नरसिंहपुराण अध्याय २५
नरसिंहपुराण अध्याय २५ में इक्ष्वाकु की तपस्या और ब्रह्माजी द्वारा विष्णुप्रतिमा की प्राप्ति का वर्णन है।
श्रीनरसिंहपुराण अध्याय २५
Narasingha puran
chapter 25
नरसिंह पुराण पचीसवाँ अध्याय
नरसिंहपुराण अध्याय २५
श्रीनरसिंहपुराण पञ्चविंशतितमोऽध्यायः
॥ॐ नमो भगवते श्रीनृसिंहाय नमः॥
नरसिंहपुराण
अध्याय २५
भरद्वाज उवाच
कथं स्तुतो गणाध्यक्षस्तेन राज्ञा
महात्मना ।
यथा तेन तपस्तप्तं तन्मे वद महामते
॥१॥
भरद्वाजजी ने पूछा - महामते ! उन
महात्मा राजा ने किस प्रकार गणेशजी का स्तवन किया? तथा उन्होंने जिस प्रकार तपस्या की, उसका आप मुझसे
वर्णन करें ॥१॥
सूत उवाच
चतुर्थीदिवसे राजा स्नात्वा
त्रिषवणं द्विज ।
रक्ताम्बरधरो भूत्वा रक्तगन्धानुलेपनः
॥२॥
सुरक्तकुसुमैर्हेद्यैर्विनायकमथार्चयत्
।
रक्तचन्दनतोयेन स्नानपूर्वं यथाविधि
॥३॥
विलिप्य रक्तगन्धेन रक्तपुष्पैः
प्रपूजयत् ।
ततोऽसौ दत्तवान् धूपमाज्ययुक्तं
सचन्दनम् ।
नैवेद्यं चैव हारिद्रं
गुडखण्डघृतप्लुतम् ॥४॥
एवं सुविधिना पूज्य
विनायकमथास्तवीत् ।
सूतजी बोले- द्विज ! गणेश-
चतुर्थी के दिन राजा ने त्रिकाल स्नान करके रक्तवस्त्र धारण किया और लाल चन्दन
लगाकर मनोहर लाल फूलों तथा रक्तचन्दनमिश्रित जल से गणेशजी को स्नान कराके
विधिवत् उनका पूजन किया । स्नान कराने के बाद उनके श्रीअङ्गों में लाल चन्दन लगाया
। फिर रक्तपुष्पों से उनकी पूजा की । तदनन्तर उन्हें घृत और चन्दन मिला हुआ धूप
निवेदन किया । अन्त में हल्दी, घी और गुडखण्ड
के मेल से तैयार किया हुआ मधुर नैवेद्य अर्पण किया । इस प्रकार सुन्दर विधिपूर्वक
भगवान् विनायक का पूजन करके राजा ने उनकी स्तुति आरम्भ की ॥२ - ४१/२॥
विनायक स्तुति
इक्ष्वाकुरुवाच
नमस्कृत्य महादेवं स्तोष्येऽहं तं
विनायकम् ॥५॥
महागणपतिं शूरमजितं ज्ञानवर्धनम् ।
एकदन्तं द्विदन्तं च चतुर्दन्तं
चतुर्भुजम् ॥६॥
त्र्यक्षं त्रिशूलहस्तं च
रक्तनेत्रं वरप्रदम् ।
आम्बिकेयं शूर्पकर्णं प्रचण्डं च
विनायकम् ॥७॥
आरक्तं दण्डिनं चैव वह्निवक्त्रं
हुतप्रियम् ।
अनर्चितो विघ्नकरः सर्वकार्येषु यो
नृणाम् ॥८॥
तं नमामि गणाध्यक्षं
भीममुग्रमुमासुतम् ।
मदमत्तं विरुपाक्षं
भक्तिविघ्ननिवारकम् ॥९॥
सूर्यकोटिप्रतीकाशं
भिन्नाञ्जनसमप्रभम् ।
बुद्धं सुनिर्मलं शान्तं नमस्यामि विनायकम्
॥१०॥
नमोऽस्तु गजवक्त्राय गणानां पतये
नमः ।
मेरुमन्दररुपाय नमः कैलासवासिने
॥११॥
विरुपाय नमस्तेऽस्तु नमस्ते
ब्रह्मचारिणे ।
भक्तस्तुताय देवाय नमस्तुभ्य्णं
विनायक ॥१२॥
इक्ष्वाकु बोले - मैं महान् देव
गणेशजी को प्रणाम करके उन विघ्नराज का स्तवन करता हूँ,
जो महान् देवता एवं गणों के स्वामी हैं, शूरवीर
तथा अपराजित हैं और ज्ञानवृद्धि करानेवाले हैं । जो एक, दो
तथा चार दाँतोंवाले हैं, जिनकी चार भुजाएँ हैं। जो तीन
नेत्रों से युक्त और हाथ में त्रिशूल धारण करते हैं, जिनके
नेत्र रक्तवर्ण हैं, जो वर देनेवाले हैं, जो माता पार्वती के पुत्र हैं, जिनके सूप- जैसे कान
हैं, जिनका वर्ण कुछ- कुछ लाल है, जो
दण्डधारी तथा अग्निमुख हैं एवं जिन्हें होम प्रिय है तथा जो प्रथम पूजित न होने पर
मनुष्यों के सभी कार्यों में विघ्नकारी होते हैं, उन भीमकाय
और उग्र स्वभाववाले पार्वतीनन्दन गणेशजी को मैं नमस्कार करता हूँ । जो मद से मत्त
रहते हैं, जिनके नेत्र भयंकर हैं और जो भक्तों के विघ्न दूर
करनेवाले हैं, करोड़ों सूर्य के समान जिनकी कान्ति है,
खान से काटकर निकाले हुए कोयले की भाँति जिनकी श्याम प्रभा है तथा
जो विमल और शान्त हैं, उन भगवान् विनायक को मैं नमस्कार करता
हूँ । मेरुगिरि के समान रुप और हाथी के मुख- सदृश मुखवाले, कैलासवासी
गणपति को नमस्कार है । विनायक देव ! आप विरुपधारी और ब्रह्मचारी हैं, भक्तजन आपकी स्तुति करते हैं, आपको बारंबार नमस्कार
है ॥५ - १२॥
त्वया पुराण पूर्वेषां देवानां
कार्यसिद्ध्यये ।
गजरुपं समास्थाय त्रासिताः
सर्वदानवाः ॥१३॥
ऋषीणां देवतानां च नायकत्वं
प्रकाशितम् ।
यतस्ततः सुरैरग्रे पूज्यसे त्वं
भवात्मज ॥१४॥
त्वामाराध्य गणाध्यक्षं सर्वज्ञं
कामरुपिणम् ।
कार्यार्थं रक्तकुसुमै
रक्तचन्दनवारिभिः ॥१५॥
रक्ताम्बरधरो भूत्वा चतुर्थ्यामर्चयेज्जपेत्
।
त्रिकालमेककालं वा पूजयेन्नियताशनः
॥१६॥
राजानं राजपुत्रं वा राजमन्त्रिणमेव
वा ।
राज्यं च सर्वविघ्नेश वशं कुर्यात्
सराष्ट्रकम् ॥१७॥
पुराणपुरुष ! आपने पूर्ववर्ती
देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिये हाथी का स्वरुप धारण करके समस्त दानवों को
भयभीत किया था । शिवपुत्र ! आपने ऋषि और देवताओं पर अपना स्वामित्व प्रकट कर दिया
है,
इसी से देवगण आपकी प्रथम पूजा करते हैं । सर्वविघ्नेश्वर ! यदि
मनुष्य रक्तवस्त्र धारण कर नियमित आहार करके अपने कार्य की सिद्धि के लिये लाल
पुष्पों और रक्तचन्दन- युक्त जल से चतुर्थी के दिन तीनों काल या एक काल में आप
कामरुपी सर्वज्ञ गणपति का पूजन करे तथा आपका नाम जपे तो वह पुरुष राजा, राजकुमार, राजमन्त्री को राज्य अथवा समस्त राष्ट्र सहित
अपने वश में कर सकता है ॥१३ - १७॥
अविघ्नं तपसो मह्यं कुरु नौमि
विनायक ।
मयेत्थं संस्तुतो भक्त्या पूजितश्च
विशेषतः ॥१८॥
यत्फलं सर्वतीर्थेषु सर्वयज्ञेषु
यत्फलम् ।
तत्फलं पूर्णमाप्नोति स्तुत्वा देवं
विनायकम् ॥१९॥
विषमं न भवेत् तस्य न च गच्छेत्
पराभवम् ।
न च विघ्नो भवेत् तस्य जातो
जातिस्मरो भवेत् ॥२०॥
य इदं पठते स्तोत्रं
षडभिर्मासैर्वरं लभेत् ।
संवत्सरेण सिद्धिं च लभते नात्र
संशयः ॥२१॥
विनायक ! मैं आपकी स्तुति करता हूँ
। आप मेरे द्वारा भक्तिपूर्वक स्तवन एवं विशेषरुप से पूजन किये जाने पर मेरी
तपस्या के विघ्न को दूर कर दें । सम्पूर्ण तीर्थो और समस्त यज्ञों में जो फल
प्राप्त होता है, उसी फल को मनुष्य
भगवान् विनायक का स्तवन करके पूर्णरुप से प्राप्त कर लेता है । उस पर कभी संकट
नहीं आता, उसका कभी तिरस्कार नहीं होता और न उसके कार्य में
विघ्न ही पड़ता है; वह जन्म लेने के बाद पूर्वजन्म की बातों को
स्मरण करनेवाला होता है । जो प्रतिदिन इस स्तोत्र का पाठ करता है, वह छः महीनों तक निरन्तर पाठ करने से गणेशजी से मनोवाञ्छित वर प्राप्त
करता है और एक वर्ष में पूर्णतः सिद्धि प्राप्त कर लेता है- इसमे तनिक भी संशय
नहीं है ॥१८ - २१॥
सूत उवाच
एवं स्तुत्वा पुरा राजा गणाध्यक्षं
द्विजोत्तम ।
तापसं वेषमास्थाय तपश्चर्तुं गतो
वनम् ॥२२॥
उत्सृज्य वस्त्रं नागत्वक्सदृशं
बहुमूल्यकम् ।
कठिनां तु त्वचं वाक्षीं कट्यां
धत्ते नृपोत्तमः ॥२३॥
तथा रत्नानि दिव्यानि वलयानि निरस्य
तु ।
अक्षसूत्रमलंकारं फलैः पद्मस्य
शोभनम् ॥२४॥
तथोत्तमाङ्गे मुकुटं
रत्नहाटकशोभितम् ।
त्यक्त्वा जटाकलापं तु तपोऽर्थे
बिभृयान्नृपः ॥२५॥
सूतजी बोले - द्विजोत्तमगण ! इस
प्रकार राजा इक्ष्वाकु पहले गणेशजी का स्तवन करके, फिर तपस्वी का वेष धारणकर तप करने के लिये वन में चले गये । साँप की त्वचा
के समान मुलायम एवं बहुमूल्य वस्त्र त्यागकर वे श्रेष्ठ महाराज कमर में वृक्षों की
कठोर छाल पहनने लगे । दिव्य रत्नों के हार और कड़े निकालकर हाथ में अक्षसूत्र तथा
गले में कमलगट्टों की बनी हुई सुन्दर माला धारण करने लगे । इसी प्रकार वे नरेश
मस्तक पर से रत्न तथा सुवर्ण से सुशोभित मुकुट हटाकर वहाँ तपस्या के लिये जटाजूट
रखने लगे ॥२२ - २५॥
कृत्वेत्थं स तपोवेषं वसिष्ठोक्तं
तपोवनम् ।
प्रविश्य च तपस्तेपे शाकमूलफलाशनः
॥२६॥
ग्रीष्मे
पञ्चाग्निमध्यस्थोऽतपत्काले महातपाः ।
वर्षाकाले निरालम्बो हेमन्ते च
सरोजले ॥२७॥
इन्द्रियाणि समस्तानि नियम्य हदये
पुनः ।
मनो विष्णौ समावेश्य मन्त्रं वै
द्वादशाक्षरम् ॥२८॥
जपतो वायुभक्षस्य तस्य राज्ञो
महात्मनः ।
आविर्बभूव भगवान् ब्रह्मा
लोकपितामहः ॥२९॥
तमागतमथालोक्य पद्मयोनिं चतुर्मुखम्
।
प्रणम्य भक्तिभावेन स्तुत्या च
पर्यतोषयत् ॥३०॥
इस प्रकार वसिष्ठजी के कथनानुसार
तापस- वेष धारणकर तपोवन में प्रविष्ट हो, वे
शाक और फलमूल का आहार करते हुए तपस्या में प्रवृत्त हो गये । महातपस्वी राजा
इक्ष्वाकु ग्रीष्म ऋतु में पञ्चाग्नि के बीच स्थित होकर तपस्या करते थे, वर्षा के समय खुले मैदान में रहते और शीतकाल में सरोवर के जल में खड़े होकर
तप करते थे । इस प्रकार समस्त इन्द्रियों को मन में निरुद्ध करके, मन को भगवान् विष्णु में लीन कर द्वादशाक्षरमन्त्र का जप करते और वायु
पीकर रहते हुए उन महात्मा राजा के समक्ष लोक- पितामह भगवान् ब्रह्माजी प्रकट हुए।
उन चार मुखोंवाले पद्मयोनि ब्रह्माजी को आया देख राजा ने उन्हें भक्तिभाव से
प्रणाम एवं उनकी स्तुति करके संतुष्ट किया ॥२६ - ३०॥
नमो हिरण्यगर्भाय जगत्स्त्रष्ट्रे
महात्मने ।
वेदशास्त्रार्थविदुषे चतुर्वक्त्राय
ते नमः ॥३१॥
इति स्तुतो जगत्स्त्रष्टा ब्रह्मा
प्राह नृपोत्तमम् ।
तपस्यभिरतं शान्तं त्यक्तराज्यं
महासुखम् ।
(राजा बोले- ) 'संसार की सृष्टि करनेवाले तथा वेद-
शास्त्रों के मर्मज्ञ, चार मुखोंवाले महात्मा हिरण्यगर्भ
ब्रह्माजी को नमस्कार है ।' इस प्रकार स्तुति की जाने पर
जगत्स्त्रष्टा ब्रह्माजी ने राज्य त्यागकर तपस्या में लगे हुए उन शान्त एवं महान्
सुखी श्रेष्ठ नरेश से कहा ॥३११/२॥
ब्रह्मोवाच
लोकप्रकाशको राजन् सूर्यस्तव
पितामहः ॥३२॥
मुनीनामपि सर्वेषां सदा मान्यो मनुः
पिता ।
कृतवन्तौ तपः पूर्वं तीव्रं
पितृपितामहौ ॥३३॥
किमर्थं राज्यभोगं तु त्यक्त्वा
सर्वं नृपोत्तम ।
तपः करोषि घोरं त्वं समाचक्ष्व
महामते ॥३४॥
ब्रह्माजी बोले - राजन् ! समस्त
विश्व को प्रकाशित करनेवाले तुम्हारे पितामह सूर्य तथा पिता मनु भी सदा ही सभी
मुनियों के मान्य हैं । तुम्हारे पिता और पितामह ने भी पूर्वकाल में तीव्र तपस्या
की थी । (उन्हीं के समान आज तुम भी तप कर रहे हो ।) महामते नृपश्रेष्ठ ! सारा
राज्य- भोग छोड़कर किसलिये यह घोर तप कर रहे हो? इसका
कारण बताओ ॥३२ - ३४॥
इत्युक्तो ब्रह्मणा राजा तं
प्रणम्याब्रवीद्वचः ।
द्रष्टुमिच्छंस्तपश्चर्याबलेन
मधुसूदनम् ॥३५॥
करोम्येवं तपो ब्रह्मन्
शङ्खचक्रगदाधरम् ।
इत्युक्तः प्राह राजानं पद्मजन्मा
हसन्निव ॥३६॥
ब्रह्माजी के इस प्रकार पूछने पर राजा
ने उनको प्रणाम करके कहा - 'ब्रह्मन् ! मैं
तपोबल से शङ्ख, चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान् मधुसूदन का
प्रत्यक्ष दर्शन करने की इच्छा लेकर ही ऐसा तप कर रहा हूँ ।' राजा के यों कहने पर कमलजन्मा ब्रह्माजी ने हँसते हुए- से उनसे कहा ॥३५ -
३६॥
न शक्यस्तपसा द्रष्टुं त्वया
नारायणो विभुः ।
मादृशैरपि नो दृश्यः केशवः
क्लेशनाशनः ॥३७॥
पुरातनीं पुण्यकथां कथयामि निबोध मे
।
निशान्ते प्रलये लोकान् निनीय
कमलेक्षणः ॥३८॥
अनन्तभोगशयने योगनिद्रां गतो हरिः ।
सनन्दनाद्यैर्मुनिभिः स्तूयमानो
महामते ॥३९॥
तस्य सुप्तस्य नाभौ तु महत्पद्ममजायत
।
तस्मिन् पद्मे शुभे राजन् जातोऽहं
वेदवित् पुरा ॥४०॥
ततो भूत्वा त्वधोदृष्टिर्दृष्टवान्
कमलेक्षणम् ।
अनन्तभोगपर्यङ्के भिन्नाञ्जननिभं
हरिम् ॥४१॥
अतसीकुसुमाभासं शयानं पीतवाससम् ।
दिव्यरत्नविचित्राङ्गं मुकुटेन
विराजितम् ॥४२॥
''राजन् ! सर्वत्र व्यापक भगवान्
नारायण का दर्शन तुम केवल तपस्या से नहीं कर सकोगे । (औरों की तो बात ही क्या है,)
हमारे- जैसे लोगों को भी क्लेशनाशन भगवान् केशव का दर्शन नहीं हो
पाता । महामते ! मैं तुम्हें एक पुरातन पवित्र कथा सुनाता हूँ, सुनो - 'प्रलय की रात में कमललोचन भगवान् विष्णु ने समस्त
लोकों को अपने में लीन कर लिया और सनन्दन आदि मुनियों से अपनी स्तुति सुनते हुए वे
'अनन्त' नामक शेषनाग की शय्यापर
योगनिद्रा का आश्रय ले सो गये । राजन् ! उन सोये हुए भगवान की नाभि से प्रकाशमान
एक बहुत बड़ा कमल उत्पन्न हुआ । पूर्वकाल में उस प्रकाशमान कमल पर सर्वप्रथम मुझ
वेदवेत्ता ब्रह्मा का ही आविर्भाव हुआ । तत्पश्चात् नीचे की ओर दृष्टि करके मैंने
खान से काटकर निकाले हुए कोयले के समान श्यामवर्णवाले भगवान् विष्णु को शेषनाग की
शय्या पर सोते देखा । उनके श्रीअङ्गों की कान्ति अलसी के फूल की भाँति सुन्दर जान
पड़ती थी, दिव्य रत्नों के आभरणों से उनके श्रीविग्रह की
विचित्र शोभा हो रही थी और उनका मस्तक मुकुट से शोभायमान था ॥३७ - ४२॥
कुन्देन्दुसदृशाकारमनन्तं च महामते
।
सहस्त्रफणमध्यस्थैर्मणिभिर्दीप्तिमत्तरम्
॥४३॥
क्षणमात्रं तु तं दृष्ट्वा
पुनस्तत्र न दृष्टवान् ।
दुःखेन महताऽऽविष्टो बभूवाहं
नृपोत्तम ॥४४॥
ततो न्ववातरं तस्मात् पद्मनालं
समाश्रितः ।
कौतूहलेन तं द्रष्टुं नारायणमनामयम्
॥४५॥
ततस्त्वन्विष्य राजेन्द्र सलिलान्ते
न दृष्टवान् ।
श्रीशं पुनस्तमेवाहं पद्ममाश्रित्य
चिन्तयन् ॥४६॥
तद्रूपं वासुदेवस्य द्रष्टुं तेपे
महत्तपः ।
ततो मामन्तरिक्षस्था
वागुवाचाशरीरिणी ॥४७॥
'महामते ! उस समय मैंने उन
अनन्तदेव शेषनाग का भी दर्शन किया, जिनका आकार कुन्द और
चन्द्रमा के समान श्वेत था तथा जो हजारों फणों की मणियों से अत्यन्त देदीप्यमान हो
रहे थे । नृपश्रेष्ठ ! क्षण भर ही वहाँ उन्हें देखकर मैं फिर उनका दर्शन न पा सका,
इससे अत्यन्त दुःखी हो गया । तब मैं कौतुहलवश निरामय भगवान् नारायण का
दर्शन करने के लिये कमलनाल का सहारा ले वहाँ से नीचे उतरा; परंतु
राजेन्द्र ! उस समय जल के भीतर बहुत खोजने पर भी मैं उन लक्ष्मीपति का पुनः दर्शन
न पा सका । तब मैं फिर उसी कमल का आश्रय ले वासुदेव के उसी रुप का चिन्तन करता हुआ
उनके दर्शन के लिये बड़ी भारी तपस्या करने लगा । तत्पश्चात् अन्तरिक्ष के भीतर से
किसी अव्यक्त शरीरवाली वाणी ने मुझसे कहा ॥४३ - ४७॥
वृथा किं क्लिश्यते ब्रह्मन्
साम्प्रतं कुरु मे वचः ।
न दृश्यो भगवान् विष्णुस्तपसा
महतापि ते ॥४८॥
सृष्टिं कुरु तदाज्ञसो यदि
द्रष्टुमिहेच्छसि ।
शुद्धस्फटिकसंकाशनागपर्यङ्कशायिनम्
॥४९॥
यददृष्टं शार्ङ्गिणो रुपं
भिन्नाञ्जनसमप्रभम् ।
प्रतिभानियतं रुपं विमानस्थं महामते
॥५०॥
भज नित्यमनालस्यस्ततो द्रक्ष्यासि
माधवम् ।
''ब्रह्मन् ! क्यों व्यर्थ क्लेश
उठा रहे हो? इस समय मेरी बात मानो । बहुत बड़ी तपस्या से भी
तुम्हें भगवान् विष्णु का दर्शन नहीं हो सकेगा । यदि यहाँ शुद्ध स्फटिकमणि के समान
श्वेत नाग- शय्या पर शयन करनेवाले भगवान् विष्णु का दर्शन करना चाहते हो तो उनके
आज्ञानुसार सृष्टि करो । महामते ! तुमने 'शार्ङ्ग' धनुष धारण करनेवाले उन भगवान का, जो अञ्जन- पुञ्ज के
समान श्याम सुषमा से युक्त तथा स्वभावतः प्रतिभाशालीरुप विमान (शेषशय्या)- पर
स्थित देखा है, उसी का आलस्यरहित होकर भजन- ध्यान करो,
तब उन माधव को देख सकोगे ॥४८ - ५०१/२॥
तयेत्त्थं चोदितो राजंस्त्यक्त्वा
तप्तमनुक्षणम् ॥५१॥
सृष्टवान् लोकभूतानां सृष्टिं
सृष्ट्वा स्थितस्य च ।
आविर्बभूव मनसि विश्वकर्मा
प्रजापतिः ॥५२॥
अनन्तकृष्णायोस्तेन द्वे रुपे
निर्मिते शुभे ।
विमानस्थो यथापूर्वं मया दृष्टो जले
नृप ॥५३॥
तथैव तं ततो भक्त्या सम्पूज्याहं
हरिं स्थितः ।
तत्प्रसादात्तपः श्रेष्ठं मया
ज्ञानमनुत्तमम् ॥५४॥
लब्ध्वा मुक्तिं च पश्यामि
अविकारक्रियासुखम् ।
''राजन् ! उस आकाशवाणी द्वारा इस
प्रकार प्रेरित हो मैंने निरन्तर की जानेवाली तीव्र तपस्या का अनुष्ठान त्यागकर इस
जगत के प्राणियों की सृष्टि की । सृष्टि करके स्थित होने पर मेरे हृदय में
प्रजापति विश्वकर्मा का प्राकट्य हुआ । उन्होंने 'अनन्त'
नामक शेषनाग और भगवान् विष्णु की दो चमकीली प्रतिमाएँ बनायीं ।
नरेश्वर ! मैंने पहले जल के भीतर शेष- शय्या पर जिस रुप में देख चुका था, उसी रुप में भगवान् श्रीहरि की वह प्रतिमा बनायी गयी थी । तब मैं उन
श्रीहरि के उस श्रीविग्रह की भक्तिपूर्वक पूजा करके और उन्हीं के प्रसाद से
श्रेष्ठ तपरुप परम उत्तम ज्ञान प्राप्त करके विकाररहित नित्यानन्दमय मोक्ष- सुख का
अनुभव करने लगा ॥५१ - ५४१/२॥
तदहं ते प्रवक्ष्यामि हितं
नृपवरेश्वर ॥५५॥
विसृज्यैतत्तपो घोरं पुरीं व्रज
निजां नृप ।
प्रजानां पालनं धर्मस्तपश्चैव
महीभृताम् ॥५६॥
विमानं प्रेषयिष्यामि
सिद्धद्विजगणान्वितम् ।
तत्राराधय देवेशं बाह्यार्थैरखिलैः
शुभैः ॥५७॥
नारायणमनन्ताख्ये शयानं
क्रतुभिर्यजन् ।
निष्कामो नृपशार्दूल प्रजा धर्मेण
पालय ॥५८॥
प्रसादाद्वासुदेवस्य मुक्तिस्ते
भविता नृप ।
इत्युक्त्वा तं जगामाथ ब्रह्मलोकं
पितामहः ॥५९॥
''राजराजेश्वर ! इस समय मैं
तुम्हारे हित की बात बता रहा हूँ, सुनो - राजन् ! इस घोर
तपस्या को छोड़कर अब अपनी पुरी को लौट जाओ । प्रजाओं का पालन करना ही राजाओं का
धर्म तथा तप है । मैं सिद्धों और ब्राह्मणोंसहित उस विमान को, जिस पर भगवान की प्रतिमा है, तुम्हारे पास भेजूँगा ।
उसी में तुम सुन्दर बाह्य उपचारों द्वारा उन देवेश्वर की आराधना करो । नृपश्रेष्ठ
! तुम यज्ञों द्वारा 'अनन्त' नामक
शेषनाग की शय्या पर शयन करनेवाले भगवान् नारायण का निष्कामभाव से यज्ञों द्वारा
आराधन करते हुए धर्मपूर्वक प्रजा का पालन करो । नृप ! भगवान् वासुदेव की कृपा से
अवश्य ही तुम्हारी मुक्ति हो जायगी ।'' राजा से यों कहकर
लोकपितामह ब्रह्माजी अपने धाम को चले गये ॥५५ - ५९॥
इक्ष्वाकुश्चिन्तयन्नास्ते पद्मयोनिवचो
द्विज ।
आविर्बभूव पुरतो विमानं तन्महीभृतः
॥६०॥
ब्रह्मदत्तं द्विजयुतं माधवानन्तयोः
शुभम् ।
तं दृष्ट्वा परया भक्त्या नत्वा च
पुरुषोत्तमम् ॥६१॥
ऋषीन् प्रणम्य विप्रांश्च तदादाय
ययौ पुरीम् ।
पौरैर्जनैश्च नारीभिर्दृष्टः
शोभासमन्वितैः ॥६२॥
लाजा विनिक्षिपद्भिश्च नीतो राजा
स्वकं गृहम् ।
स्वमन्दिरे विशाले तु विमानं
वैष्णवं शुभम् ॥६३॥
संस्थाप्याराधयामास
तैर्द्विजैरचिंतं हरिम् ।
महिष्यः शोभना यास्तु पिष्ट्वा तु
हरिचन्दनम् ॥६४॥
मालां कृत्वा सुगन्धाढ्यां
प्रीतिस्तस्य ववर्ध ह ।
पौराः कर्पूरश्रीखण्डं
कुङ्कुमाद्यगुरुं तथा ॥६५॥
कृस्त्रं विशेषतो वस्त्रं महिषाख्यं
च गुग्गुलम् ।
पुष्पाणि विष्णुयोग्यानि ददुरानीय
भूपतेः ॥६६॥
द्विज ! ब्रह्माजी के चले जाने पर
राजा इक्ष्वाकु उनकी बातों पर विचार ही कर रहे थे, तबतक उनके समक्ष वह विष्णु और अनन्त की प्रतिमाओं का शुभ विमान, जिसे ब्रह्मजी ने दिया था, सिद्ध ब्राह्मणोंसहित
प्रकट हो गया । उन भगवान् पुरुषोत्तम का दर्शन करके उन्होंने बड़ी भक्ति के साथ
उन्हें प्रणाम किया तथा साथ में आये हुए ऋषियों एवं ब्राह्मणों को भी नमस्कार करके
वे उस विमान को लेकर अपनी पुरी को गये । वहाँ नगर के सभी शोभायमान स्त्री- पुरुषो ने
राजा का दर्शन किया और लावा छींटते हुए वे उन्हें राजभवन में ले गये । राजा ने
अपने विशाल मन्दिर में उस सुन्दर वैष्णव- विमान को स्थापित किया और साथ आये हुए उन
ब्राह्मणों द्वारा पूजित भगवान् विष्णु की वे आराधना करने लगे । उनकी सुन्दरी रानियाँ
चन्दन घिसकर और सुगन्धित फूलों का हार गूँथकर अर्पण करती थीं, इससे राजा को बड़ी प्रसन्नता होती थी । इसी प्रकार नगर- निवासी जन कपूर,
श्रीखण्ड, कुङ्कुम, अगुरु
आदि सभी उपचार और विशेषतः वस्त्र, गुग्गुल तथा श्रीविष्णु के
योग्य पुष्प ला- लाकर राजा को अर्पित करते थे ॥६० - ६६॥
विमानस्थं हरि पूज्य
गन्धपुष्पादिभिः क्रमात् ।
त्रिसंध्यं परया भक्त्या जपैः
स्तोत्रैश्च वैष्णवेः ॥६७॥
गीतैः कोलाहलैः शब्दैः
शङ्खवादिनत्रनादितैः ।
प्रेक्षणैरपि शास्त्रोक्तैः
प्रीतैश्च निशिजागरैः ॥६८॥
कारयामास सुचिरमुत्सवं परमं हरेः ।
यागैश्च तोषयित्वा तं सर्वदेवमयं
हरिम् ॥६९॥
निष्कामो दानधर्मैश्च परं
ज्ञानमवाप्तवान् ।
यजन् यज्ञं महीं रक्षन् स कुर्वन्
केशवार्चनम् ॥७०॥
उत्पाद्य पुत्रान् पित्रर्थं
ध्यानात्त्यक्त्वा कलेवरम् ।
ध्यायन् वै केवलं ब्रह्म
प्राप्तवान् वैष्णवं पदम् ॥७१॥
अजं विशोकं विमलं विशुद्धं शान्त
सदानन्दचिदात्मकं ततः ।
विहाय संसारमनन्तदुः खं जगाम
तद्विष्णुपदं हि राजा ॥७२॥
राजा तीनों संध्याओं में विमान पर
विराजमान भगवान् श्रीहरि की क्रमशः गन्ध- पुष्प आदि उपचारों द्वारा बड़ी भक्ति से
पूजा करते थे । श्रीविष्णु के नामों का जप, उनके
स्तोत्रों का पाठ, उनके गुणों का गान और शङ्ख आदि वाद्यों का
शब्द करते- कराते थे । शास्त्रोक्त विधि से प्रेमपूर्वक सजायी हुई भगवान की झाँकियों
तथा रात्रि में जागरण आदि के द्वारा वे सदा ही देर तक भगवत्सम्बन्धी उत्सव कराया
करते थे । निष्कामभाव से किये गये यज्ञ, दान, तथा धर्माचरणों द्वारा उन सर्वदेवमय भगवान् विष्णु को संतुष्ट करके राजा ने
परम उत्तम ज्ञान प्राप्त कर लिया । यज्ञों का अनुष्ठान, पृथ्वी
का पालन और भगवान् केशव का पूजन करते हुए राजा ने पितृगणों की तृप्ति के निमित्त
श्राद्ध आदि कर्म करने के लिये पुत्रों को उत्पन्न किया और केवल ब्रह्म का चिन्तन
करते हुए ध्यान के द्वारा ही शरीर का त्यागकर भगवान् विष्णु के धाम को प्राप्त कर
लिया । इस प्रकार राजा इक्ष्वाकु अनन्त दुःखों से पूर्ण संसार का त्याग करके अज,
अशोक, अमल, विशुद्ध,
शान्त एवं सच्चिदानन्दमय विष्णुपद को प्राप्त हो गये ॥६७ - ७२॥
इति श्रीनरसिंहपुराणे
इक्ष्वाकुचरिते पञ्चविंशोऽध्यायः ॥२५॥
इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराण के
अन्तर्गत ' इक्ष्वाकुचरित्र ' विषयक पचीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥२५॥
आगे जारी- श्रीनरसिंहपुराण अध्याय 26
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