श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय ४०

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ४०

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ४० दुर्मृत्यु होने पर सद्गति लाभ के लिये नारायणबलि का विधान का वर्णन है।

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय ४०

श्रीगरुडमहापुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) चत्वारिंशत्तमोऽध्यायः

Garud mahapuran dharmakand pretakalpa chapter 40

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प चालीसवाँ अध्याय  

गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ४०                       

गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ४० का श्लोक हिन्दी अनुवाद सहित

गरुडपुराणम्  प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) अध्यायः ४०                  

तार्क्ष्य उवाच ।

भगवन्ब्राह्मणाः केचिदपमृत्युवशं गताः ।

कथं तेषां भवेन्मार्गः किं स्थानं का गतिर्भवेत् ॥ १ ॥

किञ्च युक्तं भवेत्तेषां विधानं वापि कीदृशम् ।

तदहं श्रोतुमिच्छामि ब्रूहि मे मधुसूदन ॥ २ ॥

तार्क्ष्य ने कहा- भगवन् ! किन्हीं ब्राह्मणों की अपमृत्यु होती है, उनका पारलौकिक मार्ग कैसा है ? उन्हें वहाँ कैसा स्थान प्राप्त होता है? उनकी कौन-सी गति होती है? उनके लिये क्या उचित है और क्या विधान है? हे मधुसूदन! मैं उन सभी बातों को सुनना चाहता हूँ। कृपया आप उनका वर्णन करें।

श्रीकृष्ण उवाच ।

प्रेतीभूताद्विजातीनां सम्भूते मृत्युवैकृते ।

तेषां मार्गगतिस्थानं विधानं कथयाम्यहम् ॥ ३ ॥

शृणु तार्क्ष्य परं गोप्यं जाते दुर्मरणे सति ।

श्रीकृष्ण ने कहाहे गरुड ! जो ब्राह्मण विकृत मृत्यु के कारण प्रेत हो गये हैं, उनके मार्ग, पारलौकिक गति, स्थान और प्रेतकर्म-विधान को मैं कह रहा हूँ । यह परम गोपनीय है, इसे तुम सुनो।

लङ्घनैर्ये मृता विप्रा दंष्ट्रिभिश्चाभिघातिताः ॥ ४ ॥

कण्ठग्राह विमग्नानां क्षीणानां तुण्डघातिनाम् ।

विषाग्निवृषविप्रेभ्यो विषूच्या चात्मघातकाः ॥ ५ ॥

पतनोद्वन्धनजलैर्मृतानां शृणु संस्थितिम् ।

जो ब्राह्मण खाई, नदी, नाला लाँघते हुए और सर्प आदि के काटने से मर जाते हैं, जिनकी मृत्यु गला दबाने तथा जल में डुबाने से होती है, जो दुर्बल ब्राह्मण हाथी की सूँड़ के प्रहार से, विषपान से, क्षीण होकर, अग्निदाह, साँड़-प्रहार तथा विषूचिका (हैजा) रोग से मरते हैं, जिनके द्वारा आत्महत्या कर ली जाती है, जो गिरकर, फाँसी लगाकर और जल में डूबकर मर जाते हैं, उनकी स्थिति को तुम सुनो।

यान्ति ते नरकेघोरे ये च म्लेच्छादिभिर्हताः ॥ ६ ॥

श्वशृगालादिसंस्पृष्टा अदग्धाः कृमिसंङ्कुलाः ।

उल्लङ्घिता मृता ये च महारोगैश्च पीडिताः ॥ ७ ॥

अभिसस्तास्तथाव्यङ्गा ये च पापान्नपोषिताः ।

चण्डालादुदकात्सर्पाद्ब्राह्मणाद्वैद्युताग्नितः ॥ ८ ॥

दष्ट्रिभ्यश्च पशुभ्यश्च वृक्षादिपतनान्मृताः ।

उदक्यामूतकीशूद्रारजकीसङ्गदूषिताः ॥ ९ ॥

तेन पापेन नरकान्मुक्ताः प्रेतत्वभागिनः ।

न तेषां कारयेद्दाहं सूतकं नोदकक्रियाम् ॥ १० ॥

न विधानं मृताद्यं च न कुर्यादौर्ध्वदैहिकम् ।

तेषां तार्क्ष्य प्रकुर्वीत नारायणबलिक्रियाम् ॥ ११ ॥

जो ब्राह्मण म्लेच्छादि जातियों द्वारा मारे जाते हैं, वे घोर नरक प्राप्त करते हैं। जो कुत्ता, सियारादि के स्पर्श, दाह-संस्काररहित, कीटाणुओं से परिव्याप्त, वर्णाश्रम-धर्म से दूर और महारोगों से पीड़ित होकर मरते हैं, दोषसिद्ध, व्यङ्ग्यपूर्ण बात, पापियों के द्वारा प्रदत्त अन्न का सेवन करते हैं, चाण्डाल, जल, सर्प, ब्राह्मण, विद्युत्-निपात, अग्नि, दन्तधारी पशु तथा वृक्षादि पतन के कारण जिनकी अपमृत्यु होती है, जो रजस्वला, प्रसवा, शूद्रा और धोबिन के सहवास से दोषयुक्त हो गये हैं, वे सभी उस पाप नरक-भोग करके प्रेतयोनि प्राप्त करते हैं। परिजनों को उनका दाह संस्कार, अशौच- निवृत्ति एवं जलक्रिया का कर्म नहीं करना चाहिये । हे तार्क्ष्य ! ऐसे पापियों का नारायणबलि के बिना मृत्युका आद्य कर्म, और्ध्वदैहिक कर्म भी नहीं करना चाहिये ।

सर्वलोकहितार्थाय शृणु पापभयापहाम् ।

षण्मासं ब्राह्मणे दाहस्त्रिमासं क्षत्त्रिये मतः ॥ १२ ॥

सार्ध मासं तु वैश्यस्य सद्यः शूद्रे विधीयते ।

गङ्गायां यमुनायाञ्च नैमिषे पुष्करेऽथ च ॥ १३ ॥

तडागे जलूपूर्णे वा ह्रदे वा विमलोदके ।

वाप्यां कूपे गवां गोष्ठे गृहे वा प्रतिमालये ॥ १४ ॥

कृष्णाग्रे कारयेद्विप्र बलिं नारायणाह्वयम् ।

प्रेताय तर्पणं कार्यं मन्त्रैः पौराणवैदिकैः ॥ १५ ॥

सर्वौषध्यक्षतैर्मिश्रैर्विष्णुमुद्दिश्य तर्पयेत् ।

कार्यं पुरुषसूक्तेन मन्त्रैर्वा वैष्णवैरपि ॥ १६ ॥

दक्षिणाभिमुखो भूत्वा प्रेतं विष्णुरिति स्मरेत् ।

हे पक्षिराज ! सभी प्राणियों का कल्याण करने के लिये पाप और भय को दूर करनेवाली उस नारायणबलि के विधान को सुनो। छः मास की अवधि में ब्राह्मण, तीन मास में क्षत्रिय, डेढ़ मास में वैश्य तथा शूद्र की तत्काल दाह (पुत्तलिका-दाह) - क्रिया करनी चाहिये। गङ्गा, यमुना, नैमिष, पुष्कर, जलपूर्ण तालाब, स्वच्छ जलयुक्त गम्भीर जलाशय, बावली, कूप, गोशाला, घर या मन्दिर में भगवान् विष्णु के सामने ब्राह्मण इस नारायणबलि को सम्पन्न करायें । पौराणिक और वैदिक मन्त्रों से प्रेत का तर्पण किया जाय। इसके बाद यजमान सभी औषधियों से युक्त जल तथा अक्षत लेकर विष्णु का भी तर्पण पुरुषसूक्त अथवा अन्य वैष्णवमन्त्रों से करके दक्षिणाभिमुख होकर प्रेत का विष्णुरूप में इस मन्त्र से ध्यान करे

अनादिनिधनो देवः शङ्खचक्रगदाधरः ॥ १७ ॥

अव्ययः पुण्डरीकाक्षः प्रेतमोक्षप्रदो भवेत् ।

अनादि, अनन्त, शङ्ख, चक्र और गदा धारण करनेवाले अव्ययदेव पुण्डरीकाक्ष भगवान् प्रेत को मोक्ष प्रदान करें।

तर्पणस्यावसाने च वीतरागो विमत्सरः ॥ १८ ॥

जितेन्द्रियमना भूत्वा शुचिप्मान्धर्मतत्परः ।

दानधर्मरतः शान्तः प्रणम्य वाग्यतः शुचिः ॥ १९ ॥

यजमानो भबेत्तत्र शुचिर्वन्धुसमन्वितः ।

भक्त्या तत्र प्रकुर्वीत श्राद्धत्येकादशैव तु ॥ २० ॥

सर्वकर्मविपाकेन एकैकाग्रे समाहितः ।

तोयव्रीहियवान् षष्ट्या गोधूमांश्च प्रियङ्गुकान् ॥ २१ ॥

हविष्यान्नं शुभं मुद्रां छत्रोष्णीषे च चलेकम् ।

दापयेत्सर्वसस्यानि क्षीरक्षौद्रयुतानि च ॥ २२ ॥

वस्त्रोपानहसंयुक्तं दद्यादष्टविधं पदम् ।

दापयेत्सर्वविप्रेभ्यो न कुर्यात्पङ्क्तिबन्धनम् ॥ २३ ॥

तर्पण समाप्त हो जाने के पश्चात् रागमुक्त, ईर्ष्या- द्वेष-रहित, जितेन्द्रिय, पवित्र, धर्मपरायण, दानधर्म में संलग्न, शान्तचित्त, एकाग्रचित्त होकर भगवान् विष्णु को प्रणाम करके तथा वाणी पर संयम रखते हुए अपने बन्धु बान्धवों के साथ यजमान शुद्ध हो । उसके बाद भक्तिपूर्वक वहाँ एकादश श्राद्ध करे । समाहित होकर जल, धान, यव, साठी धान, गेहूँ, कंगनी (टाँगुन), शुभ हविष्यान्न, मुद्रा, छत्र, पगड़ी,वस्त्र, सभी प्रकार के धान्य, दूध तथा मधु का दान ब्राह्मण को दे। वस्त्र और पादुका से युक्त आठ प्रकार के पददान बिना पंक्तिभेद किये (समानरूप से) सभी ब्राह्मणों को इस अवसर पर देना चाहिये ।

भूमौ स्थितेषु पिण्डेषु गन्धपुष्पाक्षतान्वितम् ।

शङ्खपात्रे तथा ताम्रे तर्पणञ्च पृथक्पृथक् ॥ २४ ॥

ध्यानधारणसंयुक्तो जानुभ्यामवनिं गतः ।

दातव्यं सर्वविप्रेभ्यो वेदशास्त्रविधानतः ॥ २५ ॥

ऋचा वै दापयेदर्घ्यमेकोद्दिष्टे पृथक्पृथक् ।

आपोदेवीर्मधुमतीरादिपीठे प्रकल्पितम् ॥ २६ ॥

उपयामगृहीतोऽसि द्वितीयेऽर्घं निवेदयेत् ।

येनापावकचक्षुषा तृतीये च सकल्पितम् ॥ २७ ॥

ये देवासश्चतुर्थे तु समुद्रं गच्छ पञ्चमे ।

अग्निर्ज्योति स्तथा षष्ठे हिरण्यगर्भः सप्तमे ॥ २८ ॥

यमाय त्वाष्टमे ज्ञेयं यज्जग्रन्नवमे तथा ।

तशमे याः फलिनीति पिण्डे चैकादशे ततः ॥ २९ ॥

भद्रं कर्णेभिरिति च कुर्यात्पिण्डविसर्जनम् ।

पृथ्वीपर पिण्डदान हो जाने के पश्चात् शङ्खपात्र तथा ताम्रपात्र में पृथक्-पृथक् गन्ध-अक्षत-पुष्पयुक्त तर्पण करे । ध्यान-धारणा से एकाग्र मन हो, घुटनों के बल पृथ्वी पर टिक करके, वेद-शास्त्रों के अनुसार सभी ब्राह्मणों को दान देना चाहिये। एकोद्दिष्ट श्राद्ध में ऋचाओं से पृथक्-पृथक् अर्घ्य देना चाहिये । उस समय 'आपोदेवीर्मधुमती०' इत्यादि मन्त्र से पहले पिण्ड पर अर्घ्य प्रदान करना चाहिये । उसके बाद उपयाम गृहीतोऽसि०' इस मन्त्र से दूसरे, 'येनापावक चक्षुषा०' मन्त्र से तीसरे, 'ये देवासः०' मन्त्र से चौथे, 'समुद्रं गच्छ०' मन्त्र से पाँचवें, 'अग्निर्ज्योति०' मन्त्र से छठे, 'हिरण्यगर्भ०' मन्त्र से सातवें, 'यमाय०' मन्त्र से आठवें, 'यज्जाग्र०' मन्त्र से नवें, 'या फलिनी०' मन्त्र से दसवें तथा 'भद्रं कर्णेभिः०' मन्त्र से ग्यारहवें पिण्ड पर अर्घ्य प्रदान करके उनका विसर्जन करे ।

कृत्वैकादशदेवत्यं श्राद्धं कुर्यात्परेऽहनि ॥ ३० ॥

विप्रानावाहयेत्पञ्च चतुर्वेदविशारदान् ।

विद्याशीलगुणोपेतान्स्व कीयाञ्छीलसत्तमान् ।

अब्यङ्गान्सप्रशस्तांश्च न त्वर्ज्यान्कदाचन ॥ ३१ ॥

विष्णुः स्वर्णमयः कार्यो रुदस्ताम्रमयस्तथा ।

ब्रह्मा रूप्यमयस्तद्वद्यमो लोहमयो भवेत् ॥ ३२ ॥

सीसकं तु भवेत्प्रेतं त्वथ वा दर्भकं तथा ।

शन्नोदेवीति मन्त्रेण गोविन्दं पश्चिमे न्यसेत् ॥ ३३ ॥

अग्न आयाहीति रुद्रमुत्तरत्रैव विन्यसेत् ।

अग्निमीळेति मन्त्रेण पूर्वेणैव प्रजापतिम् ॥ ३४ ॥

इषेत्वोर्जोति मन्त्रेण दक्षिणे स्थापयेद्यमम् ।

मध्ये मण्डलकं कृत्वा स्थाप्यो दर्भमयो नरः ॥ ३५ ॥

एकादशदैवत्य श्राद्ध करके दूसरे दिन श्राद्ध आरम्भ करे । उस दिन चारों वेद के ज्ञाता, विद्याशील और सद्गुण सम्पन्न, वर्णाश्रम धर्मपालक, शीलवान्, श्रेष्ठ, अविकल अङ्गोंवाले प्रशस्त और कभी त्याज्य न होनेयोग्य उत्तम पाँच ब्राह्मणों का आवाहन करे । तदनन्तर सुवर्ण से विष्णु, ताम्र से रुद्र, चाँदी से ब्रह्मा, लोहे से यम, सीसा अथवा कुश से प्रेत की प्रतिमा बनवा करके 'शन्नोदेवी०' इस मन्त्र से विष्णुदेव को पश्चिम दिशा में, 'अग्न आयाहि०' मन्त्र से रुद्र को उत्तर दिशा में, 'अग्निमीळे०' मन्त्र से ब्रह्मा को पूर्व दिशा में, 'इषेत्वोर्जेत्वा०' मन्त्र से यम को दक्षिण दिशा में तथा मध्य में मण्डल बनाकर कुशमय नर स्थापित करना चाहिये ।

ब्रह्मा विष्णुस्तथा रुद्रो यमः प्रेतश्च पञ्चमः ।

पृथक्कुम्भे ततः स्थाप्याः पञ्चरत्नसमन्विताः ॥ ३६ ॥

वस्त्रयज्ञोपवीतानि पृथङ्मुद्रापराणि च ।

जपं कर्यात्पृथक्तत्र ब्रह्मादौ देवतासु च ॥ ३७ ॥

पञ्च श्राद्धानि कुर्वीत देवतानां यथाविधि ।

जलधारां ततो दद्यत्पीठेपीठे पृथक्पृथक् ॥ ३८ ॥

शङ्खे वा ताम्रपात्रे वा अलाभे मृन्मयेऽपि वा ।

तिलोदकं समादाय सर्वौषधिसमन्वितम् ॥ ३९ ॥

आसनोपानहौ च्छत्रं मुद्रिका च कमण्डलुः ।

भाजनं भाजनाधारं वस्त्राण्यष्टविधं पदम् ॥ ४० ॥

ताम्रपात्रं तिलैः पूर्णं सहिरण्यं सदक्षिणम् ।

दद्याद्ब्राह्मणमुख्याय विधियुक्तं खगेश्वर ॥ ४१ ॥

ऋग्वेदपारगे दद्याज्जातसस्यां वसुन्धराम् ।

यजुर्वेदमये विप्रे गाञ्च दद्यात्पयस्विनीम् ॥ ४२ ॥

सामगाय शिवोद्देशात्प्रदद्यात्कलधौतकम् ।

यमोद्देशात्तिलांल्लोहं ततो दद्याच्च दक्षिणाम् ॥ ४३ ॥

ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, यम और प्रेत- इन पाँचों के लिये पञ्चरत्नयुक्त कुम्भ अलग-अलग रखे। इन सभी देवताओं के लिये पृथक्-पृथक् रूप से वस्त्र, यज्ञोपवीत तथा मुद्रा प्रदान करे एवं पृथक् पृथक् तत्तन्मन्त्रों से उनका जप करे। उसके बाद यथाविधि देवों के निमित्त पाँच श्राद्ध करने चाहिये । तत्पश्चात् शङ्ख अथवा ताम्रपात्र या इनके अभाव में मिट्टी के पात्र में सर्वौषधि समन्वित तिलोदक लेकर पृथक्- पृथक् पीठ पर प्रदान करे। हे खगेश्वर ! आसन, पादुका, छत्र, अँगूठी, कमण्डलु, पात्र, भोजन- पदार्थ और वस्त्र - ये आठ पद माने गये हैं, इनके साथ ही स्वर्ण तथा दक्षिणा से युक्त एक तिलपूर्ण ताम्रपात्र विधिपूर्वक मुख्य ब्राह्मण को दान देना चाहिये। ऋग्वेद- पारंगत ब्राह्मण को हरी-भरी फसल से युक्त भूमि, यजुर्वेद - निष्णात ब्राह्मण को दूध देनेवाली गाय, शिव के उद्देश्य से सामवेद का गान करनेवाले ब्राह्मण को स्वर्ण, यम के उद्देश्य से तिल, लौह और दक्षिणा देनी चाहिये ।

पश्चात्पुत्तलकं कार्यं सर्वौषधिसमन्वितम् ।

पलाशस्य च वृन्तानां विभागं शृणु काश्यप ॥ ४४ ॥

कृष्णाजिनं समास्तीर्य कुशैश्च पुरुषाकृतिम् ।

शतत्रयेण षष्ट्या च वृन्तैः प्रोक्तोऽस्थिसञ्चयः ॥ ४५ ॥

विन्यस्य तानि वृन्तानि अङ्गेष्वेषु पृथक्पृथक् ।

चत्वारिंशच्छिरोदेशे ग्रीवायां दश विन्यसेत् ॥ ४६ ॥

विंशत्युरः स्थले दद्याद्विंशतिं जठरेऽपि च ।

बाहुयुग्मे शतं दद्यात्कटि देशे च विंशतिम् ॥ ४७ ॥

ऊरुद्वये शतञ्चापि त्रिंशज्जङ्घाद्वये न्यसेत् ।

दद्याच्चतुष्टयं शिश्ने षड्दद्याद्वृषणद्वये ।

दश पादाङ्गुलीभागे एवमस्थीनि विन्यसेत् ॥ ४८ ॥

नारिकेलं शिरः स्थाने तुम्बं दद्याच्च तालुके ।

पञ्चरत्नं मुखे दद्याज्जिह्वायां कदलीफलम् ॥ ४९ ॥

अन्त्रेषु नालकं दद्याद्बालकं प्राण एव च ।

वसायीं मेदकं दद्याद्गोमूत्रेण तु मूत्रकम् ॥ ५० ॥

गन्धकं धातवो देयो हरितालं मनः शिला ।

रेतः स्थाने पारदञ्च पुरीषे पित्तलं तथा ॥ ५१ ॥

मनः शिलां तथा गात्रे तिलकल्कञ्च सन्धिषु ।

यवपिष्टं तथा मांसे मधु वै क्षौद्रमेव च ॥ ५२ ॥

केशेषु वै वटजटा त्वचि दद्यान्मृगत्वचम् ।

कर्णयोस्तालपत्त्रञ्च स्तनयोश्चैव गुञ्जिकाः ॥ ५३ ॥

नासायां शतपत्त्रं च कमलं नाभिमण्डले ।

वृन्ताकं वृषणद्वन्द्वे लिङ्गे स्याद्गृञ्जनं शुभम् ॥ ५४ ॥

घृतं नाभ्यां प्रदेयं स्यात्कौपीने च त्रपु स्मृतम् ।

मौक्तिकं स्तनयोर्मूर्ध्नि कुङ्कुमेन विलेपनम् ॥ ५५ ॥

कर्पूरागुरुधूपैश्च शुभैर्माल्यैः सुगन्धिभिः ।

परिधानं पट्टसूत्रं हृदये रुक्मकं न्यसेत् ॥ ५६ ॥

ऋद्धिवृद्धी भुजौ द्वौ च चक्षुषोश्च कपर्दकौ ।

सिन्दूरं नेत्रकोणे च ताम्बूलाद्युपहारकैः ॥ ५७ ॥

सर्वौषधियुतं प्रेतं कृत्वा पूजा यथोदिता ।

साग्निके (कैश्चा) चापि विधिना यज्ञपात्रं न्यसेत्क्रमात् ॥ ५८ ॥

शिरोमे श्रीरिति ऋचा पुनन्तु वरुणेति च ।

प्रेतस्य पावनं कृत्वा शालिशालशिलोदकैः ॥ ५९ ॥

विष्णुमुद्दिश्य दातव्या सुशीलागौः पयस्विनी ॥ ६० ॥

(तिला लोहं हिरण्यं च कार्पासं लवणं तथा ।

सप्तधान्यं क्षितिर्गाव एकैकं पानं समृतम् ॥ ६१ ॥

तिलपात्रं ततो दत्त्वा पददानं तथैव च ॥ ६१*१ ॥

महादानानि देयानि तिलपात्रं तथेति च ।

ततो वैतरणी देया सर्वाभरणभूषिता ॥ ६२ ॥

सर्वौषधि से समन्वित कुश द्वारा निर्मित पुरुषाकृति पुत्तलक का निर्माण करके कृष्णाजिन को बिछाकर उसे स्थापित करे और पलाश का विभाग करके तीन सौ साठ वृन्तों से पुत्तलक की हड्डियों का निर्माण करे। यथाशिरोभाग में चालीस वृन्त, ग्रीवा में दस, वक्षःस्थल में बीस, उदर में बीस, दोनों भुजाओं में सौ, कटिप्रदेश में बीस, दोनों ऊरुओं में सौ, दोनों जंघाओं में तीस, शिश्न – स्थान में चार, दोनों अण्डकोशों में छः और पैर की अंगुलियों में दस वृन्तों से उस कल्पित प्रेत- पुरुष की अस्थियों का निर्माण करना चाहिये । तत्पश्चात् उसके शिरोभाग पर नारियल, तालुप्रदेश में लौकी, मुख में पञ्चरत्न, जिह्वाभाग में केला, आँतों के स्थान पर कमलनाल, प्राणभाग में बालू, वसा के स्थान पर मेदक नामक अर्क, मूत्र के स्थान पर गोमूत्र, धातुओं के स्थान में गन्धक, हरिताल एवं मनःशिला तथा वीर्यस्थान में पारद, पुरीष (मल)- के स्थान में पीतल, सम्पूर्ण शरीर में मनःशिल, संधिभागों में तिल की पीठी, मांसभाग में यव का आटा, मधु और मोम, केशराशि स्थान में बरगद की बरोह, त्वचाभाग में मृगचर्म, दोनों कर्णप्रदेश में तालपत्र, दोनों स्तनों के स्थान में गुंजाफल, नासिकाभाग में कमलपत्र, नाभिप्रदेश में  कमलपुष्प, दोनों अण्डकोशो के स्थान में बैगन, लिंगभाग में सुन्दर गाजर एवं नाभि में घी भरे । कौपीन के स्थान पर त्रपु, दोनों स्तनों में मुक्ताफल, सिर में कुंकुम का लेप, कर्पूर, अगुरु, धूप तथा सुगन्धित पुष्प-मालाओं का अलंकरण, परिधान के स्थान पर पट्टसूत्र और हृदयभाग में रजत-पत्र रखे। उसकी दोनों भुजाओं में ऋद्धि तथा वृद्धि इन दोनों सिद्धियों को संकल्पित करके यजमान दोनों नेत्रों में एक-एक कौड़ी भरे । तदनन्तर नेत्रों के कोणभाग में सिन्दूर भरकर उसको ताम्बूलादि विभिन्न उपहारों से सुशोभित करे । इस प्रकार नाना वस्तुओं से निर्मित और अलंकृत उस प्रेत को सर्वोषधि प्रदान करके जैसा कहा गया है, उसी के अनुसार उसकी पूजा करनी चाहिये। जो प्रेत अग्निहोत्र करनेवाला हो, उसको यथाविधि यज्ञपात्र भी देना आवश्यक है। उसके बाद 'शिरोमे श्री०' तथा 'पुनन्तु वरुण०' - इन मन्त्रों से अभिमन्त्रित जल के द्वारा शालग्राम शिला को धोकर यजमान उसी से प्रेत का पवित्रीकरण करे। तत्पश्चात् भगवान् विष्णु को प्रसन्न करने के लिये एक दूध देनेवाली सुशील गौ का दान किया जाय । तिल, लौह, स्वर्ण, रूई, नमक, सप्तधान्य, पृथ्वी और गौ एक-से-एक बढ़कर पुण्यदायक होते हैं। अतः गोदान करने के बाद यजमान तिलपात्र - दान और पद-दान एवं महादान दे। उसके बाद सभी अलंकारों से विभूषित वैतरणी धेनु का दान करे ।

कर्तव्यं वैष्णवं श्राद्धं प्रेतमुक्त्यर्थ मात्मवान् ।

प्रेतंमोक्षं ततः कुर्याद्धृदि विष्णुं प्रकल्प्य च ॥ ६३ ॥

ओं विष्णुरिति संस्मृत्य प्रेतं तन्मृत्युमेव च ।

अग्निदाहं ततः कुर्यात्सूतकन्तु दिनत्रयम् ॥ ६४ ॥

दशाहकर्त्रा पिण्डाश्च कर्तव्याः प्रेतभुक्तये ।

सर्वं वर्षविधिं कुर्यादेवं प्रेतश्च मुक्तिभाक् ॥ ६५ ॥

प्रेत की मुक्ति लिये इस अवसर पर आत्मवान्‌ को भगवान् विष्णु के निमित्त श्राद्ध करना चाहिये । तत्पश्चात् हृदय में भगवान् विष्णु का ध्यान करके प्रेतमोक्ष का कार्य करे। अतएव 'ॐ विष्णुरिति०'- इस मन्त्र से अभिमन्त्रित उस प्रकल्पित प्रेत- पुतले की मृत्यु मानकर उसका दाह संस्कार करे। तदनन्तर तीन दिन सूतक माने। दशाह कर्म करनेवाला यजमान इस बीच प्रेतमुक्ति के लिये पिण्डदान और सभी वार्षिक क्रियाओं को सम्पन्न करता है तो प्रेत अपनी मुक्ति का अधिकार प्राप्त कर लेता है ।

इति श्रीगारुडे महापुराणे उत्तरखण्डे द्वितीयांशे धर्मकाण्डे प्रेतकल्पे श्रीकृष्णगरुडसंवादेऽपमृत्यौ सुखदुः खलाभालाभनिरूपणं नाम चत्वारिंशत्तमोऽध्यायः॥

जारी-आगे पढ़े............... गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय 41 

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