श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय ११

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय ११                                         

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय ११ "देवासुर-संग्राम की समाप्ति"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय ११

श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: एकादश अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय ११                                                             

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ८ अध्यायः ११                                                                

श्रीमद्भागवत महापुराण आठवाँ स्कन्ध ग्यारहवाँ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय ११ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीमद्भागवतम् अष्टमस्कन्धः

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ एकादशोऽध्यायः - ११ ॥

श्रीशुक उवाच

अथो सुराः प्रत्युपलब्धचेतसः

परस्य पुंसः परयानुकम्पया ।

जघ्नुर्भृशं शक्रसमीरणादय-

स्तांस्तान् रणे यैरभिसंहताः पुरा ॥ १॥

वैरोचनाय संरब्धो भगवान् पाकशासनः ।

उदयच्छद्यदा वज्रं प्रजा हा हेति चुक्रुशुः ॥ २॥

वज्रपाणिस्तमाहेदं तिरस्कृत्य पुरःस्थितम् ।

मनस्विनं सुसम्पन्नं विचरन्तं महामृधे ॥ ३॥

नटवन्मूढ मायाभिर्मायेशान् नो जिगीषसि ।

जित्वा बालान् निबद्धाक्षान् नटो हरति तद्धनम् ॥ ४॥

आरुरुक्षन्ति मायाभिरुत्सिसृप्सन्ति ये दिवम् ।

तान् दस्यून् विधुनोम्यज्ञान् पूर्वस्माच्च पदादधः ॥ ५॥

सोऽहं दुर्मायिनस्तेऽद्य वज्रेण शतपर्वणा ।

शिरो हरिष्ये मन्दात्मन्घटस्व ज्ञातिभिः सह ॥ ६॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! परम पुरुष भगवान् की अहैतुकी कृपा से देवताओं की घबराहट जाती रही, उनमें नवीन उत्साह का संचार हो गया। पहले इन्द्र, वायु और देवगण रणभूमि में जिन-जिन दैत्यों से आहत हुए थे, उन्हीं के ऊपर अब वे पूरी शक्ति से प्रहार करने लगे। परम ऐश्वर्यशाली इन्द्र ने बलि से लड़ते-लड़ते जब उन पर क्रोध करके वज्र उठाया तब सारी प्रजा में हाहाकार मच गया। बलि अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित होकर बड़े उत्साह से युद्ध भूमि में बड़ी निर्भयता से डटकर विचर रहे थे। उनको अपने सामने ही देखकर हाथ में वज्र लिये हुए इन्द्र ने उनका तिरस्कार करके कहा- मूर्ख! जैसे नट बच्चों की आँखें बाँधकर अपने जादू से उनका धन ऐंठ लेता है, वैसे ही तू माया की चालों से हम पर विजय प्राप्त करना चाहता है। तुझे पता नहीं कि हम लोग माया के स्वामी हैं, वह हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकती। जो मूर्ख माया के द्वारा स्वर्ग पर अधिकार करना चाहते हैं और उसको लाँघकर ऊपर के लोकों में भी धाक जमाना चाहते हैं-उन लुटेरे मूर्खों को मैं उनके पहले स्थान से भी नीचे पटक देता हूँ। नासमझ! तूने माया की बड़ी-बड़ी चालें चली है। देख, आज मैं अपने सौ धार वाले वज्र से तेरा सिर धड़ से अलग किये देता हूँ। तू अपने भाई-बन्धुओं के साथ जो कुछ कर सकता हो, करके देख ले

बलिरुवाच

सङ्ग्रामे वर्तमानानां कालचोदितकर्मणाम् ।

कीर्तिर्जयोऽजयो मृत्युः सर्वेषां स्युरनुक्रमात् ॥ ७॥

तदिदं कालरशनं जनाः पश्यन्ति सूरयः ।

न हृष्यन्ति न शोचन्ति तत्र यूयमपण्डिताः ॥ ८॥

न वयं मन्यमानानामात्मानं तत्र साधनम् ।

गिरो वः साधुशोच्यानां गृह्णीमो मर्मताडनाः ॥ ९॥

बलि ने कहा ;- इन्द्र! जो लोग काल शक्ति की प्रेरणा से अपने कर्म के अनुसार युद्ध करते हैं-उन्हें जीत या हार, यश या अपयश अथवा मृत्यु मिलती ही है। इसी से ज्ञानीजन इस जगत् को काल के अधीन समझकर न तो विजय होने पर हर्ष से फूल उठते हैं और न तो अपकीर्ति, हार अथवा म्रत्यु से शोक के ही वशीभूत होते हैं। तुम लोग इस तत्त्व से अनभिज्ञ हो। तुम लोग अपने को जय-पराजय आदि का कारण-कर्ता मानते हो, इसलिये महात्माओं की दृष्टि से तुम शोचनीय हो। हम तुम्हारे मर्मस्पर्शी वचन को स्वीकार ही नहीं करते, फिर हमें दुःख क्यों होने लगा?

श्रीशुक उवाच

इत्याक्षिप्य विभुं वीरो नाराचैर्वीरमर्दनः ।

आकर्णपूर्णैरहनदाक्षेपैराहतं पुनः ॥ १०॥

एवं निराकृतो देवो वैरिणा तथ्यवादिना ।

नामृष्यत्तदधिक्षेपं तोत्राहत इव द्विपः ॥ ११॥

प्राहरत्कुलिशं तस्मा अमोघं परमर्दनः ।

सयानो न्यपतद्भूमौ छिन्नपक्ष इवाचलः ॥ १२॥

सखायं पतितं दृष्ट्वा जम्भो बलिसखः सुहृत् ।

अभ्ययात्सौहृदं सख्युर्हतस्यापि समाचरन् ॥ १३॥

स सिंहवाह आसाद्य गदामुद्यम्य रंहसा ।

जत्रावताडयच्छक्रं गजं च सुमहाबलः ॥ १४॥

गदाप्रहारव्यथितो भृशं विह्वलितो गजः ।

जानुभ्यां धरणीं स्पृष्ट्वा कश्मलं परमं ययौ ॥ १५॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- वीर बलि ने इन्द्र को इस प्रकार फटकारा। बलि की फटकार से इन्द्र कुछ झेंप गये। तब तक वीरों का मान-मर्दन करने वाले बलि ने अपने धनुष को कान तक खींच-खींचकर बहुत-से बाण मारे। सत्यवादी देवशत्रु बलि ने इस प्रकार इन्द्र का अत्यन्त तिरस्कार किया। अब तो इन्द्र अंकुश से मारे हुए हाथी की तरह और भी चिढ़ गये। बलि का आपेक्ष वे सहन न कर सके। शत्रुघाती इन्द्र ने बलि पर अपने अमोघ वज्र का प्रहार किया। उसकी चोट से बलि पंख कटे हुए पर्वत के समान अपने विमान के साथ पृथ्वी पर गिर पड़े।

बलि का एक बड़ा हितैषी और घनिष्ठ मित्र जम्भासुर था। अपने मित्र के गिर जाने पर भी उनको मारने का बदला लेने के लिये वह इन्द्र के सामने आ खड़ा हुआ। सिंह पर चढ़कर वह इन्द्र के पास पहुँच गया और बड़े वेग से अपनी गदा उठाकर उनके जत्रुस्थान (हँसली) पर प्रहार किया। साथ ही उस महाबली ने ऐरावत पर भी एक गदा जमायी। गदा की चोट से ऐरावत को बड़ी पीड़ा हुई, उसने व्याकुलता से घुटने टेक दिये और फिर मुर्च्छित हो गया।

ततो रथो मातलिना हरिभिर्दशशतैर्वृतः ।

आनीतो द्विपमुत्सृज्य रथमारुरुहे विभुः ॥ १६॥

तस्य तत्पूजयन् कर्म यन्तुर्दानवसत्तमः ।

शूलेन ज्वलता तं तु स्मयमानोऽहनन्मृधे ॥ १७॥

सेहे रुजं सुदुर्मर्षां सत्त्वमालम्ब्य मातलिः ।

इन्द्रो जम्भस्य सङ्क्रुद्धो वज्रेणापाहरच्छिरः ॥ १८॥

जम्भं श्रुत्वा हतं तस्य ज्ञातयो नारदादृषेः ।

नमुचिश्च बलः पाकस्तत्रापेतुस्त्वरान्विताः ॥ १९॥

वचोभिः परुषैरिन्द्रमर्दयन्तोऽस्य मर्मसु ।

शरैरवाकिरन् मेघा धाराभिरिव पर्वतम् ॥ २०॥

हरीन् दशशतान्याजौ हर्यश्वस्य बलः शरैः ।

तावद्भिरर्दयामास युगपल्लघुहस्तवान् ॥ २१॥

शताभ्यां मातलिं पाको रथं सावयवं पृथक् ।

सकृत्सन्धानमोक्षेण तदद्भुतमभूद्रणे ॥ २२॥

नमुचिः पञ्चदशभिः स्वर्णपुङ्खैर्महेषुभिः ।

आहत्य व्यनदत्सङ्ख्ये सतोय इव तोयदः ॥ २३॥

सर्वतः शरकूटेन शक्रं सरथसारथिम् ।

छादयामासुरसुराः प्रावृट्सूर्यमिवाम्बुदाः ॥ २४॥

अलक्षयन्तस्तमतीव विह्वला

विचुक्रुशुर्देवगणाः सहानुगाः ।

अनायकाः शत्रुबलेन निर्जिता

वणिक्पथा भिन्ननवो यथार्णवे ॥ २५॥

ततस्तुराषाडिषुबद्धपञ्जरा-

द्विनिर्गतः साश्वरथध्वजाग्रणीः ।

बभौ दिशः खं पृथिवीं च रोचयन्

स्वतेजसा सूर्य इव क्षपात्यये ॥ २६॥

निरीक्ष्य पृतनां देवः परैरभ्यर्दितां रणे ।

उदयच्छद्रिपुं हन्तुं वज्रं वज्रधरो रुषा ॥ २७॥

स तेनैवाष्टधारेण शिरसी बलपाकयोः ।

ज्ञातीनां पश्यतां राजन् जहार जनयन् भयम् ॥ २८॥

नमुचिस्तद्वधं दृष्ट्वा शोकामर्षरुषान्वितः ।

जिघांसुरिन्द्रं नृपते चकार परमोद्यमम् ॥ २९॥

अश्मसारमयं शूलं घण्टावद्धेमभूषणम् ।

प्रगृह्याभ्यद्रवत्क्रुद्धो हतोऽसीति वितर्जयन् ।

प्राहिणोद्देवराजाय निनदन् मृगराडिव ॥ ३०॥

तदापतद्गगनतले महाजवं

विचिच्छिदे हरिरिषुभिः सहस्रधा ।

तमाहनन्नृप कुलिशेन कन्धरे

रुषान्वितस्त्रिदशपतिः शिरो हरन् ॥ ३१॥

उसी समय इन्द्र का सारथि मातलि हजार घोड़ों से जुता हुआ रथ ले आया और शक्तिशाली इन्द्र ऐरावत को छोड़कर तुरंत रथ पर सवार हो गये। दानवश्रेष्ठ जम्भ ने रणभूमि में मातलि के इस काम की बड़ी प्रशंसा की और मुसकराकर चमकता हुआ त्रिशूल उसके ऊपर चलाया। मातलि ने धैर्य के साथ इस असह्य पीड़ा को सह लिया। तब इन्द्र ने क्रोधित होकर अपने वज्र से जम्भ का सिर काट डाला।

देवर्षि नारद से जम्भासुर की मृत्यु समाचार जानकर उसके भाई-बन्धु नमुचि, बल और पाक झटपट रणभूमि में आ पहुँचे। अपने कठोर और मर्मस्पर्शी वाणी से उन्होंने इन्द्र को बहुत कुछ बुरा-भला कहा और जैसे बादल पहाड़ पर मूसलधार पानी बरसाते हैं, वैसे ही उनके ऊपर बाणों की झड़ी लगा दी। बल ने बड़े हस्तलाघव से एक साथ ही एक हजार बाण चलाकर इन्द्र के एक हजार घोड़ों को घायल कर दिया। पाक ने सौ बाणों से मातलि को और सौ बाणों से रथ के एक-एक अंग को छेद डाला। युद्धभूमि में यह बड़ी अद्भुत घटना हुई कि एक ही बार इतने बाण उसने चढ़ाये और चलाये। नमुचि ने बड़े-बड़े पंद्रह बाणों से, जिनमें सोने के पंख लगे हुए थे, इन्द्र को मारा और युद्धभूमि में वह जल से भरे बादल के समान गरजने लगा। जैसे वर्षाकाल के बादल सूर्य को ढक लेते हैं, वैसे ही असुरों ने बाणों की वर्षा से इन्द्र और उनके रथ तथा सारथि को भी चारों ओर से ढक दिया।

इन्द्र को न देखकर देवता और उनके अनुचर अत्यन्त विह्वल होकर रोने-चिल्लाने लगे। एक तो शत्रुओं ने उन्हें हरा दिया था और दूसरे अब उनका कोई सेनापति भी न रह गया था। उस समय देवताओं की ठीक वैसी ही अवस्था हो रही थी, जैसे बीच समुद्र में नाव टूट जाने पर व्यापारियों की होती है। परन्तु थोड़ी ही देर में शत्रुओं के बनाये हुए बाणों के पिंजड़े से घोड़े, रथ, ध्वजा और सारथि के साथ इन्द्र निकल आये। जैसे प्रातःकाल सूर्य अपनी किरणों से दिशा, आकाश और पृथ्वी को चमका देते हैं, वैसे ही इन्द्र के तेज से सब-के-सब जगमगा उठे। वज्रधारी इन्द्र ने देखा कि शत्रुओं ने रणभूमि में हमारी सेना को रौंद डाला है, तब उन्होंने बड़े क्रोध से शत्रु को मार डालने के लिये वज्र से आक्रमण किया।

परीक्षित! उस आठ धार वाले पैने वज्र से उन दैत्यों के भाई-बन्धुओं को भी भयभीत करते हुए उन्होंने बल और पाक के सिर काट लिये। परीक्षित! अपने भाइयों को मरा हुआ देख नमुचि को बड़ा शोक हुआ। वह क्रोध के कारण आपे से बाहर होकर इन्द्र को मार डालने के लिये जी-जान से प्रयास करने लगा। इन्द्र! अब तुम बच नहीं सकते’-इन प्रकार ललकारते हुए एक त्रिशूल उठाकर वह इन्द्र पर टूट पड़ा। वह त्रिशूल फौलाद का बना हुआ था, सोने के आभूषणों से विभूषित था और उसमें घण्टे लगे हुए थे। नमुचि ने क्रोध के मारे सिंह के समान गरजकर इन्द्र पर वह त्रिशूल चला दिया। परीक्षित! इन्द्र ने देखा कि त्रिशूल बड़े वेग से मेरी ओर आ रहा है। उन्होंने अपने बाणों से आकाश में ही उसका हजारों टुकड़े कर दिये और इसके बाद देवराज इन्द्र ने बड़े क्रोध से उसका सिर काट लेने के लिये उसकी गर्दन पर वज्र मारा।

न तस्य हि त्वचमपि वज्र ऊर्जितो

बिभेद यः सुरपतिनौजसेरितः ।

तदद्भुतं परमतिवीर्यवृत्रभि-

त्तिरस्कृतो नमुचिशिरोधरत्वचा ॥ ३२॥

तस्मादिन्द्रोऽबिभेच्छत्रोर्वज्रः प्रतिहतो यतः ।

किमिदं दैवयोगेन भूतं लोकविमोहनम् ॥ ३३॥

येन मे पूर्वमद्रीणां पक्षच्छेदः प्रजात्यये ।

कृतो निविशतां भारैः पतत्त्रैः पततां भुवि ॥ ३४॥

तपःसारमयं त्वाष्ट्रं वृत्रो येन विपाटितः ।

अन्ये चापि बलोपेताः सर्वास्त्रैरक्षतत्वचः ॥ ३५॥

सोऽयं प्रतिहतो वज्रो मया मुक्तोऽसुरेऽल्पके ।

नाहं तदाददे दण्डं ब्रह्मतेजोऽप्यकारणम् ॥ ३६॥

इति शक्रं विषीदन्तमाह वागशरीरिणी ।

नायं शुष्कैरथो नार्द्रैर्वधमर्हति दानवः ॥ ३७॥

मयास्मै यद्वरो दत्तो मृत्युर्नैवार्द्रशुष्कयोः ।

अतोऽन्यश्चिन्तनीयस्ते उपायो मघवन् रिपोः ॥ ३८॥

तां दैवीं गिरमाकर्ण्य मघवान् सुसमाहितः ।

ध्यायन् फेनमथापश्यदुपायमुभयात्मकम् ॥ ३९॥

न शुष्केण न चार्द्रेण जहार नमुचेः शिरः ।

तं तुष्टुवुर्मुनिगणा माल्यैश्चावाकिरन् विभुम् ॥ ४०॥

गन्धर्वमुख्यौ जगतुर्विश्वावसुपरावसू ।

देवदुन्दुभयो नेदुर्नर्तक्यो ननृतुर्मुदा ॥ ४१॥

अन्येऽप्येवं प्रतिद्वन्द्वान् वाय्वग्निवरुणादयः ।

सूदयामासुरस्त्रौघैर्मृगान् केसरिणो यथा ॥ ४२॥

ब्रह्मणा प्रेषितो देवान् देवर्षिर्नारदो नृप ।

वारयामास विबुधान् दृष्ट्वा दानवसङ्क्षयम् ॥ ४३॥

यद्यपि इन्द्र ने बड़े वेग से वह वज्र चलाया था, परन्तु उस यशस्वी वज्र से उसके चमड़े पर खरोंच तक नहीं आयी। यह बड़ी आश्चर्यजनक घटना हुई कि जिस वज्र ने महाबली वृत्रासुर का शरीर टुकड़े-टुकड़े कर डाला था, नमुचि के गले की त्वचा ने उसका तिरस्कार कर दिया। जब वज्र नमुचि का कुछ न बिगाड़ सका, तब इन्द्र उससे डर गये। वे सोचने लगे कि दैवयोग से संसार भर को संशय में डालने वाली यह कैसी घटना हो गयी। पहले युग में जब ये पर्वत पाँखों से उड़ते थे और घूमते-फिरते भार के कारण पृथ्वी पर गिर पड़ते थे, तब प्रजा का विनाश होते देखकर इसी वज्र से मैंने उन पहाड़ों की पाँखें काट डाली थीं। त्वष्टा की तपस्या का सार ही वृत्रासुर के रूप में प्रकट हुआ था। उसे भी मैंने इसी वज्र के द्वारा काट डाला था और भी अनेकों दैत्य, जो बहुत बलवान् थे और किसी अस्त्र-शस्त्र से जिनके चमड़े को भी चोट नहीं पहुँचायी जा सकी थी, इसी वज्र से मैंने मृत्यु के घाट उतार दिये थे। वही मेरा वज्र मेरे प्रहार करने पर भी इस तुच्छ असुर को न मार सका, अतः अब मैं इसे अंगीकार नहीं कर सकता। यह ब्रह्मतेज से बना है तो क्या हुआ, अब तो निकम्मा हो चुका है

इस प्रकार इन्द्र विषाद करने लगे। उसी समय यह आकाशवाणी हुई- "यह दानव न तो सूखी वस्तु से मर सकता है, न गीली से। इसे मैं वर दे चुका हूँ कि सूखी या गीली वस्तु से तुम्हारी मृत्यु न होगी।इसलिये इन्द्र! इस शत्रु को मारने के लिये अब तुम कोई दूसरा उपाय सोचो।"

उस आकाशवाणी को सुनकर देवराज इन्द्र बड़ी एकाग्रता से विचार करने लगे। सोचते-सोचते उन्हें सूझ गया कि समुद्र का फेन तो सूखा भी है, गीला भी। इसलिये न उसे सूखा कह सकते हैं, न गीला। अतः इन्द्र ने उस न सूखे और न गीले समुद्र फेन से नमुचि का सिर काट डाला। उस समय बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भगवान् इन्द्र पर पुष्पों की वर्षा और उनकी स्तुति करने लगे। गन्धर्वशिरोमणि विश्वावसु तथा परवसुगान करने लगे, देवताओं की दुन्दुभियाँ बजने लगीं और नर्तकियाँ आनन्द से नाचने लगीं। इसी प्रकार वायु, अग्नि, वरुण आदि दूसरे देवताओं ने भी अपने अस्त्र-शस्त्रों से विपक्षियों को वैसे ही मार गिराया जैसे सिंह हरिनों को मार डालते हैं।

परीक्षित! इधर ब्रह्मा जी ने देखा कि दानवों का तो सर्वथा नाश हुआ जा रहा है। तब उन्होंने देवर्षि नारद को देवताओं के पास भेजा और नारद जी ने वहाँ जाकर देवताओं को लड़ने से रोक दिया।

नारद उवाच

भवद्भिरमृतं प्राप्तं नारायणभुजाश्रयैः ।

श्रिया समेधिताः सर्व उपारमत विग्रहात् ॥ ४४॥

नारद जी ने कहा ;- देवताओं! भगवान् की भुजाओं की छत्रछाया में रहकर आप लोगों ने अमृत प्राप्त कर लिया है और लक्ष्मी जी ने भी अपनी कृपा-कोर से आपकी अभिवृद्धि की है, इसलिये आप लोग अब लड़ाई बंद कर दें।

श्रीशुक उवाच

संयम्य मन्युसंरम्भं मानयन्तो मुनेर्वचः ।

उपगीयमानानुचरैर्ययुः सर्वे त्रिविष्टपम् ॥ ४५॥

येऽवशिष्टा रणे तस्मिन् नारदानुमतेन ते ।

बलिं विपन्नमादाय अस्तं गिरिमुपागमन् ॥ ४६॥

तत्राविनष्टावयवान् विद्यमानशिरोधरान् ।

उशना जीवयामास सञ्जीविन्या स्वविद्यया ॥ ४७॥

बलिश्चोशनसा स्पृष्टः प्रत्यापन्नेन्द्रियस्मृतिः ।

पराजितोऽपि नाखिद्यल्लोकतत्त्वविचक्षणः ॥ ४८॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- देवताओं ने देवर्षि नारद की बात मानकर अपने क्रोध के वेग को शान्त कर लिया और फिर वे सब-के-सब अपने लोक स्वर्ग को चले गये। उस समय देवताओं के अनुचर उनके यश का गान कर रहे थे। युद्ध में बचे हुए दैत्यों ने देवर्षि नारद की सम्मति से वज्र की चोट से मरे हुए बलि को लेकर अस्ताचल की यात्रा की। वहाँ शुक्राचार्य ने अपनी संजीवनी विद्या से उन असुरों को जीवित कर दिया, जिनके गरदन आदि अंग कटे नहीं थे, बच रहे थे। शुक्राचार्य के स्पर्श करते ही बलि की इन्द्रियों में चेतना और मन में स्मरण शक्ति आ गयी। बलि यह बात समझते थे कि संसार में जीवन-मृत्यु, जय-पराजय आदि उलट-फेर होते ही रहते हैं। इसलिये पराजित होने पर भी उन्हें किसी प्रकार का खेद नहीं हुआ।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहिताया-मष्टमस्कन्धे देवासुरसङ्ग्रामे एकादशोऽध्यायः ॥ ११॥

जारी-आगे पढ़े............... अष्टम स्कन्ध: द्वादशोऽध्यायः

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