेष्य इति दध्यौ धिया
चिरम् ॥ १६ ॥
सृजतो मे क्षितिर्वार्भिः
प्लाव्यमाना रसां गता ।
अथात्र किमनुष्ठेयं अस्माभिः
सर्गयोजितैः ।
यस्याहं हृदयादासं स ईशो विदधातु मे
॥ १७ ॥
इत्यभिध्यायतो नासा विवरात्सहसानघ ।
वराहतोको निरगाद् अङ्गुष्ठपरिमाणकः
॥ १८ ॥
तस्याभिपश्यतः खस्थः क्षणेन किल
भारत ।
गजमात्रः प्रववृधे तदद्भुतं
अभून्महत् ॥ १९ ॥
मरीचिप्रमुखैर्विप्रैः
कुमारैर्मनुना सह ।
दृष्ट्वा तत्सौकरं रूपं तर्कयामास
चित्रधा ॥ २० ॥
किमेतत्सौकरव्याजं सत्त्वं
दिव्यमवस्थितम् ।
अहो बताश्चर्यमिदं नासाया मे
विनिःसृतम् ॥ २१ ॥
दृष्टोऽङ्गुष्ठशिरोमात्रः क्षणाद्गण्डशिलासमः
।
अपि स्विद्भगवानेष यज्ञो मे
खेदयन्मनः ॥ २२ ॥
इति मीमांसतस्तस्य ब्रह्मणः सह
सूनुभिः ।
भगवान् यज्ञपुरुषो
जगर्जागेन्द्रसन्निभः ॥ २३ ॥
ब्रह्माणं हर्षयामास हरिस्तांश्च
द्विजोत्तमान् ।
स्वगर्जितेन ककुभः प्रतिस्वनयता
विभुः ॥ २४ ॥
निशम्य ते घर्घरितं स्वखेद
क्षयिष्णु मायामयसूकरस्य ।
जनस्तपःसत्यनिवासिनस्ते त्रिभिः
पवित्रैर्मुनयोऽगृणन् स्म ॥ २५ ॥
तेषां सतां वेदवितानमूर्तिः
ब्रह्मावधार्यात्मगुणानुवादम् ।
विनद्य भूयो विबुधोदयाय
गजेन्द्रलीलो जलमाविवेश ॥ २६ ॥
उत्क्षिप्तवालः खचरः कठोरः
सटा विधुन्वन् खररोमशत्वक् ।
खुराहताभ्रः सितदंष्ट्र ईक्षा
ज्योतिर्बभासे भगवान्महीध्रः ॥ २७ ॥
घ्राणेन पृथ्व्याः पदवीं विजिघ्रन्
क्रोडापदेशः स्वयमध्वराङ्गः ।
करालदंष्ट्रोऽप्यकरालदृग्भ्याम्
उद्वीक्ष्य विप्रान् गृणतोऽविशत्कम् ॥ २८ ॥
स वज्रकूटाङ्गनिपातवेग
विशीर्णकुक्षिः स्तनयन्नुदन्वान् ।
उत्सृष्टदीर्घोर्मिभुजैरिवार्तः
चुक्रोश यज्ञेश्वर पाहि मेति ॥ २९ ॥
खुरैः क्षुरप्रैर्दरयंस्तदाप
उत्पारपारं त्रिपरू रसायाम् ।
ददर्श गां तत्र सुषुप्सुरग्रे
यां जीवधानीं स्वयमभ्यधत्त ॥ ३० ॥
श्रीमैत्रेयजी ने कहा—पृथ्वी को इस प्रकार अथाह जल में डूबी देखकर ब्रम्हाज बहुत देर तक मन में
यह सोचते रहे कि ‘इसे कैसे निकालूँ। जिस समय मैं लोक रचना
में लगा हुआ था, उस समय पृथ्वी जल में डूब जाने से रसातल में
चली गयी। हम लोग सृष्टि कार्य में नियुक्त हैं, अतः इसके
लिये हमें क्या करना चाहिये ? अब तो, जिनके
संकल्पमात्र से मेरा जन्म हुआ है, वे सर्वशक्तिमान् श्रीहरि
ही मेरा यह काम पूरा करें’। निष्पाप विदुरजी! ब्रम्हाजी इस
प्रकार विचार कर ही रहे थे कि उनके नासिकाछिद्र से अकस्मात् अँगूठे के बराबर आकार
का एक वाराह-शिशु निकला। भारत! बड़े आश्चर्य की बात तो यही हुई कि आकाश में खड़ा
हुआ वह वाराह-शिशु ब्रम्हाजी के देखते-ही-देखते बड़ा होकर क्षण भर में हाथी के
बराबर हो गया। उस विशाल वाराह-मूर्ति को देखकर मरीचि आदि मुनिजन, सनकादि और स्वायम्भुव मनु के सहित श्रीब्रम्हाजी तरह-तरह के विचार करने
लगे—। अहो! सूकर के रूप में आज यह कौन दिव्य प्राणी यहाँ
प्रकट हुआ है ? कैसा आश्चर्य है! यह अभी-अभी मेरी नाक से
निकला था। पहले तो यह अँगूठे के पोरुए के बराबर दिखायी देता था, किन्तु एक क्षण में ही बड़ी भारी शिला के समान हो गया। अवश्य ही
यज्ञमूर्ति भगवान् हम लोगों के मन को मोहित कर रहे हैं। ब्रम्हाजी और उनके पुत्र
इस प्रकार सोच ही रहे थे कि भगवान् यज्ञपुरुष पर्वताकार होकर गरजने लगे।
सर्वशक्तिमान् श्रीहरि ने अपनी गर्जना से दिशाओं
को प्रतिध्वनित करके ब्रम्हा और श्रेष्ठ ब्राम्हणों को हर्ष से भर दिया। अपना खेद
दूर करने वाली मायामय वराह भगवान् की घुरघुराहट को सुनकर वे जनलोक,
तपलोक और सत्यलोक निवासी मुनिगण तीनों वेदों के परम पवित्र मन्त्रों
से उनकी स्तुति करने लगे। भगवान् के स्वरुप का वेदों में विस्तार से वर्णन किया
गया है; अतः उन मुनीश्वरों ने जो स्तुति की, उसे वेदरूप मानकर भगवान् बड़े प्रसन्न हुए और एक बार फिर गरजकर देवताओं के
हित के लिये गजराज की-सी लीला करते हुए जल में घुस गये।
पहले से सूकर रूप भगवान् पूँछ उठाकर
बड़े वेग से आकाश में उछले और अपनी गर्दन के बालों को फटकारकर खुरों के आघात से
बादलों को छितराने लगे। उनका शरीर बड़ा कठोर था, त्वचा पर कड़े-कड़े बाल थे, दाढ़े सफ़ेद थीं और
नेत्रों से तेज निकल रहा था, उस समय उनकी बड़ी शोभा हो रही
थी। भगवान् स्वयं यज्ञपुरुष हैं तथापि सूकर रूप धारण करने के कारण अपनी नाक से
सूँघ-सूँघकर पृथ्वी का पता लगा रहे थे।
उनकी दाढ़े बड़ी कठोर थीं। इस प्रकार यद्यपि वे
बड़े क्रूर जान पड़ते थे, तथापि अपनी स्तुति
करने वाले मरीचि आदि मुनियों की और बड़ी सौम्य दृष्टि से निहारते हुए उन्होंने जल
में प्रवेश किया। जिस समय उनका वज्रमय पर्वत के समान कठोर कलेवर जल में गिरा,
तब उसके वेग से मानो समुद्र का पेट फट गया और उसमें बादलों की
गड़गड़ाहट के समान बड़ा भीषण शब्द हुआ। उस समय ऐसा जान पड़ता था मानो अपनी उत्ताल
तरंग रूप भुजाओं को उठाकर वह बड़े आर्तस्वर से ‘हे यज्ञेश्वर!
मेरी रक्षा करो।’ इस प्रकार पुकार रहा है। तब भगवान्
यज्ञमूर्ति अपने बाण के समान पैने खुरों से जल को चीरते हुए उस अपार जलराशि के उस
पार पहुँचे। वहाँ रसातल में उन्होंने समस्त जीवों की आश्रयभूता पृथ्वी को देखा,
जिसे कल्पान्त में शयन करने के लिये उद्दत श्रीहरि ने स्वयं अपने ही
उदर में लीन कर लिया था।
स्वदंष्ट्रयोद्धृत्य महीं निमग्नां
स उत्थितः संरुरुचे रसायाः ।
तत्रापि दैत्यं गदयापतन्तं
सुनाभसन्दीपिततीव्रमन्युः ॥ ३१ ॥
जघान रुन्धानमसह्यविक्रमं
स लीलयेभं मृगराडिवाम्भसि ।
तद्रक्तपङ्काङ्कितगण्डतुण्डो
यथा गजेन्द्रो जगतीं विभिन्दन् ॥ ३२ ॥
तमालनीलं सितदन्तकोट्या
क्ष्मामुत्क्षिपन्तं गजलीलयाङ्ग ।
प्रज्ञाय बद्धाञ्जलयोऽनुवाकैः
विरिञ्चिमुख्या उपतस्थुरीशम् ॥ ३३ ॥
फिर वे जल में डूबी हुई पृथ्वी को
अपनी दाढ़ों पर लेकर रसातल से ऊपर आये। उस समय उनकी बड़ी शोभा हो रही थी। जल से
बाहर आते समय उनके मार्ग में विघ्न डालने के लिये महापराक्रमी हिरण्याक्ष ने जल के
भीतर ही उन पर गदा से आक्रमण किया। इससे उनका क्रोध चक्र के समान तीक्ष्ण हो गया
और उन्होंने उसे लीला से ही इस प्रकार मार डाला, जैसे सिंह हाथी को मार डालता है। उस समय उसके रक्त से थूथनी तथा कनपटी सन
जाने के कारण वे ऐसे जान पड़ते थे मानो कोई गजराज लाल मिट्टी के टीले में टक्कर
मारकर आया हो। तात! जैसे गजराज अपने दाँतों पर कमल-पुष्प धारण कर ले, उसी प्रकार अपने सफ़ेद दाँतों की नोक पर पृथ्वी को धारण कर जल से बाहर
निकले हुए, तमाल के समान नीलवर्ण वराह भगवान् को देखकर
ब्रम्हा, मरीचि आदि को निश्चय को हो गया कि ये भगवान् ही
हैं। तब वे हाथ जोड़कर वेदवाक्यों से उनकी स्तुति करने लगे।
ऋषय ऊचुः
जितं जितं तेऽजित यज्ञभावन
त्रयीं तनुं स्वां परिधुन्वते नमः ।
यद् रोमगर्तेषु निलिल्युरध्वराः
तस्मै नमः कारणसूकराय ते ॥ ३४ ॥
रूपं तवैतन्ननु दुष्कृतात्मनां
दुर्दर्शनं देव यदध्वरात्मकम् ।
छन्दांसि यस्य त्वचि बर्हिरोम-
स्वाज्यं दृशि त्वङ्घ्रिषु चातुर्होत्रम् ॥ ३५ ॥
स्रुक्तुण्ड आसीत्स्रुव ईश नासयोः
इडोदरे चमसाः कर्णरन्ध्रे ।
प्राशित्रमास्ये ग्रसने ग्रहास्तु
ते
यच्चर्वणं ते भगवन्नग्निहोत्रम् ॥ ३६ ॥
दीक्षानुजन्मोपसदः शिरोधरं
त्वं प्रायणीयोदयनीयदंष्ट्रः ।
जिह्वा प्रवर्ग्यस्तव शीर्षकं
क्रतोः
सभ्यावसथ्यं चितयोऽसवो हि ते ॥ ३७ ॥
सोमस्तु रेतः सवनान्यवस्थितिः
संस्थाविभेदास्तव देव धातवः ।
सत्राणि सर्वाणि शरीरसन्धि-
स्त्वं सर्वयज्ञक्रतुरिष्टिबन्धनः ॥ ३८ ॥
नमो नमस्तेऽखिलमन्त्रदेवता
द्रव्याय सर्वक्रतवे क्रियात्मने ।
वैराग्यभक्त्यात्मजयानुभावित
ज्ञानाय विद्यागुरवे नमो नमः ॥ ३९ ॥
दंष्ट्राग्रकोट्या भगवंस्त्वया धृता
विराजते भूधर भूः सभूधरा ।
यथा वनान्निःसरतो दता धृता
मतङ्गजेन्द्रस्य सपत्रपद्मिनी ॥ ४० ॥
त्रयीमयं रूपमिदं च सौकरं
भूमण्डलेनाथ दता धृतेन ते ।
चकास्ति शृङ्गोढघनेन भूयसा
कुलाचलेन्द्रस्य यथैव विभ्रमः ॥ ४१ ॥
संस्थापयैनां जगतां सतस्थुषां
लोकाय पत्नीमसि मातरं पिता ।
विधेम चास्यै नमसा सह त्वया
यस्यां स्वतेजोऽग्निमिवारणावधाः ॥ ४२ ॥
कः श्रद्दधीतान्यतमस्तव प्रभो
रसां गताया भुव उद्विबर्हणम् ।
न विस्मयोऽसौ त्वयि विश्वविस्मये
यो माययेदं ससृजेऽतिविस्मयम् ॥ ४३ ॥
विधुन्वता वेदमयं निजं वपुः
जनस्तपःसत्यनिवासिनो वयम् ।
सटाशिखोद्धूत शिवाम्बुबिन्दुभिः
विमृज्यमाना भृशमीश पाविताः ॥ ४४ ॥
स वै बत भ्रष्टमतिस्तवैष ते
यः कर्मणां पारमपारकर्मणः ।
यद्योगमायागुणयोगमोहितं
विश्वं समस्तं भगवन्विधेहि शम् ॥ ४५ ॥
ऋषियों ने कहा ;-
भगवान् अजित्! आपकी जय हो, जय हो। यज्ञपते! आप
अपने वेदत्रयीरूप विग्रह को फटकार रहे हैं; आपको नमस्कार
हैं। आपके रोम-कूपों में सम्पूर्ण यज्ञ लीन हैं। आपसे पृथ्वी का उद्धार करने के
लिये ही यह सूक्ष्मरूप धारण किया है; आपको नमस्कार है। देव!
दुराचारियों को आपके इस शरीर का दर्शन होना अत्यन्त कठिन है; क्योंकि यह यज्ञरूप है। इसकी त्वचा में गायत्री आदि छन्द, रोमावली में कुश, नेत्रों में घृत तथा चारों चरणों
में होता, अध्वर्यु, उद्गाता और
ब्रम्हा—इन चारों ऋत्विजों के कर्म हैं। ईश! आपकी थूथनी (मुख
के अग्रभाग)—में स्त्रुक् है, नासिका-छिद्रों
में स्त्रुवा है, उदार में इडा (यज्ञीय भक्षण पात्र) है,
कानों में चमस है, मुख में प्राशित्र (ब्रम्ह
भाग पात्र) है और कण्ठछिद्र में ग्रह (सोमपात्र) है।
भगवन्! आपका जो चबाना है,
वही अग्निहोत्र है। बार-बार अवतार लेना यज्ञस्वरुप आपकी दीक्षणीय
इष्टि है, गरदन उपसद (तीन इष्टियाँ( हैं; दोनों दाढ़ें प्रायणीय (दीक्षा के बाद की इष्टि) और उदयनीय (यज्ञसमाप्ति
की इष्टि हैं; जिह्वा प्रवर्ग्य (प्रत्येक उपसद के पूर्व
किया जाने वला महावीर नामक कर्म) है, सिर सभ्य (होमरहित
अग्नि) और आवसभ्य (औपासनाग्नि) हैं तथा प्राण चिति (इष्टकाचयन) हैं।
देव! आपका वीर्य सोम है;
आसन (बैठना) प्रातःसवनादि तीन सवन हैं; सातों
धातु अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ,
षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र
और आप्तोर्याम नाम की सात संस्थाएँ हैं तथा शरीर की सन्धियाँ (जोड़) सम्पूर्ण सत्र
हैं। इस प्रकार आप सम्पूर्ण यज्ञ (सोमरहित याग) और क्रतु (सोमरहित याग) रूप है।
यज्ञानुष्ठान रूप इष्टियाँ आपके अंगों को मिलाये रखने वाली मांसपेशियाँ हैं। समस्त
मन्त्र, देवता, द्रव्य, यज्ञ और कर्म आपके ही स्वरुप हैं; आपको नमसकर है।
वैराग्य, भक्ति और मन की एकाग्रता से जिस ज्ञान का अनुभव
होता है, वह आपका स्वरुप ही है तथा आप ही सबके विद्यागुरु है;
आपको पुनः-पुनः प्रणाम है। पृथ्वी को धारण करने वाले भगवन्! आपकी
दाढ़ों की नोक पर रखी हुई यह पर्वतादि-मण्डित पृथ्वी ऐसी सुशोभित हो रही है,
जैसे वन में से निकलकर बाहर आये हुए किसी गजराज के दाँतों पर
पत्रयुक्त कमलिनी रखी हो। आपके दाँतों पर रखे हुए भूमण्डल के सहित आपका यह वेदमय
वराहविग्रह ऐसा सुशोभित हो रहा है, जैसे शिखरों पर छायी हुई
मेघमाला से कुलपर्वत की शोभा होती है। नाथ! चराचर जीवों के सुखपूर्वक रहने के लिये
आप अपनी पत्नी इन जगन्माता पृथ्वी को जल पर स्थापित कीजिये। आप जगत् के पिता हैं
और अरणि में अग्निस्थापन के समान आपने इसमें धारण शक्तिरूप अपना तेज स्थापित किया
है। हम आपको और इस पृथ्वीमाता को प्रणाम करते हैं। प्रभो! रसातल में डूबी हुई इस
पृथ्वी को निकालने का साहस आपके सिवा और कौन कर सकता था। किंतु आप तो सम्पूर्ण
आश्चर्यों के आश्रय हैं, आपके लिये यह कोई आश्चर्य की बात
नहीं है। आपने ही तो अपनी माया से इस अत्याश्चार्यमय विश्व की रचना की। जब आप अपने
वेदमय विग्रह को हिलाते हैं, तब हमारे ऊपर आपकी गरदन के
बालों से झरती हुई शीतल बूँदें गिरती हैं। ईश! उनसे भोगकर हम जनलोक, तपलोक और सत्यलोक में रहने वाले मुनिजन सर्वथा पवित्र हो जाते हैं। जो
पुरुष आपके कर्मों का पार पाना चाहता है, अवश्य ही उसकी
बुद्धि नष्ट हो गयी है; क्योंकि आपके कर्मों का कोई पार ही
नहीं है। आपकी योगमाया के सात्वादि गुणों से यह सारा जगत् मोहित हो रहा है। भगवन्!
आप इसका कल्याण कीजिये।
मैत्रेय उवाच ।
इत्युपस्थीयमानस्तैः
मुनिभिर्ब्रह्मवादिभिः ।
सलिले स्वखुराक्रान्त उपाधत्तावितावनिम् ॥ ४६ ॥
स इत्थं भगवानुर्वीं विष्वक्सेनः
प्रजापतिः ।
रसाया लीलयोन्नीतां अप्सु न्यस्य ययौ हरिः ॥ ४७ ॥
य एवमेतां हरिमेधसो हरेः
कथां सुभद्रां कथनीयमायिनः ।
शृण्वीत भक्त्या श्रवयेत वोशतीं
जनार्दनोऽस्याशु हृदि प्रसीदति ॥ ४८ ॥
तस्मिन्प्रसन्ने सकलाशिषां प्रभौ
किं दुर्लभं ताभिरलं लवात्मभिः ।
अनन्यदृष्ट्या भजतां गुहाशयः
स्वयं विधत्ते स्वगतिं परः पराम् ॥ ४९ ॥
को नाम लोके पुरुषार्थसारवित्
पुराकथानां भगवत्कथासुधाम् ।
आपीय कर्णाञ्जलिभिर्भवापहा-
महो विरज्येत विना नरेतरम् ॥ ५० ॥
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं ;-
विदुरजी! उन ब्रम्हवादी मुनियों के इस प्रकार स्तुति करने पर सबकी
रक्षा करने वाले वराहभगवान् अपने खुरों से जल को स्तम्भित कर उस पर पृथ्वी को
स्थापित कर दिया। इस प्रकार रसातल से लीला पूर्वक लायी हुई पृथ्वी को जल पर रखकर
वे विष्वक्सेन प्रजापति भगवान् श्रीहरि अन्तर्धान हो गये। विदुरजी! भगवान् के
लीलामय चरित्र अत्यन्त कीर्तनिय हैं और उनमें लगी हुई बुद्धि सब प्रकार के
पाप-तापों को दूर कर देती है। जो पुरुष उनकी इस मंगलमयी मंजुल कथा को भक्तिभाव से
सुनता या सुनाता है, उसके प्रति भक्तवत्सल भगवान् अन्तस्तल
से बहुत शीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं। भगवान् तो सभी कामनाओं को पूर्ण करने में
समर्थ हैं, उनके प्रसन्न होने पर संसार में क्या दुर्लभ है।
किन्तु उन तुच्छ कामनाओं की आवश्यकता ही क्या है ? जो लोग
उनका अनन्यभाव से भजन करते हैं, उन्हें तो वे अन्तर्यामी
परमात्मा स्वयं अपना परमपद ही दे देते हैं। अरे! संसार में पशुओं को छोड़कर अपने
पुरुषार्थ का सार जानने वाला ऐसा कौन पुरुष होगा, जो आवागमन
से छुड़ा देने वाली भगवान् की प्राचीन कथाओं में से एक बार पान करके फिर उनकी ओर
से मन हटा लेगा।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे वराहप्रादुर्भावानुवर्णनं त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥
No comments:
Post a Comment
Please do not enter any spam link in the comment box