श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय २०
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय २० "ब्रह्मा जी की रची हुई अनेक प्रकार की सृष्टि का वर्णन"
श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्धः विंश अध्यायः
श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ३
अध्यायः २०
श्रीमद्भागवत महापुराण तीसरा स्कन्ध
बीसवाँ अध्याय
तृतीय
स्कन्ध: ·
श्रीमद्भागवत महापुराण
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३अध्याय
२० श्लोक का हिन्दी अनुवाद
शौनक उवाच -
महीं प्रतिष्ठामध्यस्य सौते
स्वायम्भुवो मनुः ।
कानि अन्वतिष्ठद् द्वाराणि मार्गाय
अवर जन्मनाम् ॥ १ ॥
क्षत्ता महाभागवतः
कृष्णस्यैकान्तिकः सुहृत् ।
यस्तत्याजाग्रजं कृष्णे सापत्यं
अघवानिति ॥ २ ॥
द्वैपायनादनवरो महित्वे तस्य देहजः
।
सर्वात्मना श्रितः कृष्णं
तत्परांश्चाप्यनुव्रतः ॥ ३ ॥
किं अन्वपृच्छन् मैत्रेयं
विरजास्तीर्थसेवया ।
उपगम्य कुशावर्त आसीनं
तत्त्ववित्तमम् ॥ ४ ॥
तयोः संवदतोः सूत प्रवृत्ता ह्यमलाः
कथाः ।
आपो गाङ्गा इवाघघ्नीः हरेः
पादाम्बुजाश्रयाः ॥ ५ ॥
ता नः कीर्तय भद्रं ते
कीर्तन्योदारकर्मणः ।
रसज्ञः को नु तृप्येत हरिलीलामृतं
पिबन् ॥ ६ ॥
एवं उग्रश्रवाः पृष्ट ऋषिभिः नैमिषायनैः
।
भगवति अर्पिताध्यात्मः तान् आह
श्रूयतामिति ॥ ७ ॥
शौनक जी कहते हैं ;-
सूत जी! पृथ्वीरूप आधार पाकर स्वायम्भुव मनु ने आगे होने वाली
सन्तति को उत्पन्न करने के लिये किन-किन उपायों का अवलम्बन किया?
विदुर जी बड़े ही भगवद्भक्त और
भगवान् श्रीकृष्ण के अनन्य सुहृद् थे। इसीलिये उन्होंने अपने बड़े भाई धृतराष्ट्र
को,
उनके पुत्र दुर्योधन के सहित, भगवान्
श्रीकृष्ण का अनादर करने के कारण अपराधी समझकर त्याग दिया था। वे महर्षि द्वैपायन
के पुत्र थे और महिमा में उनसे किसी प्रकार कम नहीं थे तथा सब प्रकार भगवान्
श्रीकृष्ण के आश्रित और कृष्णभक्तों के अनुगामी थे। तीर्थ सेवन से उनका अन्तःकरण
और भी शुद्ध हो गया था। उन्होंने कुशावर्त क्षेत्र (हरिद्वार) में बैठे हुए
तत्त्वज्ञानियों में श्रेष्ठ मैत्रेय जी के पास जाकर और क्या पूछा?
सूत जी! उन दोनों में वार्तालाप
होने पर श्रीहरिके चरणों से सम्बन्ध रखने वाली बड़ी पवित्र कथाएँ हुई होंगी,
जो उन्हीं चरणों से निकले हुए गंगाजल के समान सम्पूर्ण पापों का नाश
करने वाली होंगी। सूत जी! आपका मंगल हो, आप हमें भगवान् की
वे पवित्र कथाएँ सुनाइये। प्रभु के उदार चरित्र तो कीर्तन करने योग्य होते हैं।
भला, ऐसा कौन रसिक होगा जो श्रीहरि के लीलामृत का पान
करते-करते तृप्त हो जाये।
नैमिषारण्यवासी मुनियों के इस
प्रकार पूछने पर उग्रश्रवा सूत जी ने भगवान् में चित्त लगाकर उनसे कहा- ‘सुनिये’।
सूत उवाच -
हरेर्धृतक्रोडतनोः स्वमायया
निशम्य गोरुद्धरणं रसातलात् ।
लीलां हिरण्याक्षमवज्ञया हतं
सञ्जातहर्षो मुनिमाह भारतः ॥ ८ ॥
सूत जी ने कहा ;-
मुनिगण! अपनी माया से वराहरूप धारण करने वाले श्रीहरि की रसातल से
पृथ्वी को निकालने और खेल में ही तिरस्कारपूर्वक हिरण्याक्ष को मार डालने की लीला
सुनकर विदुर जी को बड़ा आनन्द हुआ और उन्होंने मुनिवर मैत्रेय जी से कहा।
विदुर उवाच -
प्रजापतिपतिः सृष्ट्वा प्रजासर्गे
प्रजापतीन् ।
किं आरभत मे ब्रह्मन्
प्रब्रूह्यव्यक्तमार्गवित् ॥ ९ ॥
ये मरीच्यादयो विप्रा यस्तु
स्वायम्भुवो मनुः ।
ते वै ब्रह्मण आदेशात् कथं एतद्
अभावयन् ॥ १० ॥
सद्वितीयाः किमसृजन् स्वतन्त्रा उत
कर्मसु ।
आहो स्वित्संहताः सर्व इदं स्म
समकल्पयन् ॥ ११ ॥
विदुर जी ने कहा ;-
ब्रह्ममन्! आप परोक्ष विषयों को भी जानने वाले हैं; अतः यह बतलाइये कि प्रजापतियों के पति श्रीब्रह्मा जी ने मरीचि आदि प्रजापतियों
को उत्पन्न करके फिर सृष्टि को बढ़ाने के लिये क्या किया। मरीचि आदि मुनीश्वरों ने
और स्वायम्भुव मनु ने भी ब्रह्मा जी की आज्ञा से किस प्रकार प्रजा की वृद्धि की?
क्या उन्होंने इस जगत् को पत्नियों के सहयोग से उत्पन्न किया या
अपने-अपने कार्य में स्वतन्त्र रहकर अथवा सबने एक साथ मिलकर इस जगत् की रचना की?
मैत्रेय उवाच -
दैवेन दुर्वितर्क्येण परेणानिमिषेण
च ।
जातक्षोभाद् भगवतो महान् आसीद्
गुणत्रयात् ॥ १२ ॥
रजःप्रधानान् महतः त्रिलिङ्गो
दैवचोदितात् ।
जातः ससर्ज भूतादिः वियदादीनि
पञ्चशः ॥ १३ ॥
तानि चैकैकशः स्रष्टुं असमर्थानि
भौतिकम् ।
संहत्य दैवयोगेन हैमं अण्डं
अवासृजन् ॥ १४ ॥
सोऽशयिष्टाब्धिसलिले आण्डकोशो
निरात्मकः ।
साग्रं वै वर्षसाहस्रं अन्ववात्सीत्
तं ईश्वरः ॥ १५ ॥
तस्य नाभेरभूत्पद्मं
सहस्रार्कोरुदीधिति ।
सर्वजीवनिकायौको यत्र स्वयं
अभूत्स्वराट् ॥ १६ ॥
सोऽनुविष्टो भगवता यः शेते सलिलाशये
।
लोकसंस्थां यथा पूर्वं निर्ममे
संस्थया स्वया ॥ १७ ॥
श्रीमैत्रेय जी ने कहा ;-
विदुर जी! जिसकी गति को जानना अत्यन्त कठिन है-उन जीवों के प्रारब्ध,
प्रकृति के नियन्ता पुरुष और काल-इन तीनों हेतुओं से तथा भगवान् की
सन्निधि से त्रिगुणमय प्रकृति में क्षोभ होने पर उससे महत्तत्त्व उत्पन्न हुआ। दैव
की प्रेरणा से रजःप्रधान महत्तत्त्व से वैकारिक (सात्त्विक), राजस और तामस- तीन प्रकार का अहंकार उत्पन्न हुआ। उसने आकाशादि पाँच-पाँच
तत्त्वों के अनेक वर्ग प्रकट किये। वे सब अलग-अलग रहकर भूतों के कार्यरूप
ब्रह्माण्ड की रचना नहीं कर सकते थे; इसलिये उन्होंने भगवान्
की शक्ति से परस्पर संगठित होकर एक सुवर्णवर्ण अण्ड की रचना की। वह अण्ड
चेतनाशून्य अवस्था में एक हजार वर्षों से भी अधिक समय तक कारणाब्धि के जल में पड़ा
रहा। फिर उसमें श्रीभगवान् ने प्रवेश किया। उसमें अधिष्ठित होने पर उनकी नाभि से
सहस्र सूर्यों के समान अत्यन्त देदीप्यमान एक कमल प्रकट हुआ, जो सम्पूर्ण जीव-समुदाय का आश्रय था। उसी से स्वयं ब्रह्मा जी का भी
आविर्भाव हुआ है। जब ब्रह्माण्ड के गर्भरूप जल में शयन करने वाले श्रीनारायणदेव ने
ब्रह्मा जी के अन्तःकरण में प्रवेश किया, तब वे पूर्वकल्पों
में अपने ही द्वारा निश्चित की हुई नाम-रूपमयी व्यवस्था के अनुसार लोकों की रचना
करने लगे।
ससर्ज च्छाययाविद्यां
पञ्चपर्वाणमग्रतः ।
तामिस्रं अन्धतामिस्रं तमो मोहो
महातमः ॥ १८ ॥
विससर्जात्मनः कायं नाभिनन्दन् तमोमयम्
।
जगृहुर्यक्षरक्षांसि रात्रिं
क्षुत्तृट्समुद्भवाम् ॥ १९ ॥
क्षुत्तृड्भ्यां उपसृष्टास्ते तं
जग्धुमभिदुद्रुवुः ।
मा रक्षतैनं जक्षध्वं इति ऊचुः
क्षुत्तृडर्दिताः ॥ २० ॥
देवस्तानाह संविग्नो मा मां जक्षत
रक्षत ।
अहो मे यक्षरक्षांसि प्रजा यूयं
बभूविथ ॥ २१ ॥
देवताः प्रभया या या दीव्यन्
प्रमुखतोऽसृजत् ।
ते अहार्षुर्देवयन्तो विसृष्टां तां
प्रभामहः ॥ २२ ॥
देवोऽदेवाञ्जघनतः सृजति
स्मातिलोलुपान् ।
ते एनं लोलुपतया मैथुनायाभिपेदिरे ॥
२३ ॥
ततो हसन् स भगवान्
असुरैर्निरपत्रपैः ।
अन्वीयमानस्तरसा क्रुद्धो भीतः
परापतत् ॥ २४ ॥
स उपव्रज्य वरदं प्रपन्नार्तिहरं
हरिम् ।
अनुग्रहाय भक्तानां
अनुरूपात्मदर्शनम् ॥ २५ ॥
सबसे पहले उन्होंने अपनी छाया से
तामिस्र,
अन्धतामिस्र, तम, मोह और
महामोह- यों पाँच प्रकार की अविद्या उत्पन की। ब्रह्मा जी को अपना वह तमोमय शरीर
अच्छा नहीं लगा, अतः उन्होंने उसे त्याग दिया। तब जिससे
भूख-प्यास की उत्पत्ति होती है-ऐसे रात्रिरूप उस शरीर को उसी से उत्पन्न हुए यक्ष
और राक्षसों ने ग्रहण कर लिया। उस समय भूख-प्यास से अभिभूत होकर वे ब्रह्मा जी को
खाने को दौड़ पड़े और कहने लगे- ‘इसे खा जाओ, इसकी रक्षा मत करो’, क्योंकि वे भूख-प्यास से
व्याकुल हो रहे थे। ब्रह्मा जी ने घबराकर उनसे कहा- ‘अरे
यक्ष-राक्षसों! तुम मेरी सन्तान हो; इसलिये मुझे भक्षण मत
करो, मेरी रक्षा करो!’ (उनमें से
जिन्होंने कहा ‘खा जाओ’, वे यक्ष हुए
और जिन्होंने कहा ‘रक्षा मत करो’, वे
राक्षस कहलाये)।
फिर ब्रह्मा जी ने सात्त्विक प्रभा
से देदीप्यमान होकर मुख्य-मुख्य देवताओं की रचना की। उन्होंने क्रीड़ा करते हुए,
ब्रह्मा जी के त्यागने पर, उनका वह दिनरूप
प्रकाशमय शरीर ग्रहण कर लिया। इसके पश्चात् ब्रह्मा जी ने अपने जघनदेश से कामासक्त
असुरों को उत्पन्न किया। वे अत्यन्त कामलोलुप होने के कारण उत्पन्न होते ही मैथुन
के लिये ब्रह्मा जी की ओर चले। यह देखकर पहले तो वे हँसे; किन्तु
फिर उन निर्लज्ज असुरों को अपने पीछे लगा देख भयभीत और क्रोधित होकर बड़े जोर से
भागे। तब उन्होंने भक्तों पर कृपा करने के लिये उनकी भावना के अनुसार दर्शन देने
वाले, शरणागतवत्सल वरदायक श्रीहरि के पास जाकर कहा-
पाहि मां परमात्मंस्ते
प्रेषणेनासृजं प्रजाः ।
ता इमा यभितुं पापा उपाक्रामन्ति
मां प्रभो ॥ २६ ॥
त्वमेकः किल लोकानां क्लिष्टानां
क्लेशनाशनः ।
त्वमेकः क्लेशदस्तेषां अनासन्न पदां
तव ॥ २७ ॥
सोऽवधार्यास्य कार्पण्यं
विविक्ताध्यात्मदर्शनः ।
विमुञ्चात्मतनुं घोरां इत्युक्तो
विमुमोच ह ॥ २८ ॥
तां क्वणच्चरणाम्भोजां मदविह्वल
लोचनाम् ।
काञ्चीकलापविलसद् दुकूलत् छन्न
रोधसम् ॥ २९ ॥
अन्योन्यश्लेषयोत्तुङ्ग
निरन्तरपयोधराम् ।
सुनासां सुद्विजां स्निग्ध
हासलीलावलोकनाम् ॥ ३० ॥
गूहन्तीं व्रीडयात्मानं
नीलालकवरूथिनीम् ।
उपलभ्यासुरा धर्म सर्वे सम्मुमुहुः
स्त्रियम् ॥ ३१ ॥
अहो रूपमहो धैर्यं अहो अस्या नवं
वयः ।
मध्ये कामयमानानां अकामेव विसर्पति
॥ ३२ ॥
वितर्कयन्तो बहुधा तां सन्ध्यां
प्रमदाकृतिम् ।
अभिसम्भाव्य विश्रम्भात् पर्यपृच्छन्
कुमेधसः ॥ ३३ ॥
कासि कस्यासि रम्भोरु को
वार्थस्तेऽत्र भामिनि ।
रूपद्रविणपण्येन दुर्भगान्नो
विबाधसे ॥ ३४ ॥
या वा काचित्त्वमबले दिष्ट्या
सन्दर्शनं तव ।
उत्सुनोषीक्षमाणानां कन्दुकक्रीडया
मनः ॥ ३५ ॥
ब्रह्मा जी बोले ;-
‘परमात्मन्! मेरी रक्षा कीजिये; मैंने तो आपकी
ही आज्ञा से प्रजा उत्पन्न की थी, किन्तु यह तो पाप में
प्रवृत्त होकर मुझको ही तंग करने चली है। नाथ! एकमात्र आप ही दुःखी जीवों का दुःख
दूर करने वाले हैं और जो आपकी चरणशरण में नहीं आते, उन्हें
दुःख देने वाले भी एकमात्र आप ही हैं’।
प्रभु तो प्रत्यक्षवत् सबके हृदय की
जानने वाले हैं। उन्होंने ब्रह्मा जी की आतुरता देखकर कहा-
भगवान बोले ;-
‘तुम अपने इस कामकलुषित शरीर को त्याग दो।’ भगवान्
के यों कहते ही उन्होंने वह शरीर भी छोड़ दिया। (ब्रह्मा जी का छोड़ा हुआ वह शरीर
एक सुन्दरी स्त्री-संध्यादेवी के रूप में परिणत हो गया।) उसके चरणकमलों के पायजेब
झंकृत हो रहे थे। उसकी आँखें मतवाली हो रही थीं और कमर करधनी की लड़ों से सुशोभित
सजीली साड़ी से ढकी हुई थी। उसके उभरे हुए स्तन इस प्रकार एक-दूसरे से सटे हुए थे
कि उनके बीच में कोई अन्तर ही नहीं रह गया था। उसकी नासिका और दन्तावली बड़ी ही
सुघड़ थी तथा वह मधुर-मधुर मुसकराती हुई असुरों की ओर हाव-भावपूर्ण दृष्टि से देख
रही थी। वह नीली-नीली अलकावली से सुशोभित सुकुमारी मानो लज्जा के मारे अपने अंचल
में ही सिमटी जाती थी।
विदुर जी! उस सुन्दरी को देखकर
सब-के-सब असुर मोहित हो गये। ‘अहो! इसका कैसा
विचित्र रूप, कैसा अलौकिक धैर्य और कैसी नयी अवस्था है। देखो,
हम कामपीड़ितों के बीच में यह कैसी बेपरवाह-सी विचर रही है’।
इस प्रकार उन कुबुद्धि दैत्यों ने
स्त्रीरूपिणी सन्ध्या के विषय में तरह-तरह के तर्क-वितर्क करके फिर उसका बहुत आदर
करते हुए प्रेमपूर्वक पूछा- ‘सुन्दरि! तुम
कौन हो और किसकी पुत्री हो? भामिनी! यहाँ तुम्हारे आने का
क्या प्रयोजन है? तुम अपने अनूप रूप का यह बेमोल सौदा दिखाकर
हम अभागों को क्यों तरसा रही हो। अबले! तुम कोई भी क्यों न हो, हमें तुम्हारा दर्शन हुआ-यह बड़े सौभाग्य की बात है। तुम अपनी गेंद
उछाल-उछालकर तो हम दर्शकों के मन को मथे डालती हो।
नैकत्र ते जयति शालिनि पादपद्मं
घ्नन्त्या मुहुः करतलेन पतत्पतङ्गम् ।
मध्यं विषीदति बृहत्स्तनभारभीतं
शान्तेव दृष्टिरमला सुशिखासमूहः ॥ ३६ ॥
इति सायन्तनीं सन्ध्यां असुराः
प्रमदायतीम् ।
प्रलोभयन्तीं जगृहुः मत्वा मूढधियः
स्त्रियम् ॥ ३७ ॥
प्रहस्य भावगम्भीरं जिघ्रन्ति
आत्मानमात्मना ।
कान्त्या ससर्ज भगवान्
गन्धर्वाप्सरसां गणान् ॥ ३८ ॥
विससर्ज तनुं तां वै ज्योत्स्नां
कान्तिमतीं प्रियाम् ।
ते एव चाददुः प्रीत्या
विश्वावसुपुरोगमाः ॥ ३९ ॥
सृष्ट्वा भूतपिशाचांश्च भगवान्
आत्मतन्द्रिणा ।
दिग्वाससो मुक्तकेशान् वीक्ष्य
चामीलयद् दृशौ ॥ ४० ॥
जगृहुस्तद्विसृष्टां तां
जृम्भणाख्यां तनुं प्रभोः ।
निद्रां इन्द्रियविक्लेदो यया
भूतेषु दृश्यते ।
येनोच्छिष्टान्धर्षयन्ति तमुन्मादं
प्रचक्षते ॥ ४१ ॥
ऊर्जस्वन्तं मन्यमान आत्मानं
भगवानजः ।
साध्यान् गणान् पितृगणान्
परोक्षेणासृजत्प्रभुः ॥ ४२ ॥
ते आत्मसर्गं तं कायं पितरः
प्रतिपेदिरे ।
साध्येभ्यश्च पितृभ्यश्च कवयो
यद्वितन्वते ॥ ४३ ॥
सिद्धान् विद्याधरांश्चैव तिरोधानेन
सोऽसृजत् ।
तेभ्योऽददात् तं आत्मानं
अन्तर्धानाख्यमद्भुतम् ॥ ४४ ॥
स किन्नरान् किम्पुरुषान्
प्रत्यात्म्येनासृजत्प्रभुः ।
मानयन् नात्मनात्मानं आत्माभासं
विलोकयन् ॥ ४५ ॥
ते तु तज्जगृहू रूपं त्यक्तं
यत्परमेष्ठिना ।
मिथुनीभूय गायन्तः तं एवोषसि
कर्मभिः ॥ ४६ ॥
देहेन वै भोगवता शयानो बहुचिन्तया ।
सर्गेऽनुपचिते क्रोधात् उत्ससर्ज ह
तद्वपुः ॥ ४७ ॥
येऽहीयन्तामुतः केशा अहयस्तेऽङ्ग
जज्ञिरे ।
सर्पाः प्रसर्पतः क्रूरा नागा
भोगोरुकन्धराः ॥ ४८ ॥
स आत्मानं मन्यमानः
कृतकृत्यमिवात्मभूः ।
तदा मनून् ससर्जान्ते मनसा
लोकभावनान् ॥ ४९ ॥
तेभ्यः सोऽसृजत्स्वीयं पुरं
पुरुषमात्मवान् ।
तान् दृष्ट्वा ये पुरा सृष्टाः
प्रशशंसुः प्रजापतिम् ॥ ५० ॥
अहो एतत् जगत्स्रष्टः सुकृतं बत ते
कृतम् ।
प्रतिष्ठिताः क्रिया यस्मिन् साकं
अन्नमदाम हे ॥ ५१ ॥
तपसा विद्यया युक्तो योगेन
सुसमाधिना ।
ऋषीन् ऋषिः हृषीकेशः ससर्जाभिमताः
प्रजाः ॥ ५२ ॥
तेभ्यश्चैकैकशः स्वस्य
देहस्यांशमदादजः ।
यत्तत् समाधियोगर्द्धि
तपोविद्याविरक्तिमत् ॥ ५३ ॥
सुन्दरि! जब तुम उछलती हुई गेंद पर
अपनी हथेली की थपकी मारती हो, तब तुम्हारा
चरण-कमल एक जगह नहीं ठहरता; तुम्हारा कटिप्रदेश स्थूल स्तनों
के भार से थक-सा जाता है और तुम्हारी निर्मल दृष्टि से भी थकावट झलकने लगती है।
अहो! तुम्हारा केशपाश कैसा सुन्दर है’। इस प्रकार स्त्रीरूप
से प्रकट हुई उस सायंकालीन सन्ध्या ने उन्हें अत्यन्त कामासक्त कर दिया और उन
मूढ़ों ने उसे कोई रमणीरत्न समझकर ग्रहण कर लिया।
तदनन्तर ब्रह्मा जी ने गम्भीर भाव
से हँसकर अपनी कान्तिमयी मूर्ति से, जो
अपने सौन्दर्य का मानो आप ही आस्वादन करती थी, गन्धर्व और
अप्सराओं को उत्पन्न किया। उन्होंने ज्योत्स्ना (चन्द्रिका) रूप अपने उस कान्तिमय
प्रिय शरीर को त्याग दिया। उसी को विश्वावसु आदि गन्धर्वों ने प्रसन्नतापूर्वक
ग्रहण किया। इसके पश्चात् भगवान् ब्रह्मा ने अपनी तन्द्रा से भूत-पिशाच उत्पन्न
किये। उन्हें दिगम्बर (वस्त्रहीन) और बाल बिखेरे देख उन्होंने आँखें मूँद लीं।
ब्रह्मा जी के त्यागे हुए उस जँभाईरूप शरीर को भूत-पिशाचों ने ग्रहण किया। इसी को
निद्रा भी कहते हैं, जिससे जीवों की इन्द्रियों में शिथिलता
आती देखी जाती है। यदि कोई मनुष्य जूठे मुँह सो जाता है तो उस पर भूत-पिशाचादि
आक्रमण करते हैं; उसी को उन्माद कहते हैं।
फिर भगवान् ब्रह्मा ने भावना की कि
मैं तेजोमय हूँ और अपने अदृश्यरूप से साध्यगण एवं पितृगण को उत्पन्न किया। पितरों
ने अपनी उत्पत्ति के स्थान उस अदृश्य शरीर को ग्रहण कर लिया। इसी को लक्ष्य में
रखकर पण्डितजन श्राद्धादि के द्वारा पितर और साध्यगणों को क्रमशः कव्य (पिण्ड) और
हव्य अर्पण करते हैं। अपनी तिरोधान शक्ति से ब्रह्मा जी ने सिद्ध और विद्याधरों की
सृष्टि की और उन्हें अपना वह अन्तर्धान नामक अद्भुत शरीर दिया।
एक बार ब्रह्मा जी ने अपना
प्रतिबिम्ब देखा। तब अपने को बहुत सुन्दर मानकर उस प्रतिबिम्ब से किन्नर और
किम्पुरुष उत्पन्न किये। उन्होंने ब्रह्मा जी के त्याग देने पर उनका वह
प्रतिबिम्ब-शरीर ग्रहण किया। इसीलिये ये सब उषःकाल में अपनी पत्नियों के साथ मिलकर
ब्रह्मा जी के गुण-कर्मादी का गान किया करते हैं। एक बार ब्रह्मा जी सृष्टि की
वृद्धि न होने के कारण बहुत चिन्तित होकर हाथ-पैर आदि अवयवों को फैलाकर लेट गये और
फिर क्रोधवश उस भोगमय शरीर को त्याग दिया। उससे जो बाल झड़कर गिरे,
वे अहि हुए तथा उसके हाथ-पैर सिकोड़कर चलने से क्रूर स्वभाव सर्प और
नाग हुए, जिनका शरीर फणरूप से कंधे के पास बहुत फैला होता
है।
एक बार ब्रह्मा जी ने अपने को कृतकृत्य-सा
अनुभव किया। उस समय अन्त में उन्होंने अपने मन से मनुओं की सृष्टि की। ये सब प्रजा
की वृद्धि करने वाले हैं। मनस्वी ब्रह्मा जी ने उनके लिये अपना पुरुषाकार शरीर
त्याग दिया। मनुओं को देखकर उनसे पहले उत्पन्न हुए देवता-गन्धर्वादि ब्रह्मा जी की
स्तुति करने लगे। वे बोले, ‘विश्वकर्ता
ब्रह्मा जी! आपकी यह (मनुओं की) सृष्टि बड़ी ही सुन्दर है। इसमें अग्निहोत्र आदि
सभी कर्म प्रतिष्ठित हैं। इसकी सहायता से हम भी अपना अन्न (हविर्भाग) ग्रहण कर
सकेंगे’। फिर आदिऋषि ब्रह्मा जी ने इन्द्रियसंयमपूर्वक तप,
विद्या, योग और समाधि से सम्पन्न हो अपनी
प्रिय सन्तान ऋषिगण की रचना की और उनमें से प्रत्येक को अपने समाधि, योग, ऐश्वर्य, तप, विद्या और वैराग्यमय शरीर का अंश दिया।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥
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