श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय २२
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय
२२ "देवहूति के साथ कर्दम प्रजापति का विवाह"
श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्धः द्वाविंश अध्यायः
श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ३
अध्यायः २२
श्रीमद्भागवत महापुराण तीसरा स्कन्ध
बाइसवाँ अध्याय
तृतीय
स्कन्ध: ·
श्रीमद्भागवत महापुराण
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३अध्याय
२२ श्लोक का हिन्दी अनुवाद
मैत्रेय उवाच -
एवं आविष्कृताशेष गुणकर्मोदयो
मुनिम् ।
सव्रीड इव तं सम्राड् उपारतमुवाच ह
॥ १ ॥
श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;-
विदुर जी! इस प्रकार जब कर्दम जी ने मनु जी के सम्पूर्ण गुणों और
कर्मों की श्रेष्ठता का वर्णन किया तो उन्होंने उन निवृत्तिपरायण मुनि से कुछ
सकुचाकर कहा।
मनुरुवाच -
ब्रह्मासृजत्स्वमुखतो युष्मान्
आत्मपरीप्सया ।
छन्दोमयस्तपोविद्या
योगयुक्तानलम्पटान् ॥ २ ॥
तत्त्राणायासृजत् चास्मान् दोः
सहस्रात्सहस्रपात् ।
हृदयं तस्य हि ब्रह्म क्षत्रमङ्गं
प्रचक्षते ॥ ३ ॥
अतो ह्यन्योन्यमात्मानं ब्रह्म
क्षत्रं च रक्षतः ।
रक्षति स्माव्ययो देवः स यः
सदसदात्मकः ॥ ४ ॥
तव सन्दर्शनादेव च्छिन्ना मे
सर्वसंशयाः ।
यत्स्वयं भगवान् प्रीत्या धर्ममाह
रिरक्षिषोः ॥ ५ ॥
दिष्ट्या मे भगवान् दृष्टो
दुर्दर्शो योऽकृतात्मनाम् ।
दिष्ट्या पादरजः स्पृष्टं शीर्ष्णा
मे भवतः शिवम् ॥ ६ ॥
दिष्ट्या त्वयानुशिष्टोऽहं
कृतश्चानुग्रहो महान् ।
अपावृतैः कर्णरन्ध्रैः जुष्टा
दिष्ट्योशतीर्गिरः ॥ ७ ॥
स भवान् दुहितृस्नेह
परिक्लिष्टात्मनो मम ।
श्रोतुमर्हसि दीनस्य श्रावितं कृपया
मुने ॥ ८ ॥
प्रियव्रतोत्तानपदोः स्वसेयं दुहिता
मम ।
अन्विच्छति पतिं युक्तं
वयःशीलगुणादिभिः ॥ ९ ॥
यदा तु भवतः शील श्रुतरूपवयोगुणान्
।
अशृणोत् नारदाद् एषा त्वय्यासीत्
कृतनिश्चया ॥ १० ॥
तत्प्रतीच्छ द्विजाग्र्येमां श्रद्धयोपहृतां
मया ।
सर्वात्मनानुरूपां ते गृहमेधिषु
कर्मसु ॥ ११ ॥
उद्यतस्य हि कामस्य प्रतिवादो न
शस्यते ।
अपि निर्मुक्तसङ्गस्य कामरक्तस्य
किं पुनः ॥ १२ ॥
य उद्यतमनादृत्य कीनाशं अभियाचते ।
क्षीयते तद्यशः स्फीतं
मानश्चावज्ञया हतः ॥ १३ ॥
अहं त्वाश्रृणवं विद्वन् विवाहार्थं
समुद्यतम् ।
अतस्त्वं उपकुर्वाणः प्रत्तां
प्रतिगृहाण मे ॥ १४ ॥
मनु जी ने कहा ;-
मुने! वेदमूर्ति भगवान् ब्रह्मा ने अपने वेदमय विग्रह की रक्षा के
लिए तप, विद्या और योग से सम्पन्न तथा विषयों में अनासक्त आप
ब्राह्मणों को अपने मुख से प्रकट किया है और फिर उन सहस्र चरणों वाले विराट् पुरुष
ने आप लोगों की रक्षा के लिये ही अपनी सहस्रों भुजाओं से हम क्षत्रियों को उत्पन्न
किया है। इस प्रकार ब्राह्मण उनके हृदय और क्षत्रिय शरीर कहलाते हैं। अतः एक ही
शरीर से सम्बद्ध होने के कारण अपनी-अपनी और एक-दूसरे की रक्षा करने वाले उन
ब्राह्मण और क्षत्रियों की वास्तव में श्रीहरि ही रक्षा करते हैं, जो समस्त कार्यकारणरूप होकर भी वास्तव में निर्विकार हैं। आपके दर्शनमात्र
से ही मेरे सारे सन्देह दूर हो गये, क्योंकि आपने मेरी
प्रशंसा के मिस से स्वयं ही प्रजापालन की इच्छा वाले के धर्मों का बड़े प्रेम से
निरूपण किया है। आपका दर्शन अजितेन्द्रिय पुरुषों को बहुत दुर्लभ है; मेरा बड़ा भाग्य है जो मुझे आपका दर्शन हुआ और मैं आपके चरणों की मंगलमयी
रज अपने सिर पर चढ़ा सका। मेरे भाग्योदय से ही आपने मुझे राजधर्मों की शिक्षा देकर
मुझ पर महान् अनुग्रह किया है और मैंने भी शुभ प्रारब्ध का उदय होने से ही आपकी
पवित्र वाणी कान खोलकर सुनी है।
मुने! इस कन्या के स्नेहवश मेरा
चित्त बहुत चिन्ताग्रस्त हो रहा है; अतः
मुझ दीन की यह प्रार्थना आप कृपापूर्वक सुनें। यह मेरी कन्या-जो प्रियव्रत और
उत्तानपाद की बहिन है-अवस्था, शील और गुण आदि में अपने योग्य
पति को पाने की इच्छा रखती है। जब से नारद जी के मुख से आपके शील, विद्या, रूप, आयु और गुणों का
वर्णन सुना है, तभी से यह आपको अपना पति बनाने का निश्चय कर
चुकी है। द्विजवर! मैं बड़ी श्रद्धा से आपको यह कन्या समर्पित करता हूँ, आप इसे स्वीकार कीजिये। यह गृहस्थोचित कार्यों के लिये सब प्रकार आपके
योग्य है। जो भोग स्वतः प्राप्त हो जाये, उसकी अवहेलना करना
विरक्त पुरुष को भी उचित नहीं है; फिर विषयासक्त की तो बात
ही क्या है। जो पुरुष स्वयं प्राप्त हुए भोग का निरादर कर फिर किसी कृपण के आगे
हाथ पसारता है, उसका बहुत फैला हुआ यश भी नष्ट हो जाता है और
दूसरों के तिरस्कार से मान भंग भी होता है। विद्वन्! मैंने सुना है, आप विवाह करने के लिये उद्यत हैं। आपका ब्रह्मचर्य एक सीमा तक है, आप नैष्ठित ब्रह्मचारी तो हैं नहीं। इसलिये अब आप इस कन्या को स्वीकार
कीजिये, मैं इसे आपको अर्पित करता हूँ।
ऋषिरुवाच ।
बाढमुद्वोढुकामोऽहं अप्रत्ता च
तवात्मजा ।
आवयोः अनुरूपोऽसौ आद्यो वैवाहिको
विधिः ॥ १५ ॥
कामः स भूयान् नरदेव तेऽस्याः
पुत्र्याः समाम्नायविधौ प्रतीतः ।
क एव ते तनयां नाद्रियेत
स्वयैव कान्त्या क्षिपतीमिव श्रियम् ॥ १६ ॥
यां हर्म्यपृष्ठे क्वणदङ्घ्रिशोभां
विक्रीडतीं कन्दुकविह्वलाक्षीम् ।
विश्वावसुर्न्यपतत् स्वात् विमानात्
विलोक्य सम्मोहविमूढचेताः ॥ १७ ॥
तां प्रार्थयन्तीं ललनाललामं
असेवितश्रीचरणैरदृष्टाम् ।
वत्सां मनोरुच्चपदः स्वसारं
को नानुमन्येत बुधोऽभियाताम् ॥ १८ ॥
अतो भजिष्ये समयेन साध्वीं
यावत्तेजो बिभृयाद् आत्मनो मे ।
अतो धर्मान् पारमहंस्यमुख्यान्
शुक्लप्रोक्तान् बहु मन्येऽविहिंस्रान् ॥ १९
॥
यतोऽभवद्विश्वमिदं विचित्रं
संस्थास्यते यत्र च वावतिष्ठते ।
प्रजापतीनां पतिरेष मह्यं
परं प्रमाणं भगवान् अनन्तः ॥ २० ॥
श्रीकर्दम मुनि ने कहा ;-
ठीक है, मैं विवाह करना चाहता हूँ और आपकी
कन्या का अभी किसी से साथ वाग्दान नहीं हुआ है, इसलिये हम
दोनों का सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मा विधि से विवाह होना उचित ही होगा। राजन्! वेदोक्त
विवाह-विधि में प्रसिद्ध जो ‘गृभ्णामि ते’ इत्यादि मन्त्रों में बताया हुआ काम (संतानोत्पादनरूप मनोरथ) है, वह आपकी इस कन्या के साथ हमारा सम्बन्ध होने से सफल होगा। भला, जो अपनी अंगकान्ति से आभूषणादि की शोभा को भी तिरस्कृत कर रही है, आपकी उस कन्या का कौन आदर न करेगा?
एक बार यह अपने महल की छत पर गेंद
खेल रही थी। गेंद के पीछे इधर-उधर दौड़ने के कारण इसके नेत्र चंचल हो रहे थे तथा
पैरों के पायजेब मधुर झनकार करते जाते थे। उस समय इसे देखकर विश्वावसु गन्धर्व
मोहवश अचेत होकर अपने विमान से गिर पड़ा था। वही इस समय यहाँ स्वयं आकर प्रार्थना
कर रही है; ऐसी अवस्था में कौन समझदार
पुरुष इसे स्वीकार न करेगा? यह तो साक्षात् आप महाराज
श्रीस्वायम्भुव मनु की दुलारी कन्या और उत्तानपाद की प्यारी बहिन है; तथा यह रमणियों में रत्न के समान है। जिन लोगों ने कभी श्रीलक्ष्मी जी के
चरणों की उपासना नहीं की है, उन्हें तो इसका दर्शन भी नहीं
हो सकता। अतः मैं आपकी इस साध्वी कन्या को अवश्य स्वीकार करूँगा, किन्तु एक शर्त के साथ। जब तक इसके संतान न हो जायेगी, तब तक मैं गृहस्थ-धर्मानुसार इसके साथ रहूँगा। उसके बाद भगवान् के बताये
हुए संन्यासप्रधान हिंसारहित शम-दामादि धर्मों को ही अधिक महत्त्व दूँगा। जिनसे इस
विचित्र जगत् की उत्पत्ति हुई है, जिनमें यह लीन हो जाता है
और जिनके आश्रय से यह स्थित है-मुझे तो वे प्रजापतियों के भी पति भगवान् श्रीअनन्त
ही सबसे अधिक मान्य हैं।
मैत्रेय उवाच -
स उग्रधन्वन् नियदेवाबभाषे
आसीच्च तूष्णीं अरविन्दनाभम् ।
धियोपगृह्णन् स्मितशोभितेन
मुखेन चेतो लुलुभे देवहूत्याः ॥ २१ ॥
(अनुष्टुप्)
सोऽनु ज्ञात्वा व्यवसितं महिष्या
दुहितुः स्फुटम् ।
तस्मै गुणगणाढ्याय ददौ तुल्यां
प्रहर्षितः ॥ २२ ॥
शतरूपा महाराज्ञी पारिबर्हान्
महाधनान् ।
दम्पत्योः पर्यदात् प्रीत्या
भूषावासः परिच्छदान् ॥ २३ ॥
प्रत्तां दुहितरं सम्राट् सदृक्षाय
गतव्यथः ।
उपगुह्य च बाहुभ्यां
औत्कण्ठ्योन्मथिताशयः ॥ २४ ॥
अशक्नुवन् तद्विरहं मुञ्चन्
बाष्पकलां मुहुः ।
आसिञ्चद् अम्ब वत्सेति
नेत्रोदैर्दुहितुः शिखाः ॥ २५ ॥
आमन्त्र्य तं मुनिवं अमनुज्ञातः
सहानुगः ।
प्रतस्थे रथमारुह्य सभार्यः स्वपुरं
नृपः ॥ २६ ॥
उभयोः ऋषिकुल्यायाः सरस्वत्याः
सुरोधसोः ।
ऋषीणां उपशान्तानां पश्यन्
आश्रमसम्पदः ॥ २७ ॥
तं आयान्तं अभिप्रेत्य
ब्रह्मावर्तात्प्रजाः पतिम् ।
गीतसंस्तुतिवादित्रैः प्रत्युदीयुः
प्रहर्षिताः ॥ २८ ॥
बर्हिष्मती नाम पुरी सर्वसंपत्
समन्विता ।
न्यपतन्यत्र रोमाणि यज्ञस्याङ्गं
विधुन्वतः ॥ २९ ॥
कुशाः काशास्त एवासन्
शश्वद्धरितवर्चसः ।
ऋषयो यैः पराभाव्य यज्ञघ्नान्
यज्ञमीजिरे ॥ ३० ॥
कुशकाशमयं बर्हिः आस्तीर्य भगवान्
मनुः ।
अयजद् यज्ञपुरुषं लब्धा स्थानं यतो
भुवम् ॥ ३१ ॥
बर्हिष्मतीं नाम विभुः यां
निर्विश्य समावसत् ।
तस्यां प्रविष्टो भवनं
तापत्रयविनाशनम् ॥ ३२ ॥
सभार्यः सप्रजः कामान्
बुभुजेऽन्याविरोधतः ।
सङ्गीयमानसत्कीर्तिः सस्त्रीभिः
सुरगायकैः ।
प्रत्यूषेष्वनुबद्धेन हृदा
श्रृण्वन् हरेः कथाः ॥ ३३ ॥
निष्णातं योगमायासु मुनिं
स्वायम्भुवं मनुम् ।
यदाभ्रंशयितुं भोगा न
शेकुर्भगवत्परम् ॥ ३४ ॥
अयातयामाः तस्यासन् यामाः
स्वान्तरयापनाः ।
श्रृण्वतो ध्यायतो विष्णोः कुर्वतो
ब्रुवतः कथाः ॥ ३५ ॥
स एवं स्वान्तरं निन्ये युगानां
एकसप्ततिम् ।
वासुदेवप्रसङ्गेन परिभूतगतित्रयः ॥
३६ ॥
शारीरा मानसा दिव्या वैयासे ये च
मानुषाः ।
भौतिकाश्च कथं क्लेशा बाधन्ते
हरिसंश्रयम् ॥ ३७ ॥
यः पृष्टो मुनिभिः प्राह धर्मान्
नानाविधान् शुभान् ।
नृणां वर्णाश्रमाणां च सर्वभूतहितः
सदा ॥ ३८ ॥
एतत्ते आदिराजस्य मनोश्चरितमद्भुतम्
।
वर्णितं वर्णनीयस्य तदपत्योदयं
श्रृणु ॥ ३९ ॥
मैत्रेय जी कहते हैं ;-
प्रचण्ड धनुर्धर विदुर! कर्दम जी केवल इतना ही कह सके, फिर वे हृदय में भगवान् कमलनाभ का ध्यान करते हुए मौन हो गये। उस समय उसके
मन्द हास्ययुक्त मुखकमल को देखकर देवहूति का चित्त लुभा गया। मनु जी ने देखा कि इस
सम्बन्ध में महारानी शतरूपा और राजकुमारी की स्पष्ट अनुमति है, अतः उन्होंने अनेक गुणों में सम्पन्न कर्दम जी को उन्हीं के समान गुणवती
कन्या का प्रसन्नतापूर्वक दान कर दिया। महारानी शतरूपा ने भी बेटी और दामाद को
बड़े प्रेमपूर्वक बहुत-से बहुमूल्य वस्त्र, आभूषण और
गृहस्थोचित पात्रादि दहेज में दिये। इस प्रकार सुयोग्य वर को अपनी कन्या देकर
महाराज मनु निश्चिन्त हो गये। चलती बार उसका वियोग न सह सकने के कारण उन्होंने
उत्कण्ठावश विह्वलचित्त होकर उसे अपनी छाती से चिपटा लिया और ‘बेटी! बेटी!’ कहकर रोने लगे। उनकी आँखों से आँसुओं
की झड़ी लग गयी और उनसे उन्होंने देवहूति के सिर के सारे बाल भिगो दिये। फिर वे
मुनिवर कर्दम से पूछकर, उनकी आज्ञा ले रानी के सहित रथ पर
सवार हुए और अपने सेवकों सहित ऋषिकुल सेवित सरस्वती नदी के दोनों तीरों पर मुनियों
के आश्रमों की शोभा देखते हुए अपनी राजधानी में चले आये।
जब ब्रह्मावर्त की प्रजा को यह
समाचार मिला कि उसके स्वामी आ रहे हैं, तब
वह अत्यन्त आनन्दित होकर स्तुति, गीत एवं बाजे-गाजे के साथ
अगवानी करने के लिये ब्रह्मावर्त की राजधानी से बाहर आयी। सब प्रकार की सम्पदाओं
से युक्त बर्हिष्मती नगरी मनु जी की राजधानी थी, जहाँ पृथ्वी
को रसातल से ले आने के पश्चात् शरीर कँपाते समय श्रीवराह भगवान् के रोम झड़कर गिरे
थे। वे रोम ही निरन्तर हरे-भरे रहने वाले कुश और कास हुए, जिनके
द्वारा मुनियों ने यज्ञ में विघ्न डालने वाले दैत्यों का तिरस्कार कर भगवान्
यज्ञपुरुष की यज्ञों द्वारा आराधना की है। महाराज मनु ने भी श्रीवराह भगवान् से
भूमिरूप निवासस्थान प्राप्त होने पर इसी स्थान में कुश और कास की बर्हि (चटाई)
बिछाकर श्रीयज्ञ भगवान् की पूजा की थी।
जिस बर्हिष्मती पुरी में मनु जी निवास
करते थे,
उसमें पहुँचकर उन्होंने अपने त्रितापनाशक भवन में प्रवेश किया। वहाँ
अपनी भार्या और सन्तति के सहित वे धर्म, अर्थ और मोक्ष के
अनुकूल भोगों को भोगने लगे। प्रातःकाल होने पर गन्धर्वगण अपनी स्त्रियों के सहित
उनका गुणगान करते थे; किन्तु मनु जी उसमें आसक्त न होकर
प्रेमपूर्ण हृदय से श्रीहरि कथाएँ ही सुना करते थे। वे इच्छानुसार भोगों का
निर्माण करने में कुशल थे; किन्तु मननशील और भगवत्परायण होने
के कारण भोग उन्हें किंचित् भी विचलित नहीं कर पाते थे।
भगवान् विष्णु की कथाओं का श्रवण,
ध्यान, रचना और निरूपण करते रहने के कारण उनके
मन्वन्तर को व्यतीत करने वाले क्षण कभी व्यर्थ नहीं जाते थे। इस प्रकार अपनी
जाग्रत् आदि तीनों अवस्थाओं अथवा तीनों गुणों को अभिभूत करके उन्होंने भगवान्
वासुदेव के कथाप्रसंग में अपने मन्वन्तर के इकहत्तर चतुर्युग पूरे कर दिये।
व्यासनन्दन विदुर जी! जो पुरुष
श्रीहरि के आश्रित रहता है उसे शारीरिक, मानसिक,
दैविक, मानुषिक अथवा भौतिक दुःख किस प्रकार
कष्ट पहुँचा सकते हैं। मनु जी निरन्तर समस्त प्राणियों के हित में लगे रहते थे।
मुनियों के पूछने पर उन्होंने मनुष्यों के तथा समस्त वर्ण और आश्रमों के अनेक प्रकार
के मंगलमय धर्मों का भी वर्णन किया (जो मनुसंहिता के रूप में अब भी उपलब्ध है)।
जगत् के सर्वप्रथम सम्राट् महाराज मनु वास्तव में कीर्तन के योग्य थे। यह मैंने
उनके अद्भुत चरित्र का वर्णन किया, अब उनकी कन्या देवहूति का
प्रभाव सुनो।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे द्वाविंशोऽध्यायः ॥ २२ ॥
No comments:
Post a Comment
Please do not enter any spam link in the comment box