श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय ४२

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ४२ 

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ४२ भूमि तथा गोचर्म भूमि आदि दानों का माहात्म्य और ब्रह्मस्वहरण का दोष का वर्णन है।

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय ४२

श्रीगरुडमहापुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) द्विचत्वारिंशत्तमोऽध्यायः

Garud mahapuran dharmakand pretakalpa chapter 42

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प बयालीसवाँ अध्याय  

गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ४२                      

गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ४२ का श्लोक हिन्दी अनुवाद सहित

गरुडपुराणम्  प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) अध्यायः ४२                

श्रीविष्णुरुवाच ।

यथा धेनुसहस्रेषु वत्सो विन्दति मातरम् ।

तथा पूर्वकृतं कर्म कर्तारमनुगच्छति ॥ २,४२.१ ॥

श्रीविष्णु ने कहा- हे गरुड ! जिस प्रकार एक वत्स हजार गायों के बीच स्थित अपनी माता को प्राप्त कर लेता है, उसी प्रकार पूर्वजन्म में किया गया कर्म अपने कर्ता का अनुगमन करता है।

आदित्यो वरुणो विष्णुर्ब्रह्मा सोमो हुताशनः ।

शूलपाणिश्च भगवानभिनन्दति भूमिदम् ॥ २,४२.२ ॥

भूमिदान करनेवाले प्राणी का अभिनन्दन सूर्य-चन्द्र, वरुण, अग्नि, ब्रह्मा, विष्णु और भगवान् त्रिशूलधारी शिव करते हैं।

नास्ति भूमिसमं दानं नास्ति भूमिसमो निधिः ।

नास्ति सत्यसमो धर्मो नानृतात्पातकं परम् ॥ २,४२.३ ॥

इस संसार में भूमि के समान दान नहीं है। भूमि के समान दूसरी निधि नहीं है। सत्य के समान धर्म नहीं है और असत्य के समान पातक नहीं है।

अग्नेरपत्यं प्रथमं सुवर्णं भूर्वैष्णवी सूर्यसुताश्च गावः ।

लोकत्रयं तेन भवेत्प्रदत्तं यः काञ्चनं गां च महीं च दद्यात् ॥ २,४२.४ ॥

त्रीण्याहुरतिदानानि गावः पृथ्वी सरस्वती ।

नरकादुद्धरन्त्येते जपपूजनहोमतः ॥ २,४२.५ ॥

कृत्वा बहूनि पापानि रौद्राणि विपुलानि च ।

अपि गोचर्ममात्रेण भूमिदानेन शुध्यति ॥ २,४२.६ ॥

हरन्तमपि लोभेन निरुध्यैनं निवारयेत् ।

स याति नरके घोरे यस्तं न परिरक्षति ॥ २,४२.७ ॥

अग्नि का प्रथम पुत्र सुवर्ण है, पृथ्वी वैष्णवी कहलाती है तथा गाय सूर्य की पुत्री है। अतः जो व्यक्ति स्वर्ण, गौ एवं पृथ्वी का दान देता है, उसने मानो त्रैलोक्य का दान कर दिया। गौ, पृथ्वी और विद्या इन तीनों को अतिदान कहा गया है। जप- पूजन तथा होम करके दिये गये ये तीनों दान नरक से उद्धार करते हैं। बहुत-से पाप तथा क्रूर कर्म करके भी मनुष्य गोचर्म* भूमि का दान करने से शुद्ध हो जाता है । इस दान में दी हुई वस्तु को लोभवश हरण करनेवाले को हरण करने से रोकना चाहिये। जो उसका परिरक्षण नहीं करता है, वह घोर नरक में जाता है।

* गवां शतं सैकवृषं यत्र तिष्ठत्ययन्त्रितम् ।

तत्क्षेत्रं दशगुणितं गोचर्मपरिकीर्तितम् ॥ (पराशरस्मृति १२ । ४३)

अर्थात् जितने स्थान पर एक हजार गौएँ और दस बैल स्वतन्त्ररूप से घूम-फिर सकते हैं, उतना भूमिभाग गोचर्म कहलाता है।

अकर्तव्यं न कर्तव्यं प्राणैः कण्ठगतैरपि ।

कर्तव्यमेव कर्तव्यमिति धर्मविदो विदुः ॥ २,४२.८ ॥

आकारप्रवर्तने पापं गोसहस्रवधैःसमम् ।

वृत्तिच्छेदे तथा वृत्तेः करणं लक्षधेनुकम् ॥ २,४२.९ ॥

वरमेकाप्यपहृता न तु दत्तं गवां शतम् ।

एकां हृत्वा शतं दत्त्वा न तेन समता भवेत् ॥ २,४२.१० ॥

स्वयमेव तु यो दत्त्वा स्वयमेव प्रबाधते ।

स पापी नरकं याति यावदाभूतसंप्लवम् ॥ २,४२.११ ॥

प्राण भले ही कण्ठ में आ जायँ तो भी निषिद्ध कर्म नहीं करना चाहिये, कर्तव्य कर्म ही करना चाहिये ऐसा धर्माचार्यों ने कहा है । किसी की आजीविका को नष्ट करने पर हजार गौओं के वध के समान पाप लगता है तथा किसी जीविकारहित को आजीविका प्रदान करने पर लक्ष धेनु के दान का फल प्राप्त होता है । गो-हत्यारे आदि से एक गाय को छुड़ा लेना श्रेष्ठ है, उसकी तुलना में सौ गो-दान करना श्रेष्ठ नहीं है। सौ गो-दान करना गो-हत्यारे से एक गाय को बचा लेने की समता नहीं कर सकता। जो व्यक्ति स्वयं दान देकर स्वयं ही उसमें बाधक बन जाता है, वह प्रलयकालतक नरक का भोग करता है।

न चाश्वमेधेन तथा विधिवद्दक्षिणावता ।

अवृत्तिकर्शिते दीने ब्राह्मणे रक्षिते यथा ॥ २,४२.१२ ॥

न तद्भवति वेदेषु यज्ञे सुबहुदक्षिणे ।

यत्पुण्यं दुर्बले त्रस्ते ब्राह्मणे परिरक्षिते ॥ २,४२.१३ ॥

ब्रह्मस्वैश्च सुपुष्टानि वाहनानि बलानि च ।

युद्धकाले विशीर्यन्ते सैकताः सेतवो यथा ॥ २,४२.१४ ॥

स्वदत्तां परदत्तां वा यो हरेच्च वसुन्धराम् ।

षष्टिवर्षसहस्राणि विष्ठायां जायते कृमिः ॥ २,४२.१५ ॥

ब्रह्मस्वं प्रणयाद्भुक्तं दहत्यासप्तमं कुलम् ।

तदेव चौर्यरूपेण दहत्याचन्द्रतारकम् ॥ २,४२.१६ ॥

लोहचूर्णाश्मचूर्णानि कदाचिज्जरयेत्पुमान् ।

ब्रह्मस्वन्त्रिषु लोकेषु कः पुमाञ्जरयिष्यति ॥ २,४२.१७ ॥

जीविकारहित निर्धन ब्राह्मण की रक्षा करने पर जैसा पुण्य मनुष्य को प्राप्त होता है, वैसा पुण्य विधिवत्  दक्षिणासहित अश्वमेध यज्ञ करने पर भी सम्भव नहीं है। दुर्बल, त्रस्त ब्राह्मण की रक्षा करने में जो पुण्य है,वह वेदाध्ययन और प्रचुर दक्षिणा से युक्त यज्ञ करने पर नहीं है। बलात् अपहरण किये गये ब्राह्मणों के धन से पाले-पोसे तथा समृद्ध बनाये गये वाहन और सैन्य शक्तियाँ युद्धकाल में वैसे ही नष्ट हो जाती हैं जैसे बालू के द्वारा बनाये गये पुल विनष्ट हो जाते हैं। जो व्यक्ति स्वयं अथवा दूसरे के द्वारा दी हुई भूमि का अपहरण करता है, वह साठ हजार वर्षतक विष्ठा में कृमि होकर जन्म लेता है। प्रेम से जो ब्राह्मण का धन खाता है, वह अपने कुल की सात पीढ़ी को भस्म कर खाता है, वह अपने कुल की सात पीढ़ी को भस्म कर देता है । उसी ब्रह्मस्व का उपयोग यदि चोरी करके किया जाय तो जबतक चन्द्रमा और तारागणों की स्थिति रहती है, तबतक उसकी कुल परम्परा भस्म हो जाती है। पुरुष कदाचित् लोहे और पत्थर के चूर्ण को खाकर पचा सके, किंतु तीनों लोक में कौन ऐसा व्यक्ति है जो ब्राह्मण के धन को पचाने में समर्थ हो सकेगा ?

देवद्रव्यविनाशेन ब्रह्मस्वहरणेन च ।

कुलान्यकुलतां यान्ति ब्राह्मणातिक्रमेण च ॥ २,४२.१८ ॥

ब्राह्मणाति क्रमो नास्ति विप्रे विद्याविवर्जिते ।

ज्वलन्तमग्निमुत्सृज्य न हि भस्मनि हूयते ॥ २,४२.१९ ॥

देव – द्रव्य का विनाश करने से, ब्राह्मण के धन का हरण करने से और उसकी मर्यादा का उल्लंघन करने से प्राणियों के कुल निर्मूल हो जाते हैं। यदि ब्राह्मण विद्या से विवर्जित है तो आचार्यत्वादि के लिये वरण करने के सन्दर्भ में उसका परित्याग करना ब्राह्मणातिक्रमण नहीं है। जलती हुई आग को छोड़कर राख में हवन नहीं किया जाता है।

संक्रान्तौ यानि दानानि हव्यकव्यानि यानि च ।

सप्तकल्पक्षयं यावद्ददात्यर्कः पुनः पुनः ॥ २,४२.२० ॥

प्रतिग्रहाध्यापनयाजनेषु प्रतिग्रहं स्वेष्टतमं वदन्ति ।

प्रतिग्रहाच्छ्रुध्यति जाप्यहोमं न याजनं कर्म पुनन्ति वेदाः ॥ २,४२.२१ ॥

सदा जापी सदा होमी परपाकविवर्जितः ।

रत्नपूर्णामपि महीं प्रतिगृह्णन्न लिप्यते ॥ २,४२.२२ ॥

संक्रान्तिकाल में जो दान और हव्यकव्य दिये जाते हैं, वह सब सात कल्पों तक बार-बार सूर्य दानदाता को प्रदान करता है । प्रतिग्रह, अध्यापन और यज्ञ करवाने के कार्यों में विद्वान् प्रतिग्रह को ही अपना अभीष्टतम कहते हैं । प्रतिग्रह से जप- होम और कर्म शुद्ध होते हैं, याजन- कर्म को वेद पवित्र नहीं करते । निरन्तर जप एवं होम करनेवाला तथा इसके द्वारा बनाये गये भोजन को न करनेवाला ब्राह्मण रत्नों से परिव्याप्त पृथ्वी का प्रतिग्रह करके भी प्रतिग्रह के दोष से निर्लिप्त रहता है।

इति श्रीगारुडे महापुराणे उत्तरखण्डे द्वितीयांशे धर्मकाण्डे प्रेतकल्पे श्रीकृष्णगरुडसंवादे भूदानादिनिरूपणं नाम द्विचत्वारिंशतमोऽध्यायः॥

जारी-आगे पढ़े............... गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय 43 

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