श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय १२

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय १२

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय १२ "सृष्टि का विस्तार"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय १२

श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध द्वादश अध्याय

श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः ३/अध्यायः १२

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय १२ हिन्दी अनुवाद सहित

मैत्रेय उवाच ।

इति ते वर्णितः क्षत्तः कालाख्यः परमात्मनः ।

महिमा वेदगर्भोऽथ यथास्राक्षीन्निबोध मे ॥ १ ॥

ससर्जाग्रेऽन्धतामिस्रं अथ तामिस्रमादिकृत् ।

महामोहं च मोहं च तमश्चाज्ञानवृत्तयः ॥ २ ॥

दृष्ट्वा पापीयसीं सृष्टिं नात्मानं बह्वमन्यत ।

भगवद्ध्यानपूतेन मनसान्यां ततोऽसृजत् ॥ ३ ॥

सनकं च सनन्दं च सनातनमथात्मभूः ।

सनत्कुमारं च मुनीन् निष्क्रियान् ऊर्ध्वरेतसः ॥ ४ ॥

तान् बभाषे स्वभूः पुत्रान् प्रजाः सृजत पुत्रकाः ।

तन्नैच्छन् मोक्षधर्माणो वासुदेवपरायणाः ॥ ५ ॥

सोऽवध्यातः सुतैरेवं प्रत्याख्यातानुशासनैः ।

क्रोधं दुर्विषहं जातं नियन्तुमुपचक्रमे ॥ ६ ॥

धिया निगृह्यमाणोऽपि भ्रुवोर्मध्यात्प्रजापतेः ।

सद्योऽजायत तन्मन्युः कुमारो नीललोहितः ॥ ७ ॥

स वै रुरोद देवानां पूर्वजो भगवान्भवः ।

नामानि कुरु मे धातः स्थानानि च जगद्‍गुरो ॥ ८ ॥

इति तस्य वचः पाद्मो भगवान् परिपालयन् ।

अभ्यधाद् भद्रया वाचा मा रोदीस्तत्करोमि ते ॥ ९ ॥

यदरोदीः सुरश्रेष्ठ सोद्वेग इव बालकः ।

ततस्त्वां अभिधास्यन्ति नाम्ना रुद्र इति प्रजाः ॥ १० ॥

हृदिन्द्रियाण्यसुर्व्योम वायुरग्निर्जलं मही ।

सूर्यश्चन्द्रस्तपश्चैव स्थानान्यग्रे कृतानि मे ॥ ११ ॥

मन्युर्मनुर्महिनसो महान् शिव ऋतध्वजः ।

उग्ररेता भवः कालो वामदेवो धृतव्रतः ॥ १२ ॥

धीर्वृत्तिरसलोमा च नियुत्सर्पिरिलाम्बिका ।

इरावती स्वधा दीक्षा रुद्राण्यो रुद्र ते स्त्रियः ॥ १३ ॥

गृहाणैतानि नामानि स्थानानि च सयोषणः ।

एभिः सृज प्रजा बह्वीः प्रजानामसि यत्पतिः ॥ १४ ॥

इत्यादिष्टः स्वगुरुणा भगवान् नीललोहितः ।

सत्त्वाकृतिस्वभावेन ससर्जात्मसमाः प्रजाः ॥ १५ ॥

रुद्राणां रुद्रसृष्टानां समन्ताद् ग्रसतां जगत् ।

निशाम्यासंख्यशो यूथान् प्रजापतिरशङ्कत ॥ १६ ॥

अलं प्रजाभिः सृष्टाभिः ईदृशीभिः सुरोत्तम ।

मया सह दहन्तीभिः दिशश्चक्षुर्भिरुल्बणैः ॥ १७ ॥

तप आतिष्ठ भद्रं ते सर्वभूतसुखावहम् ।

तपसैव यथापूर्वं स्रष्टा विश्वमिदं भवान् ॥ १८ ॥

तपसैव परं ज्योतिः भगवन्तमधोक्षजम् ।

सर्वभूतगुहावासं अञ्जसा विन्दते पुमान् ॥ १९ ॥

श्रीमैत्रेयजी ने कहा ;- विदुरजी! यहाँ तक मैंने आपको भगवान् की काल रूप महिमा सुनायी। अब जिस प्रकार ब्रम्हाजी ने जगत् की रचना की, वह सुनिये। सबसे पहले उन्होंने अज्ञान की पाँच वृत्तियाँतम (अविद्या), मोह (अस्मिता), महामोह (राग), तामिस्त्र (द्वेष) और अन्ध तामिस्त्र (अभिनिवेश) रचीं। किन्तु इस अत्यन्त पापमयी सृष्टि को देखकर उन्हें प्रसन्नता नहीं हुई। तब उन्होंने अपने मन को भगवान् के ध्यान से पवित्र कर उससे दूसरी सृष्टि रची। इस बार ब्रम्हाजी ने सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमारये चार निवृत्ति परायण उर्ध्वरेता मुनि उत्पन्न कि। अपने इन पुत्रों से ब्रम्हाजी ने कहा, ‘पुत्रों! तुम लोग सृष्टि उत्पन्न करो।किंतु वे जन्म से ही मोक्ष मार्ग—(निवृत्ति मार्ग-) का अनुसरण करने वाले और भगवान् के ध्यान में तत्पर थे, इसलिये उन्होने ऐसा करना नहीं चाहा। जब ब्रम्हाजी ने देखा कि मेरी आज्ञा न मानकर ये मेरे पुत्र मेरा तिरस्कार कर रहे हैं, तब उन्हें असह्य क्रोध हुआ। उन्होंने उसे रोकने का प्रयत्न किया। किंतु बुद्धि-द्वारा उनके बहुत रोकने पर भी वह क्रोध तत्काल प्रजापति की भौहों के बीच में से एक नील लोहित (नीचे और लाल रंग के) बालक के रूप में प्रकट हो गया। वे देवताओं के पूर्वज भगवान् भव (रुद्र) रो-रोकर कहने लगे—‘जगत्पिता! विधाता! मेरे नाम और रहने के स्थान बतलाइये। तब कमलयोनि भगवान् ब्रम्हा ने उस बालक की प्रार्थना पूर्ण करने के लिये मधुर वाणी में कहा, ‘रोओ मत, मैं अभी तुम्हारी इच्छा पूरी करता हूँ।

देवश्रेष्ठ! तुम जन्म लेते ही बालक के समान फूट-फुटकर रोने लगे, इसलिये प्रजा तुम्हें रूद्रनाम से पुकारेगी। तुम्हारे रहने के लिये मैंने पहले से ही ह्रदय, इन्द्रिय, प्राण, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, सूर्य, चन्द्रमा और तपये स्थान रच दिये हैं। तुम्हारे नाम मन्यु, मनु, महिनस, महान्, शिव, ऋतध्वज, उग्ररेता, भव, काल, वामदेव और धृतव्रत होंगे। तथा धी, वृत्ति, उशना, उमा, नियुत्, सर्पि, इला, अम्बिका, इरावती, सुधा और दीक्षाये ग्यारह रुद्राणियाँ तुम्हारी पत्नियाँ होंगी। तुम उपर्युक्त नाम, स्थान और स्त्रियों को स्वीकार करो और इनके द्वारा बहुत-सी प्रजा उत्पन्न करो; क्योंकि तुम प्रजापति हो। लोकपिता ब्रम्हाजी से ऐसी आज्ञा पाकर भगवान् नील लोहित बल, आकार और स्वभाव में अपने ही जैसी प्रजा उत्पन्न करने लगे। भगवान् रूद्र के द्वारा उत्पन्न हुए उन रुद्रों को असंख्य यूथ बनाकर सारे संसार को भक्षण करते देख ब्रम्हाजी को बड़ी शंका हुई।

तब उन्होंने रूद्र से कहा ;- सुरश्रेष्ठ! तुम्हारी प्रजा तो अपनी भयंकर दृष्टि से मुझे और सारी दिशाओं को भस्म किये डालती है; अतः ऐसी सृष्टि न रचो। तुम्हारा कल्याण हो, अब तुम समस्त प्राणियों को सुख देने के लिये तप करो। फिर उस तप के प्रभाव से ही तुम पूर्ववत् इस संसार की रचना करना। पुरुष तप के द्वारा ही इन्द्रियातीत, सर्वान्तर्यामी, ज्योतिःस्वरुप श्रीहरि को सुगमता से प्राप्त कर सकता है

मैत्रेय उवाच ।

एवमात्मभुवाऽऽदिष्टः परिक्रम्य गिरां पतिम् ।

बाढमित्यमुमामन्त्र्य विवेश तपसे वनम् ॥ २० ॥

अथाभिध्यायतः सर्गं दश पुत्राः प्रजज्ञिरे ।

भगवत् शक्तियुक्तस्य लोकसन्तानहेतवः ॥ २१ ॥

मरीचिरत्र्यङ्‌गिरसौ पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः ।

भृगुर्वसिष्ठो दक्षश्च दशमस्तत्र नारदः ॥ २२ ॥

उत्सङ्गान्नारदो जज्ञे दक्षोऽङ्गुष्ठात्स्वयम्भुवः ।

प्राणाद्वसिष्ठः सञ्जातो भृगुस्त्वचि करात्क्रतुः ॥ २३ ॥

पुलहो नाभितो जज्ञे पुलस्त्यः कर्णयोः ऋषिः ।

अङ्‌गिरा मुखतोऽक्ष्णोऽत्रिः मरीचिर्मनसोऽभवत् ॥ २४ ॥

धर्मः स्तनाद् दक्षिणतो यत्र नारायणः स्वयम् ।

अधर्मः पृष्ठतो यस्मात् मृत्युर्लोकभयङ्करः ॥ २५ ॥

हृदि कामो भ्रुवः क्रोधो लोभश्चाधरदच्छदात् ।

आस्याद् वाक्सिन्धवो मेढ्रान् निर्‌ऋतिः पायोरघाश्रयः ॥ २६ ॥

छायायाः कर्दमो जज्ञे देवहूत्याः पतिः प्रभुः ।

मनसो देहतश्चेदं जज्ञे विश्वकृतो जगत् ॥ २७ ॥

वाचं दुहितरं तन्वीं स्वयम्भूर्हरतीं मनः ।

अकामां चकमे क्षत्तः सकाम इति नः श्रुतम् ॥ २८ ॥

तमधर्मे कृतमतिं विलोक्य पितरं सुताः ।

मरीचिमुख्या मुनयो विश्रम्भात् प्रत्यबोधयन् ॥ २९ ॥

नैतत्पूर्वैः कृतं त्वद्ये न करिष्यन्ति चापरे ।

यस्त्वं दुहितरं गच्छेः अनिगृह्याङ्गजं प्रभुः ॥ ३० ॥

तेजीयसामपि ह्येतन्न सुश्लोक्यं जगद्‍गुरो ।

यद्‌वृत्तमनुतिष्ठन् वैन्वै लोकः क्षेमाय कल्पते ॥ ३१ ॥

तस्मै नमो भगवते य इदं स्वेन रोचिषा ।

आत्मस्थं व्यञ्जयामास स धर्मं पातुमर्हति ॥ ३२ ॥

स इत्थं गृणतः पुत्रान् पुरो दृष्ट्वा प्रजापतीन् ।

प्रजापतिपतिस्तन्वं तत्याज व्रीडितस्तदा ।

तां दिशो जगृहुर्घोरां नीहारं यद्विदुस्तमः ॥ ३३ ॥

कदाचिद् ध्यायतः स्रष्टुः वेदा आसंश्चतुर्मुखात् ।

कथं स्रक्ष्याम्यहं लोकाम् समवेतान् यथा पुरा ॥ ३४ ॥

चातुर्होत्रं कर्मतन्त्रं उपवेदनयैः सह ।

धर्मस्य पादाश्चत्वारः तथैवाश्रमवृत्तयः ॥ ३५ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं ;- जब ब्रम्हाजी ने ऐसी आज्ञा दी, तब रूद्र ने बहुत अच्छाकहकर उसे शिरोधार्य किया और फिर उनकी अनुमति लेकर तथा उनकी परिक्रमा करके वे तपस्या करने के लिये वन में चले गये। इसके पश्चात् जब भगवान् की शक्ति से सम्पन्न ब्रम्हाजी ने सृष्टि के लिए संकल्प किया, तब उनके दस पुत्र और उत्पन्न हुए। उनसे लोक की बहुत वृद्धि हुई। उनके नाम मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भृगु, वसिष्ठ, दक्ष और दसवें नारद थे। इसमें नारदजी प्रजापति ब्रम्हाजी की गोद से, दक्ष अँगूठे से, वसिष्ठ प्राण से, भृगु त्वचा से, क्रतु हाथ से, पुलह नाभि से, पुलस्त्य ऋषि कानों से, अंगिरा मुख से, अत्रि नेत्रों से और मरीचि मन से उत्पन्न हुए। फिर उनके दायें स्तन से धर्म उत्पन्न हुआ, जिनकी पत्नी मूर्ति से स्वयं नारायण अवतीर्ण हुए तथा उनकी पीठ से अधर्म का जन्म हुआ और उससे संसार को भयभीत करने वाला मृत्यु उत्पन्न हुआ। इसी प्रकार ब्रम्हाजी के ह्रदय से काम, भौहों से क्रोध, नीचे के होंठ से लोभ, मुख से वाणी की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती, लिंग से समुद्र, गुदा से पाप का निवास स्थान (राक्षसों का अधिपति) निर्ऋति। छाया से देवहूति के पति भगवान् कर्दमजी उत्पन्न हुए। इस तरह यह सारा जगत् जगत्कर्ता ब्रम्हाजी के शरीर और मन से उत्पन्न हुआ।

 विदुरजी! भगवान् ब्रम्हा की कन्या सरस्वती बड़ी ही सुकुमारी और मनोहारी थी। हमने सुना हैएक बार उसे देखकर ब्रम्हाजी काममोहित हो गये थे, यद्यपि वह स्वयं वासनाहीन थी। उन्हें ऐसा अधर्ममय संकल्प करते देख, उनके पुत्र मरीचि आदि ऋषियों ने उन्हें विश्वास पूर्वक समझाया।

पिताजी! आप समर्थ हैं, फिर भी अपने मन में उत्पन्न हुए काम के वेग को न रोककर पुत्रीगमन्-जैसा दुस्तर पाप करने का संकल्प कर रहे हैं। ऐसा तो आपसे पूर्ववर्ती किसी भी ब्रम्हा ने नहीं किया और न आगे ही कोई करेगा। जगद्गुरो! आप-जैसे तेजस्वी पुरुषों को भी ऐसा काम शोभा नहीं देता; क्योंकि आप लोगों के आचरणों का अनुसरण करने से ही तो संसार का कल्याण होता है। जिन भगवान् ने अपने स्वरुप में स्थित इस जगत् को अपने ही तेज से प्रकट किया है, उनें नमस्कार है। इस समय वे ही धर्म की रक्षा कर सकते हैं। अपने पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियो को अपने सामने इस प्रकार कहते देख प्रजापतियों के पति ब्रम्हाजी बड़े लज्जित हुए और उन्होंने उस शरीर को उसी समय छोड़ दिया। तब उस घोर शरीर को दिशाओं ने ले लिया। वही कुहरा हुआ, जिसे अन्धकार भी कहते है। एक बार ब्रम्हाजी यह सोच रहे थे कि मैं पहले की तरह सुव्यवस्थित रूप से सब लोकों की रचना किस प्रकार करूँ ?’ इसी समय उनके चार मुखों से चार वेद प्रकट हुए। इनके सिवा उपवेद, न्यायशास्त्र, होता, उद्गाता, अध्वर्यु और ब्रम्हाइन चार ऋत्विजों के कर्म, यज्ञों का विस्तार, धर्म के चार चरण और चारों आश्रम तथा उनकी वृत्तियाँये सब भी ब्रम्हाजी के मुखों से ही उत्पन्न हुए।

विदुर उवाच ।

स वै विश्वसृजामीशो वेदादीन् मुखतोऽसृजत् ।

यद् यद् येनासृजद् देवस्तन्मे ब्रूहि तपोधन ॥ ३६ ॥

विदुरजी ने पूछा ;- तमोधन! विश्व रचयिताओं के स्वामी श्रीब्रम्हाजी ने जब अपने मुखों से इन वेदादि को रचा, तो उन्होंने अपने किस मुख से कौन वस्तु उत्पन्न कीयह आप कृपा करके मुझे बतलाइये।

मैत्रेय उवाच ।

ऋग्यजुःसामाथर्वाख्यान् वेदान् पूर्वादिभिर्मुखैः ।

शास्त्रमिज्यां स्तुतिस्तोमं प्रायश्चित्तं व्यधात्क्रमात् ॥ ३७ ॥

आयुर्वेदं धनुर्वेदं गान्धर्वं वेदमात्मनः ।

स्थापत्यं चासृजद् वेदं क्रमात् पूर्वादिभिर्मुखैः ॥ ३८ ॥

इतिहासपुराणानि पञ्चमं वेदमीश्वरः ।

सर्वेभ्य एव वक्त्रेभ्यः ससृजे सर्वदर्शनः ॥ ३९ ॥

षोडश्युक्थौ पूर्ववक्त्रात् पुरीष्यग्निष्टुतावथ ।

आप्तोर्यामातिरात्रौ च वाजपेयं सगोसवम् ॥ ४० ॥

विद्या दानं तपः सत्यं धर्मस्येति पदानि च ।

आश्रमांश्च यथासंख्यं असृजत्सह वृत्तिभिः ॥ ४१ ॥

सावित्रं प्राजापत्यं च ब्राह्मं चाथ बृहत्तथा ।

वार्ता सञ्चयशालीन शिलोञ्छ इति वै गृहे ॥ ४२ ॥

वैखानसा वालखिल्यौ दुम्बराः फेनपा वने ।

न्यासे कुटीचकः पूर्वं बह्वोदो हंसनिष्क्रियौ ॥ ४३ ॥

आन्वीक्षिकी त्रयी वार्ता दण्डनीतिस्तथैव च ।

एवं व्याहृतयश्चासन् प्रणवो ह्यस्य दह्रतः ॥ ४४ ॥

तस्योष्णिगासील्लोमभ्यो गायत्री च त्वचो विभोः ।

त्रिष्टुम्मांसात्स्नुतोऽनुष्टुब् जगत्यस्थ्नः प्रजापतेः ॥ ४५ ॥

मज्जायाः पङ्‌क्तिरुत्पन्ना बृहती प्राणतोऽभवत् ।

स्पर्शस्तस्याभवज्जीवः स्वरो देह उदाहृत ॥ ४६ ॥

सप्तचक्राणि.

ऊष्माणमिन्द्रियाण्याहुः अन्तःस्था बलमात्मनः ।

स्वराः सप्त विहारेण भवन्ति स्म प्रजापतेः ॥ ४७ ॥

शब्दब्रह्मात्मनस्तस्य व्यक्ताव्यक्तात्मनः परः ।

ब्रह्मावभाति विततो नानाशक्त्युपबृंहितः ॥ ४८ ॥

ततोऽपरामुपादाय स सर्गाय मनो दधे ।

ऋषीणां भूरिवीर्याणां अपि सर्गमविस्तृतम् ॥ ४९ ॥

ज्ञात्वा तद्धृदये भूयः चिन्तयामास कौरव ।

अहो अद्‍भुतमेतन्मे व्यापृतस्यापि नित्यदा ॥ ५० ॥

न ह्येधन्ते प्रजा नूनं दैवमत्र विघातकम् ।

एवं युक्तकृतस्तस्य दैवं चावेक्षतस्तदा ॥ ५१ ॥

कस्य रूपमभूद् द्वेधा यत्कायमभिचक्षते ।

ताभ्यां रूपविभागाभ्यां मिथुनं समपद्यत ॥ ५२ ॥

यस्तु तत्र पुमान्सोऽभूत् मनुः स्वायम्भुवः स्वराट् ।

स्त्री याऽऽसीच्छतरूपाख्या महिष्यस्य महात्मनः ॥ ५३ ॥

तदा मिथुनधर्मेण प्रजा ह्येधाम्बभूविरे ।

स चापि शतरूपायां पञ्चापत्यान्यजीजनत् ॥ ५४ ॥

प्रियव्रतोत्तानपादौ तिस्रः कन्याश्च भारत ।

आकूतिर्देवहूतिश्च प्रसूतिरिति सत्तम ॥ ५५ ॥

आकूतिं रुचये प्रादात् कर्दमाय तु मध्यमाम् ।

दक्षायादात्प्रसूतिं च यत आपूरितं जगत् ॥ ५६ ॥

श्रीमैत्रेयजी ने कहा ;- विदुरजी! ब्रम्हा ने अपने पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर के मुख से क्रमशः ऋक्, यजुः, साम और अथर्ववेदों को रचा तथा इसी क्रम से शस्त्र (होता का कर्म), इज्या (अध्वर्यु अक कर्म), स्तुतिस्तोम (उद्गाता का कर्म) और प्रायश्चित (ब्रम्हा का कर्म)इन चारों की रचना की। इसी प्रकार आयुर्वेद (चिकित्सा शास्त्र), धनुर्वेद (शस्त्र विद्या), गान्धर्ववेद (संगीत शास्त्र) और स्थापत्यवेद (शिल्प विद्या)इन चार उपवेदों को भी क्रमशः उन पूर्वादी मुखो से ही उत्पान किया। फिर सर्वदर्शी भगवान् ब्रम्हा ने अपने चारों मुखों से इतिहास-पुराण रूप पाँचवाँ वेद बनाया। इसी क्रम से षोडशी और उक्थ, चयन और अग्निष्टोम, आप्तोर्याम और अतिरात्र तथा वाजपेय और गोसवये दो-दो याग भी उनके पूर्वादी मुखों से ही उत्पन्न हुए। विद्या, दान, तप और सत्यये धर्म के चार पाद और वृत्तियों के सहित चार आश्रम भी इसी क्रम से प्रकट हुए।

सावित्र, प्राजापत्य, बाह्म और बृहत्,—ये चार वृत्तियाँ ब्रम्हचारी की हैं

तथा वार्ता, संचय, शालीन और शिलोञ्छ ये चार वृत्तियाँ ग्रहस्थ की हैं।

इसी प्रकार वृत्ति भेद से वैखानस, वालखिल्य, औदुम्बर और फेनपये चार भेद वानप्रस्थों के तथा कुटीचक, बहूदक, हंस और निष्क्रिय (परमहंस)ये चार भेद संन्यासियों के हैं।

इसी क्रम से आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता और दण्डनीति––ये चार विद्याएँ तथा चार व्याहृतियाँ भी ब्रम्हाजी के चार मुखों से उत्पन्न हुईं तथा उनके हृदयाकाश से ॐकार प्रकट हुआ।

 उनके रोमों से उष्णिक्, त्वचा से गायत्री, मांस से त्रिष्टुप्, स्नायु से अनुष्टुप्, अस्थियों से जगती, मज्जा से पंक्ति और प्राणों से बृहती छन्द उत्पन्न हुआ। ऐसे ही उनका जीव स्पर्शवर्ण (कवर्गादि पंचवर्ग) और देह स्वर वर्ण (अकारादि) कहला। उनकी इन्द्रियों को उष्मवर्ण (श ष स ह) और बल को अन्तःस्थ (य र ल व) कहते हैं, तथा उनकी क्रीडा से निषाद, ऋषभ, गान्धार, षड्ज, मध्यम, धैवत और पंचम––ये सात स्वर हुए। हे तात! ब्रम्हाजी शब्दब्रम्हस्वरुप हैं। वे वैखरीरूप से व्यक्त और ओंकार रूप से अव्यक्त हैं तथा उनसे परे जो सर्वत्र परिपूर्ण परब्रम्ह है, वही अनेकों प्रकार की शक्तियों से विकसित होकर इन्द्रादि रूपों में भास् रहा है। विदुरजी! ब्रम्हाजी ने पहला कामासक्त शरीर जिससे कुहरा बना थाछोड़ने के बाद दूसरा शरीर धारण करके विश्व विस्तार का विचार किया; वे देख चुके थे कि मरीचि आदि महान् शक्तिशाली ऋषियों से भी सृष्टि का विस्तार अधिक नहीं हुआ, अतः वे मन-ही-मन पुनः चिन्ता करने लगे—‘अहो! बड़ा आश्चर्य है, मेरे निरन्तर प्रयत्न करने पर भी प्रजा की वृद्धि नहीं हो रही है। मालूम होता है इसमें दैव ही कुछ विघ्न डाल रहा है। जिस समय यथोचित क्रिया करने वाले श्रीब्रम्हाजी इस प्रकार दैव के विषय में विचार कर रहे थे उसी समय अकस्मात् उनके शरीर के दो भाग हो गये। ब्रम्हाजी का नाम है, उन्हीं से विभक्त होने के कारण शरीर को कायकहते हैं। उन दोनों विभागों से एक स्त्री-पुरुष का जोड़ा प्रकट हुआ। उनमें जो पुरुष था वह सार्वभौम सम्राट् स्वायम्भुव मनु हुए और जो स्त्री थी, वह उनकी महारानी शतरूपा हुई। तब से मिथुन धर्म (स्त्री-पुरुष-सम्भोग)-से प्रजा की वृद्धि होने लगी। महाराज स्वायम्भुव मनु ने शतरूपा से पाँच सन्ताने उत्पन्न कीं।

साधुशिरोमणि विदुरजी! उनमें प्रियव्रत और उत्तानपाद दो पुत्र थे तथा आकूति, देवहूति और प्रसूति——तीन कन्याएँ थीं। मनुजी ने आकूति का विवाह रूचि प्रजापति से किया, मझली कन्या देवहूति कर्दमजी को दी और प्रसूति दक्ष प्रजापति को। इन तीनों कन्याओं की सन्तति से सारा संसार भर गया।

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥

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