श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय १
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय
१ "स्वायम्भुव-मनु की कन्याओं के वंश का वर्णन"
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय १
श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ
स्कन्ध: प्रथम अध्यायः
श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ४ अध्यायः
१
श्रीमद्भागवत महापुराण चौथा स्कन्ध पहला
अध्याय
चतुर्थ स्कन्ध: श्रीमद्भागवत महापुराण
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय
१ श्लोक का हिन्दी अनुवाद
मैत्रेय उवाच -
(अनुष्टुप्)
मनोस्तु शतरूपायां तिस्रः कन्याश्च
जज्ञिरे ।
आकूतिर्देवहूतिश्च प्रसूतिरिति
विश्रुताः ॥ १ ॥
आकूतिं रुचये प्रादाद् अपि
भ्रातृमतीं नृपः ।
पुत्रिकाधर्ममाश्रित्य
शतरूपानुमोदितः ॥ २ ॥
प्रजापतिः स भगवान् रुचिस्तस्यां
अजीजनत् ।
मिथुनं ब्रह्मवर्चस्वी परमेण
समाधिना ॥ ३ ॥
यस्तयोः पुरुषः साक्षात्
विष्णुर्यज्ञस्वरूपधृक् ।
या स्त्री सा दक्षिणा भूतेः
अंशभूतानपायिनी ॥ ४ ॥
आनिन्ये स्वगृहं पुत्र्याः पुत्रं
विततरोचिषम् ।
स्वायम्भुवो मुदा युक्तो
रुचिर्जग्राह दक्षिणाम् ॥ ५ ॥
तां कामयानां भगवान् उवाह यजुषां
पतिः ।
तुष्टायां तोषमापन्नोऽ जनयद्
द्वादशात्मजान् ॥ ॥ ६ ॥
तोषः प्रतोषः सन्तोषो भद्रः
शान्तिरिडस्पतिः ।
इध्मः कविर्विभुः स्वह्नः सुदेवो
रोचनो द्विषट् ॥ ७ ॥
तुषिता नाम ते देवा आसन्
स्वायम्भुवान्तरे ।
मरीचिमिश्रा ऋषयो यज्ञः सुरगणेश्वरः
॥ ८ ॥
प्रियव्रतोत्तानपादौ मनुपुत्रौ
महौजसौ ।
तत्पुत्रपौत्रनप्तॄणां अनुवृत्तं
तदन्तरम् ॥ ९ ॥
देवहूतिमदात् तात कर्दमायात्मजां
मनुः ।
तत्संबन्धि श्रुतप्रायं भवता गदतो
मम ॥ १० ॥
दक्षाय ब्रह्मपुत्राय प्रसूतिं
भगवान्मनुः ।
प्रायच्छद्यत्कृतः सर्गः त्रिलोक्यां
विततो महान् ॥ ११ ॥
याः कर्दमसुताः प्रोक्ता नव
ब्रह्मर्षिपत्नयः ।
तासां प्रसूतिप्रसवं प्रोच्यमानं
निबोध मे ॥ १२ ॥
पत्नी मरीचेस्तु कला सुषुवे
कर्दमात्मजा ।
कश्यपं पूर्णिमानं च ययोः आपूरितं
जगत् ॥ १३ ॥
पूर्णिमासूत विरजं विश्वगं च परन्तप
।
देवकुल्यां हरेः पाद
शौचाद्याभूत्सरिद्दिवः ॥ १४ ॥
अत्रेः पत्न्यनसूया त्रीन् जज्ञे
सुयशसः सुतान् ।
दत्तं दुर्वाससं सोमं
आत्मेशब्रह्मसम्भवान् ॥ १५ ॥
श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;-
विदुर जी! स्वायम्भुव मनु के महारानी शतरूपा से प्रियव्रत और
उत्तानपाद- इन दो पुत्रों के सिवा तीन कन्याएँ भी हुई थीं; वे
आकूति, देवहूति और प्रसूति नाम से विख्यात थीं। आकूति का,
यद्यपि उसके भाई थे तो भी, महारानी शतरूपा की
अनुमति से उन्होंने रुचि प्रजापति के साथ ‘पुत्रिकाधर्म के
अनुसार विवाह किया।
प्रजापति रुचि भगवान् के अनन्य
चिन्तन के कारण ब्रह्मतेज से सम्पन्न थे। उन्होंने आकूति के गर्भ से एक पुरुष और
स्त्री का जोड़ा उत्पन्न किया। उनमें जो पुरुष था, वह साक्षात् यज्ञस्वरूपधारी भगवान् विष्णु थे और जो स्त्री थी, वह भगवान् से कभी अलग न रहने वाली लक्ष्मी जी की अंशस्वरूपा ‘दक्षिणा’ थी। मनु जी अपनी पुत्री आकूति के उस
परमतेजस्वी पुत्र को बड़ी प्रसन्नता से अपने घर ले आये और दक्षिणा को रुचि
प्रजापति ने अपने पास रखा। जब दक्षिणा विवाह के योग्य हुई तो उसने यज्ञ भगवान् को
ही पतिरूप में प्राप्त करने की इच्छा की, तब भगवान् यज्ञ
पुरुष ने उससे विवाह किया। इससे दक्षिणा को बड़ा सन्तोष हुआ। भगवान् ने प्रसन्न
होकर उससे बारह पुत्र उत्पन्न किये। उनके नाम हैं- तोष, प्रतोष,
सन्तोष, भद्र, शान्ति,
इडस्पति, इध्म, कवि,
विभु, स्वह्न, सुदेव
ब्राह्मण और रोचन। ये ही स्वायम्भुव मन्वन्तर में ‘तुषित’
नाम के देवता हुए। उस मन्वन्तर में मरीचि आदि सप्तर्षि थे, भगवान् यज्ञ ही देवताओं के अधीश्वर इन्द्र थे और महान् प्रभावशाली
प्रियव्रत एवं उत्तानपाद मनुपुत्र थे। वह मन्वन्तर उन्हीं दोनों के बेटों, पोतों और दाहित्रों के वंश से छा गया।
प्यारे विदुर जी! मनु जी ने अपनी
दूसरी कन्या देवहूति कर्दम जी को ब्याही थी। उसके सम्बन्ध की प्रायः सभी बातें तुम
मुझसे सुन चुके हो। भगवान् मनु ने अपनी तीसरी कन्या प्रसूति का विवाह ब्रह्माजी के
पुत्र दक्ष प्रजापति से किया था; उसकी विशाल
वंश परम्परा तो सारी त्रिलोकी में फैली हुई है। मैं कर्दम जी की नौ कन्याओं का,
जो नौ ब्रह्मार्षियों से ब्याही गयी थीं, पहले
ही वर्णन कर चुका हूँ। अब उनकी वंश परम्परा का वर्णन करता हूँ, सुनो। मरीचि ऋषि की पत्नी कर्दम जी की बेटी कला से कश्यप और पूर्णिमा नामक
दो पुत्र हुए, जिनके वंश से यह सारा जगत् भरा हुआ है।
शत्रुपातन विदुर जी! पूर्णिमा के
विरज और विश्वग नाम के दो पुत्र तथा देवकुल्या नाम की एक कन्या हुई। यही दूसरे
जन्म में श्रीहरि के चरणों के धोवन से देवनदी गंगा के रूप प्रकट हुई। अत्रि की
पत्नी अनसूया से दत्तात्रेय, दुर्वासा और
चन्द्रमा नाम के तीन परम यशस्वी पुत्र हुए। ये क्रमशः भगवान् विष्णु, शंकर और ब्रह्मा के अंश से उत्पन्न हुए थे।
विदुर उवाच -
अत्रेर्गृहे सुरश्रेष्ठाः
स्थित्युत्पत्त्यन्तहेतवः ।
किञ्चित् चिकीर्षवो जाता एतदाख्याहि
मे गुरो ॥ १६ ॥
विदुर जी ने पूछा- गुरुजी! कृपया यह
बतलाइये कि जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और
अन्त करने वाले इन सर्वश्रेष्ठ देवों ने अत्रि मुनि के यहाँ क्या करने की इच्छा से
अवतार लिया था?
मैत्रेय उवाच -
ब्रह्मणा चोदितः सृष्टौ
अत्रिर्ब्रह्मविदां वरः ।
सह पत्न्या ययावृक्षं कुलाद्रिं तपसि
स्थितः ॥ १७ ॥
तस्मिन् प्रसूनस्तबक पलाशाशोककानने
।
वार्भिः स्रवद्भिरुद्घुष्टे
निर्विन्ध्यायाः समन्ततः ॥ १८ ॥
प्राणायामेन संयम्य मनो वर्षशतं
मुनिः ।
अतिष्ठत् एकपादेन
निर्द्वन्द्वोऽनिलभोजनः ॥ १९ ॥
शरणं तं प्रपद्येऽहं य एव जगदीश्वरः
।
प्रजां आत्मसमां मह्यं
प्रयच्छत्विति चिन्तयन् ॥ २० ॥
तप्यमानं त्रिभुवनं
प्राणायामैधसाग्निना ।
निर्गतेन मुनेर्मूर्ध्नः समीक्ष्य
प्रभवस्त्रयः ॥ २१ ॥
अप्सरोमुनिगन्धर्व
सिद्धविद्याधरोरगैः ।
वितायमानयशसः तदा आश्रमपदं ययुः ॥
२२ ॥
तत्प्रादुर्भावसंयोग विद्योतितमना
मुनिः ।
उत्तिष्ठन्नेकपादेन ददर्श
विबुधर्षभान् ॥ २३ ॥
प्रणम्य दण्डवद्भूमौ
उपतस्थेऽर्हणाञ्जलिः ।
वृषहंससुपर्णस्थान् स्वैः
स्वैश्चिह्नैश्च चिह्नितान् ॥ २४ ॥
कृपावलोकेन हसद् वदनेनोपलम्भितान् ।
तद् रोचिषा प्रतिहते निमील्य
मुनिरक्षिणी ॥ २५ ॥
चेतस्तत्प्रवणं युञ्जन् नस्तावीत्संहताञ्जलिः
।
श्लक्ष्णया सूक्तया वाचा
सर्वलोकगरीयसः ॥ २६ ॥
श्रीमैत्रेय जी ने कहा ;-
जब ब्रह्मा जी ने ब्रह्मज्ञानियों में श्रेष्ठ महर्षि अत्रि को
सृष्टि रचने के लिये आज्ञा दी, तब वे अपनी सहधर्मिणी के सहित
तप करने के लिये ऋक्ष नामक कुल पर्वत पर गये। वहाँ पलाश और अशोक के वृक्षों का एक
विशाल वन था। उसके सभी वृक्ष फूलों के गुच्छों से लदे थे तथा उसमें सब ओर
निर्विन्ध्या नदी के जल की कलकल ध्वनि गूँजती रहती थी। उस वन में वे मुनिश्रेष्ठ
प्राणायाम के द्वारा चित्त को वश में करके सौ वर्ष तक केवल वायु पीकर सर्दी-गरमी
आदि द्वन्दों की कुछ भी परवा न कर एक ही पैर से खड़े रहे। उस समय वे मन-ही-मन यही
प्रार्थना करते थे कि ‘जो कोई सम्पूर्ण जगत् के ईश्वर हैं,
मैं उनकी शरण में हूँ; वे मुझे अपने ही समान
सन्तान प्रदान करें।
तब यह देखकर कि प्राणायामरूपी ईंधन
से प्रज्वलित हुआ अत्रि मुनि का तेज उनके मस्तक से निकलकर तीनों लोकों को तपा रहा
है- ब्रह्मा, विष्णु और महादेव- तीनों
जगत्पति उनके आश्रम पर आये। उस समय अप्सरा, मुनि, गन्धर्व, सिद्ध, विद्याधर और
नाग-उनका सुयश गा रहे थे। उन तीनों का एक ही साथ प्रादुर्भाव होने से अत्रि मुनि
का अन्तःकरण प्रकाशित हो उठा। उन्होंने एक पैर से खड़े-खड़े ही उन देवदेवों को
देखा और फिर पृथ्वी पर दण्ड के समान लोटकर प्रणाम करने के अनन्तर अर्घ्य-पुष्पादि
पूजन की सामग्री हाथ में ले उनकी पूजा की। वे तीनों अपने-अपने वाहन-हंस, गरुड़ और बैल पर चढ़े हुए तथा अपने कमण्डलु, चक्र,
त्रिशूलादि चिह्नों से सुशोभित थे। उनकी आँखों से कृपा की वर्षा हो
रही थी। उनके मुख पर मन्द हास्य की रेखा थी-जिससे उनकी प्रसन्नता झलक रही थी। उनके
तेज से चौंधियाकर मुनिवर ने अपनी आँखें मूँद लीं। वे चित्त को उन्हीं की ओर लगाकर
हाथ जोड़ अति मधुर और सुन्दर भावपूर्ण वचनों में लोक में सबसे बड़े उन तीनों देवों
की स्तुति करने लगे।
अत्रिरुवाच -
विश्वोद्भवस्थितिलयेषु विभज्यमानैः
मायागुणैरनुयुगं विगृहीतदेहाः ।
ते ब्रह्मविष्णुगिरिशाः
प्रणतोऽस्म्यहं वः
तेभ्यः क एव भवतां मे इहोपहूतः ॥ २७ ॥
एको मयेह भगवान् विविधप्रधानैः
चित्तीकृतः प्रजननाय कथं नु यूयम् ।
अत्रागतास्तनुभृतां मनसोऽपि दूराद्
ब्रूत प्रसीदत महानिह विस्मयो मे ॥ २८ ॥
अत्रि मुनि ने कहा ;-
भगवन्! प्रत्येक कल्प के आरम्भ में जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और लय के लिये जो माया सत्त्वादि तीनों गुणों का विभाग करके
भिन्न-भिन्न शरीर धारण करते हैं-वे ब्रह्मा, विष्णु और
महादेव आप ही हैं; मैं आपको प्रणाम करता हूँ। कहिये-मैंने
जिनको बुलाया था, आपमें से वे कौन महानुभाव हैं? क्योंकि मैंने तो सन्तान प्राप्ति की इच्छा से केवल एक सुरेश्वर भगवान् का
का ही चिन्तन किया था। फिर आप तीनों ने यहाँ पधारने की कृपा कैसे की? आप-लोगों तक तो देहधारियों के मन की भी गति नहीं है, इसलिये मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है। आप लोग कृपा करके मुझे इसका रहस्य
बतलाइये।
मैत्रेय उवाच -
(अनुष्टुप्)
इति तस्य वचः श्रुत्वा त्रयस्ते विबुधर्षभाः
।
प्रत्याहुः श्लक्ष्णया वाचा प्रहस्य
तं ऋषिं प्रभो ॥ २९ ॥
श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;-
समर्थ विदुर जी! अत्रि मुनि के वचन सुनकर वे तीनों देव हँसे और उनसे
सुमधुर वाणी में कहने लगे।
देवा ऊचुः -
यथा कृतस्ते सङ्कल्पो भाव्यं तेनैव
नान्यथा ।
सत्सङ्कल्पस्य ते ब्रह्मन् यद्वै
ध्यायति ते वयम् ॥ ३० ॥
अथास्मद् अंशभूतास्ते आत्मजा
लोकविश्रुताः ।
भवितारोऽङ्ग भद्रं ते
विस्रप्स्यन्ति च ते यशः ॥ ३१ ॥
देवताओं ने कहा- ब्रह्मन्! तुम
सत्यसंकल्प हो। अतः तुमने जैस संकल्प किया था, वही
होना चाहिये। उससे विपरीत कैसे हो सकता था? तुम जिस ‘जगदीश्वर’ का ध्यान करते थे, वह
हम तीनों ही हैं। प्रिय महर्षे! तुम्हारा कल्याण हो, तुम्हारे
यहाँ हमारे ही अंशरूप तीन जगद्विख्यात पुत्र उत्पन्न होंगे और तुम्हारे सुंदर यश
का विस्तार करेंगे।
एवं कामवरं दत्त्वा प्रतिजग्मुः
सुरेश्वराः ।
सभाजितास्तयोः सम्यग्
दम्पत्योर्मिषतोस्ततः ॥ ३२ ॥
सोमोऽभूद्ब्रह्मणोंऽशेन दत्तो
विष्णोस्तु योगवित् ।
दुर्वासाः शंकरस्यांशो निबोधाङ्गिरसः
प्रजाः ॥ ३३ ॥
श्रद्धा त्वङ्गिरसः पत्नी चतस्रोऽसूत
कन्यकाः ।
सिनीवाली कुहू राका
चतुर्थ्यनुमतिस्तथा ॥ ३४ ॥
तत्पुत्रावपरावास्तां ख्यातौ
स्वारोचिषेऽन्तरे ।
उतथ्यो भगवान् साक्षात्
ब्रह्मिष्ठश्च बृहस्पतिः ॥ ३५ ॥
पुलस्त्योऽजनयत्पत्न्यां अगस्त्यं
च हविर्भुवि ।
सोऽन्यजन्मनि दह्राग्निः विश्रवाश्च
महातपाः ॥ ३६ ॥
तस्य यक्षपतिर्देवः
कुबेरस्त्विडविडासुतः ।
रावणः कुम्भकर्णश्च तथान्यस्यां
विभीषणः ॥ ३७ ॥
पुलहस्य गतिर्भार्या त्रीनसूत सती
सुतान् ।
कर्मश्रेष्ठं वरीयांसं सहिष्णुं च
महामते ॥ ३८ ॥
क्रतोरपि क्रिया भार्या
वालखिल्यानसूयत ।
ऋषीन्षष्टिसहस्राणि ज्वलतो ब्रह्मतेजसा
॥ ३९ ॥
ऊर्जायां जज्ञिरे पुत्रा वसिष्ठस्य
परंतप ।
चित्रकेतुप्रधानास्ते सप्त
ब्रह्मर्षयोऽमलाः ॥ ४० ॥
चित्रकेतुः सुरोचिश्च विरजा मित्र
एव च ।
उल्बणो वसुभृद्यानो द्युमान्
शक्त्यादयोऽपरे ॥ ४१ ॥
चित्तिस्त्वथर्वणः पत्नी लेभे
पुत्रं धृतव्रतम् ।
दध्यञ्चमश्वशिरसं भृगोर्वंशं निबोध
मे ॥ ४२ ॥
भृगुः ख्यात्यां महाभागः पत्न्यां
पुत्रानजीजनत् ।
धातारं च विधातारं श्रियं च
भगवत्पराम् ॥ ४३ ॥
आयतिं नियतिं चैव सुते
मेरुस्तयोरदात् ।
ताभ्यां तयोरभवतां मृकण्डः प्राण एव
च ॥ ४४ ॥
मार्कण्डेयो मृकण्डस्य प्राणाद्वेदशिरा
मुनिः ।
कविश्च भार्गवो यस्य भगवानुशना सुतः
॥ ४५ ॥
ते एते मुनयः क्षत्तः लोकान्
सर्गैरभावयन् ।
एष कर्दमदौहित्र सन्तानः कथितस्तव ।
श्रृण्वतः श्रद्दधानस्य सद्यः
पापहरः परः ॥ ४६ ॥
प्रसूतिं मानवीं दक्ष उपयेमे
ह्यजात्मजः ।
तस्यां ससर्ज दुहितॄः षोडशामललोचनाः
॥ ४७ ॥
त्रयोदशादाद्धर्माय तथैकामग्नये
विभुः ।
पितृभ्य एकां युक्तेभ्यो भवायैकां
भवच्छिदे ॥ ४८ ॥
श्रद्धा मैत्री दया शान्तिः तुष्टिः
पुष्टिः क्रियोन्नतिः ।
बुद्धिर्मेधा तितिक्षा ह्रीः
मूर्तिर्धर्मस्य पत्नयः ॥ ४९ ॥
श्रद्धासूत शुभं मैत्री प्रसादं अभयं
दया ।
शान्तिः सुखं मुदं तुष्टिः स्मयं
पुष्टिः असूयत ॥ ५० ॥
योगं क्रियोन्नतिर्दर्पं अर्थं
बुद्धिरसूयत ।
मेधा स्मृतिं तितिक्षा तु क्षेमं
ह्रीः प्रश्रयं सुतम् ॥ ५१ ॥
मूर्तिः सर्वगुणोत्पत्तिः नरनारायणौ
ऋषी ।
ययोर्जन्मन्यदो विश्वं अभ्यनन्दत्
सुनिर्वृतम् ।
मनांसि ककुभो वाताः प्रसेदुः
सरितोऽद्रयः ॥ ५३ ॥
दिव्यवाद्यन्त तूर्याणि पेतुः
कुसुमवृष्टयः ।
मुनयस्तुष्टुवुस्तुष्टा
जगुर्गन्धर्वकिन्नराः ॥ ५४ ॥
नृत्यन्ति स्म स्त्रियो देव्य आसीत्
परममङ्गलम् ।
देवा ब्रह्मादयः सर्वे
उपतस्थुरभिष्टवैः ॥ ५५ ॥
उन्हें इस प्रकार अभीष्ट वर देकर तथा पति-पत्नी दोनों से भलीभाँति पूजित होकर उनके देखते-ही-देखते वे तीनों सुरेश्वर अपने-अपने लोकों को चले गये। ब्रह्मा जी के अंश से चन्द्रमा, विष्णु के अंश से योगवेत्ता दत्तात्रेय जी और महादेव जी के अंश से दुर्वासा ऋषि अत्रि के पुत्ररूप में प्रकट हुए। अब अंगिरा ऋषि की सन्तानों का वर्णन सुनो।
अंगिरा की पत्नी श्रद्धा ने
सिनीवाली,
कुहू, राका और अनुमति- इन चार कन्याओं को जन्म
दिया। इनके सिवा उनके साक्षात भगवान उतथ्य जी और ब्रह्मनिष्ठ बृहस्पति जी- ये दो
पुत्र भी हुए, जो स्वारोचिष मन्वन्तर में विख्यात हुए।
पुलस्त्य के उनकी पत्नी हविर्भू से महर्षि अगस्त्य और महातपस्वी विश्रवा- ये दो
पुत्र हुए। इनमें अगस्त्य जी दूसरे जन्म में जठराग्नि हुए। विश्रवा मुनि के इडविडा
के गर्भ से यक्षराज कुबेर का जन्म हुआ और उनकी दूसरी पत्नी केशिनी से रावण,
कुम्भकर्ण एवं विभीषण उत्पन्न हुए।
महामते! महर्षि पुलह की स्त्री
परमसाध्वी गति से कर्मश्रेष्ठ, वरीयान और
सहिष्णु- ये तीन पुत्र उत्पन्न हुए। इसी प्रकार क्रतु की पत्नी क्रिया ने
ब्रह्मतेज से देदीप्यमान बालखिल्यादि साठ हजार ऋषियों को जन्म दिया। शत्रुपात
विदुर जी! वसिष्ठ जी की पत्नी ऊर्जा (अरुन्धती) से चित्रकेतु आदि सात विशुद्ध
चित्त ब्रह्मर्षियों का जन्म हुआ। उनके नाम चित्रकेतु, सुरोचि,
विरजा, मित्र, उल्बण,
वसुभृद्यान और द्युमान् थे। इनके सिवा उनकी दूसरी पत्नी से शक्ति
आदि और भी कई पुत्र हुए। अथर्वा मुनि की पत्नी चित्ति ने दध्यंग (दधीचि) नामक एक
तपोनिष्ठ पुत्र प्राप्त किया, जिसका दूसरा नाम अश्वशिरा भी
था। अब भृगु के वंश का वर्णन सुनो।
महाभाग भृगु जी ने अपनी भार्या
ख्याति से धाता और विधाता नामक पुत्र तथा श्रीकृष्ण नाम की एक भगवत्परायण कन्या
उत्पन्न की। मेरु ऋषि ने अपनी आयति और नियति नाम की कन्याएँ क्रमशः धाता और विधाता
को ब्याहीं; उनसे उनके मृकण्ड और प्राण नामक
पुत्र हुए। उनमें से मृकण्ड के मार्कण्डेय और प्राण के मुनिवर वेदशिरा का जन्म
हुआ। भृगु जी के एक कवि नामक पुत्र भी थे। उनके भगवान उशना (शुक्राचार्य) हुए।
विदुर जी! इन सब मुनीश्वरों ने भी सन्तान उत्पन्न करके सृष्टि का विस्तार किया। इस
प्रकार मैंने तुम्हें यह कर्दम जी के दौहित्रों की सन्तान का वर्णन सुनाया। जो
पुरुष इसे श्रद्धापूर्वक सुनता है, उसके पापों को यह तत्काल
नष्ट कर देता है।
ब्रह्मा जी के पुत्र दक्ष प्रजापति
ने मनुनन्दिनी प्रसूति से विवाह किया। उससे उन्होंने सुन्दर नेत्रों वाली सोलह
कन्याएँ उत्पन्न कीं। भगवान दक्ष ने उनमें से तेरह धर्म को,
एक अग्नि को, एक समस्त पितृगण को और एक संसार
का संहार करने वाले तथा जन्म-मृत्यु से छुड़ाने वाले भगवान शंकर को दी। श्रद्धा,
मैत्री, दया, शान्ति,
तुष्टि, पुष्टि, क्रिया,
उन्नति, बुद्धि, मेधा,
तितिक्षा, ह्री और मूर्ति- ये धर्म की
पत्नियाँ हैं। इनमें से श्रद्धा ने शुभ, मैत्री ने प्रसाद,
दया ने अभय, शान्ति ने सुख, तुष्टि ने मोद और पुष्टि ने अहंकार को जन्म दिया। क्रिया ने योग, उन्नति ने दर्प, बुद्धि ने अर्थ, मेधा ने स्मृति, तितिक्षा ने क्षेम और ह्री (लज्जा)
ने प्रश्रय (विनय) नामक पुत्र उत्पन्न किया। समस्त गुणों की खान मूर्तिदेवी ने
नर-नारायण ऋषियों को जन्म दिया। इनका जन्म होने पर इस सम्पूर्ण विश्व ने आनन्दित
होकर प्रसन्नता प्रकट की। उस समय लोगों के मन, दिशाएँ,
वायु, नदी और पर्वत-सभी में प्रसन्नता छा गयी।
आकाश में मांगलिक बाजे बजने लगे, देवता लोग फूलों की वर्षा
करने लगे, मुनि प्रसन्न होकर स्तुति करने लगे, गन्धर्व और किन्नर गाने लगे। अप्सराएँ नाचने लगीं। इस प्रकार उस समय बड़ा
ही आनन्द-मंगल हुआ तथा ब्रह्मादि समस्त देवता स्तोत्रों द्वारा भगवान की स्तुति
करने लगे।
देवा ऊचुः -
यो मायया विरचितं निजयात्मनीदं
खे रूपभेदमिव तत्प्रतिचक्षणाय ।
एतेन धर्मसदने ऋषिमूर्तिनाद्य
प्रादुश्चकार पुरुषाय नमः परस्मै ॥ ५६ ॥
सोऽयं स्थितिव्यतिकरोपशमाय सृष्टान्
सत्त्वेन नः सुरगणान् अनुमेयतत्त्वः ।
दृश्याददभ्रकरुणेन विलोकनेन
यच्छ्रीनिकेतममलं क्षिपतारविन्दम् ॥ ५७ ॥
(अनुष्टुप्)
एवं सुरगणैस्तात भगवन्तावभिष्टुतौ ।
लब्धावलोकैर्ययतुः अर्चितौ
गन्धमादनम् ॥ ५८ ॥
तौ इमौ वै भगवतो हरेरंशाविहागतौ ।
भारव्ययाय च भुवः कृष्णौ
यदुकुरूद्वहौ ॥ ५९ ॥
स्वाहाभिमानिनश्चाग्नेः आत्मजान्
त्रीन् अजीजनत् ।
पावकं पवमानं च शुचिं च हुतभोजनम् ॥
६० ॥
तेभ्योऽग्नयः समभवन् चत्वारिंशच्च
पञ्च च ।
ते एवैकोनपञ्चाशत् साकं
पितृपितामहैः । ॥ ६१ ॥
वैतानिके कर्मणि यत्
नामभिर्ब्रह्मवादिभिः ।
आग्नेय्य इष्टयो यज्ञे
निरूप्यन्तेऽग्नयस्तु ते । ॥ ६२ ॥
अग्निष्वात्ता बर्हिषदः सौम्याः
पितर आज्यपाः ।
साग्नयोऽनग्नयस्तेषां पत्नी
दाक्षायणी स्वधा । ॥ ६३ ॥
तेभ्यो दधार कन्ये द्वे वयुनां
धारिणीं स्वधा ।
उभे ते ब्रह्मवादिन्यौ
ज्ञानविज्ञानपारगे । ॥ ६४ ॥
भवस्य पत्नी तु सती भवं
देवमनुव्रता ।
आत्मनः सदृशं पुत्रं न लेभे
गुणशीलतः । ॥ ६५ ॥
पितर्यप्रतिरूपे स्वे भवायानागसे
रुषा ।
अप्रौढैवात्मनात्मानं अजहाद्
योगसंयुता । ॥ ६६ ॥
देवताओं ने कहा ;-
जिस प्रकार आकाश में तरह-तरह के रूपों की कल्पना कर ली जाती है-उसी
प्रकार जिन्होंने अपनी माया के द्वारा अपने ही स्वरूप के अन्दर इस संसार की रचना
की है और अपने उस स्वरूप को प्रकाशित करने के लिये इस समय इस ऋषि-विग्रह के साथ
धर्म के घर में अपने-आपको प्रकट किया है, उन परम पुरुष को
हमारा नमस्कार है।
जिनके तत्त्व का शास्त्र के आधार पर
हम लोग केवल अनुमान ही करते हैं, प्रत्यक्ष
नहीं कर पाते-उन्हीं भगवान् ने देवताओं को संसार की मर्यादा में किसी प्रकार की
गड़बड़ी न हो, इसीलिये सत्त्वगुण से उत्पन्न किया है। अब वे
अपने करुणामय नेत्रों से-जो समस्त शोभा और सौन्दर्य के निवासस्थान निर्मल दिव्य
कमल को नीचा दिखाने वाले हैं-हमारी ओर निहारें।
प्यारे विदुर जी! प्रभु का साक्षात्
दर्शन पाकर देवताओं ने उनकी इस प्रकार स्तुति और पूजा की। तदनन्तर भगवान्
नर-नारायण दोनों गन्धमादन पर्वत पर चले गये। भगवान् श्रीहरि के अंशभूत वे
नर-नारायण ही इस समय पृथ्वी का भार उतारने के लिये यदुकुलभूषण श्रीकृष्ण और उन्हीं
के सरीखे श्यामवर्ण, कुरु कुलतिलक
अर्जुन के रूप में अवतीर्ण हुए हैं।
अग्निदेव की पत्नी स्वाहा ने अग्नि
के ही अभिमानी पावक, पवमान और शुचि- ये
तीन पुत्र उत्पन्न किये। ये तीनों ही हवन किये हुए पदार्थों का भक्षण करने वाले
हैं। इन्हीं तीनों से पैंतालीस प्रकार के अग्नि और उत्पन्न हुए। ये ही अपने तीन
पिता और एक पितामह को साथ लेकर उनचास अग्नि कहलाये। वेदज्ञ ब्राह्मण वैदिक
यज्ञकर्म में जिन उनचास अग्नियों के नामों से आग्नेयी इष्टियाँ करते हैं, वे ये ही हैं।
अग्निष्वात्ता,
बर्हिषद्, सोमप और आज्यप- ये पितर हैं;
इनमें साग्निक भी हैं और निरग्निक भी। इन सब पितरों से स्वधाम के
धारिणी और वयुना नाम की दो कन्याएँ हुईं। वे दोनों ही ज्ञान-विज्ञान में पारंगत और
ब्रह्मज्ञान का उपदेश करने वाली हुईं। महादेव जी की पत्नी सती थीं, वे सब प्रकार से अपने पतिदेव की सेवा में संलग्न रहने वाली थीं। किन्तु
उनके अपने गुण और शील के अनुरूप कोई पुत्र नहीं हुआ। क्योंकि सती के पिता दक्ष ने
बिना ही किसी अपराध के भगवान् शिव जी के प्रतिकूल आचरण किया था, इसलिये सती ने युवावस्था में ही क्रोधवश योग के द्वारा स्वयं ही अपने शरीर
का त्याग कर दिया था।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे विदुरमैत्रेयसंवादे प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥
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