श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय ४१
श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड
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प्रेतकल्प अध्याय ४१ वृषोत्सर्ग की संक्षिप्त विधि का वर्णन है।
श्रीगरुडमहापुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) एकचत्वारिंशत्तमोऽध्यायः
Garud mahapuran dharmakand pretakalpa chapter 41
श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड
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प्रेतकल्प इकचालीसवाँ अध्याय
गरुड महापुराण धर्मकाण्ड –
प्रेतकल्प अध्याय ४१
गरुड महापुराण धर्मकाण्ड –
प्रेतकल्प अध्याय ४१ का श्लोक हिन्दी अनुवाद सहित
गरुडपुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) अध्यायः
४१
श्रीविष्णुरुवाच ।
वृषोत्सर्गं प्रकुर्वीत विधिपूर्वं
खगेश्वर ।
कार्तिकादिषु मासेषु पौर्णमास्यां
शुभे दिने ॥ २,४१.१ ॥
विवाहोत्सर्जनं श्राद्धं
नान्दीमुखमुपक्रमेत् ।
श्रीविष्णु ने कहा- हे खगेश्वर !
कार्तिक आदि महीनों की पूर्णमासी तिथि को पड़नेवाले शुभ दिन पर विधिपूर्वक
वृषोत्सर्ग करना चाहिये। नान्दीमुख श्राद्ध करके वत्सतरी के साथ वृष का विवाह और
वृष के खुर के पास श्राद्ध करने के पश्चात् उन दोनों का उत्सर्ग करे ।
कुर्याद्भुवश्च
संस्कारानग्निस्थापनमेव च ॥ २,४१.२
॥
वाप्यां कूपे गवां गोष्ठे
स्थाप्याग्निं विधिवत्ततः ।
विवाहविधिना सर्वं
कुर्याद्ब्राह्मणवाचनम् ॥ २,४१.३
॥
पात्रासादनं श्रपणमुपयमनकुशादिकम् ।
पुर्युक्षणान्ते होमं च कर्या द्वै
ब्राह्मणेन तु ॥ २,४१.४ ॥
आघारावाज्यभागौ च चक्षुषी च प्रदा
पयेत् ।
प्रथमेऽहरिति मन्त्रेण होतव्याश्च
षडाहुतीः (तयः) ॥ २,४१.५ ॥
वापी और कूप के निर्माणोत्सर्ग के
समय गोशाला में विधिवत् संस्कार के अनन्तर अग्नि की स्थापना करनी चाहिये । * विवाह
विधि के समान ब्रह्मा- वरण करना चाहिये । यज्ञीय पात्रों की क्रमिक स्थापना,
पायस – खीर का पाक, उपयमन कुशादि का क्रमशः
स्थापन करे । यज्ञीय पात्रों का सिंचन करने के बाद होम करना चाहिये । प्रथम दो
आहुति आघार और उसके बाद दो आज्य भाग संज्ञक आहुतियाँ हैं। अत: 'प्रथमेऽहरिति०' मन्त्र से यजमान को छः आहुतियाँ
देनी चाहिये।
* काम्य और नैमित्तिक दो
प्रकार का वृषोत्सर्ग होता है।
काम्य में गणेशपूजन, नान्दीश्राद्ध आदि करके ही वृषोत्सर्ग किया जाता है।
मरणाशौच के ग्यारहवें दिन
किया जानेवाला वृषोत्सर्ग नैमित्तिक वृषोत्सर्ग है। इसमें नान्दीश्राद्ध नहीं किया
जाता।
आघारावाज्यभागौ तु पायसेनाङ्गदेवताः
।
अग्नये रुद्राय शर्वाय पशुपतये
उग्राय शिवाय ।
भवाय महादेवायेशानाय यमाय च ॥ २,४१.६ ॥
पिष्टकेन सकृद्धोमं पूषागा इति
मन्त्रतः ।
उभयोः स्विष्टिकूद्धोमश्चरुणा
पायसेन च ॥ २,४१.७ ॥
प्रथमं व्याहृतिहोमः प्रायश्चित्तं
प्रजापतिः ।
संस्त्रवप्राशनं
कुर्यात्प्रणीतापरिमोक्षणम् ॥ २,४१.८
॥
पवित्रप्रतिपत्तिश्च ब्राह्मणे
दक्षैणा ततः ।
षडङ्गरुद्रजाप्येन प्रोतो
मोक्षमवाप्नुयात् ॥ २,४१.९ ॥
आघार और आज्य-भाग संज्ञक चार
आहुतियों के अनन्तर अङ्गदेवता, अग्नि,
रुद्र, शर्व, पशुपति,
उग्र, शिव, भव, महादेव, ईशान और यम को आहुति दे । तत्पश्चात् 'पूषागा०' इस मन्त्र से एक पिष्टक होम, चरु तथा पायस दोनों से स्विष्टकृत् होम करे। तदनन्तर प्रथम व्याहृति होम,
प्रायश्चित्त होम, प्रजापति होम, संस्रव (अवशिष्ट जल) प्राशन करे। इसके बाद प्रणीता का परिमोक्षण करे।
पवित्र - प्रतिपत्ति (परित्याग) करके ब्राह्मण को दक्षिणा दे । षडङ्ग रुद्रसूक्त का
पाठ करने से प्रेत को मोक्ष की प्राप्ति होती है।
एकवर्णं वृषञ्चैव सकृद्वत्सतरीं खग
।
स्नापयित्वा ततः
कुर्यात्सर्वालङ्कारभूषितम् ॥ २,४१.१०
॥
प्रतिष्ठाप्य च तद्युग्मं प्रेतो
मोक्षमवाप्नुयात् ।
पुच्छेच तर्पणं कार्यमुच्छ्रिते मन्त्रपूर्वकम्
।
ब्राह्मणान्
भोजयेत्पश्चाद्दक्षिणाभिश्च तोषयेत् ॥ २,४१.११ ॥
एक रंग के वृष और एक वत्सतरी को
स्नान कराकर सभी अलंकारों से विभूषित करके उन दोनों को प्रतिष्ठापित करने से प्रेत
को मोक्ष प्राप्त होता है। इस कर्म के बाद वृषभ की पूँछ से गिरे हुए जल के द्वारा
मन्त्रपूर्वक तर्पण-कार्य करना चाहिये। उसके बाद ब्राह्मणों को भोजन से संतृप्त
करके दक्षिणा से संतुष्ट करे ।
ततः श्राद्धं
समुद्दिष्टमेकोद्दिष्टं यथाविधि ।
जलमन्नं तथा देयं प्रेतोद्धरणहेतवे
॥ २,४१.१२ ॥
द्वादशाहे ततः कुर्यान्मासेमासे
पृथक्पथक् ।
एवं विधिः समायुक्तः प्रेतमोक्षे
करोति हि ॥ २,४१.१३ ॥
तदनन्तर यथाविधि एकोद्दिष्ट श्राद्ध
करने का विधान है। उसे करके प्रेत के उद्धार हेतु ब्राह्मण को जल और अन्न का दान
दिया जाता है। उसके बाद द्वादशाह श्राद्ध और मासिक श्राद्ध पृथक्-पृथक् करने
चाहिये। इस विधि का सम्यक् पालन करनेवाला प्रेत को उस योनि से मुक्त कर देता है ।
इति श्रीगारुडे महापुराणे
उत्तरखण्डे द्वितीयांशे धर्मकाण्डे प्रेतकल्पे श्रीकृष्णगरुडसंवादे
वृषोत्सर्गनिरूपणं नामै कचत्वारिंशत्तमोऽध्यायः॥
जारी-आगे पढ़े............... गरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय 42
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