श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय २३

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध अध्याय २३ 

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध अध्याय २३  "कर्दम और देवहूति का विहार"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय २३

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्धः त्रयोविंश अध्यायः

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः अध्यायः २३

श्रीमद्भागवत महापुराण तीसरा स्कन्ध तेइसवाँ अध्याय

तृतीय स्कन्ध: · श्रीमद्भागवत महापुराण        

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध अध्याय २३ श्लोक का हिन्दी अनुवाद

मैत्रेय उवाच ।

पितृभ्यां प्रस्थिते साध्वी पतिं इङ्‌कितकोविदा ।

नित्यं पर्यचरत् प्रीत्या भवानीव भवं प्रभुम् ॥ १ ॥

विश्रम्भेणात्मशौचेन गौरवेण दमेन च ।

शुश्रूषया सौहृदेन वाचा मधुरया च भोः ॥ २ ॥

विसृज्य कामं दम्भं च द्वेषं लोभमघं मदम् ।

अप्रमत्तोद्यता नित्यं तेजीयांसमतोषयत् ॥ ३ ॥

स वै देवर्षिवर्यस्तां मानवीं समनुव्रताम् ।

दैवाद्‍गरीयसः पत्युः आशासानां महाशिषः ॥ ४ ॥

कालेन भूयसा क्षामां कर्शितां व्रतचर्यया ।

प्रेमगद्‍गदया वाचा पीडितः कृपयाब्रवीत् ॥ ५ ॥

श्रीमैत्रेय जी ने कहा ;- विदुर जी! माता-पिता के चले जाने पर पति के अभिप्राय को समझ लेने में कुशल साध्वी देवहूति कर्दम जी की प्रतिदिन प्रेमपूर्वक सेवा करने लगी, ठीक उसी तरह, जैसे श्रीपार्वती जी भगवान् शंकर की सेवा करती हैं। उसने काम-वासना, दम्भ, द्वेष, लोभ, पाप और मद का त्याग कर बड़ी सावधानी और लगन के साथ सेवा में तत्पर रहकर विश्वास, पवित्रता, गौरव, संयम, शुश्रूषा, प्रेम और मधुर भाषणादि गुणों से अपने परम तेजस्वी पतिदेव को सन्तुष्ट कर लिया। देवहूति समझती थी कि मेरे पतिदेव दैव से भी बढ़कर हैं, इसलिये वह उनसे बड़ी-बड़ी आशाएँ रखकर उनकी सेवा में लगी रहती थी। इस प्रकार बहुत दिनों तक अपना अनुवर्तन करने वाली उस मनुपुत्री को व्रतादि का पालन करने से दुर्बल हुई देख देवर्षिश्रेष्ठ कर्दम को दयावश कुछ खेद हुआ और उन्होंने उससे प्रेमगद्गद वाणी में कहा।

कर्दम उवाच -

तुष्टोऽहमद्य तव मानवि मानदायाः

     शुश्रूषया परमया परया च भक्त्या ।

यो देहिनामयमतीव सुहृत्स देहो

     नावेक्षितः समुचितः क्षपितुं मदर्थे ॥ ६ ॥

ये मे स्वधर्मनिरतस्य तपःसमाधि

     विद्यात्मयोगविजिता भगवत्प्रसादाः ।

तानेव ते मदनुसेवनयावरुद्धान्

     दृष्टिं प्रपश्य वितराम्यभयानशोकान् ॥ ७ ॥

अन्ये पुनर्भगवतो भ्रुव उद्विजृम्भ

     विभ्रंशितार्थरचनाः किमुरुक्रमस्य ।

सिद्धासि भुङ्क्ष्व विभवान् निजधर्मदोहान्

     दिव्यान् नरैर्दुरधिगान् नृपविक्रियाभिः ॥ ८ ॥

एवं ब्रुवाणमबलाखिलयोगमाया

     विद्याविचक्षणमवेक्ष्य गताधिरासीत् ।

सम्प्रश्रयप्रणयविह्वलया गिरेषद्

     व्रीडावलोकविलसद् हसिताननाह ॥ ९ ॥

कर्दम जी बोले ;- मनुनन्दिनी! तुमने मेरा बड़ा आदर किया है। मैं तुम्हारी उत्तम सेवा और परम भक्ति से बहुत सन्तुष्ट हूँ। सभी देहधारियों को अपना शरीर बहुत प्रिय एवं आदर की वस्तु होता है, किन्तु तुमने मेरी सेवा के आगे उसके क्षीण होने की भी कोई परवा नहीं की। अतः अपने धर्म का पालन करते रहने से मुझे तप, समाधि, उपासना और योग के द्वारा जो भय और शोक से रहित भगवत्प्रसाद-स्वरूप विभूतियाँ प्राप्त हुईं हैं, उन पर मेरी सेवा के प्रभाव से अब तुम्हारा भी अधिकार हो गया है। मैं तुम्हें दिव्य-दृष्टि प्रदान करता हूँ, उसके द्वारा तुम उन्हें देखो। अन्य जितने भी भोग हैं, वे तो भगवान् श्रीहरि के भ्रुकुटि-विलासमात्र से नष्ट हो जाते हैं; अतः वे इनके आगे कुछ भी नहीं है। तुम मेरी सेवा से भी कृतार्थ हो गयी हो; अपने पातिव्रत-धर्म का पालन करने से तुम्हें ये दिव्य भोग प्राप्त हो गये हैं, तुम इन्हें भोग सकती हो। हम राजा हैं, हमें सब कुछ सुलभ है, इस प्रकार जो अभिमान आदि विकार हैं, उनके रहते हुए मनुष्यों को इन दिव्य भोगों की प्राप्ति होनी कठिन है।

कर्दम जी के इस प्रकार कहने से अपने पतिदेव को सम्पूर्ण योगमाया और विद्याओं में कुशल जानकर उस अबला की सारी चिन्ता जाती रही। उसका मुख किंचित् संकोच भरी चितवन और मधुर मुस्कान से खिल उठा और वह विनय एवं प्रेम से गद्गद वाणी में इस प्रकार कहने लगी।

देवहूतिरुवाच -                 

राद्धं बत द्विजवृषैतदमोघयोग

     मायाधिपे त्वयि विभो तदवैमि भर्तः ।

यस्तेऽभ्यधायि समयः सकृदङ्गसङ्गो

     भूयाद्‍गरीयसि गुणः प्रसवः सतीनाम् ॥ १० ॥

तत्रेतिकृत्यमुपशिक्ष यथोपदेशं

     येनैष मे कर्शितोऽतिरिरंसयाऽऽत्मा ।

सिद्ध्येत ते कृतमनोभवधर्षिताया

     दीनस्तदीश भवनं सदृशं विचक्ष्व ॥ ११ ॥

देवहूति ने कहा ;- द्विजश्रेष्ठ! स्वामिन्! मैं यह जानती हूँ कि कभी निष्फल न होने वाली योगशक्ति और त्रिगुणात्मिक माया पर अधिकार रखने वाले आपको ये सब ऐश्वर्य प्राप्त हैं। किन्तु प्रभो! आपने विवाह के समय जो प्रतिज्ञा की थी कि गर्भाधान होने तक मैं तुम्हारे साथ गृहस्थ-सुख का उपभोग करूँगा, उसकी अब पूर्ति होनी चाहिये। क्योंकि श्रेष्ठ पति के द्वारा सन्तान प्राप्त होना पतिव्रता स्त्री के लिये महान् लाभ है। हम दोनों के समागम के लिये शास्त्र के अनुसार जो कर्तव्य हो, उसका आप उपदेश दीजिये और उबटन, गन्ध, भोजन आदि उपयोगी सामग्रियाँ भी जुटा दीजिये, जिससे मिलन की इच्छा से अत्यन्त दीन दुर्बल हुआ मेरा यह शरीर आपके अंग-संग के योग्य हो जाये; क्योंकि आपकी ही बढ़ायी हुई कामवेदना से मैं पीड़ित हो रही हूँ। स्वामिन्! इस कार्य के लिये एक उपयुक्त भवन तैयार हो जाये, इसका भी विचार कीजिये।

मैत्रेय उवाच -

प्रियायाः प्रियमन्विच्छन् कर्दमो योगमास्थितः ।

विमानं कामगं क्षत्तः तर्ह्येवाविरचीकरत् ॥ १२ ॥

सर्वकामदुघं दिव्यं सर्वरत्‍नसमन्वितम् ।

सर्वर्द्ध्युपचयोदर्कं मणिस्तम्भैरुपस्कृतम् ॥ १३ ॥

दिव्योपकरणोपेतं सर्वकालसुखावहम् ।

पट्टिकाभिः पताकाभिः विचित्राभिः अलङ्कृतम् ॥ १४ ॥

स्रग्भिर्विचित्रमाल्याभिः मञ्जुशिञ्जत् षडङ्‌घ्रिभिः ।

दुकूलक्षौमकौशेयैः नानावस्त्रैः विराजितम् ॥ १५ ॥

उपर्युपरि विन्यस्त निलयेषु पृथक्पृथक् ।

क्षिप्तैः कशिपुभिः कान्तं पर्यङ्कव्यजनासनैः ॥ १६ ॥

तत्र तत्र विनिक्षिप्त नानाशिल्पोपशोभितम् ।

महामरकतस्थल्या जुष्टं विद्रुमवेदिभिः ॥ १७ ॥

द्वाःसु विद्रुमदेहल्या भातं वज्रकपाटवत् ।

शिखरेषु इन्द्रनीलेषु हेमकुम्भैः अधिश्रितम् ॥ १८ ॥

चक्षुष्मत् पद्मरागाग्र्यैः वज्रभित्तिषु निर्मितैः ।

जुष्टं विचित्रवैतानैः महार्हैः हेमतोरणैः ॥ १९ ॥

हंसपारावतव्रातैः तत्र तत्र निकूजितम् ।

कृत्रिमान् मन्यमानैः स्वान् अधिरुह्याधिरुह्य च ॥ २० ॥

विहारस्थानविश्राम संवेशप्राङ्गणाजिरैः ।

यथोपजोषं रचितैः व्प्स्मापनं इवात्मनः ॥ २१ ॥

ईदृग्गृहं तत्पश्यन्तीं नातिप्रीतेन चेतसा ।

सर्वभूताशयाभिज्ञः प्रावोचत् कर्दमः स्वयम् ॥ २२ ॥

निमज्ज्यास्मिन् ह्रदे भीरु विमानं इदमारुह ।

इदं शुक्लकृतं तीर्थं आशिषां यापकं नृणाम् ॥ २३ ॥

सा तद्‍भर्तुः समादाय वचः कुवलयेक्षणा ।

सरजं बिभ्रती वासो वेणीभूतांश्च मूर्धजान् ॥ २४ ॥

अङ्गं च मलपङ्केन सञ्छन्नं शबलस्तनम् ।

आविवेश सरस्वत्याः सरः शिवजलाशयम् ॥ २५ ॥

सान्तः सरसि वेश्मस्थाः शतानि दश कन्यकाः ।

सर्वाः किशोरवयसो ददर्शोत्पलगन्धयः ॥ २६ ॥

तां दृष्ट्वा सहसोत्थाय प्रोचुः प्राञ्जलयः स्त्रियः ।

वयं कर्मकरीस्तुभ्यं शाधि नः करवाम किम् ॥ २७ ॥

स्नानेन तां महार्हेण स्नापयित्वा मनस्विनीम् ।

दुकूले निर्मले नूत्‍ने ददुरस्यै च मानदाः ॥ २८ ॥

भूषणानि परार्ध्यानि वरीयांसि द्युमन्ति च ।

अन्नं सर्वगुणोपेतं पानं चैवामृतासवम् ॥ २९ ॥

मैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! कर्दम मुनि ने अपनी प्रिया की इच्छा पूर्ण करने के लिये उसी समय योग में स्थित होकर एक विमान रचा, जो इच्छानुसार सर्वत्र जा सकता था। यह विमान सब प्रकार के इच्छित भोग-सुख प्रदान करने वाला, अत्यन्त सुन्दर, सब प्रकार के रत्नों से युक्त, सब सम्पत्तियों की उत्तरोत्तर वृद्धि से सम्पन्न तथा मणिमय खंभों से सुशोभित था। वह सभी ऋतुओं में सुखदायक था और उसमें जहाँ-तहाँ सब प्रकार की दिव्य सामग्रियाँ रखी हुईं थीं तथा उसे चित्र-विचित्र रेशमी झंडियों और पताकाओं से खूब सजाया गया था। जिन पर भ्रमरगण मधुर गुंजार कर रहे थे, ऐसे रंग-बिरंगे पुष्पों की मालाओं से तथा अनेक प्रकार के सूती और रेशमी वस्त्रों से वह अत्यन्त शोभायमान हो रहा था।

एक के ऊपर एक बनाये हुए कमरों में अलग-अलग रखी हुई शय्या, पलंग, पंखे और आसनों के कारण वह बड़ा सुन्दर जान पड़ता था। जहाँ-तहाँ दीवारों में की हुई शिल्प रचना से उसकी अपूर्व शोभा हो रही थी। उसमें पन्ने का फर्श था और बैठने के लिये मूँगे की वेदियाँ बनायी गयी थीं। मूँगे की ही देहलियाँ थीं। उसके द्वारों में हीरे के किवाड़ थे तथा इन्द्रनील मणि के शिखरों पर सोने के कलश रखे हुए थे। उसकी हीरे की दीवारों में बढ़िया लाल जड़े हुए थे, जो ऐसे जान पड़ते थे मानो विमान की आँखें हों तथा उसे रंग-बिरंगे चंदोवे और बहुमूल्य सुनहरी बन्दनवारों से सजाया गया था। उस विमान में जहाँ-तहाँ कृत्रिम हंस और कबूतर आदि पक्षी बनाये गये थे, जो बिलकुल सजीव-से मालूम पड़ते थे; उन्हें अपना सजातीय समझकर बहुत-से हंस और कबूतर उनके पास बैठ-बैठकर अपनी बोली बोलते थे। उसमें सुविधानुसार क्रीड़ास्थली, शयनगृह, बैठक, आँगन और चौक आदि बनाये गये थे-जिनके कारण वह विमान स्वयं कर्दम जी को भी विस्मित-सा कर रहा था।

ऐसे सुन्दर घर को भी जब देवहूति ने बहुत प्रसन्न चित्त से नहीं देखा तो सबके आन्तरिक भाव को परख लेने वाले कर्दम जी ने स्वयं ही कहा- भीरु! तुम इस बिन्दुसर सरोवर में स्नान करके विमान पर चढ़ जाओ; यह विष्णु भगवान् का रचा हुआ तीर्थ मनुष्यों को सभी कामनाओं की प्राप्ति कराने वाला है

कमललोचना देवहूति ने अपने पति की बात मानकर सरस्वती के पवित्र जल से भरे हुए उस सरोवर में प्रवेश किया। उस समय वह बड़ी मैली-कुचैली साड़ी पहले हुए थी, उसके सिर के बाल चिपक जाने से उनमें लटें पड़ गयी थीं, शरीर में मैल जम गया था तथा स्तन कान्तिहीन हो गये थे। सरोवर में गोता लगाने पर उसने उसके भीतर एक महल में एक हजार कन्याएँ देखीं। वे सभी किशोर-अवस्था की थीं और उनके शरीर से कमल की-सी गन्ध आती थी। देवहूति को देखते ही वे सब स्त्रियाँ सहसा खड़ी हो गयीं और हाथ जोड़कर कहने लगीं, ‘हम आपकी दासियाँ हैं; हमें आज्ञा दीजिये, आपकी क्या सेवा करें?

विदुर जी! तब स्वामिनी को सम्मान देने वाली उन रमणियों ने बहुमूल्य मसालों तथा गन्ध आदि से मिश्रित जल के द्वारा मनस्विनी देवहूति को स्नान कराया तथा उसे दो नवीन और निर्मल वस्त्र पहनने को दिये। फिर उन्होंने ये बहुत मूल्य के बड़े सुन्दर और कान्तिमान् आभूषण, सर्वगुणसम्पन्न भोजन और पीने के लिये अमृत के समान स्वादिष्ट आसव प्रस्तुत किये।

अथादर्शे स्वमात्मानं स्रग्विणं विरजाम्बरम् ।

विरजं कृतस्वस्त्ययनं कन्याभिर्बहुमानितम् ॥ ३० ॥

स्नातं कृतशिरःस्नानं सर्वाभरणभूषितम् ।

निष्कग्रीवं वलयिनं कूजत् काञ्चननूपुरम् ॥ ३१ ॥

श्रोण्योरध्यस्तया काञ्च्या काञ्चन्या बहुरत्‍नया ।

हारेण च महार्हेण रुचकेन च भूषितम् ॥ ३२ ॥

सुदता सुभ्रुवा श्लक्ष्ण स्निग्धापाङ्गेन चक्षुषा ।

पद्मकोशस्पृधा नीलैः अलकैश्च लसन्मुखम् ॥ ३३ ॥

यदा सस्मार ऋषभं ऋषीणां दयितं पतिम् ।

तत्र चास्ते सह स्त्रीभिः यत्रास्ते स प्रजापतिः ॥ ३४ ॥

भर्तुः पुरस्तादात्मानं स्त्रीसहस्रवृतं तदा ।

निशाम्य तद्योगगतिं संशयं प्रत्यपद्यत ॥ ३५ ॥

स तां कृतमलस्नानां विभ्राजन्तीमपूर्ववत् ।

आत्मनो बिभ्रतीं रूपं संवीतरुचिरस्तनीम् ॥ ३६ ॥

विद्याधरीसहस्रेण सेव्यमानां सुवाससम् ।

जातभावो विमानं तद् आरोहयद् अमित्रहन् ॥ ३७ ॥

तस्मिन् अलुप्तमहिमा प्रिययानुरक्तो

     विद्याधरीभिरुपचीर्णवपुर्विमाने ।

बभ्राज उत्कचकुमुद्‍गणवानपीच्यः

     ताराभिरावृत इव उडुपतिः नभःस्थः ॥ ३८ ॥

तेनाष्टलोकपविहारकुलाचलेन्द्र

     द्रोणीष्वनङ्गसखमारुतसौभगासु ।

सिद्धैर्नुतो द्युधुनिपातशिवस्वनासु

     रेमे चिरं धनदवल्ललनावरूथी ॥ ३९ ॥

वैश्रम्भके सुरसने नन्दने पुष्पभद्रके ।

मानसे चैत्ररथ्ये च स रेमे रामया रतः ॥ ४० ॥

भ्राजिष्णुना विमानेन कामगेन महीयसा ।

वैमानिकानत्यशेत चरन् लोकान यथानिलः ॥ ४१ ॥

किं दुरापादनं तेषां पुंसां उद्दामचेतसाम् ।

यैराश्रितस्तीर्थपदः चरणो व्यसनात्ययः ॥ ४२ ॥

प्रेक्षयित्वा भुवो गोलं पत्‍न्यै यावान् स्वसंस्थया ।

बह्वाश्चर्यं महायोगी स्वाश्रमाय न्यवर्तत ॥ ४३ ॥

विभज्य नवधाऽऽत्मानं मानवीं सुरतोत्सुकाम् ।

रामां निरमयन् रेमे वर्षपूगान् मुहूर्तवत् ॥ ४४ ॥

तस्मिन् विमान उत्कृष्टां शय्यां रतिकरीं श्रिता ।

न चाबुध्यत तं कालं पत्यापीच्येन सङ्गता ॥ ४५ ॥

एवं योगानुभावेन दम्पत्यो रममाणयोः ।

शतं व्यतीयुः शरदः कामलालसयोर्मनाक् ॥ ४६ ॥

तस्यां आधत्त रेतस्तां भावयन् आत्मनाऽऽत्मवित् ।

नोधा विधाय रूपं स्वं सर्वसङ्कल्पविद्विभुः ॥ ४७ ॥

अतः सा सुषुवे सद्यो देवहूतिः स्त्रियः प्रजाः ।

सर्वास्ताश्चारुसर्वाङ्ग्यो लोहितोत्पलगन्धयः ॥ ४८ ॥

पतिं सा प्रव्रजिष्यन्तं तदाऽऽलक्ष्योशती बहिः ।

स्मयमाना विक्लवेन हृदयेन विदूयता ॥ ४९ ॥

लिखन्त्यधोमुखी भूमिं पदा नखमणिश्रिया ।

उवाच ललितां वाचं निरुध्याश्रुकलां शनैः ॥ ५० ॥

अब देवहूति ने दर्पण में अपना प्रतिबिम्ब देखा तो उसे मालूम हुआ कि वह भाँति-भाँति के सुगंधित फूलों के हारों से विभूषित है, स्वच्छ वस्त्र धारण किये हुए है, उसका शरीर भी निर्मल और कान्तिमान् हो गया है तथा उन कन्याओं ने बड़े आदरपूर्वक से उसका मांगलिक श्रृंगार किया है। उसे सिर से स्नान कराया गया है, स्नान के पश्चात् अंग-अंग में सब प्रकार के आभूषण सजाये गये हैं तथा उसके गले में हार-हुमेल, हाथों में कंकण और पैरों में छमछमाते हुए सोने के पायजेब सुशोभित हैं। कमर में पड़ी हुई सोने की रत्न जटित करधनी से, बहुमूल्य मणियों के हार से और अंग-अंग में लगे हुए कुंकुमादि मंगल द्रव्यों से उसकी अपूर्व शोभा हो रही है। उसका मुख सुन्दर दन्तावली, मनोहर भौंहें, कमल की कली से स्पर्धा करने वाले प्रेम कटाक्षमय सुन्दर नेत्र और नीली अलकावली से बड़ा ही सुन्दर जान पड़ता है।

विदुर जी! जब देवहूति ने अपने प्रिय पतिदेव का स्मरण किया, तो अपने को सहेलियों के सहित वहीं पाया, जहाँ प्रजापति कर्दम जी विराजमान थे। उस समय अपने को सहस्रों स्त्रियों के सहित अपने प्राणनाथ के सामने देख और उनके योग का प्रभाव समझकर देवहूति को बड़ा विस्मय हुआ।

शत्रुविजयी विदुर! जब कर्दम जी ने देखा कि देवहूति का शरीर स्नान करने से अत्यन्त निर्मल हो गया है, और विवाह काल से पूर्व उसका जैसा रूप था, उसी रूप को पाकर वह अपूर्व शोभा से सम्पन्न हो गयी है। उसका सुन्दर वक्षःस्थल चोली से ढका हुआ है, हजारों विद्याधरियाँ उसकी सेवा में लगी हुई हैं तथा उसके शरीर पर बढ़िया-बढ़िया वस्त्र शोभा पा रहे हैं, तब उन्होंने बड़े प्रेम से उसे विमान पर चढ़ाया। उस समय अपनी प्रिया के प्रति अनुरक्त होने पर भी कर्दम जी की महिमा (मन और इन्द्रियों पर प्रभुता) कम नहीं हुई। विद्याधरियाँ उनके शरीर की सेवा कर रही थीं। खिले हुए कुमुद के फूलों से श्रृंगार करके अत्यन्त सुन्दर बने हुए वे विमान पर इस प्रकार शोभा पा रहे थे, मानो आकाश में तारागण से घिरे हुए चन्द्रदेव विराजमान हों।

उस विमान पर निवास कर उन्होंने दीर्घकाल तक कुबेर जी के समान मेरु पर्वत की घाटियों में विहार किया। ये घाटियाँ आठों लोकपालों की विहार भूमि हैं; इसमें कामदेव को बढ़ाने वाली शीतल, मन्द, सुगन्ध वायु चलकर इनकी कमनीय शोभा का विस्तार करती है तथा श्रीगंगा जी के स्वर्गलोक से गिरने की मंगलमय ध्वनि निरन्तर गूँजती रहती है। उस समय भी दिव्य विद्याधरियों का समुदाय उनकी सेवा में उपस्थित था और सिद्धगण वन्दना किया करते थे। इसी प्रकार प्राणप्रिया देवहूति के साथ उन्होंने वैश्रम्भ्क, सुरसन, नन्दन, पुष्पभद्र और चैत्ररथ आदि अनेकों देवोद्यानों तथा मानस-सरोवर में अनुरागपूर्वक विहार किया। उस कान्तिमान् और इच्छानुसार चलने वाले श्रेष्ठ विमान पर बैठकर वायु के समान सभी लोकों में विचरते हुए कर्दम जी विमानविहारी देवताओं से भी आगे बढ़ गये।

विदुर जी! जिन्होंने भगवान् के भवभयहारी पवित्र पादपद्मों का आश्रय लिया है, उन धीर पुरुषों के लिये कौन-सी वस्तु या शक्ति दुर्लभ है। इस प्रकार महायोगी कर्दम जी यह सारा भूमण्डल, जो द्वीप-वर्ष आदि की विचित्र रचना के कारण बड़ा आश्चर्यमय प्रतीत होता है, अपनी प्रिया को दिखाकर अपने आश्रम को लौट आये। फिर उन्होंने अपने को नौ रूपों में विभक्त कर रतिसुख के लिये अत्यन्त उत्सुक मनुकुमारी देवहूति को आनन्दित करते हुए उसके साथ बहुत वर्षों तक विहार किया, किन्तु उनका इतना लम्बा समय एक मुहूर्त के समान बीत गया।

उस विमान में रतिसुख को बढ़ाने वाली बड़ी सुन्दर शय्या का आश्रय ले अपने परम रूपवान् प्रियतम के साथ रहती हुई देवहूति को इतना काल कुछ भी न जान पड़ा। इस प्रकार उस कामासक्त दम्पत्ति को अपने योगबल से सैकड़ों वर्षों तक विहार करते हुए भी वह काल बहुत थोड़े समय के समान निकल गया।

आत्मज्ञानी कर्दम जी सब प्रकार के संकल्पों को जानते थे; अतः देवहूति को सन्तान प्राप्ति के लिये उत्सुक देख तथा भगवान् के आदेश को स्मरणकर उन्होंने अपने स्वरूप के नौ विभाग किये तथा कन्याओं की उत्पत्ति के लिये एकाग्रचित्त से अर्धांगरूप से अपनी पत्नी की भावना करते हुए उसके गर्भ में वीर्य स्थापित किया। इससे देवहूति के एक ही साथ नौ कन्याएँ पैदा हुई। वे सभी सर्वांग सुन्दरी थीं और उनके शरीर से लाल कमल की-सी सुगन्ध निकलती थी।

इसी समय शुद्ध स्वभाव वाली सती देवहूति ने देखा कि पूर्व प्रतिज्ञा के अनुसार उसके पतिदेव संन्यासश्रम ग्रहण करके वन को जाना चाहते हैं तो उसने अपने आँसुओं को रोककर ऊपर से मुसकराते हुए व्याकुल एवं संतप्त हृदय से धीरे-धीरे अति मधुर वाणी में कहा। उस समय वह सिर नीचा किये हुए अपने नखमणिमण्डित चरणकमल से पृथ्वी को कुरेद रही थी।

देवहूतिरुवाच -

सर्वं तद्‍भगवान् मह्यं उपोवाह प्रतिश्रुतम् ।

अथापि मे प्रपन्नाया अभयं दातुमर्हसि ॥ ५१ ॥

ब्रह्मन् दुहितृभिस्तुभ्यं विमृग्याः पतयः समाः ।

कश्चित्स्यान्मे विशोकाय त्वयि प्रव्रजिते वनम् ॥ ५२ ॥

एतावतालं कालेन व्यतिक्रान्तेन मे प्रभो ।

इन्द्रियार्थप्रसङ्गेन परित्यक्तपरात्मनः ॥ ५३ ॥

इन्द्रियार्थेषु सज्जन्त्या प्रसङ्गस्त्वयि मे कृतः ।

अजानन्त्या परं भावं तथाप्यस्तु अभयाय मे ॥ ५४ ॥

सङ्गो यः संसृतेर्हेतुः असत्सु विहितोऽधिया ।

स एव साधुषु कृतो निःसङ्गत्वाय कल्पते ॥ ५५ ॥

नेह यत्कर्म धर्माय न विरागाय कल्पते ।

न तीर्थपदसेवायै जीवन्नपि मृतो हि सः ॥ ५६ ॥

साहं भगवतो नूनं वञ्चिता मायया दृढम् ।

यत्त्वां विमुक्तिदं प्राप्य न मुमुक्षेय बन्धनात् ॥ ५७ ॥

देवहूति ने कहा ;- भगवन्! आपने जो कुछ प्रतिज्ञा की थी, वह सब तो पूर्णतः निभा दी; तो भी मैं आपकी शरणागत हूँ, अतः आप मुझे अभयदान और दीजिये। ब्रह्मन्! इन कन्याओं के लिये योग्य वर खोजने पड़ेंगे और आपके वन को चले जाने के बाद मेरे जन्म-मरणरूप शोक को दूर करने के लिये भी कोई होना चाहिये। प्रभो! अब तक परमात्मा से विमुख रहकर मेरा जो समय इन्द्रियसुख भोगने में बीता है, वह तो निरर्थक ही गया। आपके परम प्रभाव को न जानने के कारण ही मैंने इन्द्रियों के विषयों में आसक्त रहकर आपसे अनुराग किया तथापि यह भी मेरे संसार-भय को दूर करने वाला ही होना चाहिये। अज्ञानवश असत्पुरुषों के साथ किया हुआ जो संग संसार-बन्धन का कारण होता है, वही सत्पुरुषों के साथ किये जाने पर असंगता प्रदान करता है। संसार में जिस पुरुष के कर्मों से न तो धर्म का सम्पादन होता है, न वैराग्य उत्पन्न होता है और न भगवान् की सेवा ही सम्पन्न होती है, वह पुरुष जीते ही मुर्दे के समान है। अवश्य ही मैं भगवान् की माया से बहुत ठगी गयी, जो आप-जैसे मुक्तिदाता पतिदेव को पाकर भी मैंने संसार-बन्धन से छूटने की इच्छा नहीं की।

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ २३ ॥

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