श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय १३

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय १३                                          

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय १३ "आगामी सात मन्वन्तरों का वर्णन"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय १३

श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: त्रयोदश अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय १३                                                              

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ८ अध्यायः १३                                                                 

श्रीमद्भागवत महापुराण आठवाँ स्कन्ध तेरहवाँ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय १३ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीमद्भागवतम् अष्टमस्कन्धः

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ त्रयोदशोऽध्यायः - १३ ॥

श्रीशुक उवाच

मनुर्विवस्वतः पुत्रः श्राद्धदेव इति श्रुतः ।

सप्तमो वर्तमानो यस्तदपत्यानि मे श्रृणु ॥ १॥

इक्ष्वाकुर्नभगश्चैव धृष्टः शर्यातिरेव च ।

नरिष्यन्तोऽथ नाभागः सप्तमो दिष्ट उच्यते ॥ २॥

करूषश्च पृषध्रश्च दशमो वसुमान् स्मृतः ।

मनोर्वैवस्वतस्यैते दशपुत्राः परन्तप ॥ ३॥

आदित्या वसवो रुद्रा विश्वेदेवा मरुद्गणाः ।

अश्विनावृभवो राजन्निन्द्रस्तेषां पुरन्दरः ॥ ४॥

कश्यपोऽत्रिर्वसिष्ठश्च विश्वामित्रोऽथ गौतमः ।

जमदग्निर्भरद्वाज इति सप्तर्षयः स्मृताः ॥ ५॥

अत्रापि भगवज्जन्म कश्यपाददितेरभूत् ।

आदित्यानामवरजो विष्णुर्वामनरूपधृक् ॥ ६॥

सङ्क्षेपतो मयोक्तानि सप्तमन्वन्तराणि ते ।

भविष्याण्यथ वक्ष्यामि विष्णोः शक्त्यान्वितानि च ॥ ७॥

विवस्वतश्च द्वे जाये विश्वकर्मसुते उभे ।

संज्ञा छाया च राजेन्द्र ये प्रागभिहिते तव ॥ ८॥

तृतीयां वडवामेके तासां संज्ञासुतास्त्रयः ।

यमो यमी श्राद्धदेवश्छायायाश्च सुताञ्छृणु ॥ ९॥

सावर्णिस्तपती कन्या भार्या संवरणस्य या ।

शनैश्चरस्तृतीयोऽभूदश्विनौ वडवात्मजौ ॥ १०॥

अष्टमेऽन्तर आयाते सावर्णिर्भविता मनुः ।

निर्मोकविरजस्काद्याः सावर्णितनया नृप ॥ ११॥

तत्र देवाः सुतपसो विरजा अमृतप्रभाः ।

तेषां विरोचनसुतो बलिरिन्द्रो भविष्यति ॥ १२॥

दत्त्वेमां याचमानाय विष्णवे यः पदत्रयम् ।

राद्धमिन्द्रपदं हित्वा ततः सिद्धिमवाप्स्यति ॥ १३॥

योऽसौ भगवता बद्धः प्रीतेन सुतले पुनः ।

निवेशितोऽधिके स्वर्गादधुनाऽऽस्ते स्वराडिव ॥ १४॥

गालवो दीप्तिमान् रामो द्रोणपुत्रः कृपस्तथा ।

ऋष्यश‍ृङ्गः पितास्माकं भगवान् बादरायणः ॥ १५॥

इमे सप्तर्षयस्तत्र भविष्यन्ति स्वयोगतः ।

इदानीमासते राजन् स्वे स्व आश्रममण्डले ॥ १६॥

देवगुह्यात्सरस्वत्यां सार्वभौम इति प्रभुः ।

स्थानं पुरन्दराद्धृत्वा बलये दास्यतीश्वरः ॥ १७॥

नवमो दक्षसावर्णिर्मनुर्वरुणसम्भवः ।

भूतकेतुर्दीप्तकेतुरित्याद्यास्तत्सुता नृप ॥ १८॥

पारा मरीचिगर्भाद्या देवा इन्द्रोऽद्भुतः स्मृतः ।

द्युतिमत्प्रमुखास्तत्र भविष्यन्त्यृषयस्ततः ॥ १९॥

आयुष्मतोऽम्बुधारायामृषभो भगवत्कला ।

भविता येन संराद्धां त्रिलोकीं भोक्ष्यतेऽद्भुतः ॥ २०॥

दशमो ब्रह्मसावर्णिरुपश्लोकसुतो महान् ।

तत्सुता भूरिषेणाद्या हविष्मत्प्रमुखा द्विजाः ॥ २१॥

हविष्मान् सुकृतिः सत्यो जयो मूर्तिस्तदा द्विजाः ।

सुवासनविरुद्धाद्या देवाः शम्भुः सुरेश्वरः ॥ २२॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! विवस्वान् के पुत्र यशस्वी श्राद्धदेव ही सातवें (वैवस्वत) मनु हैं। यह वर्तमान मन्वन्तर ही उनका कार्यकाल है। उनकी सन्तान का वर्णन मैं करता हूँ।

वैवस्वत मनु के दस पुत्र हैं- इक्ष्वाकु, नभग, धृष्ट, शर्याति, नरिष्यन्त, नाभाग, दिष्ट, करुष, पृषध्र और वसुमान।

परीक्षित! इस मन्वन्तर में आदित्य, वसु, रुद्र, विश्वेदेव, मरुद्गण, अश्विनीकुमार और ऋभु- ये देवताओं के प्रधान गण हैं और पुरन्दर उनका इन्द्र है। कश्यप, अत्रि, वसिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और भरद्वाज- ये सप्तर्षि हैं। इस मन्वन्तर में भी कश्यप की पत्नी अदिति के गर्भ से आदित्यों के छोटे भाई वामन के रूप में भगवान् विष्णु ने अवतार ग्रहण किया था।

परीक्षित! इस प्रकार मैंने संक्षेप से तुम्हें सात मन्वन्तरों का वर्णन सुनाया; अब भगवान् की शक्ति से युक्त अगले (आने वाले) सात मन्वन्तरों का वर्णन करता हूँ। परीक्षित! यह तो मैं तुम्हें पहले (छठे स्कन्ध में) बता चुका हूँ कि विवस्वान् (भगवान् सूर्य) की दो पत्नियाँ थीं- संज्ञा और छाया। ये दोनों ही विश्वकर्मा की पुत्री थीं। कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि उनकी एक तीसरी पत्नी वडवा भी थी। (मेरे विचार से तो संज्ञा का ही नाम वडवा हो गया था।) उन सूर्यपत्नियों में संज्ञा से तीन सन्तानें हुईं- यम, यमी और श्राद्धदेव। छाया के भी तीन सन्तानें हुईं- सावर्णि, शनैश्चर और तपती नाम की कन्या जो संवरण की पत्नी हुई। जब संज्ञा ने वडवा का रूप धारण कर लिया, तब उससे दोनों अश्विनीकुमार हुए।

आठवें मन्वन्तर में सावर्णि मनु होंगे। उनके पुत्र होंगे निर्मोक, विरजस्क आदि। परीक्षित! उस समय सुतपा, विरजा और अमृतप्रभ नामक देवगण होंगे। उन देवताओं के इन्द्र होंगे विरोचन के पुत्र बलि। विष्णु भगवान् ने वामन अवतार ग्रहण करके इन्हीं से तीन पग पृथ्वी माँगी थी; परन्तु इन्होंने उनको सारी त्रिलोकी दे दी। राजा बलि को एक बार तो भगवान् ने बाँध दिया था, परन्तु फिर प्रसन्न होकर उन्होंने इनको स्वर्ग से भी श्रेष्ठ सुतल लोक का राज्य दे दिया। वे इस समय वहीं इन्द्र के समान विराजमान हैं। आगे चलकर ये ही इन्द्र होंगे और समस्त ऐश्वर्यों से परिपूर्ण इन्द्रपद का भी परित्याग करके परमसिद्धि प्राप्त करेंगे।

गालव, दीप्तिमान्, परशुराम, अश्वत्थामा, कृपाचार्य, ऋष्यश्रृंग और हमारे पिता भगवान् व्यास- ये आठवें मन्वन्तर में सप्तर्षि होंगे। इस समय ये लोग योग बल से अपने-अपने आश्रम मण्डल में स्थित हैं। देवगुह्य की पत्नी सरस्वती के गर्भ से सार्वभौम नामक भगवान् का अवतार होगा। ये ही प्रभु पुरन्दर इन्द्र से स्वर्ग का राज्य छीनकर राजा बलि को दे देंगे।

परीक्षित! वरुण के पुत्र दक्षसावर्णि नवें मनु होंगे। भूतकेतु, दीप्तकेतु आदि उनके पुत्र होंगे। पार, मारीचिगर्भ आदि देवताओं के गण होंगे और अद्भुत नाम के इन्द्र होंगे। उस मन्वन्तर में द्युतिमान् आदि सप्तर्षि होंगे। आयुष्यमान् की पत्नी अम्बुधारा के गर्भ से ऋषभ के रूप में भगवान् का कलावतार होगा। अद्भुत नामक इन्द्र उन्हीं की दी हुई त्रिलोकी का उपभोग करेंगे। दसवें मनु होंगे उपश्लोक के पुत्र ब्रह्मसावर्णि। उनमें समस्त सद्गुण निवास करेंगे। भूरिषेण आदि उनके पुत्र होंगे और हविष्यमान्, सुकृति, सत्य, जय, मूर्ति आदि सप्तर्षि। सुवासन, विरुद्ध आदि देवताओं के गण होंगे और इन्द्र होंगे शम्भु।

विष्वक्सेनो विषूच्यां तु शम्भोः सख्यं करिष्यति ।

जातः स्वांशेन भगवान् गृहे विश्वसृजो विभुः ॥ २३॥

मनुर्वै धर्मसावर्णिरेकादशम आत्मवान् ।

अनागतास्तत्सुताश्च सत्यधर्मादयो दश ॥ २४॥

विहङ्गमाः कामगमा निर्वाणरुचयः सुराः ।

इन्द्रश्च वैधृतस्तेषामृषयश्चारुणादयः ॥ २५॥

आर्यकस्य सुतस्तत्र धर्मसेतुरिति स्मृतः ।

वैधृतायां हरेरंशस्त्रिलोकीं धारयिष्यति ॥ २६॥

भविता रुद्रसावर्णी राजन् द्वादशमो मनुः ।

देववानुपदेवश्च देवश्रेष्ठादयः सुताः ॥ २७॥

ऋतधामा च तत्रेन्द्रो देवाश्च हरितादयः ।

ऋषयश्च तपोमूर्तिस्तपस्व्याग्नीध्रकादयः ॥ २८॥

स्वधामाख्यो हरेरंशः साधयिष्यति तन्मनोः ।

अन्तरं सत्यसहसः सूनृतायाः सुतो विभुः ॥ २९॥

मनुस्त्रयोदशो भाव्यो देवसावर्णिरात्मवान् ।

चित्रसेनविचित्राद्या देवसावर्णिदेहजाः ॥ ३०॥

देवाः सुकर्मसुत्रामसंज्ञा इन्द्रो दिवस्पतिः ।

निर्मोकतत्त्वदर्शाद्या भविष्यन्त्यृषयस्तदा ॥ ३१॥

देवहोत्रस्य तनय उपहर्ता दिवस्पतेः ।

योगेश्वरो हरेरंशो बृहत्यां सम्भविष्यति ॥ ३२॥

मनुर्वा इन्द्रसावर्णिश्चतुर्दशम एष्यति ।

उरुगम्भीरबुद्ध्याद्या इन्द्रसावर्णिवीर्यजाः ॥ ३३॥

पवित्राश्चाक्षुषा देवाः शुचिरिन्द्रो भविष्यति ।

अग्निर्बाहुः शुचिः शुद्धो मागधाद्यास्तपस्विनः ॥ ३४॥

सत्रायणस्य तनयो बृहद्भानुस्तदा हरिः ।

वितानायां महाराज क्रियातन्तून् वितायिता ॥ ३५॥

राजंश्चतुर्दशैतानि त्रिकालानुगतानि ते ।

प्रोक्तान्येभिर्मितः कल्पो युगसाहस्रपर्ययः ॥ ३६॥

विश्वसृज की पत्नी विषूचि के गर्भ से भगवान् विष्वक्सेन के रूप में अंशावतार ग्रहण करके शम्भु नामक इन्द्र से मित्रता करेंगे।

ग्यारहवें मनु होंगे अत्यन्त संयमी धर्म सावर्णि। उनके सत्य, धर्म आदि दस पुत्र होंगे। विहंगम, कामगम, निर्वाणरुचि आदि देवताओं के गण होंगे। अरुणादि सप्तर्षि होंगे वैधृत नाम के इन्द्र होंगे। आर्यक की पत्नी वैधृता के गर्भ से धर्मसेतु के रूप में भगवान् का अंशावतार होगा और उसी रूप में वे त्रिलोकी की रक्षा करेंगे।

परीक्षित! बारहवें मनु होंगे रुद्र सार्वणि। उनके देववान्, उपदेव और देवश्रेष्ठ आदि पुत्र होंगे। उस मन्वन्तर में ऋतुधामा नामक इन्द्र होंगे और हरित आदि देवगण। तपोमूर्ति, तपस्वी आग्नीध्रक आदि सप्तर्षि होंगे। सत्यसहाय की पत्नी सूनृता के गर्भ से स्वधाम के रूप में भगवान् का अंशावतार होगा और उसी रूप में भगवान उस मन्वन्तर का पालन करेंगे।

तेरहवें मनु होंगे परम जितेन्द्रिय देवसावर्णि। चित्रसेन, विचित्र आदि उनके पुत्र होंगे। सुकर्म और सुत्राम आदि देवगण होंगे तथा इन्द्र का नाम होगा दिवस्पति। उस समय निर्मोक और तत्त्वदर्श आदि सप्तर्षि होंगे। देवहोत्र कि पत्नी बृहती के गर्भ से योगेश्वर के रूप में भगवान का अंशावतार होगा और उसी रूप में भगवान् दिवस्पति को इन्द्रपद देंगे।

महराज! चौदहवें मनु होंगे इन्द्र सावर्णि। उरू, गम्भीर, बुद्धि आदि उनके पुत्र होंगे। उस समय पवित्र, चाक्षुष आदि देवगण होंगे और इन्द्र का नाम होगा शुचि। अग्नि, बाहु, शुचि, शुद्ध और मागध आदि सप्तर्षि होंगे। उस समय सत्रायण की पत्नी विताना के गर्भ से बृहद्भानु के रूप में भगवान अवतार ग्रहण करेंगे तथा कर्मकाण्ड का विस्तार करेंगे।

परीक्षित! ये चौदह मन्वन्तर भूत, वर्तमान और भविष्य- तीनों ही काल में चलते रहते हैं। इन्हीं के द्वारा एक सहस्र चतुर्युगी वाले कल्प के समय की गणना की जाती है।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां अष्टमस्कन्धे मन्वन्तरानुवर्णनं नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३॥

जारी-आगे पढ़े............... अष्टम स्कन्ध: चतुर्दशोऽध्यायः

No comments:

Post a Comment

Please do not enter any spam link in the comment box