श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय २
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय
२ "भगवान् शिव और दक्ष प्रजापति का
मनोमालिन्य"
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय २
श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ
स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः
श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ४ अध्यायः
२
श्रीमद्भागवत महापुराण चौथा स्कन्ध दूसरा
अध्याय
चतुर्थ स्कन्ध: श्रीमद्भागवत महापुराण
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय
२ श्लोक का हिन्दी अनुवाद
विदुर उवाच -
(अनुष्टुप्)
भवे शीलवतां श्रेष्ठे दक्षो
दुहितृवत्सलः ।
विद्वेषं अकरोत् कस्माद्
अनादृत्यात्मजां सतीम् ॥ १ ॥
कस्तं चराचरगुरुं निर्वैरं
शान्तविग्रहम् ।
आत्मारामं कथं द्वेष्टि जगतो दैवतं
महत् ॥ २ ॥
एतदाख्याहि मे ब्रह्मन् जामातुः
श्वशुरस्य च ।
विद्वेषस्तु यतः प्राणान् तत्यजे
दुस्त्यजान्सती ॥ ३ ॥
विदुर जी ने पूछा ;-
ब्रह्मन्! प्रजापति दक्ष तो अपनी लड़कियों से बहुत ही स्नेह रखते थे,
फिर उन्होंने अपनी कन्या सती का अनादर करके शीलवालों में सबसे
श्रेष्ठ श्रीमहादेव जी से द्वेष क्यों किया? महादेव जी भी
चराचर के गुरु, वैररहित, शान्तमूर्ति,
आत्माराम और जगत् के परम आराध्य देव हैं। उनसे भला, कोई क्यों वैर करेगा? भगवन्! उन ससुर और दामाद में
इतना विद्वेष कैसे हो गया, जिसके कारण सती ने अपने दुस्त्यज
प्राणों तक की बलि दे दी? यह आप मुझसे कहिये।
मैत्रेय उवाच -
पुरा विश्वसृजां सत्रे समेताः
परमर्षयः ।
तथामरगणाः सर्वे सानुगा मुनयोऽग्नयः
॥ ४ ॥
तत्र प्रविष्टमृषयो दृष्ट्वार्कमिव
रोचिषा ।
भ्राजमानं वितिमिरं कुर्वन्तं
तन्महत्सदः ॥ ५ ॥
उदतिष्ठन् सदस्यास्ते
स्वधिष्ण्येभ्यः सहाग्नयः ।
ऋते विरिञ्चां शर्वं च तद्भासाक्षिप्तचेतसः
॥ ६ ॥
सदसस्पतिभिर्दक्षो भगवान् साधु
सत्कृतः ।
अज लोकगुरुं नत्वा निषसाद तदाज्ञया
॥ ७ ॥
प्राङ्निषण्णं मृडं दृष्ट्वा
नामृष्यत् तद् अनादृतः ।
उवाच वामं चक्षुर्भ्यां अभिवीक्ष्य
दहन्निव ॥ ८ ॥
श्रूयतां ब्रह्मर्षयो मे सहदेवाः
सहाग्नयः ।
साधूनां ब्रुवतो वृत्तं न अज्ञानात्
न च मत्सरात् ॥ ९ ॥
अयं तु लोकपालानां यशोघ्नो
निरपत्रपः ।
सद्भिः आचरितः पन्था येन स्तब्धेन
दूषितः ॥ १० ॥
एष मे शिष्यतां प्राप्तो यन्मे
दुहितुरग्रहीत् ।
पाणिं विप्राग्निमुखतः सावित्र्या
इव साधुवत् ॥ ११ ॥
गृहीत्वा मृगशावाक्ष्याः पाणिं
मर्कटलोचनः ।
प्रत्युत्थानाभिवादार्हे वाचाप्यकृत
नोचितम् ॥ १२ ॥
लुप्तक्रियायाशुचये मानिने
भिन्नसेतवे ।
अनिच्छन्नप्यदां बालां
शूद्रायेवोशतीं गिरम् ॥ १३ ॥
प्रेतावासेषु घोरेषु
प्रेतैर्भूतगणैर्वृतः ।
अटतु उन्मत्तवत् नग्नो व्युप्तकेशो
हसन् रुदन् ॥ १४ ॥
चिताभस्मकृतस्नानः प्रेतस्रङ्
अस्थिभूषणः ।
शिवापदेशो ह्यशिवो मत्तो
मत्तजनप्रियः ।
पतिः प्रमथनाथानां तमोमात्रात्मकात्मनाम्
॥ १५ ॥
तस्मा उन्मादनाथाय नष्टशौचाय
दुर्हृदे ।
दत्ता बत मया साध्वी चोदिते
परमेष्ठिना ॥ १६ ॥
श्रीमैत्रेय जी ने कहा ;-
विदुर जी! पहले एक बार प्रजापतियों के यज्ञ में सब बड़े-बड़े ऋषि,
देवता, मुनि और अग्नि आदि अपने-अपने
अनुयायियों के सहित एकत्र हुए थे। उसी समय प्रजापति दक्ष ने भी उस सभा में प्रवेश
किया। वे अपने तेज से सूर्य के समान प्रकाशमान थे और उस विशाल सभा-भवन का अन्धकार
दूर किये देते थे। उन्हें आया देख ब्रह्मा जी और महादेव जी के अतिरिक्त अग्नि
पर्यन्त सभी सभासद् उनके तेज से प्रभावित होकर अपने-अपने आसनों से उठकर खड़े हो
गये। इस प्रकार समस्त सभासदों से भलीभाँति सम्मान प्राप्त करके तेजस्वी दक्ष
जगत्पिता ब्रह्मा जी को प्रणाम कर उनकी आज्ञा से अपने आसन पर बैठ गये। परन्तु
महादेव जी को पहले से बैठा देख तथा उनसे अभ्युत्थानादि के रूप में कुछ भी आदर न पाकर
दक्ष उनका यह व्यवहार सहन न कर सके। उन्होंने उनकी ओर टेढ़ी नजर से इस प्रकार देखा
मानो उन्हें वे क्रोधाग्नि से जला डालेंगे। फिर कहने लगे-
‘देवता और अग्नियों के सहित समस्त
ब्रह्मर्षिगण मेरी बात सुनें। मैं नासमझी या द्वेषवश नहीं कहता, बल्कि शिष्टाचार की बात कहता हूँ। यह निर्लज्ज महादेव समस्त लोकपालों की
पवित्र कीर्ति को धूल में मिला रहा है। देखिये, इस घमण्डी ने
सत्पुरुषों के आचरण को लांछित एवं मटियामेट कर दिया है। बन्दर के-से नेत्र वाले
इसने सत्पुरुषों के समान मेरी सावित्री-सरीखी मृगनयनी पवित्र कन्या का अग्नि और
ब्राह्मणों के सामने पाणिग्रहण किया था, इसलिये यह एक प्रकार
मेरे पुत्र के समान हो गया है। उचित तो यह था कि यह उठकर मेरा स्वागत करता,
मुझे प्रणाम करता; परन्तु इसने वाणी से भी
मेरा सत्कार नहीं किया।
हाय! जिस प्रकार शूद्र को कोई वेद
पढ़ा दे,
उसी प्रकार मैंने इच्छा न होते हुए भी भावीवश इसको अपनी सुकुमारी
कन्या दे दी! इसने सत्कर्म का लोप कर दिया, यह सदा अपवित्र
रहता है, बड़ा घमण्डी है और धर्म की मर्यादा को तोड़ रहा है।
यह प्रेतों के निवासस्थान भयंकर श्मशानों में भूत-प्रेतों को साथ लिये घूमता रहता
है। पूरे पागल की तरह सिर के बाल बिखेरे नंग-धडंग भटकता है, कभी
हँसता है, कभी रोता है। यह सारे शरीर पर चिता की अपवित्र
भस्म लपेटे रहता है, गले में भूतों के पहनने योग्य नरमुण्डों
की माला और सारे शरीर में हड्डियों के पहनने योग्य नरमुण्डों की माला और सारे शरीर
में हड्डियों के गाहने पहने रहता है। यह बस, नाम भर का ही
शिव है, वास्तव में है पूरा अशिव-अमंगलरूप। जैसे यह स्वयं
मतवाला है, वैसे ही इसे मतवाले ही प्यारे लगते हैं।
भूत-प्रेत-प्रमथ आदि निरे तमोगुणी स्वभाव वाले जीवों का यह नेता है। अरे! मैंने
केवल ब्रह्मा जी के बहकावे में आकर ऐसे भूतों के सरदार, आचारहीन
और दुष्ट स्वभाव वाले को अपनी भोली-भाली बेटी ब्याह दी’।
मैत्रेय उवाच -
विनिन्द्यैवं स गिरिशं
अप्रतीपमवस्थितम् ।
दक्षोऽथाप उपस्पृश्य क्रुद्धः
शप्तुं प्रचक्रमे ॥ १७ ॥
अयं तु देवयजन
इन्द्रोपेन्द्रादिभिर्भवः ।
सह भागं न लभतां देवैर्देवगणाधमः ॥
१८ ॥
निषिध्यमानः स सदस्यमुख्यैः
दक्षो गिरित्राय विसृज्य शापम् ।
तस्माद् विनिष्क्रम्य विवृद्धमन्युः
जगाम कौरव्य निजं निकेतनम् ॥ १९ ॥
विज्ञाय शापं गिरिशानुगाग्रणीः
नन्दीश्वरो रोषकषायदूषितः ।
दक्षाय शापं विससर्ज दारुणं
ये चान्वमोदन् तदवाच्यतां द्विजाः ॥ २० ॥
(अनुष्टुप्)
य एतन्मर्त्यमुद्दिश्य
भगवत्यप्रतिद्रुहि ।
द्रुह्यत्यज्ञः पृथग्दृष्टिः
तत्त्वतो विमुखो भवेत् ॥ २१ ॥
गृहेषु कूटधर्मेषु सक्तो
ग्राम्यसुखेच्छया ।
कर्मतन्त्रं वितनुते
वेदवादविपन्नधीः ॥ २२ ॥
बुद्ध्या पराभिध्यायिन्या
विस्मृतात्मगतिः पशुः ।
स्त्रीकामः सोऽस्त्वतितरां दक्षो
बस्तमुखोऽचिरात् ॥ २३ ॥
विद्याबुद्धिः अविद्यायां
कर्ममय्यामसौ जडः ।
संसरन्त्विह ये चामुं अनु
शर्वावमानिनम् ॥ २४ ॥
गिरः श्रुतायाः पुष्पिण्या
मधुगन्धेन भूरिणा ।
मथ्ना चोन्मथितात्मानः सम्मुह्यन्तु
हरद्विषः ॥ २५ ॥
सर्वभक्षा द्विजा वृत्त्यै
धृतविद्यातपोव्रताः ।
वित्तदेहेन्द्रियारामा याचका
विचरन्त्विह ॥ २ ॥ ६ ॥
तस्यैवं वदतः शापं श्रुत्वा
द्विजकुलाय वै ।
भृगुः प्रत्यसृजच्छापं ब्रह्मदण्डं
दुरत्ययम् ॥ २७ ॥
भवव्रतधरा ये च ये च तान्
समनुव्रताः ।
पाषण्डिनस्ते भवन्तु
सच्छास्त्रपरिपन्थिनः ॥ २८ ॥
नष्टशौचा मूढधियो
जटाभस्मास्थिधारिणः ।
विशन्तु शिवदीक्षायां यत्र दैवं
सुरासवम् ॥ २९ ॥
ब्रह्म च ब्राह्मणांश्चैव यद्यूयं
परिनिन्दथ ।
सेतुं विधारणं पुंसां अतः
पाषण्डमाश्रिताः ॥ ३० ॥
एष एव हि लोकानां शिवः पन्थाः
सनातनः ।
यं पूर्वे चानुसन्तस्थुः यत्प्रमाणं
जनार्दनः ॥ ३१ ॥
तद्ब्रह्म परमं शुद्धं सतां वर्त्म
सनातनम् ।
विगर्ह्य यात पाषण्डं दैवं वो यत्र
भूतराट् ॥ ३२ ॥
श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;-
विदुर जी! दक्ष ने इस प्रकार महादेव जी को बहुत कुछ बुरा-भला कहा;
तथापि उन्होंने इसका कोई प्रतीकार नहीं किया, वे
पूर्ववत् निश्चलभाव से बैठे रहे। इससे दक्ष के क्रोध का पारा और भी ऊँचा चढ़ गया
और वे जल हाथ में लेकर उन्हें शाप देने को तैयार हो गये। दक्ष ने कहा, ‘यह महादेव देवताओं में बड़ा ही अधम है। अबसे इसे इन्द्र-उपेन्द्र आदि
देवताओं के साथ यज्ञ का भाग न मिले’। उपस्थित मुख्य-मुख्य
सभासदों ने उन्हें बहुत मना किया, परन्तु उन्होंने किसी की न
सुनी; महादेव जी को शाप दे ही दिया। फिर वे अत्यत्न क्रोधित
हो उस सभा से निकलकर अपने घर चले गये।
जब श्रीशंकर जी के अनुयायियों में
अग्रगण्य नंदीश्वर को मालूम हुआ कि दक्ष ने शाप दिया है,
तो वे क्रोध से तमतमा उठे और उन्होंने दक्ष तथा उन ब्राह्मणों को,
जिन्होंने दक्ष के दुर्वचनों का अनुमोदन किया था, बड़ा भयंकर शाप दिया। वे बोले- ‘जो इस मरणधर्मा शरीर
में ही अभिमान करके किसी से द्रोह न करने वाले भगवान् शंकर से द्वेष करता है,
वह भेद-बुद्धि वाला मूर्ख दक्ष, तत्त्वज्ञान
से विमुख ही रहे। यह ‘चातुर्मास्य यज्ञ करने वाले को अक्षय
पुण्य प्राप्त होता है’ आदि अर्थवादरूप वेदवाक्यों से मोहित
एवं विवेकभ्रष्ट होकर विषयसुख की इच्छा से कपट धर्ममय गृहस्थाश्रम में आसक्त रहकर
कर्मकाण्ड में ही लगा रहता है। इसकी बुद्धि देहादि में आत्मभाव का चिन्तन करने
वाली है; उसके द्वारा इसने आत्मस्वरूप को भुला दिया है;
यह साक्षात् पशु के ही समान है, अतः अत्यन्त
स्त्री-लम्पट हो और शीघ्र ही इसका मुँह बकरे का हो जाये। यह मुख कर्ममयी अविद्या
को ही विद्या समझता है; इसलिये यह और जो लोग भगवान् शंकर का
अपमान करने वाले इस दुष्ट के पीछे-पीछे चलने वाले हैं, वे
सभी जन्म-मरणरूप संसारचक्र में पड़े रहें। वेदवाणीरूप लता फलश्रुतिरूप पुष्पों से
सुशोभित है, उसके कर्म फलरूप मनमोहक गन्ध से इनके चित्त
क्षुब्ध हो रहे हैं। इससे ये शंकरद्रोही कर्मों के जाल में फँसे रहें। ये ब्राह्मण
लोग भक्ष्याभक्ष्य के विचार को छोड़कर केवल पेट पालने के लिये ही विद्या, तप और व्रतादि का आश्रय लें तथा धन, शरीर और
इन्द्रियों के सुख को ही सुख मानकर-उन्हीं के गुलाम बनकर दुनिया में भीख माँगते
भटका करें’।
नदीश्वर के मुख से इस प्रकार
ब्राह्मण कुल के लिये शाप सुनकर उसके बदले में भृगु जी ने दुस्तर शापरूप
ब्रह्मदण्ड दिया। ‘जो लोग शिवभक्त हैं
तथा जो उन भक्तों के अनुयायी हैं, वे सत्-शास्त्रों के
विरुद्ध आचरण करने वाले और पाखण्डी हों। जो लोग शौचाचारविहीन, मन्दबुद्धि तथा जटा, राख और हड्डियों को धारण करने
वाले हैं-वे ही शैव सम्प्रदाय में दीक्षित हों, जिसमें सुरा
और आसव ही देवताओं के समान आदरणीय हैं। अरे! तुम लोग जो धर्म मर्यादा के संस्थापक
एवं वर्णाश्रमियों के रक्षक वेद और ब्राह्मणों की निन्दा करते हो, इससे मालूम होता है तुमने पाखण्ड का आश्रय ले रखा है। यह वेदमार्ग ही
लोगों के लिये कल्याणकारी और सनातन मार्ग है। पूर्वपुरुष इसी पर चलते आये हैं और
इसके मूल साक्षात् श्रीविष्णु भगवान् हैं। तुम लोग सत्पुरुषों के परमपवित्र और
सनातन मार्ग स्वरूप वेद की निन्दा करते हो-इसलिये उस पाखण्डमार्ग में जाओ, जिसमें भूतों के सरदार तुम्हारे इष्टदेव निवास करते हैं’।
मैत्रेय उवाच -
तस्यैवं वदतः शापं भृगोः स
भगवान्भवः ।
निश्चक्राम ततः किञ्चित् विमना इव
सानुगः ॥ ३३ ॥
तेऽपि विश्वसृजः सत्रं
सहस्रपरिवत्सरान् ।
संविधाय महेष्वास यत्रेज्य ऋषभो
हरिः ॥ ३४ ॥
आप्लुत्यावभृथं यत्र गङ्गा
यमुनयान्विता ।
विरजेनात्मना सर्वे स्वं स्वं धाम
ययुस्ततः ॥ ३५ ॥
श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;-
विदुर जी! भृगु ऋषि के इस प्रकार शाप देने पर भगवान शंकर कुछ खिन्न
से हो वहाँ से अपने अनुयायियों सहित चल दिये। वहाँ प्रजापति लोग जो यज्ञ कर रहे थे,
उसमें पुरुषोत्तम श्रीहरि ही उपास्यदेव थे और वह यज्ञ एक हज़ार वर्ष
में समाप्त होने वाला था। उसे समाप्त कर उन प्रजापतियों ने श्रीगंगा-यमुना के संगम
में यज्ञांत स्नान किया और फिर प्रसन्न मन अपने-अपने स्थानों को चले गए।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे दक्षशापो नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥
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