श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय १८
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय
१८ "हिरण्याक्ष के साथ वराह
भगवान् का युद्ध"
श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्धः अष्टादश अध्यायः
श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ३
अध्यायः १८
श्रीमद्भागवत महापुराण तीसरा स्कन्ध
अठारहवाँ अध्याय
तृतीय
स्कन्ध: ·
श्रीमद्भागवत महापुराण
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३अध्याय
१८ श्लोक का हिन्दी अनुवाद
मैत्रेय उवाच ।
तदेवमाकर्ण्य जलेशभाषितं
महामनास्तद् विगणय्य दुर्मदः ।
हरेर्विदित्वा गतिमङ्ग नारदाद्
रसातलं निर्विविशे त्वरान्वितः ॥ १ ॥
ददर्श तत्राभिजितं धराधरं
प्रोन्नीयमान अवनिं अग्रदंष्ट्रया ।
मुष्णन्तमक्ष्णा स्वरुचोऽरुणश्रिया
जहास चाहो वनगोचरो मृगः ॥ २ ॥
आहैनमेह्यज्ञ महीं विमुञ्च नो
रसौकसां विश्वसृजेयमर्पिता ।
न स्वस्ति यास्यस्यनया ममेक्षतः
सुराधमासादितसूकराकृते ॥ ३ ॥
त्वं नः सपत्नैः अभवाय किं भृतो
यो मायया हन्त्यसुरान् परोक्षजित् ।
त्वां योगमायाबलमल्पपौरुषं
संस्थाप्य मूढ प्रमृजे सुहृच्छुचः ॥ ४ ॥
त्वयि संस्थिते गदया शीर्णशीर्षणि
अस्मद्भुजच्युतया ये च तुभ्यम् ।
बलिं हरन्ति ऋषयो ये च देवाः
स्वयं सर्वे न भविष्यन्त्यमूलाः ॥ ५ ॥
स तुद्यमानोऽरिदुरुक्ततोमरैः
दंष्ट्राग्रगां गां उपलक्ष्य भीताम् ।
तोदं मृषन् निरगाद् अम्बुमध्याद्
ग्राहाहतः सकरेणुर्यथेभः ॥ ६ ॥
तं निःसरन्तं सलिलाद् अनुद्रुतो
हिरण्यकेशो द्विरदं यथा झषः ।
करालदंष्ट्रोऽशनिनिस्वनोऽब्रवीद्
गतह्रियां किं त्वसतां विगर्हितम् ॥ ७ ॥
स गां उदस्तात् सलिलस्य गोचरे
विन्यस्य तस्यां अदधात् स्वसत्त्वम् ।
अभिष्टुतो विश्वसृजा प्रसूनैः
आपूर्यमाणो विबुधैः पश्यतोऽरेः ॥ ८ ॥
परानुषक्तं तपनीयोपकल्पं
महागदं काञ्चनचित्रदंशम् ।
मर्माण्यभीक्ष्णं प्रतुदन्तं
दुरुक्तैः
प्रचण्डमन्युः प्रहसन् तं बभाषे ॥ ९ ॥
श्रीमैत्रेय जी ने कहा ;-
तात! वरुण जी की यह बात सुनकर वह मदोन्मत्त दैत्य बड़ा प्रसन्न हुआ।
उसने उनके इस कथन पर कि ‘तू उनके हाथ से मारा जायेगा’
कुछ भी ध्यान नहीं दिया और चट नारद जी से श्रीहरि का पता लगाकर
रसातल में पहुँच गया। वहाँ उसने विश्वविजयी वराह भगवान् को अपनी दाढ़ों की नोक पर
पृथ्वी को ऊपर की ओर ले जाते हुए देखा। वे अपने लाल-लाल चमकीले नेत्रों से उसके
तेज को हरे लेते थे। उन्हें देखकर वह खिलखिलाकर हँस पड़ा और बोला, ‘अरे! यह जंगली पशु यहाँ जल में कहाँ से आया’। फिर
वराह जी से कहा, ‘रे नासमझ! इधर आ, इस
पृथ्वी को छोड़ दे; इसे विश्वविधाता ब्रह्मा जी ने हम
रसातलवासियों के हवाले कर दिया है। रे सूकररूपधारी सुराधम! मेरे देखते-देखते तू
इसे लेकर कुशलपूर्वक नहीं जा सकता। तू माया से लुक-छिपकर ही दैत्यों को जीत लेता
और मार डालता है। क्या इसी से हमारे शत्रुओं ने हमारा नाश कराने के लिये तुझे पाला
है? मूढ़! तेरा बल तो योगमाया ही है और कोई पुरुषार्थ तुझमें
थोड़े ही है। आज तुझे समाप्त कर मैं अपने बन्धुओं का शोक दूर करूँगा। जब मेरे हाथ
से छूटी हुई गदा के प्रहार से सिर फट जाने के कारण तू मर जायेगा, तब तेरी आराधना करने वाले जो देवता और ऋषि हैं, वे
सब भी जड़ कटे हुए वृक्षों की भाँति स्वयं ही नष्ट हो जायँगे’।
हिरण्याक्ष भगवान् को दुर्वचन-बाणों
से छेदे जा रहा था; परन्तु उन्होंने
दाँत की नोक पर स्थित पृथ्वी को भयभीत देखकर वह चोट सह ली तथा जल से उसी प्रकार
बाहर निकल आये, जैसे ग्राह की चोट खाकर हथिनी सहित गजराज। जब
उसकी चुनौती का कोई उत्तर न देकर वे जल से बाहर आने लगे, तब
ग्राह जैसे गज का पीछा करता है, उसी प्रकार पीले केश और तीखी
दाढ़ों वाले उस दैत्य ने उनका पीछा किया तथा वज्र के समान कड़ककर वह कहने लगा,
‘तुझे भागने में लज्जा नहीं आती? सच है,
असत् पुरुषों के लिये कौन-सा काम न करने योग्य है?
भगवान् ने पृथ्वी को ले जाकर जल के
ऊपर व्यवहार योग्य स्थान में स्थित कर दिया और उसमें अपनी आधारशक्ति का संचार
किया। उस समय हिरण्याक्ष के सामने ही ब्रह्मा जी ने उनकी स्तुति की और देवताओं ने
फूल बरसाये। तब श्रीहरि ने बड़ी भारी गदा लिये अपने पीछे आ रहे हिरण्याक्ष से,
जो सोने के आभूषण और अद्भुत कवच धारण किये था तथा अपने कटुवाक्यों
से उन्हें निरन्तर मर्माहत कर रहा था, अत्यन्त क्रोधपूर्वक
हँसते हुए कहा।
श्रीभगवानुवाच -
सत्यं वयं भो वनगोचरा मृगा
युष्मद्विधान्मृगये ग्रामसिंहान् ।
न मृत्युपाशैः प्रतिमुक्तस्य वीरा
विकत्थनं तव गृह्णन्त्यभद्र ॥ १० ॥
एते वयं न्यासहरा रसौकसां
गतह्रियो गदया द्रावितास्ते ।
तिष्ठामहेऽथापि कथञ्चिदाजौ
स्थेयं क्व यामो बलिनोत्पाद्य वैरम् ॥ ११ ॥
त्वं पद्-रथानां किल यूथपाधिपो
घटस्व नोऽस्वस्तय आश्वनूहः ।
संस्थाप्य चास्मान् प्रमृजाश्रु
स्वकानां
यः स्वां प्रतिज्ञां नातिपिपर्त्यसभ्यः ॥ १२
॥
श्रीभगवान् ने कहा ;-
अरे! सचमुच ही हम जंगली जीव हैं, जो तुझ-जैसे
ग्रामसिंहों (कुत्तों) को ढूँढ़ते फिरते हैं। दुष्ट! वीर पुरुष तुझ-जैसे मृत्युपाश
में बँधे हुए अभागे जीवों की आत्मश्लाघा पर ध्यान नहीं देते। हाँ, हम रसातलवासियों की धरोहर चुराकर और लज्जा छोड़कर तेरी गदा के भय से यहाँ
भाग आये हैं। हममें ऐसी सामर्थ्य ही कहाँ कि तेरे-जैसे अद्वितीय वीर के सामने
युद्ध में ठहर सकें। फिर भी हम जैसे-तैसे तेरे सामने खड़े हैं; तुझ-जैसे बलवानों से वैर बाँधकर हम जा भी कहाँ सकते हैं?
तू पैदल वीरों का सरदार है,
इसलिये अब निःशंक होकर-उधेड़-बुन छोड़कर हमारा अनिष्ट करने का
प्रयत्न कर और हमें मारकर अपने भाई-बन्धुओं के आँसू पोंछ। अब इसमें देर न कर। जो
अपनी प्रतिज्ञा का पालन नहीं करता, वह असभ्य है-भले आदमियों
में बैठने लायक नहीं है।
मैत्रेय उवाच -
सोऽधिक्षिप्तो भगवता प्रलब्धश्च
रुषा भृशम् ।
आजहारोल्बणं क्रोधं
क्रीड्यमानोऽहिराडिव ॥ १३ ॥
सृजन् अमर्षितः श्वासान्
मन्युप्रचलितेन्द्रियः ।
आसाद्य तरसा दैत्यो गदया न्यहनद्
हरिम् ॥ १४ ॥
भगवान् तु गदावेगं विसृष्टं
रिपुणोरसि ।
अवञ्चयत् तिरश्चीनो योगारूढ
इवान्तकम् ॥ १५ ॥
पुनर्गदां स्वां आदाय भ्रामयन्तं
अभीक्ष्णशः ।
अभ्यधावद् हरिः क्रुद्धः संरम्भाद्
दष्टदच्छदम् ॥ १६ ॥
ततश्च गदयारातिं दक्षिणस्यां भ्रुवि
प्रभुः ।
आजघ्ने स तु तां सौम्य गदया
कोविदोऽहनत् ॥ १७ ॥
एवं गदाभ्यां गुर्वीभ्यां हर्यक्षो
हरिरेव च ।
जिगीषया सुसंरब्धौ अन्योन्यं
अभिजघ्नतुः ॥ १८ ॥
तयोः स्पृधोस्तिग्मगदाहताङ्गयोः
क्षतास्रवघ्राणविवृद्धमन्य्वोः ।
विचित्रमार्गांश्चरतोर्जिगीषया
व्यभादिलायामिव शुष्मिणोर्मृधः ॥ १९ ॥
दैत्यस्य यज्ञावयवस्य माया
गृहीतवाराहतनोर्महात्मनः ।
कौरव्य मह्यां द्विषतोर्विमर्दनं
दिदृक्षुरागाद् ऋषिभिर्वृतः स्वराट् ॥ २० ॥
आसन्नशौण्डीरमपेतसाध्वसं
कृतप्रतीकारमहार्यविक्रमम् ।
विलक्ष्य दैत्यं भगवान् सहस्रणीः
जगाद नारायणमादिसूकरम् ॥ २१ ॥
मैत्रेय जी कहते हैं ;-
विदुर जी! जब भगवान् ने रोष से उस दैत्य का इस प्रकार खूब उपहास और
तिरस्कार किया, वह पकड़कर खेलाये जाते हुए सर्प के समान
क्रोध से तिलमिला उठा। वह खीझकर लम्बी-लम्बी साँसें लेने लगा, उसकी इन्द्रियाँ क्रोध से क्षुब्ध हो उठीं और उस दुष्ट दैत्य ने बड़े वेग
से लपककर भगवान् पर गदा का प्रहार किया। किन्तु भगवान् ने अपनी छाती पर चलाई हुई
शत्रु की गदा के प्रहार को कुछ टेढ़े होकर बचा लिया-ठीक वैसे ही, जैसे योगसिद्ध पुरुष मृत्यु के आक्रमण से अपने को बचा लेता है। फिर जब वह
क्रोध से होठ चबाता अपनी गदा लेकर बार-बार घुमाने लगा, तब
श्रीहरि कुपित होकर बड़े वेग से उसकी ओर झपटे।
सौम्यस्वभाव विदुर जी! तब प्रभु ने
शत्रु की दायीं भौंह पर गदा की चोट की, किन्तु
गदायुद्ध में कुशल हिरण्याक्ष ने उसे बीच में ही अपनी गदा पर ले लिया। इस प्रकार
श्रीहरि और हिरण्याक्ष एक-दूसरे को जीतने की इच्छा से अत्यन्त क्रुद्ध होकर आपस
में अपनी भारी गदाओं से प्रहार करने लगे। उस समय उन दोनों में ही जीतने की होड़ लग
गयी, दोनों के ही अंग गदाओं की चोटों से घायल हो गये थे,
अपने अंगों के घावों से बहने वाले रुधिर की गन्ध से दोनों का क्रोध
बढ़ रहा था और वे दोनों ही तरह-तरह के पैतरे बदल रहे थे। इस प्रकार गौ के लिये आपस
में लड़ने वाले दो साँडों के समान उन दोनों में एक-दूसरे को जीतने की इच्छा से
बड़ा भयंकर युद्ध हुआ।
विदुर जी! जब इस प्रकार हिरण्याक्ष
और माया से वराह रूप धारण करने वाले भगवान् यज्ञमूर्ति पृथ्वी के लिये द्वेष
बाँधकर युद्ध करने लगे, तब उसे देखने वहाँ
ऋषियों के सहित ब्रह्मा जी आये। वे हजारों ऋषियों से घिरे हुए थे। जब उन्होंने
देखा कि वह दैत्य बड़ा शूरवीर है, उसमें भय नाम भी नहीं है,
वह मुकाबला करने में भी समर्थ है और उसके पराक्रम को चूर्ण करना
बड़ा कठिन काम है, तब वे भगवान् आदिसूकररूप नारायण से इस
प्रकार कहने लगे।
ब्रह्मोवाच -
एष ते देव देवानां अङ्घ्रिमूलमुपेयुषाम्
।
विप्राणां सौरभेयीणां भूतानां अपि
अनागसाम् ॥ २२ ॥
आगस्कृद् भयकृद् दुष्कृद् अस्मद्
राद्धवरोऽसुरः ।
अन्वेषन् अप्रतिरथो लोकान् अटति
कण्टकः ॥ २३ ॥
मैनं मायाविनं दृप्तं निरङ्कुशमसत्तमम्
।
आक्रीड बालवद्देव
यथाऽऽशीविषमुत्थितम् ॥ २४ ॥
न यावदेष वर्धेत स्वां वेलां
प्राप्य दारुणः ।
स्वां देव मायां आस्थाय तावत्
जह्यघमच्युत ॥ २५ ॥
एषा घोरतमा सन्ध्या लोकच्छम्बट्करी
प्रभो ।
उपसर्पति सर्वात्मन् सुराणां जयमावह
॥ २६ ॥
अधुनैषोऽभिजिन्नाम योगो मौहूर्तिको ह्यगात्
।
शिवाय नस्त्वं सुहृदां आशु निस्तर
दुस्तरम् ॥ २७ ॥
दिष्ट्या त्वां विहितं मृत्युं अयं
आसादितः स्वयम् ।
विक्रम्यैनं मृधे हत्वा लोकान्
आधेहि शर्मणि ॥ २८ ॥
श्रीब्रह्मा जी ने कहा ;-
देव! मुझसे वर पाकर यह दुष्ट दैत्य बड़ा प्रबल हो गया है। इस समय यह
आपके चरणों की शरण में रहने वाले देवताओं, ब्राह्मणों,
गौओं तथा अन्य निरपराध जीवों को बहुत ही हानि पहुँचाने वाला,
दुःखदायी और भयप्रद हो रहा है। इसकी जोड़ का और कोई योद्धा नहीं है,
इसलिये यह महाकण्टक अपना मुकाबला करने वाले वीर की खोज में समस्त
लोकों में घूम रहा है। यह दुष्ट बड़ा ही मायावी, घमण्डी और
निरंकुश है। बच्चा जिस प्रकार क्रुद्ध हुए साँप से खेलता है; वैसे ही आप इससे खिलवाड़ न करें।
देव! अच्युत! जब तक यह दारुण दैत्य अपनी
बल-वृद्धि वेला को पाकर प्रबल हो, उससे
पहले-पहले ही आप अपनी योगमाया को स्वीकार करके इस पापी को मार डालिये। प्रभो!
देखिये, लोकों का संहार करने वाली सन्ध्या की भयंकर वेला आना
ही चाहती है। सर्वात्मन्! आप उससे पहले ही इस असुर को मारकर देवताओं को विजय
प्रदान कीजिये। इस समय अभिजित् नामक मंगलमय मुहूर्त का भी योग आ गया है। अतः अपन
सुहृद् हम लोगों के कल्याण के लिये शीघ्र ही इस दुर्जय दैत्य से निपट लीजिये।
प्रभो! इसकी मृत्यु आपके ही हाथ बदी है। हम लोगों के बड़े भाग्य हैं। अब आप युद्ध
में बलपूर्वक इसे मारकर लोकों को शान्ति प्रदान कीजिये।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे अष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥
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