श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय १२

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय १२                                         

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय १२ "मोहिनी रूप को देखकर महादेव जी का मोहित होना"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय १२

श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: द्वादश अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय १२                                                             

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ८ अध्यायः १२                                                                

श्रीमद्भागवत महापुराण आठवाँ स्कन्ध बारहवाँ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय १२ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीमद्भागवतम् अष्टमस्कन्धः

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ द्वादशोऽध्यायः - १२ ॥

श्रीबादरायणिरुवाच

वृषध्वजो निशम्येदं योषिद्रूपेण दानवान् ।

मोहयित्वा सुरगणान् हरिः सोममपाययत् ॥ १॥

वृषमारुह्य गिरिशः सर्वभूतगणैर्वृतः ।

सह देव्या ययौ द्रष्टुं यत्रास्ते मधुसूदनः ॥ २॥

सभाजितो भगवता सादरं सोमया भवः ।

सूपविष्ट उवाचेदं प्रतिपूज्य स्मयन् हरिम् ॥ ३॥

श्रीशुकदेव कहते हैं ;- परीक्षित! जब भगवान् शंकर ने यह सुना कि श्रीहरि ने स्त्री का रूप धारण करके असुरों को मोहित कर लिया और देवताओं को अमृत पिला दिया, तब वे सती देवी के साथ बैल पर सवार हो समस्त भूतगणों को लेकर वहाँ गये, जहाँ भगवान् मधुसूदन निवास करते हैं। भगवान् श्रीहरि ने बड़े प्रेम से गौरी-शंकर भगवान् का स्वागत-सत्कार किया। वे भी सुख से बैठकर भगवान् का सम्मान करके मुसकराते हुए बोले।

श्रीमहादेव उवाच

देवदेव जगद्व्यापिन् जगदीश जगन्मय ।

सर्वेषामपि भावानां त्वमात्मा हेतुरीश्वरः ॥ ४॥

आद्यन्तावस्य यन्मध्यमिदमन्यदहं बहिः ।

यतोऽव्ययस्य नैतानि तत्सत्यं ब्रह्म चिद्भवान् ॥ ५॥

तवैव चरणाम्भोजं श्रेयस्कामा निराशिषः ।

विसृज्योभयतः सङ्गं मुनयः समुपासते ॥ ६॥

त्वं ब्रह्म पूर्णममृतं विगुणं विशोक-

मानन्दमात्रमविकारमनन्यदन्यत् ।

विश्वस्य हेतुरुदयस्थितिसंयमाना-

मात्मेश्वरश्च तदपेक्षतयानपेक्षः ॥ ७॥

एकस्त्वमेव सदसद्द्वयमद्वयं च

स्वर्णं कृताकृतमिवेह न वस्तुभेदः ।

अज्ञानतस्त्वयि जनैर्विहितो विकल्पो

यस्माद्गुणव्यतिकरो निरुपाधिकस्य ॥ ८॥

त्वां ब्रह्म केचिदवयन्त्युत धर्ममेके

एके परं सदसतोः पुरुषं परेशम् ।

अन्येऽवयन्ति नवशक्तियुतं परं त्वां

केचिन्महापुरुषमव्ययमात्मतन्त्रम् ॥ ९॥

नाहं परायुरृषयो न मरीचिमुख्या

जानन्ति यद्विरचितं खलु सत्त्वसर्गाः ।

यन्मायया मुषितचेतस ईश दैत्य-

मर्त्यादयः किमुत शश्वदभद्रवृत्ताः ॥ १०॥

स त्वं समीहितमदः स्थितिजन्मनाशं

भूतेहितं च जगतो भवबन्धमोक्षौ ।

वायुर्यथा विशति खं च चराचराख्यं

सर्वं तदात्मकतयावगमोऽवरुन्त्से ॥ ११॥

अवतारा मया दृष्टा रममाणस्य ते गुणैः ।

सोऽहं तद्द्रष्टुमिच्छामि यत्ते योषिद्वपुर्धृतम् ॥ १२॥

येन सम्मोहिता दैत्याः पायिताश्चामृतं सुराः ।

तद्दिदृक्षव आयाताः परं कौतूहलं हि नः ॥ १३॥

श्रीमहादेव जी ने कहा ;- 'समस्त देवों के आराध्यदेव! आप विश्वव्यापी, जगदीश्वर एवं जगत्स्वरूप हैं। समस्त चराचर पदार्थों के मूल कारण, ईश्वर और आत्मा भी आप ही हैं। इस जगत् के आदि, अन्त और मध्य आपसे ही होते हैं; परन्तु आप आदि, मध्य और अन्त से रहित हैं। आपके अविनाशीस्वरूप द्रष्टा, दृश्य, भक्ता और भोग्य का भेदभाव नहीं है। वास्तव में आप सत्य, चिन्मात्र ब्रह्म ही हैं। कल्याणकामी महात्मा लोग इस लोक और परलोक दोनों की आसक्ति एवं समस्त कामनाओं का परित्याग करके आपके चरणकमलों की ही आराधना करते हैं। आप अमृतस्वरूप, समस्त प्राकृत गुणों से रहित, शोक की छाया से भी दूर, स्वयं परिपूर्ण ब्रह्म हैं। आप केवल आनन्दस्वरूप हैं। आप निर्विकार हैं। आपसे भिन्न कुछ नहीं है, परन्तु आप सबसे भिन्न हैं। आप विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के परम कारण हैं। आप समस्त जीवों के शुभाशुभ कर्म का फल देने वाले स्वामी हैं। परन्तु यह बात भी जीवों की अपेक्षा से ही कही जाती है; वास्तव में आप सबकी अपेक्षा से रहित, अनपेक्ष हैं।

स्वामिन्! कार्य और कारण, द्वैत और अद्वैत- जो कुछ है, वह सब एकमात्र आप ही हैं; ठीक वैसे ही जैसे आभूषणों के रूप में स्थित सुवर्ण और मूल सुवर्ण में कोई अन्तर नहीं हैं, दोनों एक ही वस्तु हैं। लोगों ने आपके वास्तविक स्वरूप को न जानने के कारण आप में नाना प्रकर के भेदभाव और विकल्पों की कल्पना कर रखी है। यही कारण है कि आप में किसी प्रकार की उपाधि न होने पर भी गुणों को लेकर भेद की प्रतीति होती है।

प्रभो! कोई-कोई आपको ब्रह्म समझते हैं, तो दूसरे आपको धर्म कहकर वर्णन करते हैं। इसी प्रकार कोई आपको प्रकृति और पुरुष से परे परमेश्वर मानते हैं तो कोई विमला, उत्कर्षिणी, ज्ञाना, क्रिया, योगा, प्रह्यी, सत्या, ईशाना और अनुग्रहा- इन नौ शक्तियों से युक्त परम पुरुष तथा दूसरे क्लेश-कर्म आदि के बन्धन से रहित, पूर्वजों के भी पूर्वज, अविनाशी पुरुष विशेष के रूप में मानते हैं। प्रभो! मैं, ब्रह्मा, मरीचि और ऋषि-जो सत्त्वगुण की सृष्टि के अन्तर्गत हैं-जब आपकी बनायी हुई सृष्टि का भी रहस्य नहीं जान पाते, तब आपको तो जान ही कैसे सकते हैं। फिर जिनका चित्त माया ने अपने वश में कर रखा है और जो सर्वदा रजोगुणी और तमोगुणी कर्मों में लगते रहते हैं, वे असुर और मनुष्य आदि तो भला जानेंगे ही क्या।

प्रभो! आप सर्वात्मा एवं ज्ञानस्वरूप हैं। इसीलिये वायु के समान आकाश में अदृश्य रहकर भी आप सम्पूर्ण चराचर जगत् में सदा-सर्वदा विद्यमान रहते हैं तथा इसकी चेष्टा, स्थिति, जन्म, नाश, प्राणियों के कर्म एवं संसार के बन्धन, मोक्ष-सभी को जानते हैं।

प्रभो! आप जब गुणों को स्वीकार करके लीला करने के लिये बहुत-से अवतार ग्रहण करते हैं, तब मैं उनका दर्शन करता ही हूँ। अब मैं आपके उस अवतार का भी दर्शन करना चाहता हूँ, जो आपने स्त्रीरूप में ग्रहण किया था। जिससे दैत्यों को मोहित करके आपने देवताओं को अमृत पिलाया, स्वामिन्! उसी को देखने के लिये हम सब आये हैं। हमारे मन में उसके दर्शन का बड़ा कौतूहल है।

श्रीशुक उवाच

एवमभ्यर्थितो विष्णुर्भगवान् शूलपाणिना ।

प्रहस्य भावगम्भीरं गिरिशं प्रत्यभाषत ॥ १४॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- जब भगवान् शंकर ने विष्णु भगवान् से यह प्रार्थना की, तब वे गम्भीर भाव से हँसकर शंकर जी से बोले।

श्रीभगवानुवाच

कौतूहलाय दैत्यानां योषिद्वेषो मया कृतः ।

पश्यता सुरकार्याणि गते पीयूषभाजने ॥ १५॥

तत्तेऽहं दर्शयिष्यामि दिदृक्षोः सुरसत्तम ।

कामिनां बहु मन्तव्यं सङ्कल्पप्रभवोदयम् ॥ १६॥

श्रीविष्णु भगवान् ने कहा ;- 'शंकर जी! उस समय अमृत का कलश दैत्यों के हाथ में चला गया था। अतः देवताओं का काम बनाने के लिये और दैत्यों का मन एक नये कौतूहल की ओर खींच लेने के लिये ही मैंने वह स्त्रीरूप धारण किया था। देवशिरोमणे! आप उसे देखना चाहते हैं, इसलिये मैं आपको वह रूप दिखाऊँगा। परन्तु वह रूप तो कामी पुरुषों का ही आदरणीय है, क्योंकि वह कामभाव को उत्तेजित करने वाला है।'

श्रीशुक उवाच

इति ब्रुवाणो भगवांस्तत्रैवान्तरधीयत ।

सर्वतश्चारयंश्चक्षुर्भव आस्ते सहोमया ॥ १७॥

ततो ददर्शोपवने वरस्त्रियं

विचित्रपुष्पारुणपल्लवद्रुमे ।

विक्रीडतीं कन्दुकलीलया लस-

द्दुकूलपर्यस्तनितम्बमेखलाम् ॥ १८॥

आवर्तनोद्वर्तनकम्पितस्तन-

प्रकृष्टहारोरुभरैः पदे पदे ।

प्रभज्यमानामिव मध्यतश्चल-

त्पदप्रवालं नयतीं ततस्ततः ॥ १९॥

दिक्षु भ्रमत्कन्दुकचापलैर्भृशं

प्रोद्विग्नतारायतलोललोचनाम् ।

स्वकर्णविभ्राजितकुण्डलोल्लस-

त्कपोलनीलालकमण्डिताननाम् ॥ २०॥

श्लथद्दुकूलं कबरीं च विच्युतां

सन्नह्यतीं वामकरेण वल्गुना ।

विनिघ्नतीमन्यकरेण कन्दुकं

विमोहयन्तीं जगदात्ममायया ॥ २१॥

तां वीक्ष्य देव इति कन्दुकलीलयेष-

द्व्रीडास्फुटस्मितविसृष्टकटाक्षमुष्टः ।

स्त्रीप्रेक्षणप्रतिसमीक्षणविह्वलात्मा

नात्मानमन्तिक उमां स्वगणांश्च वेद ॥ २२॥

तस्याः कराग्रात्स तु कन्दुको यदा

गतो विदूरं तमनुव्रजत्स्त्रियाः ।

वासः ससूत्रं लघु मारुतोऽहर-

द्भवस्य देवस्य किलानुपश्यतः ॥ २३॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- इस तरह कहते-कहते विष्णु भगवान् वहीं अन्तर्धान हो गये और भगवान् शंकर सती देवी के साथ चारों ओर दृष्टि दौड़ाते हुए वहीं बैठे रहे। इतने में ही उन्होंने देखा कि सामने एक बड़ा सुन्दर उपवन है। उसमें भाँति-भाँति के वृक्ष लग रहे हैं, जो रंग-बिरंगे फूल और लाल-लाल कोंपलों से भरे-पूरे हैं। उन्होंने यह भी देखा कि उस उपवन में एक सुन्दरी स्त्री गेंद उछाल-उछालकर खेल रही है। वह बड़ी ही सुन्दर साड़ी पहने हुए है और उसकी कमर में करधनी की लड़ियाँ लटक रही हैं। गेंद के उछालने और लपकर पकड़ने से उसके स्तन और उन पर पड़े हुए हाल हिल रहे हैं। ऐसा जान पड़ता था, मानो इनके भार से उसकी पतली कमर पग-पग पर टूटते-टूटते बच जाती है। वह अपने लाल-लाल पल्लवों के समान सुकुमार चरणों से बड़ी कला के साथ ठुमुक-ठुमुक चल रही थी। उछलता हुआ गेंद जब इधर-उधर छलक जाता था, तब वह लपक कर उसे रोक लेती थी। इससे उसकी बड़ी-बड़ी चंचल आँखें कुछ उद्विग्न-सी हो रही थीं। उसके कपोलों पर कानों के कुण्डलों की आभा जगमगा रही थी और घुँघराली काली-काली अलकें उन पर लटक आती थीं, जिससे मुख और भी उल्लसित हो उठता था।

जब कभी साड़ी सरक जाती और केशों की वेणी खुलने लगती, तब अपने अत्यन्त सुकुमार बायें हाथ से वह उन्हें सम्हाल-सँवार लिया करती। उस समय भी वह दाहिने हाथ से गेंद उछाल-उछालकर सारे जगत् को अपनी माया से मोहित कर रही थी। गेंद से खेलते-खेलते उसने तनिक सलज्ज भाव से मुसकराकर तिरछी नजर से शंकर जी की ओर देखा। बस, उनका मन हाथ से निकल गया। वे मोहिनी को निहारने और उसकी चितवन के रस में डूबकर इतने विह्वल हो गये कि उन्हें अपने-आप की भी सुधि न रही। फिर पास बैठी हुई सती और गणों की तो याद ही कैसे रहती। एक बार मोहिनी के हाथ से उछलकर गेंद थोड़ी दूर चला गया। वह भी उसी के पीछे दौड़ी। उसी समय शंकर जी के देखते-देखते वायु ने उसकी झीनी-सी साड़ी करधनी के साथ ही उड़ा ली।

एवं तां रुचिरापाङ्गीं दर्शनीयां मनोरमाम् ।

दृष्ट्वा तस्यां मनश्चक्रे विषज्जन्त्यां भवः किल ॥ २४॥

तयापहृतविज्ञानस्तत्कृतस्मरविह्वलः ।

भवान्या अपि पश्यन्त्या गतह्रीस्तत्पदं ययौ ॥ २५॥

सा तमायान्तमालोक्य विवस्त्रा व्रीडिता भृशम् ।

निलीयमाना वृक्षेषु हसन्ती नान्वतिष्ठत ॥ २६॥

तामन्वगच्छद्भगवान् भवः प्रमुषितेन्द्रियः ।

कामस्य च वशं नीतः करेणुमिव यूथपः ॥ २७॥

सोऽनुव्रज्यातिवेगेन गृहीत्वानिच्छतीं स्त्रियम् ।

केशबन्ध उपानीय बाहुभ्यां परिषस्वजे ॥ २८॥

सोपगूढा भगवता करिणा करिणी यथा ।

इतस्ततः प्रसर्पन्ती विप्रकीर्णशिरोरुहा ॥ २९॥

आत्मानं मोचयित्वाङ्ग सुरर्षभभुजान्तरात् ।

प्राद्रवत्सा पृथुश्रोणी माया देवविनिर्मिता ॥ ३०॥

तस्यासौ पदवीं रुद्रो विष्णोरद्भुतकर्मणः ।

प्रत्यपद्यत कामेन वैरिणेव विनिर्जितः ॥ ३१॥

तस्यानुधावतो रेतश्चस्कन्दामोघरेतसः ।

शुष्मिणो यूथपस्येव वासितामनुधावतः ॥ ३२॥

यत्र यत्रापतन्मह्यां रेतस्तस्य महात्मनः ।

तानि रूप्यस्य हेम्नश्च क्षेत्राण्यासन् महीपते ॥ ३३॥

सरित्सरःसु शैलेषु वनेषूपवनेषु च ।

यत्र क्व चासन्नृषयस्तत्र सन्निहितो हरः ॥ ३४॥

स्कन्ने रेतसि सोऽपश्यदात्मानं देवमायया ।

जडीकृतं नृपश्रेष्ठ सन्न्यवर्तत कश्मलात् ॥ ३५॥

अथावगतमाहात्म्य आत्मनो जगदात्मनः ।

अपरिज्ञेयवीर्यस्य न मेने तदु हाद्भुतम् ॥ ३६॥

तमविक्लवमव्रीडमालक्ष्य मधुसूदनः ।

उवाच परमप्रीतो बिभ्रत्स्वां पौरुषीं तनुम् ॥ ३७॥

मोहिनी का एक-एक अंग बड़ा ही रुचिकर और मनोरम था। जहाँ आँखें लग जातीं, लगी ही रहतीं। यही नहीं, मन भी वहीं रमण करने लगता। उसको इस दशा में देखकर भगवान् शंकर उसकी ओर अत्यन्त आकृष्ट हो गये। उन्हें मोहिनी भी अपने प्रति आसक्त जान पड़ती थी। उसने शंकर जी का विवेक छीन लिया। वे उसके हाव-भावों से कामातुर हो गये और भवानी के सामने ही लज्जा छोड़कर उसकी ओर चल पड़े।

मोहिनी वस्त्रहीन तो पहले ही हो चुकी थी, शंकर जी को अपनी ओर आते देख बहुत लज्जित हो गयी। वह एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष की आड़ से जाकर छिप जाती और हँसने लगती। परन्तु कहीं ठहरती न थी। भगवान् शंकर की इन्द्रियाँ अपने वश में नहीं रहीं, वे कामवश हो गये थे; अतः हथिनी के पीछे हाथी की तरह उसके पीछे-पीछे दौड़ने लगे। उन्होंने अत्यन्त वेग से उसका पीछा करके पीछे से उसका जूड़ा पकड़ लिया और उसकी इच्छा न होने पर भी उसे दोनों भुजाओं में भरकर हृदय से लगा लिया।

जैसे हाथी हथिनी का आलिंगन करता है, वैसे ही भगवान् शंकर ने उसका आलिंगन किया। वह इधर-उधर खिसककर छुड़ाने की चेष्टा करने लगी, इसी छीना-झपटी में उसके सिर के बाल बिखर गये। वास्तव में वह सुन्दरी भगवान् की रची हुई माया ही थी, इससे उसने किसी प्रकार शंकर जी के भुजपाश से अपने को छुड़ा लिया और बड़े वेग से भागी। भगवान् शंकर भी उन मोहिनी वेषधारी अद्भुतकर्मा भगवान् विष्णु के पीछे-पीछे दौड़ने लगे। उस समय ऐसा जान पड़ता था, मानो उनके शत्रु कामदेव ने इस समय उन पर विजय प्राप्त कर ली है। कामुक हथिनी के पीछे दौड़ने वाले मदोन्मत्त हाथी के समान वे मोहिनी के पीछे-पीछे दौड़ रहे थे। यद्यपि भगवान् शंकर का वीर्य अमोघ है, फिर भी मोहिनी की माया से वह स्खलित हो गया। भगवान् शंकर का वीर्य पृथ्वी पर जहाँ-जहाँ गिरा, वहाँ-वहाँ सोने-चाँदी की खानें बन गायीं।

परीक्षित! नदी, सरोवर, पर्वत, वन और उपवन में एवं जहाँ-जहाँ ऋषि-मुनि निवास करते थे, वहाँ-वहाँ मोहिनी के पीछे-पीछे भगवान् शंकर गये थे। परीक्षित! वीर्यपात हो जाने के बाद उन्हें अपनी स्मृति हुई। उन्होंने देखा कि अरे, भगवान् की माया ने तो मुझे खूब छकाया। वे तुरंत उस दुःखद प्रसंग से अलग हो गये। इसके बाद आत्मस्वरूप सर्वात्मा भगवान् की यह महिमा जानकर उन्हें कोई आश्चर्य नहीं हुआ। वे जानते थे कि भला, भगवान् की शक्तियों का पार कौन पा सकता है। भगवान् ने देखा कि भगवान् शंकर को इससे विषाद या लज्जा नहीं हुई है, तब वे पुरुषशरीर धारण करके फिर प्रकट हो गये और बड़ी प्रसन्नता से उनसे कहने लगे।

श्रीभगवानुवाच

दिष्ट्या त्वं विबुधश्रेष्ठ स्वां निष्ठामात्मना स्थितः ।

यन्मे स्त्रीरूपया स्वैरं मोहितोऽप्यङ्ग मायया ॥ ३८॥

को नु मेऽतितरेन्मायां विषक्तस्त्वदृते पुमान् ।

तांस्तान् विसृजतीं भावान् दुस्तरामकृतात्मभिः ॥ ३९॥

सेयं गुणमयी माया न त्वामभिभविष्यति ।

मया समेता कालेन कालरूपेण भागशः ॥ ४०॥

श्रीभगवान् ने कहा ;- 'देवशिरोमणे! मेरी स्त्रीरूपिणी माया से विमोहित होकर भी आप स्वयं ही अपनी निष्ठा में स्थित हो गये। यह बड़े ही आनन्द की बात है। मेरी माया अपार है। वह ऐसे-ऐसे हाव-भाव रचती है कि अजितेन्द्रिय पुरुष तो किसी प्रकार उससे छुटकारा पा ही नहीं सकते। भला, आपके अतिरिक्त ऐसा कौन पुरुष है, जो एक बार मेरी माया के फंदे में फँसकर फिर स्वयं ही उससे निकल सके। यद्यपि मेरी यह गुणमयी माया बड़ों-बड़ों को मोहित कर देती है, फिर भी अब यह आपको कभी मोहित नहीं करेगी। क्योंकि सृष्टि आदि के लिये समय पर उसे क्षोभित करने वाला काल मैं ही हूँ, इसलिये मेरी इच्छा के विपरीत रजोगुण आदि की सृष्टि नहीं कर सकती।'

श्रीशुक उवाच

एवं भगवता राजन् श्रीवत्साङ्केन सत्कृतः ।

आमन्त्र्य तं परिक्रम्य सगणः स्वालयं ययौ ॥ ४१॥

आत्मांशभूतां तां मायां भवानीं भगवान् भवः ।

शंसतामृषिमुख्यानां प्रीत्याऽऽचष्टाथ भारत ॥ ४२॥

अपि व्यपश्यस्त्वमजस्य मायां

परस्य पुंसः परदेवतायाः ।

अहं कलानामृषभो विमुह्ये

ययावशोऽन्ये किमुतास्वतन्त्राः ॥ ४३॥

यं मामपृच्छस्त्वमुपेत्य योगात्

समासहस्रान्त उपारतं वै ।

स एष साक्षात्पुरुषः पुराणो

न यत्र कालो विशते न वेदः ॥ ४४॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! इस प्रकार भगवान् विष्णु ने भगवान् शंकर का सत्कार किया। तब उससे विदा लेकर एवं परिक्रमा करके वे अपने गणों के साथ कैलास को चले गये।

भरतवंशशिरोमणे! भगवान् शंकर ने बड़े-बड़े ऋषियों की सभा में अपनी अर्द्धांगिनी सती देवी से अपने विष्णुरूप की अंशभूता मायामयी मोहिनी का इस प्रकार बड़े प्रेम से वर्णन किया। देवि! तुमने परम पुरुष परमेश्वर भगवान् विष्णु की माया देखी? देखो, यों तो मैं स्वतन्त्र हूँ, फिर भी उस माया से विवश होकर मोहित हो जाता हूँ। फिर दूसरे जीव तो परतन्त्र हैं ही; अतः वे मोहित हो जायें-इसमें कहना ही क्या है। जब मैं एक हजार वर्ष की समाधि से उठा था, तब तुमने मेरे पास आकर पूछा था कि तुम किसकी उपासना करते हो। वे यही साक्षात् सनातन पुरुष हैं। न तो काल ही इन्हें अपनी सीमा में बाँध सकता है और न वेद ही इनका वर्णन कर सकता है। इनका वास्तविक स्वरूप अनन्त और अनिर्वचनीय है

श्रीशुक उवाच

इति तेऽभिहितस्तात विक्रमः शार्ङ्गधन्वनः ।

सिन्धोर्निर्मथने येन धृतः पृष्ठे महाचलः ॥ ४५॥

एतन्मुहुः कीर्तयतोऽनुश्रृण्वतो

न रिष्यते जातु समुद्यमः क्वचित् ।

यदुत्तमश्लोकगुणानुवर्णनं

समस्तसंसारपरिश्रमापहम् ॥ ४६॥

असदविषयमङ्घ्रिं भावगम्यं प्रपन्ना-

नमृतममरवर्यानाशयत्सिन्धुमथ्यम् ।

कपटयुवतिवेषो मोहयन् यः सुरारीन्

तमहमुपसृतानां कामपूरं नतोऽस्मि ॥ ४७॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- प्रिय परीक्षित! मैंने विष्णु भगवान् की यह ऐश्वर्यपूर्ण लीला तुमको सुनायी, जिसमें समुद्र मन्थन के समय अपनी पीठ पर मन्दराचल धारण करने वाले भगवान् का वर्णन है। जो पुरुष बार-बार इनका कीर्तन और श्रवण करता है, उसका उद्योग कभी और कहीं निष्फल नहीं होता। क्योंकि पवित्रकीर्ति भगवान् के गुण और लीलाओं का गान संसार के समस्त क्लेश और परिश्रम को मिटा देने वाला है। दुष्ट पुरुषों को भगवान् के चरणकमलों की प्राप्ति कभी हो नहीं सकती। वे तो भक्तिभाव से युक्त पुरुष को ही प्राप्त होते हैं। इसी से उन्होंने स्त्री का मायामय रूप धारण करके दैत्यों को मोहित किया और अपने चरणकमलों के शरणागत देवताओं को समुद्र मन्थन से निकले हुए अमृत का पान कराया। केवल उन्हीं की बात नहीं-चाहे जो भी उनके चरणों की शरण ग्रहण करे, वे उसकी समस्त कामनाएँ पूर्ण कर देते हैं। मैं उन प्रभु के चरणकमलों में नमस्कार करता हूँ।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहिताया-मष्टमस्कन्धे शङ्करमोहनं नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२॥

जारी-आगे पढ़े............... अष्टम स्कन्ध: त्रयोदशोऽध्यायः

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