श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय १०
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय
१० "देवासुर-संग्राम"
श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: दशम अध्याय:
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय
१०
श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ८ अध्यायः १०
श्रीमद्भागवत महापुराण आठवाँ स्कन्ध
दसवाँ अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय १० श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित
श्रीमद्भागवतम् –
अष्टमस्कन्धः
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
॥ दशमोऽध्यायः - १० ॥
श्रीशुक उवाच
इति दानवदैतेया नाविन्दन्नमृतं नृप
।
युक्ताः कर्मणि यत्ताश्च
वासुदेवपराङ्मुखाः ॥ १॥
साधयित्वामृतं राजन् पाययित्वा
स्वकान् सुरान् ।
पश्यतां सर्वभूतानां ययौ गरुडवाहनः
॥ २॥
सपत्नानां परामृद्धिं दृष्ट्वा ते
दितिनन्दनाः ।
अमृष्यमाणा उत्पेतुर्देवान्
प्रत्युद्यतायुधाः ॥ ३॥
ततः सुरगणाः सर्वे सुधया पीतयैधिताः
।
प्रतिसंयुयुधुः
शस्त्रैर्नारायणपदाश्रयाः ॥ ४॥
तत्र दैवासुरो नाम रणः परमदारुणः ।
रोधस्युदन्वतो राजंस्तुमुलो
रोमहर्षणः ॥ ५॥
तत्रान्योन्यं सपत्नास्ते
संरब्धमनसो रणे ।
समासाद्यासिभिर्बाणैर्निजघ्नुर्विविधायुधैः
॥ ६॥
शङ्खतूर्यमृदङ्गानां भेरीडमरिणां
महान् ।
हस्त्यश्वरथपत्तीनां नदतां
निःस्वनोऽभवत् ॥ ७॥
रथिनो रथिभिस्तत्र पत्तिभिः सह
पत्तयः ।
हया हयैरिभाश्चेभैः समसज्जन्त
संयुगे ॥ ८॥
उष्ट्रैः केचिदिभैः केचिदपरे
युयुधुः खरैः ।
केचिद्गौरमुखैरृक्षैर्द्वीपिभिर्हरिभिर्भटाः
॥ ९॥
गृध्रैः कङ्कैर्बकैरन्ये
श्येनभासैस्तिमिङ्गिलैः ।
शरभैर्महिषैः
खड्गैर्गोवृषैर्गवयारुणैः ॥ १०॥
शिवाभिराखुभिः केचित्कृकलासैः शशैर्नरैः
।
बस्तैरेके कृष्णसारैर्हंसैरन्ये च
सूकरैः ॥ ११॥
अन्ये जलस्थलखगैः
सत्त्वैर्विकृतविग्रहैः ।
सेनयोरुभयो राजन्
विविशुस्तेऽग्रतोऽग्रतः ॥ १२॥
चित्रध्वजपटै राजन्नातपत्रैः
सितामलैः ।
महाधनैर्वज्रदण्डैर्व्यजनैर्बार्हचामरैः
॥ १३॥
वातोद्धूतोत्तरोष्णीषैरर्चिर्भिर्वर्मभूषणैः
।
स्फुरद्भिर्विशदैः शस्त्रैः सुतरां
सूर्यरश्मिभिः ॥ १४॥
देवदानववीराणां ध्वजिन्यौ
पाण्डुनन्दन ।
रेजतुर्वीरमालाभिर्यादसामिव सागरौ ॥
१५॥
वैरोचनो बलिः सङ्ख्ये सोऽसुराणां
चमूपतिः ।
यानं वैहायसं नाम कामगं मयनिर्मितम्
॥ १६॥
सर्वसाङ्ग्रामिकोपेतं
सर्वाश्चर्यमयं प्रभो ।
अप्रतर्क्यमनिर्देश्यं
दृश्यमानमदर्शनम् ॥ १७॥
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;-
परीक्षित! यद्यपि दानवों और दैत्यों ने बड़ी सावधानी से समुद्र
मन्थन की चेष्टा की थी, फिर भी भगवान् से विमुख होने के कारण
उन्हें अमृत की प्रप्ति नहीं हुई।
राजन! भगवान् ने समुद्र को मथकर
अमृत निकाला और अपने निजजन देवताओं को पिला दिया। फिर सबके देखते-देखते वे गरुड़
पर सवार हुए और वहाँ से चले गये। जब दैत्यों ने देखा कि हमारे शत्रुओं को तो बड़ी
सफलता मिली, तब वे उनकी बढ़ती सह न सके।
उन्होंने तुरंत अपने हथियार उठाये और देवताओं पर धावा बोल दिया। इधर देवताओं ने एक
तो अमृत पीकर विशेष शक्ति प्राप्त कर ली थी और दूसरे उन्हें भगवान् के चरणकमलों का
आश्रय था ही। बस, वे भी अपने अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित हो
दैत्यों से भिड़ गये।
परीक्षित! क्षीरसागर के तट पर बड़ा
ही रोमांचकारी और अत्यन्त भयंकर संग्राम हुआ। देवता और दैत्यों की वह घमासान लड़ाई
ही ‘देवासुर संग्राम’ के नाम से कही जाती है। दोनों ही
एक-दूसरे के प्रबल शत्रु हो रहे थे, दोनों ही क्रोध से भरे
हुए थे। एक-दूसरे को आमने-सामने पाकर तलवार, बाण और अन्य
अनेकानेक अस्त्र-शस्त्रों से परस्पर चोट पहुँचाने लगे। उस समय लड़ाई में शंख,
तुरही, मृदंग, नगारे और
डमरू बड़े जोर से बजने लगे; हाथियों की चिग्घाड़, घोड़ों की हिनहिनाहट, रथों घरघराहट और पैदल सेना की
चिल्लाहट से बड़ा कोलाहल मच गया। रणभूमि में रथियों के साथ रथी, पैदल के साथ पैदल, घुड़सवारों के साथ घुड़सवार एवं
हाथी वालों के साथ हाथी वाले भिड़ गये। उसमें से कोई-कोई वीर ऊँटों पर, हाथियों पर और गधों पर चढ़कर लड़ रहे थे तो कोई-कोई गौरमृग, भालू, बाघ और सिंहों पर। कोई-कोई सैनिक गिद्ध,
कंक, बगुले, बाज और भास
पक्षियों पर चढ़े हुए थे तो बहुत-से तिमिंगिल मच्छ, शरभ,
भैंसे, गैड़ें, बैल,
नीलगाय और जंगली साँड़ों पर सवार थे। किसी-किसी ने सियारिन, चूहे, गिरगिट और खरहों पर ही सवारी कर ली थी तो
बहुत-से मनुष्य, बकरे, कृष्णसार मृग,
हंस और सूअरों पर चढ़े थे। इस प्रकार जल, स्थल
एवं आकाश में रहने वाले तथा देखने में भयंकर शरीर वाले बहुत-से प्राणियों पर चढ़कर
कई दैत्य दोनों सेनाओं में आगे-आगे घुस गये।
परीक्षित! उस समय रंग-बिरंगी
पताकाओं,
स्फटिक मणि के समान श्वेत निर्मल छत्रों, रत्नों
से जड़े हुए दण्ड वाले बहुमूल्य पंखों, मोरपंखों, चँवरों और वायु से उड़ते हुए दुपट्टों, पगड़ी,
कलँगी, कवच, आभूषण तथा
सूर्य की किरणों से अत्यन्त दमकते हुए उज्ज्वल शस्त्रों एवं वीरों की पंक्तियों के
कारण देवता और असुरों की सेनाएँ ऐसी शोभायमान हो रही थीं, मानो
जल-जन्तुओं से भरे हुए दो महासागर लहरा रहे हों। परीक्षित! रणभूमि में दैत्यों के
सेनापति विरोचनपुत्र बलि मय दानव के बनाये हुए वैहायस नामक विमान पर सवार हुए। वह
विमान चलाने वाले की जहाँ इच्छा होती थी, वहीं चला जाता था।
युद्ध की समस्त सामग्रियाँ उसमें सुसज्जित थीं। परीक्षित! वह इतना आश्चर्यमय था कि
कभी दिखलायी पड़ता तो कभी अदृश्य हो जाता। वह इस समय कहाँ है-जब इस बात का अनुमान
भी नहीं किया जा सकता था, तब बतलाया तो कैसे जा सकता था।
आस्थितस्तद्विमानाग्र्यं
सर्वानीकाधिपैर्वृतः ।
वालव्यजनछत्राग्र्यै रेजे चन्द्र
इवोदये ॥ १८॥
तस्यासन् सर्वतो यानैर्यूथानां
पतयोऽसुराः ।
नमुचिः शम्बरो बाणो
विप्रचित्तिरयोमुखः ॥ १९॥
द्विमूर्धा कालनाभोऽथ
प्रहेतिर्हेतिरिल्वलः ।
शकुनिर्भूतसन्तापो वज्रदंष्ट्रो
विरोचनः ॥ २०॥
हयग्रीवः शङ्कुशिराः कपिलो
मेघदुन्दुभिः ।
तारकश्चक्रदृक् शुम्भो निशुम्भो
जम्भ उत्कलः ॥ २१॥
अरिष्टोऽरिष्टनेमिश्च मयश्च त्रिपुराधिपः
।
अन्ये पौलोमकालेया निवातकवचादयः ॥
२२॥
अलब्धभागाः सोमस्य केवलं
क्लेशभागिनः ।
सर्व एते रणमुखे बहुशो निर्जितामराः
॥ २३॥
सिंहनादान् विमुञ्चन्तः शङ्खान्
दध्मुर्महारवान् ।
दृष्ट्वा सपत्नानुत्सिक्तान्
बलभित्कुपितो भृशम् ॥ २४॥
ऐरावतं दिक्करिणमारूढः शुशुभे
स्वराट् ।
यथा
स्रवत्प्रस्रवणमुदयाद्रिमहर्पतिः ॥ २५॥
तस्यासन् सर्वतो देवा
नानावाहध्वजायुधाः ।
लोकपालाः सह गणैर्वाय्वग्निवरुणादयः
॥ २६॥
तेऽन्योन्यमभिसंसृत्य क्षिपन्तो
मर्मभिर्मिथः ।
आह्वयन्तो विशन्तोऽग्रे
युयुधुर्द्वन्द्वयोधिनः ॥ २७॥
युयोध बलिरिन्द्रेण तारकेण
गुहोऽस्यत ।
वरुणो हेतिनायुध्यन्मित्रो राजन्
प्रहेतिना ॥ २८॥
यमस्तु कालनाभेन विश्वकर्मा मयेन वै
।
शम्बरो युयुधे त्वष्ट्रा सवित्रा तु
विरोचनः ॥ २९॥
अपराजितेन नमुचिरश्विनौ वृषपर्वणा ।
सूर्यो बलिसुतैर्देवो बाणज्येष्ठैः
शतेन च ॥ ३०॥
राहुणा च तथा सोमः पुलोम्ना
युयुधेऽनिलः ।
निशुम्भशुम्भयोर्देवी भद्रकाली
तरस्विनी ॥ ३१॥
वृषाकपिस्तु जम्भेन महिषेण विभावसुः
।
इल्वलः सह
वातापिर्ब्रह्मपुत्रैररिन्दम ॥ ३२॥
कामदेवेन दुर्मर्ष उत्कलो मातृभिः
सह ।
बृहस्पतिश्चोशनसा नरकेण शनैश्चरः ॥
३३॥
मरुतो निवातकवचैः कालेयैर्वसवोऽमराः
।
विश्वेदेवास्तु पौलोमै रुद्राः
क्रोधवशैः सह ॥ ३४॥
त एवमाजावसुराः सुरेन्द्राः
द्वन्द्वेन संहत्य च युध्यमानाः ।
अन्योन्यमासाद्य निजघ्नुरोजसा
जिगीषवस्तीक्ष्णशरासितोमरैः ॥ ३५॥
भुशुण्डिभिश्चक्रगदर्ष्टिपट्टिशैः
शक्त्युल्मुकैः प्रासपरश्वधैरपि ।
निस्त्रिंशभल्लैः परिघैः समुद्गरैः
सभिन्दिपालैश्च शिरांसि चिच्छिदुः ॥
३६॥
गजास्तुरङ्गाः सरथाः पदातयः
सारोहवाहा विविधा विखण्डिताः ।
निकृत्तबाहूरुशिरोधराङ्घ्रय-
श्छिन्नध्वजेष्वासतनुत्रभूषणाः ॥
३७॥
उसी श्रेष्ठ विमान पर राजा बलि सवार
थे। सभी बड़े-बड़े सेनापति उनको चारों ओर से घेरे हुए थे। उन पर श्रेष्ठ चमर
डुलाये जा रहे थे और छत्र तना हुआ था। उस समय बलि ऐसे जान पड़ते थे,
जैसे उदयाचल पर चन्द्रमा। उनके चारों ओर अपने-अपने विमानों पर सेना
की छोटी-छोटी टुकड़ियों के स्वामी नमुचि, शम्बर, बाण, विप्रचित्ति, अयोमुख,
द्विमूर्धा, कालनाभ, प्रहेति,
हेति, इल्वल, शकुनि,
भूतसन्ताप, वज्रद्रन्ष्ट्र, विरोचन, हयग्रीव, शंकुशिरा,
कपिल, मेघदुन्दुभि, तारक,
चक्राक्ष शुम्भ, निशुम्भ, जम्भ, उत्कल, अरिष्ट, अरिष्टनेमि, त्रिपुराधिपति मय, पौलोम कालेय और निवातकवच आदि स्थित थे। ये सब-के-सब समुद्र मन्थन में
सम्मिलित थे। परन्तु इन्हें अमृत का भाग नहीं मिला, केवल
क्लेश ही हाथ लगा था। इन सब असुरों ने एक नहीं, अनेक बार
युद्ध में देवताओं को पराजित किया था। इसलिये वे बड़े उत्साह से सिंहनाद करते हुए
अपने घोर स्वर वाले शंख बजाने लगे।
इन्द्र ने देखा कि हमारे शत्रुओं का
मन बढ़ रहा है, ये मदोन्मत्त हो रहे हैं;
तब उन्हें बड़ा क्रोध आया। वे अपने वाहन ऐरावत नामक दिग्गज पर सवार
हुए। उसके कपोलों से मद बह रहा था। इसलिये इन्द्र की शोभा हुई, मानो भगवान् सूर्य उदयाचल पर आरूढ़ हों और उससे अनेकों झरने बह रहे हों।
इन्द्र के चारों ओर अपने-अपने वाहन, ध्वजा और आयुधों से
युक्त देवगण एवं अपने-अपने गणों के साथ वायु, अग्नि, वरुण आदि लोकपाल हो लिये। दोनों सेनाएँ आमने-सामने खड़ी हो गयीं। दो-दो की
जोड़ियाँ बनाकर वे लोग लड़ने लगे। कोई आगे बढ़ रहा था, तो
कोई नाम ले-लेकर ललकार रहा था। कोई-कोई मर्मभेदी वचनों के द्वारा अपने
प्रतिद्वन्दी को धिक्कार रहा था।
बलि इन्द्र से,
स्वामि कार्तिक तारकासुर से, वरुण हेति से और
मित्र प्रहेति से भिड़ गये। यमराज कालनाभ से, विश्वकर्मा मय
से, शम्बरासुर त्वष्टा से तथा सविता विरोचन से लड़ने लगे।
नमुचि अपराजित से, अश्विनीकुमार वृषपर्वा से तथा सूर्यदेव
बलि के बाण आदि सौ पुत्रों से युद्ध करने लगे। राहु के साथ चन्द्रमा और पुलोमा के
साथ वायु के युद्ध हुआ। भद्रकाली देवी निशुम्भ और शुम्भ पर झपट पड़ीं।
परीक्षित! जम्भासुर से महादेव जी की,
महिषासुर से अग्निदेव की वातापि तथा इल्वल से ब्रह्मा के पुत्र
मरीचि आदि की ठन गयी। दुर्मर्ष की कामदेव से, उत्कल की
मातृगणों से, शुक्राचार्य की बृहस्पति से और नरकासुर की
शनैश्चर से लड़ाई होने लगी। निवात कवचों के साथ मरुद्गण, कालेयों
के साथ वसुगण, पौलोमों के साथ विश्वेदेवगण तथा क्रोधावशों के
साथ रुद्रगण का संग्राम होने लगा।
इस प्रकार असुर और देवता रणभूमि में
द्वन्द युद्ध और सामूहिक आक्रमण द्वारा एक-दूसरे से भिड़कर परस्पर विजय की इच्छा
से उत्साहपूर्वक तीखे बाण, तलवार और भालों से
प्रहार करने लगे। वे तरह-तरह से युद्ध कर रहे थे। भुशुण्डि, चक्र,
गदा, ऋष्टि, पट्टिश,
शक्ति, उल्मुक, प्रास,
फरसा, तलवार, भाले,
मुद्गर, परिघ और भिन्दिपाल से एक-दूसरे का सिर
काटने लगे। उस समय अपने सवारों के साथ हाथी, घोड़े, रथ आदि अनेकों प्रकार के वाहन और पैदल सेना छिन्न-भिन्न होने लगी। किसी की
भुजा, किसी की जंघा, किसी की गरदन और
किसी के पैर कट गये तो किसी-किसी की ध्वजा, धनुष, कवच और आभूषण ही टुकड़े-टुकड़े हो गये।
तेषां पदाघातरथाङ्गचूर्णिता-
दायोधनादुल्बण उत्थितस्तदा ।
रेणुर्दिशः खं द्युमणिं च छादयन्
न्यवर्ततासृक्स्रुतिभिः परिप्लुतात्
॥ ३८॥
शिरोभिरुद्धूतकिरीटकुण्डलैः
संरम्भदृग्भिः परिदष्टदच्छदैः ।
महाभुजैः साभरणैः सहायुधैः
सा प्रास्तृता भूः करभोरुभिर्बभौ ॥
३९॥
कबन्धास्तत्र चोत्पेतुः
पतितस्वशिरोऽक्षिभिः ।
उद्यतायुधदोर्दण्डैराधावन्तो भटान्
मृधे ॥ ४०॥
बलिर्महेन्द्रं दशभिस्त्रिभिरैरावतं
शरैः ।
चतुर्भिश्चतुरो वाहानेकेनारोहमार्च्छयत्
॥ ४१॥
स तानापततः शक्रस्तावद्भिः
शीघ्रविक्रमः ।
चिच्छेद
निशितैर्भल्लैरसम्प्राप्तान् हसन्निव ॥ ४२॥
तस्य कर्मोत्तमं वीक्ष्य दुर्मर्षः
शक्तिमाददे ।
तां ज्वलन्तीं महोल्काभां
हस्तस्थामच्छिनद्धरिः ॥ ४३॥
ततः शूलं ततः प्रासं
ततस्तोमरमृष्टयः ।
यद्यच्छस्त्रं समादद्यात्सर्वं
तदच्छिनद्विभुः ॥ ४४॥
ससर्जाथासुरीं
मायामन्तर्धानगतोऽसुरः ।
ततः प्रादुरभूच्छैलः सुरानीकोपरि
प्रभो ॥ ४५॥
ततो निपेतुस्तरवो दह्यमाना
दवाग्निना ।
शिलाः सटङ्कशिखराश्चूर्णयन्त्यो
द्विषद्बलम् ॥ ४६॥
महोरगाः समुत्पेतुर्दन्दशूकाः
सवृश्चिकाः ।
सिंहव्याघ्रवराहाश्च मर्दयन्तो
महागजान् ॥ ४७॥
यातुधान्यश्च शतशः शूलहस्ता विवाससः
।
छिन्धि भिन्धीति वादिन्यस्तथा
रक्षोगणाः प्रभो ॥ ४८॥
ततो महाघना व्योम्नि
गम्भीरपरुषस्वनाः ।
अङ्गारान् मुमुचुर्वातैराहताः
स्तनयित्नवः ॥ ४९॥
सृष्टो दैत्येन सुमहान् वह्निः
श्वसनसारथिः ।
सांवर्तक इवात्युग्रो
विबुधध्वजिनीमधाक् ॥ ५०॥
ततः समुद्र उद्वेलः सर्वतः
प्रत्यदृश्यत ।
प्रचण्डवातैरुद्धूततरङ्गावर्तभीषणः
॥ ५१॥
एवं
दैत्यैर्महामायैरलक्ष्यगतिभीषणैः ।
सृज्यमानासु मायासु विषेदुः
सुरसैनिकाः ॥ ५२॥
न तत्प्रतिविधिं यत्र
विदुरिन्द्रादयो नृप ।
ध्यातः प्रादुरभूत्तत्र भगवान्
विश्वभावनः ॥ ५३॥
ततः सुपर्णांसकृताङ्घ्रिपल्लवः
पिशङ्गवासा नवकञ्जलोचनः ।
अदृश्यताष्टायुधबाहुरुल्लस-
च्छ्रीकौस्तुभानर्घ्यकिरीटकुण्डलः ॥
५४॥
तस्मिन् प्रविष्टेऽसुरकूटकर्मजा
माया विनेशुर्महिना महीयसः ।
स्वप्नो यथा हि प्रतिबोध आगते
हरिस्मृतिः सर्वविपद्विमोक्षणम् ॥
५५॥
दृष्ट्वा मृधे गरुडवाहमिभारिवाह
आविध्य शूलमहिनोदथ कालनेमिः ।
तल्लीलया गरुडमूर्ध्नि पतद्गृहीत्वा
तेनाहनन्नृप सवाहमरिं त्र्यधीशः ॥
५६॥
माली सुमाल्यतिबलौ युधि पेततुर्य-
च्चक्रेण कृत्तशिरसावथ
माल्यवांस्तम् ।
आहत्य तिग्मगदयाहनदण्डजेन्द्रं
तावच्छिरोऽच्छिनदरेर्नदतोऽरिणाद्यः
॥ ५७॥
उनके चरणों की धमक और रथ के पहियों
की रगड़ से पृथ्वी खुद गयी। उस समय रणभूमि से ऐसी प्रचण्ड धूल उठी कि उसने दिशा,
आकाश और सूर्य को भी ढक दिया। परन्तु थोड़ी ही देर में खून की धारा
से भूमि आप्लावित हो गयी और कहीं धूल का नाम भी न रहा।
तदनन्तर लड़ाई का मैदान कटे हुए
सिरों से भर गया। किसी के मुकुट और कुण्डल गिर गये थे,
तो किसी की आँखों से क्रोध की मुद्रा प्रकट हो रही थी। किसी-किसी ने
अपने दाँतों से होंठ दबा रखा था। बहुतों की आभूषणों और शस्त्रों से सुसज्जित लंबी-लंबी
भुजाएँ कटकर गिरी हुई थीं और बहुतों की मोटी-मोटी जाँघें कटी हुई पड़ी थीं। इस
प्रकार वह रणभूमि बड़ी भीषण दीख रही थी। तब वहाँ बहुत-से धड़ अपने कटकर गिरे हुए
सिरों के नेत्रों से देखकर हाथों में हथियार उठा वीरों की ओर दौड़ने और उछलने लगे।
राजा बलि ने दस बाण इन्द्र पर,
तीन उनके वाहन ऐरावत पर, चार ऐरावत के चार
चरण-रक्षकों पर और एक मुख्य महावत पर-इस प्रकार कुल अठारह बाण छोड़े। इन्द्र ने
देखा कि बलि के बाण तो हमें घायल करना ही चाहते हैं। तब उन्होंने बड़ी फुर्ती से
उतने ही तीखे भल्ल नामक बाणों से उनको वहाँ तक पहुँचने के पहले ही हँसते-हँसते काट
डाला। इन्द्र की यह प्रशंसनीय फुर्ती देखकर राजा बलि और भी चिढ़ गये। उन्होंने एक
बहुत बड़ी शक्ति, जो बड़े भारी लूके के समान जल रही थी,
उठायी। किन्तु अभी वह उनके हाथ में ही थी-छूटने नहीं पायी थी कि
इन्द्र ने उसे भी काट डाला। इसके बाद बलि ने एक के पीछे के एक क्रमशः शूल, प्रास, तोमर और शक्ति उठायी। परन्तु वे जो-जो शस्त्र
हाथ में उठाते, इन्द्र उन्हें टुकड़े-टुकड़े कर डालते। इस
हस्तलाघव से इन्द्र का ऐश्वर्य और भी चमक उठा।
परीक्षित! अब इन्द्र की फुर्ती से
घबराकर पहले तो बलि अन्तर्धान हो गये, फिर
उन्होंने आसुरि माया की सृष्टि की। तुरंत ही देवताओं की सेना के ऊपर एक पर्वत
प्रकट हुआ। उस पर्वत से दावाग्नि से जलते हुए वृक्ष और टाँकी-जैसी तीखी धार वाले
शिखरों के साथ नुकीली शिलाएँ गिरने लगीं। इससे देवताओं की सेना चकनाचूर होने लगी।
तत्पश्चात् बड़े-बड़े साँप, दन्दशूक, बिच्छू
और अन्य विषैले जीव उछल-उछलकर काटने और डंक मारने लगे। सिंह, बाघ और सूअर देवसेना के बड़े-बड़े हाथियों को फाड़ने लगे। परीक्षित! हाथों
में शूल लिये ‘मारो-काटो’ इस प्रकार
चिल्लाती हुई सैकड़ों नंग-धड़ंग राक्षसियाँ और राक्षस भी वहाँ प्रकट हो गये। कुछ
ही क्षण बाद आकाश में बादलों की घनघोर घटाएँ मँडराने लगीं, उनके
आपस में टकराने से बड़ी गहरी और कठोर गर्जना होने लगी, बिजलियाँ
चमकने लगीं और आँधी के झकझोरने से बादल अंगारों की वर्षा करने लगे।
दैत्यराज बलि ने प्रलय की अग्नि के
समान बड़ी भयानक आग की सृष्टि की। वह बात-की-बात में वायु की सहायता से देवसेना को
जलाने लगी। थोड़ी ही देर में ऐसा जान पड़ा कि प्रबल आँधी के थपेड़ों से समुद्र में
बड़ी-बड़ी लहरें और भयानक भँवर उठ रहे हैं और वह अपनी मर्यादा छोड़कर चारों ओर से
देवसेना को घेरता हुआ उमड़ा आ रहा है। इस प्रकार जब उन भयानक असुरों ने बहुत बड़ी
माया की सृष्टि की और स्वयं अपनी माया के प्रभाव से छिपे रहे-न दीखने के कारण उन
पर प्रहार भी नहीं किया जा सकता था। तब देवताओं के सैनिक बहुत दुःखी हो गये।
परीक्षित! इन्द्र आदि देवताओं ने उनकी माया का प्रतीकार करने के लिये बहुत कुछ
सोचा-विचारा, परन्तु उन्हें कुछ न सूझा। तब
उन्होंने विश्व के जीवनदाता भगवान् का ध्यान किया और ध्यान करते ही वे वहीं प्रकट
हो गये। बड़ी ही सुन्दर झाँकी थी। गरुड़ के कंधे पर उनके चरणकमल विराजमान थे। नवीन
कमल के समान बड़े ही कोमल नेत्र थे। पीताम्बर धारण किये हुए थे। आठ भुजाओं में आठ
आयुध, गले में कौस्तुभ मणि, मस्तक पर
अमूल्य मुकुट एवं कानों में कुण्डल झलमला रहे थे। देवताओं ने अपने नेत्रों से
भगवान् की इस छबि का दर्शन किया।
परमपुरुष परमात्मा के प्रकट होते ही
उनके प्रभाव से असुरों की वह कपटभरी माया विलीन हो गयी-ठीक वैसे ही जैसे जग जाने
पर स्वप्न की वस्तुओं का पता नहीं चलता। ठीक ही है, भगवान् की स्मृति समस्त विपत्तियों से मुक्त कर देती है। इसके बाद कालनेमि
दैत्य ने देखा कि लड़ाई के मैदान में गरुड़वाहन भगवान् आ गये हैं, तब उसने अपने सिंह पर बैठे-ही-बैठे वेग से उनके ऊपर एक त्रिशूल चलाया। वह
गरुड़ के सिर पर लगने वाला ही था कि खेल-खेल में भगवान् ने उसे पकड़ लिया और उसी
त्रिशूल से उसके चलाने वले कालनेमि दैत्य तथा उसके वाहन को मार डाला। माली और
सुमाली-दो दैत्य बड़े बलवान् थे, भगवान् ने युद्ध में अपने
चक्र से उनके सिर भी काट डाले और वे निर्जीव होकर गिर पड़े। तदनन्तर माल्यवान् ने
अपनी प्रचण्ड गदा से गरुड़ पर बड़े वेग के साथ प्रहार किया। परन्तु गर्जना करते
हुए माल्यवान् के प्रहार करते-न-करते ही भगवान् ने चक्र से उनके सिर को भी धड़ से
अलग कर दिया।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे
पारमहंस्यां संहितायां अष्टमस्कन्धे देवासुरसङ्ग्रामे दशमोऽध्यायः ॥ १०॥
जारी-आगे पढ़े............... अष्टम स्कन्ध: एकादशोऽध्यायः
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