श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय २७

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध अध्याय २७

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध अध्याय २७ "प्रकृति-पुरुष के विवेक से मोक्ष-प्राप्ति का वर्णन"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय २७

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्धः सप्तविंश:अध्यायः

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः अध्यायः २७

श्रीमद्भागवत महापुराण तीसरा स्कन्ध सत्ताईसवाँ अध्याय

तृतीय स्कन्ध: · श्रीमद्भागवत महापुराण        

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध अध्याय २७ श्लोक का हिन्दी अनुवाद

श्रीभगवानुवाच -

प्रकृतिस्थोऽपि पुरुषो नाज्यते प्राकृतैर्गुणैः ।

अविकारात् अकर्तृत्वात् निर्गुणत्वाज्जलार्कवत् ॥ १ ॥

स एष यर्हि प्रकृतेः गुणेष्वभिविषज्जते ।

अहङ्क्रियाविमूढात्मा कर्तास्मीति अभिमन्यते ॥ २ ॥

तेन संसारपदवीं अवशोऽभ्येत्यनिर्वृतः ।

प्रासङ्गिकैः कर्मदोषैः सदसन् मिश्रयोनिषु ॥ ३ ॥

अर्थे हि अविद्यमानेऽपि संसृतिर्न निवर्तते ।

ध्यायतो विषयानस्य स्वप्नेऽनर्थागमो यथा ॥ ४ ॥

अत एव शनैश्चित्तं प्रसक्तं असतां पथि ।

भक्तियोगेन तीव्रेण विरक्त्या च नयेद्वशम् ॥ ५ ॥

यमादिभिः योगपथैः अभ्यसन् श्रद्धयान्वितः ।

मयि भावेन सत्येन मत्कथाश्रवणेन च ॥ ६ ॥

सर्वभूतसमत्वेन निर्वैरेणाप्रसङ्गतः ।

ब्रह्मचर्येण मौनेन स्वधर्मेण बलीयसा ॥ ७ ॥

यदृच्छयोपलब्धेन सन्तुष्टो मितभुङ् मुनिः ।

विविक्तशरणः शान्तो मैत्रः करुण आत्मवान् ॥ ८ ॥

सानुबन्धे च देहेऽस्मिन् अकुर्वन् असदाग्रहम् ।

ज्ञानेन दृष्टतत्त्वेन प्रकृतेः पुरुषस्य च ॥ ९ ॥

निवृत्तबुद्ध्यवस्थानो दूरीभूतान्यदर्शनः ।

उपलभ्यात्मनात्मानं चक्षुषेवार्कमात्मदृक् ॥ १० ॥

मुक्तलिङ्गं सदाभासं असति प्रतिपद्यते ।

सतो बन्धुमसच्चक्षुः सर्वानुस्यूतमद्वयम् ॥ ११ ॥

यथा जलस्थ आभासः स्थलस्थेनावदृश्यते ।

स्वाभासेन तथा सूर्यो जलस्थेन दिवि स्थितः ॥ १२ ॥

एवं त्रिवृद् अहङ्कारो भूतेन्द्रियमनोमयैः ।

स्वाभासैः लक्षितोऽनेन सदाभासेन सत्यदृक् ॥ १३ ॥

भूतसूक्ष्मेन्द्रियमनो बुद्ध्यादिष्विह निद्रया ।

लीनेष्वसति यस्तत्र विनिद्रो निरहङ्‌क्रियः ॥ १४ ॥

मन्यमानस्तदात्मानं अनष्टो नष्टवन्मृषा ।

नष्टेऽहङ्करणे द्रष्टा नष्टवित्त इवातुरः ॥ १५ ॥

एवं प्रत्यवमृश्यादौ आत्मानं प्रतिपद्यते ।

साहङ्कारस्य द्रव्यस्य योऽवस्थानमनुग्रहः ॥ १६ ॥

श्रीभगवान् कहते हैं ;- माताजी! जिस तरह जल में प्रतिबिम्ब सूर्य के साथ जल में शीतलता, चंचलता आदि गुणों का सम्बन्ध नहीं होता, उसी प्रकार प्रकृति के कार्य शरीर में स्थित रहने पर भी आत्मा वास्तव में उसके सुख-दुःखादि धर्मों से लिप्त नहीं होता; क्योंकि वह स्वभाव से निर्विकार, अकर्ता और निर्गुण है। किन्तु जब वही प्राकृत गुणों से अपना सम्बन्ध स्थापित कर लेता है, तब अहंकार से मोहित होकर मैं कर्ता हूँ’-ऐसा मानने लगता है। उस अभिमान के कारण वह देह के संसर्ग से किये हुए पुण्य-पापरूप कर्मो के दोष से अपनी स्वाधीनता और शान्ति खो बैठता है तथा उत्तम, मध्यम और नीच योनियों में उत्पन्न होकर संसार चक्र में घूमता रहता है। जिस प्रकार स्वप्न के पदार्थों में आस्था हो जाने के कारण दुःख उठाना पड़ता है, उसी प्रकार भय-शोक, अहं-मम एवं जन्म-मरणादिरूप संसार की कोई सत्ता न होने पर भी अविद्यावश विषयों का चिन्तन करते रहने से जीव का संसार-चक्र कभी निवृत्त नहीं होता। इसलिये बुद्धिमान् मनुष्य को उचित है कि असन्मार्ग (विषय-चिन्तन) में फँसे हुए चित्त को तीव्र भक्तियोग और वैराग्य के द्वारा धीरे-धीरे अपने वश में लावे।

यमादि योग साधनों के द्वारा श्रद्धापूर्वक अभ्यास-चित्त को बारम्बार एकाग्र करते हुए मुझमें सच्चा भाव रखने, मेरी कथा श्रवण करने, समस्त प्राणियों में समभाव रखने, किसी से वैर न करने, आसक्ति के त्याग, ब्रह्मचर्य, मौन-व्रत और बलिष्ठ (अर्थात् भगवान् को समर्पित किये हुए) स्वधर्म से जिसे ऐसी स्थिति प्राप्त हो गयी है कि-प्रारब्ध के अनुसार जो कुछ मिल जाता है उसी में सन्तुष्ट रहता है, परिमित भोजन करता है, सदा एकान्त में रहता है, शान्त स्वभाव है, सबका मित्र है, दयालु और धर्यवान् है, प्रकृति और पुरुष के वास्तविक स्वरूप के अनुभव से प्राप्त हुए तत्त्वज्ञान के कारण स्त्री-पुत्रादि सम्बन्धियों के सहित इस देह में मैं-मेरेपन का मिथ्या अभिनिवेश नहीं करता, बुद्धि की जाग्रदादि अवस्थाओं से भी अलग हो गया है तथा परमात्मा के सिवा और कोई वस्तु नहीं देखता-वह आत्मदर्शी मुनि नेत्रों से सूर्य को देखने कि भाँति अपने शुद्ध अन्तःकरण द्वारा परमात्मा का साक्षात्कार कर उस अद्वितीय ब्रह्मपद को प्राप्त हो जाता है, जो देहादि सम्पूर्ण उपाधियों से पृथक्, अहंकारादि मिथ्या वस्तुओं में सत्यरूप से भासने वाला, जगत्कारणभूता प्रकृति का अधिष्ठान, महदादि कार्य-वर्ग का प्रकाशक और कार्य-कारणरूप सम्पूर्ण पदार्थों में व्याप्त है।

जिस प्रकार जल में पड़ा हुआ सूर्य का प्रतिबिम्ब दीवाल पर पड़े हुए अपने आभास के सम्बन्ध से देखा जाता है और जल में दीखने वाले प्रतिबिम्ब से आकाशास्थित सूर्य का ज्ञान होता है, उसी प्रकार वैकारिक आदि भेद से तीन प्रकार का अहंकार देह, इन्द्रिय और मन में स्थित अपने प्रतिबिम्बों से लक्षित होता है और फिर सत् परमात्मा के प्रतिबिम्ब युक्त उस अहंकार के द्वारा सत्य ज्ञानस्वरूप परमात्मा का दर्शन होता है-जो सुषुप्ति के समय निद्रा से शब्दादि भूतसूक्ष्म, इन्द्रिय और मनबुद्धि आदि के अव्याकृत में लीन हो जाने पर स्वयं जागता रहता है और सर्वथा अहंकार शून्य है। (जाग्रत्-अवस्था में यह आत्मा भूत-सूक्ष्मादि दृश्य वर्ग के द्रष्टारूप में स्पष्टतया अनुभव में आता है; किन्तु) सुषुप्ति के समय अपने उपाधिभूत अहंकार का नाश होने से वह भ्रमवश अपने को ही नष्ट हुआ मान लेता है और जिस प्रकार धन का नाश हो जाने पर मनुष्य अपने को ही नष्ट हुआ मानकर अत्यन्त व्याकुल हो जाता है, उसी प्रकार वह भी अत्यन्त विवश होकर नष्टवत् हो जाता है।

माताजी! इन सब बातों का मनन करके विवेकी पुरुष अपने आत्मा का अनुभव कर लेता है, जो अहंकार के सहित सम्पूर्ण तत्त्वों का अधिष्ठान और प्रकाशक है।

देवहूतिरुवाच -                           

पुरुषं प्रकृतिर्ब्रह्मन् न विमुञ्चति कर्हिचित् ।

अन्योन्यापाश्रयत्वाच्च नित्यत्वाद् अनयोः प्रभो ॥ १७ ॥

यथा गन्धस्य भूमेश्च न भावो व्यतिरेकतः ।

अपां रसस्य च यथा तथा बुद्धेः परस्य च ॥ १८ ॥

अकर्तुः कर्मबन्धोऽयं पुरुषस्य यदाश्रयः ।

गुणेषु सत्सु प्रकृतेः कैवल्यं तेष्वतः कथम् ॥ १९ ॥

क्वचित् तत्त्वावमर्शेन निवृत्तं भयमुल्बणम् ।

अनिवृत्तनिमित्तत्वात् पुनः प्रत्यवतिष्ठते ॥ २० ॥

देवहूति ने पूछा ;- प्रभो! पुरुष और प्रकृति दोनों ही नित्य और एक-दूसरे के आश्रय से रहने वाले हैं, इसलिये प्रकृति तो पुरुष को कभी छोड़ ही नहीं सकती। ब्रह्मन्! जिस प्रकार गन्ध और पृथ्वी तथा रस और जल की पृथक्-पृथक् स्थिति नहीं हो सकती, उसी प्रकार पुरुष और प्रकृति भी एक-दूसरे को छोड़कर नहीं जा सकते। अतः जिनके आश्रय से अकर्ता पुरुष को यह कर्मबन्धन प्राप्त हुआ है, उन प्रकृति के गुणों के रहते हुए उसे कैवल्य कैसे प्राप्त होगा? यदि तत्त्वों का विचार करने से कभी यह संसार बन्धन का तीव्र भय निवृत्त हो भी जाये, तो भी उसके निमित्तभूत प्राकृत गुणों का अभाव न होने से वह भय फिर उपस्थित हो सकता है।

श्रीभगवानुवाच -

अनिमित्तनिमित्तेन स्वधर्मेणामलात्मना ।

तीव्रया मयि भक्त्या च श्रुतसम्भृतया चिरम् ॥ २१ ॥

ज्ञानेन दृष्टतत्त्वेन वैराग्येण बलीयसा ।

तपोयुक्तेन योगेन तीव्रेणात्मसमाधिना ॥ २२ ॥

प्रकृतिः पुरुषस्येह दह्यमाना त्वहर्निशम् ।

तिरोभवित्री शनकैः अग्नेर्योनिरिवारणिः ॥ २३ ॥

भुक्तभोगा परित्यक्ता दृष्टदोषा च नित्यशः ।

नेश्वरस्याशुभं धत्ते स्वे महिम्नि स्थितस्य च ॥ २४ ॥

यथा हि अप्रतिबुद्धस्य प्रस्वापो बह्वनर्थभृत् ।

स एव प्रतिबुद्धस्य न वै मोहाय कल्पते ॥ २५ ॥

एवं विदिततत्त्वस्य प्रकृतिर्मयि मानसम् ।

युञ्जतो नापकुरुत आत्मारामस्य कर्हिचित् ॥ २६ ॥

यदैवमध्यात्मरतः कालेन बहुजन्मना ।

सर्वत्र जातवैराग्य आब्रह्मभुवनान्मुनिः ॥ २७ ॥

मद्‍भक्तः प्रतिबुद्धार्थो मत्प्रसादेन भूयसा ।

निःश्रेयसं स्वसंस्थानं कैवल्याख्यं मदाश्रयम् ॥ २८ ॥

प्राप्नोतीहाञ्जसा धीरः स्वदृशा च्छिन्नसंशयः ।

यद्‍गत्वा न निवर्तेत योगी लिङ्गाद् विनिर्गमे ॥ २९ ॥

यदा न योगोपचितासु चेतो

     मायासु सिद्धस्य विषज्जतेऽङ्ग ।

अनन्यहेतुष्वथ मे गतिः स्याद्

     आत्यन्तिकी यत्र न मृत्युहासः ॥ ३० ॥

श्रीभगवान् ने कहा ;- माताजी! जिस प्रकार अग्नि का उत्पत्तिस्थान अरणि अपने से ही उत्पन्न अग्नि से जलकर भस्म हो जाता है, उसी प्रकार निष्काम भाव से किये हुए स्वधर्मपालन द्वारा अन्तःकरण शुद्ध होने से बहुत समय तक भगवत्कथा-श्रवण द्वारा पुष्ट हुई मेरी तीव्र भक्ति से, तत्त्व साक्षात्कार कराने वाला ज्ञान से, प्रबल वैराग्य से, व्रत नियमादि के सहित किये हुए ध्यानाभ्यास से और चित्त की प्रगाढ़ एकाग्रता से पुरुष की प्रकृति (अविद्या) दिन-रात क्षीण होती हुई धीरे-धीरे लीन हो जाती है। फिर नित्य प्रति दोष दीखने से भोगकर त्यागी हुई वह प्रकृति अपने स्वरूप में स्थित और स्वतन्त्र (बन्धनमुक्त) हुए उस पुरुष का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती। जैसे सोये हुए पुरुष को स्वप्न में कितने ही अनर्थों का अनुभव करना पड़ता है, किन्तु जग पड़ने पर उसे उन स्वप्न के अनुभवों से किसी प्रकार का मोह नहीं होता। उसी प्रकार जिसे तत्त्वज्ञान हो गया है और जो निरन्तर मुझमें ही मन लगाये रहता है, उस आत्माराम मुनि का प्रकृति कुछ भी बिगाड़ सकती।

जब मनुष्य अनेकों जन्मों में बहुत समय तक इस प्रकार आत्मचिन्तन में ही निमग्न रहता है, तब उसे ब्रह्मलोक-पर्यन्त सभी प्रकार के भोगों से वैराग्य हो जाता है। मेरा वह धर्यवान् भक्त मेरी ही महती कृपा से तत्त्वज्ञान प्राप्त करके आत्मानुभव के द्वारा सारे संशयों से मुक्त हो जाता है और फिर लिंगदेह का नाश होने पर एकमात्र मेरे ही आश्रित अपने स्वरूपभूत कैवल्य संज्ञक मंगलमय पद को सहज में ही प्राप्त कर लेता है, जहाँ पहुँचने पर योगी फिर लौटकर नहीं आता।

माताजी! यदि योगी का चित योगसाधना से बढ़ी हुई मायामयी अणिमादि सिद्धियों में, जिनकी प्राप्ति का योग के सिवा दूसरा कोई साधन नहीं है, नहीं फँसता, तो उसे मेरा वह अविनाशी परमपद प्राप्त होता है-जहाँ मृत्यु की कुछ भी दाल नहीं गलती।

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे सप्तविंशोऽध्यायः ॥ २७ ॥

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