श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय ३३

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध अध्याय ३३

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध अध्याय ३३"देवहूति को तत्त्वज्ञान एवं मोक्षपद की प्राप्ति"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय ३३

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्धः त्रयस्त्रिंश अध्यायः

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः अध्यायः ३३

श्रीमद्भागवत महापुराण तीसरा स्कन्ध तैतीसवाँ अध्याय

तृतीय स्कन्ध: · श्रीमद्भागवत महापुराण        

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध अध्याय ३३ श्लोक का हिन्दी अनुवाद

मैत्रेय उवाच -

एवं निशम्य कपिलस्य वचो जनित्री

     सा कर्दमस्य दयिता किल देवहूतिः ।

विस्रस्तमोहपटला तमभिप्रणम्य

     तुष्टाव तत्त्वविषयाङ्कित सिद्धिभूमिम् ॥ १ ॥

मैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! श्रीकपिल भगवान् के ये वचन सुनकर कर्दम जी की प्रिय पत्नी माता देवहूति के मोह का पर्दा फट गया और वे तत्त्वप्रतिपादक सांख्यशास्त्र के ज्ञान की आधारभूमि भगवान् श्रीकपिल जी को प्रणाम करके उनकी स्तुति करने लगीं।

देवहूतिरुवाच -

अथाप्यजोऽन्तःसलिले शयानं

     भूतेन्द्रियार्थात्ममयं वपुस्ते ।

गुणप्रवाहं सदशेषबीजं

     दध्यौ स्वयं यत् जठराब्जजातः ॥ २ ॥

स एव विश्वस्य भवान् विधत्ते

     गुणप्रवाहेण विभक्तवीर्यः ।

सर्गाद्यनीहोऽवितथाभिसन्धिः

     आत्मेश्वरोऽतर्क्य सहस्रशक्तिः ॥ ३ ॥

स त्वं भृतो मे जठरेण नाथ

     कथं नु यस्योदर एतदासीत् ।

विश्वं युगान्ते वटपत्र एकः

     शेते स्म मायाशिशुरङ्‌घ्रिपानः ॥ ४ ॥

त्वं देहतन्त्रः प्रशमाय पाप्मनां

     निदेशभाजां च विभो विभूतये ।

यथावतारास्तव सूकरादयः

     तथायमप्यात्म पथोपलब्धये ॥ ५ ॥

यन्नामधेयश्रवणानुकीर्तनाद्

     यत्प्रह्वणाद् यत् स्मरणादपि क्वचित् ।

श्वादोऽपि सद्यः सवनाय कल्पते

     कुतः पुनस्ते भगवन्नु दर्शनात् ॥ ६ ॥

अहो बत श्वपचोऽतो गरीयान्

     यज्जिह्वाग्रे वर्तते नाम तुभ्यम् ।

तेपुस्तपस्ते जुहुवुः सस्नुरार्या

     ब्रह्मानूचुर्नाम गृणन्ति ये ते ॥ ७ ॥

तं त्वामहं ब्रह्म परं पुमांसं

     प्रत्यक्स्रोतस्यात्मनि संविभाव्यम् ।

स्वतेजसा ध्वस्तगुणप्रवाहं

     वन्दे विष्णुं कपिलं वेदगर्भम् ॥ ८ ॥

देवहूति जी ने कहा- कपिल जी! ब्रह्मा जी आपके ही नाभिकमल से प्रकट हुए थे। उन्होंने प्रलयकालीन जल में शयन करने वाले आपके पंचभूत, इन्द्रिय, शब्दादि विषय और मनोमय विग्रह का, जो सत्त्वादि गुणों के प्रवाह से युक्त, सत्स्वरूप और कार्य एवं कारण दोनों का बीज है, ध्यान ही किया था। आप निष्क्रिय, सत्यसंकल्प, सम्पूर्ण जीवों के प्रभु तथा सहस्रों अचिन्त्य शक्तियों से सम्पन्न हैं। अपनी शक्ति को गुण प्रवाहरूप से ब्रह्मादि अनन्त मूर्तियों में विभक्त करके उनके द्वारा आप स्वयं ही विश्व की रचना आदि करते हैं। नाथ! यह कैसी विचित्र बात है कि जिनके उदर में प्रलयकाल आने पर यह सारा प्रपंच लीन हो जाता है और जो कल्पान्त में मायामय बालक का रूप धारण कर अपने चरण का अँगूठा चूसते हुए अकेले ही वट वृक्ष के पत्ते पर शयन करते हैं, उन्हीं आपको मैंने गर्भ में धारण किया।

विभो! आप पापियों का दमन और अपने आज्ञाकारी भक्तों का अभ्युदय एवं कल्याण करने के लिये स्वेच्छा से देह धारण किया करते हैं। अतः जिस प्रकार आपके वराह आदि अवतार हुए हैं, उसी प्रकार यह कपिलावतार भी मुमुक्षुओं को ज्ञान मार्ग दिखाने के लिये हुआ है। भगवन्! आपके नामों का श्रवण या कीर्तन करने से तथा भूले-भटके कभी-कभी आपका वन्दन या स्मरण करने से ही कुत्ते का मांस खाने वाला चाण्डाल भी सोमयाजी ब्राह्मण के समान पूजनीय हो सकता है; फिर आपका दर्शन करने से मनुष्य कृतकृत्य हो जाये-इसमें तो कहना ही क्या है। अहो! वह चाण्डाल भी इसी में सर्वश्रेष्ठ है कि उसकी जिह्वा के अग्रभाग में आपका नाम विराजमान है। जो श्रेष्ठ पुरुष आपका नाम उच्चारण करते हैं, उन्होंने तप, हवन, तीर्थस्थान, सदाचार का पालन और वेदाध्ययन-सब कुछ कर लिया।

कपिलदेव जी! आप साक्षात् परब्रह्म हैं, आप ही परम पुरुष हैं, वृत्तियों के प्रवाह को अन्तर्मुख करके अन्तःकरण में आपका ही चिन्तन किया जाता है। आप अपने तेज से माया के कार्य गुण-प्रवाह को शान्त कर देते हैं तथा आपके ही उदर में सम्पूर्ण वेदतत्त्व निहित है। ऐसे साक्षात् विष्णुस्वरूप आपको मैं प्रणाम करती हूँ।

मैत्रेय उवाच -

ईडितो भगवानेवं कपिलाख्यः परः पुमान् ।

वाचाविक्लवयेत्याह मातरं मातृवत्सलः ॥ ९ ॥

मैत्रेय जी कहते हैं ;- माता के इस प्रकार स्तुति करने पर मातृवत्सल परमपुरुष भगवान् कपिलदेव जी ने उनसे गम्भीर वाणी में कहा।

कपिल उवाच -

मार्गेणानेन मातस्ते सुसेव्येनोदितेन मे ।

आस्थितेन परां काष्ठां अचिराद् अवरोत्स्यसि ॥ १० ॥

श्रद्धत्स्वैतन्मतं मह्यं जुष्टं यद्‍ब्रह्मवादिभिः ।

येन मां अभयं याया मृत्युमृच्छन्त्यतद्विदः ॥ ११ ॥

कपिलदेव जी ने कहा ;- माताजी! मैंने तुम्हें जो यह सुगम मार्ग बताया है, इसका अवलम्बन करने से तुम शीघ्र ही परमपद प्राप्त कर लोगी। तुम मेरे इस मत में विश्वास करो, ब्रह्मवादी लोगों ने इसका सेवन किया है; इसके द्वारा तुम मेरे जन्म-मरणरहित स्वरूप को प्राप्त कर लोगी। जो लोग मेरे इस मत को नहीं जानते, वे जन्म-मृत्यु के चक्र में पड़ते हैं।

मैत्रेय उवाच -

इति प्रदर्श्य भगवान् सतीं तां आत्मनो गतिम् ।

स्वमात्रा ब्रह्मवादिन्या कपिलोऽनुमतो ययौ ॥ १२ ॥

सा चापि तनयोक्तेन योगादेशेन योगयुक् ।

तस्मिन् आश्रम आपीडे सरस्वत्याः समाहिता ॥ १३ ॥

अभीक्ष्ण अवगाहकपिशान् जटिलान् कुटिलालकान् ।

आत्मानं च उग्रतपसा बिभ्रती चीरिणं कृशम् ॥ १४ ॥

प्रजापतेः कर्दमस्य तपोयोगविजृम्भितम् ।

स्वगार्हस्थ्यमनौपम्यं प्रार्थ्यं वैमानिकैरपि ॥ १५ ॥

पयःफेननिभाः शय्या दान्ता रुक्मपरिच्छदाः ।

आसनानि च हैमानि सुस्पर्शास्तरणानि च ॥ १६ ॥

स्वच्छस्फटिककुड्येषु महामारकतेषु च ।

रत्‍नप्रदीपा आभान्ति ललना रत्‍नसंयुताः ॥ १७ ॥

गृहोद्यानं कुसुमितै रम्यं बह्वमरद्रुमैः ।

कूजद् विहङ्गमिथुनं गायन् मत्तमधुव्रतम् ॥ १८ ॥

यत्र प्रविष्टमात्मानं विबुधानुचरा जगुः ।

वाप्यां उत्पलगन्धिन्यां कर्दमेनोपलालितम् ॥ १९ ॥

हित्वा तदीप्सिततमं अप्याखण्डलयोषिताम् ।

किञ्चिच्चकार वदनं पुत्रविश्लेषणातुरा ॥ २० ॥

वनं प्रव्रजिते पत्यौ अपत्यविरहातुरा ।

ज्ञाततत्त्वाप्यभून्नष्टे वत्से गौरिव वत्सला ॥ २१ ॥

तमेव ध्यायती देवं अपत्यं कपिलं हरिम् ।

बभूवाचिरतो वत्स निःस्पृहा तादृशे गृहे ॥ २२ ॥

ध्यायती भगवद्‌रूपं यदाह ध्यानगोचरम् ।

सुतः प्रसन्नवदनं समस्तव्यस्तचिन्तया ॥ २३ ॥

भक्तिप्रवाहयोगेन वैराग्येण बलीयसा ।

युक्तानुष्ठानजातेन ज्ञानेन ब्रह्महेतुना ॥ २४ ॥

विशुद्धेन तदात्मानं आत्मना विश्वतोमुखम् ।

स्वानुभूत्या तिरोभूत मायागुणविशेषणम् ॥ २५ ॥

ब्रह्मण्यवस्थितमतिः भगवति आत्मसंश्रये ।

निवृत्तजीवापत्तित्वात् क्षीणक्लेशाऽऽप्त निर्वृतिः ॥ २६ ॥

नित्यारूढसमाधित्वात् परावृत्तगुणभ्रमा ।

न सस्मार तदाऽऽत्मानं स्वप्ने दृष्टमिवोत्थितः ॥ २७ ॥

तद्देहः परतः पोषोऽपि अकृशश्चाध्यसम्भवात् ।

बभौ मलैरवच्छन्नः सधूम इव पावकः ॥ २८ ॥

स्वाङ्गं तपोयोगमयं मुक्तकेशं गताम्बरम् ।

दैवगुप्तं न बुबुधे वासुदेवप्रविष्टधीः ॥ २९ ॥

एवं सा कपिलोक्तेन मार्गेणाचिरतः परम् ।

आत्मानं ब्रह्मनिर्वाणं भगवन्तं अवाप ह ॥ ३० ॥

तद्वीरासीत् पुण्यतमं क्षेत्रं त्रैलोक्यविश्रुतम् ।

नाम्ना सिद्धपदं यत्र सा संसिद्धिमुपेयुषी ॥ ३१ ॥

तस्यास्तद्योगविधुतं आर्त्यं मर्त्यमभूत्सरित् ।

स्रोतसां प्रवरा सौम्य सिद्धिदा सिद्धसेविता ॥ ३२ ॥

कपिलोऽपि महायोगी भगवान् पितुराश्रमात् ।

मातरं समनुज्ञाप्य प्राग् उदीचीं दिशं ययौ ॥ ३३ ॥

सिद्धचारण गन्धर्वैः मुनिभिश्च अप्सरोगणैः ।

स्तूयमानः समुद्रेण दत्तार्हणनिकेतनः ॥ ३४ ॥

आस्ते योगं समास्थाय साङ्ख्याचार्यैरभिष्टुतः ।

त्रयाणामपि लोकानां उपशान्त्यै समाहितः ॥ ३५ ॥

एतन्निगदितं तात यत्पृष्टोऽहं तवानघ ।

कपिलस्य च संवादो देवहूत्याश्च पावनः ॥ ३६ ॥

य इदमनुशृणोति योऽभिधत्ते

     कपिलमुनेर्मतं आत्मयोगगुह्यम् ।

भगवति कृतधीः सुपर्णकेतौ

     उपलभते भगवत् पदारविन्दम् ॥ ३७ ॥

मैत्रेय जी कहते हैं ;- इस प्रकार अपने श्रेष्ठ आत्मज्ञान का उपदेश कर श्रीकपिलदेव जी अपनी ब्रह्मवादिनी जननी की अनुमति लेकर वहाँ से चले गये। तब देवहूति भी सरस्वती के मुकुट सदृश अपने आश्रम में अपने पुत्र के उपदेश किये हुए योग साधन के द्वारा योगाभ्यास करती हुई समाधि में स्थित हो गयीं।

त्रिकाल स्नान करने से उनकी घुँघराली अलकें भूरि-भूरि जटाओं में परिणत हो गयीं तथा चीर-वस्त्रों से ढका हुआ शरीर उग्र तपस्या से कारण दुर्बल हो गया। उन्होंने प्रजापति कर्दम के तप और योगबल से प्राप्त अनुपम गार्हस्थ्य सुख को, जिसके लिये देवता तरसते थे, त्याग दिया। जिसमें दुग्धफेन के समान स्वच्छ और सुकोमल शय्या से युक्त हाथी-दाँत के पलंग, सुवर्ण के पात्र, सोने के सिंहासन और उन पर कोमल-कोमल गद्दे बिछे हुए थे तथा जिसकी स्वच्छ स्फटिकमणि और महामरकतमणि की भीतों में रत्नों की बनी हुई रमणी-मूर्तियों के सहित मणिमय दीपक जगमगा रहे थे, जो फूलों से लदे हुए अनेकों दिव्य वृक्षों से सुशोभित था, जिसमें अनेक प्रकार के पक्षियों का कलरव और मतवाले भौंरों का गुंजार होता रहता था, जहाँ की कमलगन्ध से सुवासित बावलियों में कर्दम जी के साथ उनका लाड़-प्यार पाकर क्रीड़ा के लिये प्रवेश करने पर उसका (देवहूति का) गर्न्धवगण गुणगान किया करते थे और जिसे पाने के लिये इन्द्राणियाँ भी लालायित रहती थीं-उस गृहोद्यान की भी ममता उन्होंने त्याग दी। किन्तु पुत्र वियोग से व्याकुल होने के कारण अवश्य उनका मुख कुछ उदास हो गया। पति के वनगमन के अनन्तर पुत्र का भी वियोग हो जाने से वे आत्मज्ञान सम्पन्न होकर भी ऐसी व्याकुल हो गयीं, जैसे बछड़े के बिछुड़ जाने से उसे प्यार करने वाली गौ।

वत्स विदुर! अपने पुत्र कपिलदेवरूप भगवान् हरि का चिन्तन करते-करते वे कुछ ही दिनों में ऐसे ऐश्वर्य सम्पन्न घर से भी उपरत हो गयीं। फिर वे, कपिलदेव जी ने भगवान् के जिस ध्यान करने योग्य प्रसन्नवदनारविन्द युक्त स्वरूप का वर्णन किया था, उसके एक-एक अवयव का तथा उस समग्र रूप का भी चिन्तन करती हुई ध्यान में तत्पर हो गयीं। भगवद्भक्ति के प्रवाह, प्रबल वैराग्य और यथोचित कर्मानुष्ठान से उत्पन्न हुए ब्रह्म साक्षात्कार कराने वाले ज्ञान द्वारा चित्त शुद्ध हो जाने पर वे उस सर्वव्यापक आत्मा के ध्यान में मग्न हो गयीं, जो अपने स्वरूप के प्रकाश से मायाजनित आवरण को दूर कर देता है। इस प्रकार जीव के अधिष्ठानभूत परमब्रह श्रीभगवान् में ही बुद्धि की स्थति हो जाने से उनका जीव भाव निवृत्त हो गया और वे समस्त क्लेशों से मुक्त होकर परमानन्द में निमग्न हो गयीं। अब निरन्तर समाधिस्थ रहने के कारण उनकी विषयों के सत्यत्व की भ्रान्ति मिट गयी और उन्हें अपने शरीर की भी सुधि न रही-जैसे जागे हुए पुरुष को अपने स्वप्न में देखे हुए शरीर की नहीं रहती।

उनके शरीर का पोषण भी दूसरों के द्वारा ही होता था, किन्तु किसी प्रकार का मानसिक क्लेश न होने के कारण वह दुर्बल नहीं हुआ। उसका तेज और भी निखर गया और वह मैल के कारण धूमयुक्त अग्नि के समान सुशोभित होने लगा। उनके बाल बिथुर गये थे और वस्त्र भी गिर गया था; तथापि निरन्तर श्रीभगवान् में ही चित्त लगा रहने के कारण उन्हें अपने तपोयोगमय शरीर की कुछ भी सुधि नहीं थी, केवल प्रारब्ध ही उसकी रक्षा करता था।

विदुर जी! इस प्रकार देवहूति जी ने कपिलदेव जी के बताये हुए मार्ग द्वारा थोड़े ही समय में नित्यमुक्त परमात्मस्वरूप श्रीभगवान् को प्राप्त कर लिया। वीरवर! जिस स्थान पर उन्हें सिद्धि प्राप्त हुई थी, वह परम पवित्र क्षेत्र त्रिलोकी में सिद्धपदनाम से विख्यात हुआ।

साधुस्वभाव विदुर जी! योग साधन के द्वारा उनके शरीर के सारे दैहिक मल दूर हो गये थे। वह एक नदी के रूप में परिणत हो गया, जो सिद्धगण से सेवित और सब प्रकार कि सिद्धि देने वाली है। महायोगी भगवान् कपिल जी भी माता की आज्ञा ले पिता के आश्रम से ईशानकोण की ओर चले गये। वहाँ स्वयं समुद्र ने उनका पूजन करके उन्हें स्थान दिया। वे तीनों लोकों को शान्ति प्रदान करने के लिये योगमार्ग का अवलम्बन कर समाधि में स्थित हो गये हैं। सिद्ध, चारण, गन्धर्व, मुनि और अप्सरागण उनकी स्तुति करते हैं तथा सांख्याचार्यगण भी उनका सब प्रकार स्तवन करते रहते हैं।

निष्पाप विदुर जी! तुम्हारे पूछने से मैंने तुम्हें यह भगवान् कपिल और देवहूति का परम पवित्र संवाद सुनाया। यह कपिलदेव जी का मत अध्यात्मयोग का गूढ़ रहस्य है। जो पुरुष इसका श्रवण या वर्णन करता है, वह भगवान् गरुड़ध्वज की भक्ति से युक्त होकर शीघ्र ही श्रीहरि के चरणारविन्दों को प्राप्त करता है।

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे कापिलेयोपाख्याने त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३३ ॥

।। इस प्रकार  "श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध:" के 33 अध्याय समाप्त हुये ।।

(अब चतुर्थ स्कन्ध: प्रारम्भ होता है)

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ का पूर्व भाग पढ़े-

अध्याय 32   अध्याय 31   अध्याय 30   अध्याय 29  अध्याय 28

अध्याय 27  अध्याय 26   अध्याय 25    अध्याय 24  अध्याय 23

अध्याय 22   अध्याय 21    अध्याय 01

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध 2

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध 1

श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम् श्रीपद्मपुराण

श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम् स्कन्दपुराण वैष्णवखण्ड

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