नरसिंहपुराण अध्याय २४

नरसिंहपुराण अध्याय २४  

नरसिंहपुराण अध्याय २४ में सूर्यवंश- राजा इक्ष्वाकु का भगवत्प्रेम; उनका भगवद्दर्शन के हेतु तपस्या के लिये प्रस्थान का वर्णन है।

नरसिंहपुराण अध्याय २४

श्रीनरसिंहपुराण अध्याय २४  

Narasingha puran chapter 24

नरसिंह पुराण चौबीसवाँ अध्याय

नरसिंहपुराण अध्याय २४    

श्रीनरसिंहपुराण चतुर्विंशतितमोऽध्यायः   

॥ॐ नमो भगवते श्रीनृसिंहाय नमः॥

नरसिंहपुराण

अध्याय २४

श्रीसूत उवाच

अतः परं प्रवक्ष्यामि वंशानुचरितं शुभम् ।

श्रृण्वतामपि पापघ्नं सूर्यसोमनृपात्मकम् ॥१॥

सूर्यवंशोद्भवो यो वै मनुपुत्रः पुरोदितः ।

इक्ष्वाकुर्नाम भूपालश्चरितं तस्य मे श्रृणु ॥२॥

श्रीसूतजी कहते हैं - अब मैं सूर्यवंशी तथा चन्द्रवंशी राजाओं के 'वंशानुचरित' का वर्णन करुँगा, जो श्रोताओं का भी पाप नष्ट करनेवाला है । मुने ! मैंने पहले सूर्यवंश में उत्पन्न हुए जिन मनुपुत्र 'इक्ष्वाकु' नामक भूपाल की चर्चा की थी, उनके चरित्र का वर्णन आप मुझसे सुनें ॥१ - २॥

आसीद् भूमौ महाभाग पुरी दिव्या सुशोभना ।

सरयूतीरमासाद्य अयोध्या नाम नामतः ॥३॥

अमरावत्यतिशया त्रिंशद्योजनजालिनी ।

हस्त्यश्वरथपत्त्योघैर्द्रुमैः कल्पद्रुमप्रभैः ॥४॥

प्राकाराट्टप्रतोलीभिस्तोरणैः काञ्चनप्रभैः ।

विराजमाना सर्वत्र सुविभक्तचतुष्पथा ॥५॥

अनेकभूमिप्रासादा बहुभाण्डसुविक्रया ।

पद्मोत्पलशुभैस्तोयैर्वापीभिरुपशोभिता ॥६॥

देवतायतनैर्दिव्यैर्वेदघोषैश्च शोभिता ।

वीणावेणुमृदङ्गैश्च शब्दैरुत्कृष्टकैर्युता ॥७॥

शालैस्तालैर्नालिकेरैः पनसामलजम्बुकैः ।

तथैवाम्रकपित्थाद्यैरशोकैरुपशोभिता ॥८॥

महाभाग ! इस पृथ्वी पर सरयू नदी के किनारे 'अयोध्या' नाम से प्रसिद्ध एक शोभायमान दिव्य पुरी है । वह अमरावती से भी बढ़कर सुन्दर और तीस योजन लंबी- चौड़ी थी । हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सैनिकों के समूह तथा कल्पवृक्ष के समान कान्तिमान् वृक्ष उस पुरी की शोभा बढ़ाते थे । चहारदीवारी, अट्टालिका, प्रतोली (गली या राजमार्ग) और सुवर्ण की- सी कान्तिवाले फाटकों से वह बड़ी शोभा पा रही थी । अलग- अलग बने हुए मंजिल ऊँचे थे । नाना प्रकार के भाण्डों (भाँति- भाँति के सामानों)- का सुन्दर ढंग से क्रय- विक्रय होता था । कमलों और उत्पलों से सुशोभित जल से भरी हुई बावलियाँ उस पुरी की शोभा बढ़ा रही थीं । दिव्य देवालय तथा वेदमन्त्रों के घोष उस नगरी की श्री- वृद्धि करते थे । वीणा, वेणु और मृदङ्ग आदि के उत्कृष्ट शब्दों से वह पुरी गूँजती रहती थी । शाल (साखू), ताल (ताड़), नारियल, कटहल, आँवला, जामुन, आम और कपित्थ (कैथ) आदि के वृक्षों तथा अशोकपुष्पों से अयोध्यापुरी की बड़ी शोभा होती थी ॥३ - ८॥

आरामैर्विविधैर्युक्ता सर्वत्र फलपादपैः ।

मल्लिकामालतीजातिपाटलानागचम्पकैः ॥९॥

करवीरैः कर्णिकारैः केतकीभिरलङ्कृता ।

कदलीलवलीजातिमातुलुङ्गमहाफलैः ।

क्वचिच्चन्दनगन्धाद्यैर्नारङ्गैश्च सुशोभिता ॥१०॥

नित्योत्सवप्रमुदिता गीतवाद्यविचक्षणैः ।

नरनारीभिराढ्याभी रुपद्रविणप्रेक्षणैः ॥११॥

वहाँ सब जगह नाना प्रकार के बगीचे और फलवाले वृक्ष पुरी की शोभा बढ़ाते थे । मल्लिका (मोतिया या बेला), मालती, चमेली, पाड़र, नागकेसर, चम्पा, कनेर, चनकचम्पा और केतकी (केवड़ा) आदि पुष्पों से मानो उस पुरी का श्रृङ्गार किया गया था । केला, हरफा, रेवड़ी, जायफल और बिजौरा नीबू, चन्दन की - सी गन्धवाले तथा दूसरे प्रकार के संतरे आदि बड़े - बड़े फल उसकी शोभा बढ़ाते थे । गीत और वाद्य में कुशल पुरुष उस पुरी में प्रतिदिन आनन्दोत्सव मचाये रहते थे । वहाँ के स्त्री - पुरुष रुप - वैभव तथा सुन्दर नेत्रों से सम्पन्न थे ॥९ - ११॥

नानाजनपदाकीर्णा पताकाध्वजशोभिता ।

देवतुल्यप्रभायुक्तैर्नृपपुत्रैश्च संयुता ॥१२॥

सुरुपाभिर्वरस्त्रीभिर्देवस्त्रीभिरिवावृता ।

विप्रैः सत्कविभिर्युक्ता बृहस्पतिसमप्रभैः ॥१३॥

वणिग्जनैस्तथा पौरैः कल्पवृक्षवरैर्युता ।

अश्वैरुच्चैः श्रवस्तुल्यैर्दन्तिभिर्दिग्गजैरिव ॥१४॥

इति नानाविधैर्भावैरयोध्येन्द्रपुरीसमा ।

तां दृष्ट्वा नारदः श्लोकं सभामध्ये पुरोक्तवान् ॥१५॥

स्वर्गं वै सृजमानस्य व्यर्थं स्यात् पद्मजन्मनः ।

जातायोध्याधिका स्वर्गात कामभोगसमन्विता ॥१६॥

वह पुरी नाना देशों के मनुष्यों से भरी - पुरी, ध्वजापताकाओं से सुशोभित तथा अनेकानेक कान्तिमान् देवोपम राजकुमारों से युक्त थी । वहाँ देवाङ्गनाओं के समान श्रेष्ठ एवं रुपवती वनिताएँ निवास करती थीं । बृहस्पति के समान तेजस्वी सत्कवि ब्राह्मण उस नगरी की शोभा बढ़ाते थे । कल्पवृक्ष से भी बढ़कर उदार नागरिकों और वैश्यों, उच्चैः श्रवा के समान श्रेष्ठ घोड़ों और दिग्गजों के समान विशालकाय हाथियों से वह पुरी बड़ी शोभा पाती थी । इस प्रकार नाना वस्तुओं से भरी - पूरी अयोध्यापुरी इन्द्रपुरी अमरावती की समता करती थी । पूर्वकाल में नारदजी ने उस पुरी को देखकर भरी सभा में यह श्लोक कहा था- 'स्वर्ग की सृष्टि करनेवाले विधाता का वह सारा प्रयत्न व्यर्थ हो गया; क्योंकि अयोध्यापुरी उससे भी बढ़कर मनोवाञ्छित भोगों से सम्पन्न हो गयी' ॥१२ - १६॥

तामावसदयोध्यां तु स्वाभिषिक्तो महीपतिः ।

जितवान् सर्वभूपालान् धर्मेण स महाबलः ॥१७॥

माणिक्यमुकुटैर्युक्तै राजभिर्मण्डलाधिपैः ।

नमद्भिर्भक्तिभीतिभ्यां पादौ तस्य किणीकृतौ ॥१८॥

इक्ष्वाकु इसी अयोध्या में निवास करते थे । वे राजा के पद पर अभिषिक्त हो, पृथ्वी का पालन करने लगे । उन महान् बलशाली नरेश ने धर्मयुद्ध के द्वारा समस्त भूपालों को जीत लिया था । मानिक के बने मुकुटों से अलंकृत अनेक छोटे - छोटे मण्डलों के शासक राजाओं के भक्ति तथा भयपूर्वक प्रणाम करने से उनके दोनों चरणों में मुकुटों की रगड़ से चिह्न बन गया था ॥१७ - १८॥

इक्ष्वाकुरक्षतबलः सर्वशास्त्रविशारदः ।

तेजसेन्द्रेण सदृशो मनोः सूनुः प्रतापवान् ॥१९॥

धर्मतो न्यायतश्चैव वेदज्ञैर्ब्राह्मणैर्युतः ।

पालयामास धर्मात्मा आसमुद्रां महीमिमाम् ॥२०॥

अस्त्रैर्जिगाय सकलान् संयुगे भूपतीन् बली ।

अवजित्य सुतीक्ष्णैस्तु तन्मण्डलमथाहरत् ॥२१॥

मनुपुत्र प्रतापी राजा इक्ष्वाकु अपने राजोचित तेज से इन्द्र की समानता करते थे । वे सम्पूर्ण शास्त्रों के ज्ञान में निपुण थे । उनका बल कभी क्षीण नहीं होता था । वे धर्मात्मा भूपाल वेदवेत्ता ब्राह्मणों के साथ धर्म और न्यायपूर्वक इस समुद्रपर्यन्त पृथिवी का पालन करते थे । उन बलशाली नरेश ने संग्राम में अपने तीखे शस्त्रों से समस्त भूपों को जीतकर उनका मण्डल अपने अधिकार में कर लिया था ॥१९ - २१॥

जितवान् परलोकांश्च क्रतुभिर्भूरिदक्षिणैः ।

दानैश्च विविधैर्ब्रह्मन् राजेक्ष्वाकुः प्रतापवान् ॥२२॥

बाहुद्वयेन वसुधां जिह्वाग्रेण सरस्वतीम् ।

बभार पद्मामुरसा भक्तिं चित्तेन माधवे ॥२३॥

संतिष्ठतो हरे रुपमुपविष्टं च माधवम् ।

शयानमप्यनन्तं तु कारयित्वा पटेऽमलम् ॥२४॥

त्रिकालं त्रयमाराध्य रुपं विष्णोर्महात्मनः ।

गन्धपुष्पादिभिर्नित्यं रेमे दृष्ट्वा पटे हरिम् ॥२५॥

कृष्णं तं कृष्णमेघाभं भुजगेन्द्रनिवासिनम् ।

पद्माक्षं पीतवासं च स्वप्नेष्वपि स दृष्टवान् ॥२६॥

चकार मेघे तद्वर्णे बहुमानमतिं नृपः ।

पक्षपातं च तन्नाम्नि मृगे पद्मे च तादृशे ॥२७॥

ब्रह्मन् ! प्रतापी राजा इक्ष्वाकु ने प्रचुर दक्षिणावाले यज्ञ और नाना प्रकार के दान करके परलोकों पर भी विजय प्राप्त कर ली थी । वे अपनी दोनों भुजाओं द्वारा पृथ्वी का, जिह्न के अग्रभाग से सरस्वती का, वक्षः स्थल से राजलक्ष्मी का और हदय से भगवान् लक्ष्मीपति की भक्ति का भार वहन करते थे । एक वस्त्र पर खड़े हुए भगवान् हरि का, बैठे हुए लक्ष्मीपति का और सोये हुए अनन्तदेव का निर्मल चित्र बनवाकर क्रमशः प्रातः कल, मध्याह्नकाल और संध्याकाल में तीनों समय वे महात्मा भगवान् विष्णु के उन तीनों रुपों का गन्ध तथा पुष्प आदि के द्वारा पूजन करते और उस पट पर प्रतिदिन भगवान् विष्णु का दर्शन करके प्रसन्न रहते थे । उन्हें स्वप्न में भी नागराज अनन्त की शय्या पर सोये हुए, काले मेघ के समान श्यामवर्ण, कमललोचन, पीताम्बरधारी भगवान् श्रीकृष्ण (विष्णु) - का दर्शन हुआ करता था । राजा ने भगवान के समान श्यामवर्णवाले मेघ में अत्यन्त सम्मानपूर्ण बुद्धि कर ली थी । भगवान् श्रीकृष्ण के नाम से युक्त कृष्णसार मृग में और कृष्णवर्णवाले कमल में वे पक्षपात रखते थे ॥२२ - २७॥

दिव्याकृतिं हरेः साक्षाद् द्रष्टुं तस्य महीभृतः ।

अतीव तृष्णा संजाता अपूर्वै हि सत्तम ॥२८॥

तृष्णायां तु प्रवृद्धायां मनसैव हि पार्थिवः ।

चिन्तयामास मतिमान् राज्यभोगमसारवत् ॥२९॥

वेश्मदारसुतक्षेत्रं संन्यस्तं येन दुःखदम् ।

वैराग्यज्ञानपूर्वेण लोकेऽस्मिन् नास्ति तत्समः ॥३०॥

इत्येवं चिन्तयित्वा तु तपस्यासक्तचेतनः ।

वसिष्ठं परिपप्रच्छ तत्रोपायं पुरोहितम् ॥३१॥

तपोबलेन देवेशं नारायणमजं मुने ।

द्रष्टुमिच्छाम्यहं तत्र उपायं तं वदस्व मे ॥३२॥

साधुशिरोमणे ! उस राजा के मन में भगवान् विष्णु के दिव्य स्वरुप को प्रत्यक्ष देखने की अत्यन्त उत्कट अभिलाषा जाग्रत् हुई; उनकी वह तृष्णा अपूर्व ही थी । जब उनकी तृष्णा बहुत बढ़ गयी, तब वे बुद्धिमान् भूपाल मन- ही- मन सारे राज्य- भोग को निस्सार- सा समझने लगे । उन्होंने सोचा- 'जिस पुरुष ने गेह, स्त्री, पुत्र और क्षेत्र आदि दुःखद भोगों को वैराग्य और ज्ञानपूर्वक त्याग दिया है, उसके समान बड़भागी इस संसार में कोई नहीं है ।' इस प्रकार सोच- विचारकर, तपस्या में आसक्तचित्त हो उन्होंने उसके लिये अपने पुरोहित वसिष्ठजी से उपाय पूछा- 'मुने ! मैं तपस्या के बल से देवेश्वर, अजन्मा भगवान् नारायण का दर्शन करना चाहता हूँ; इसके लिये आप मुझे कोई उत्तम उपाय बताइये' ॥२८ - ३२॥

इत्युक्तः प्राह राजानं तपस्यासक्तमानसम् ।

वसिष्ठः सर्वधर्मज्ञः सदा तस्य हिते रतः ॥३३॥

यदीच्छसि महाराज द्रष्टुं नारायणं परम् ।

तपसा सुकृतेनेह आराधय जनार्दनम् ॥३४॥

केनाप्यप्ततपसा देवदेवो जनार्दनः ।

द्रष्टुं न शक्यते जातु तस्मात् तं तपसार्चय ॥३५॥

पूर्वदक्षिणदिग्भागे सरयूतीरगे नृप ।

गालवप्रमुखानां च ऋषीणामस्ति चाश्रमः ॥३६॥

पञ्चयोजनमध्वानं स्थानमस्मात्तु पावनम् ।

नानाद्रुमलताकीर्णं नानापुष्पसमाकुलम् ॥३७॥

स्वमन्त्रिणि महाप्राज्ञे नीतिमत्यर्जुने नृप ।

स्वराज्यभारं विन्यस्य कर्मकाण्डमपि द्विज ॥३८॥

स्तुत्वाऽऽराध्य गणाध्यक्षमितो व्रज विनायकम् ।

तपः सिद्ध्यर्थमन्विच्छंस्तस्मात् तत्र तपः कुरु ॥३९॥

तापसं वेषमास्थाय शाकमूलफलाशनः ।

ध्यायन् नारायणं देवमिमं मन्त्रं सदा जप ॥४०॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।

एष सिद्धिकरो मन्त्रो द्वादशाक्षरसंज्ञितः ।

जप्त्वैनं मुनयः सिद्धिं परां प्राप्ताः पुरातनाः ॥४१॥

गत्वा गत्वा निवर्तन्ते चन्द्रसूर्यादयो ग्रहाः ।

अद्यापि न निवर्तन्ते द्वादशाक्षरचिन्तकाः ॥४२॥

बाह्येन्द्रियं हदि स्थाप्य मनः सूक्ष्मे परात्मनि ।

नृप संजय तन्मन्त्रं द्रष्टव्यो मधुसूदनः ॥४३॥

इति ते कथितोपायो हरिप्राप्तेस्तपः कृतौ ।

पृच्छतः साम्प्रतं भूयो यदीच्छसि कुरुष्व तत् ॥४४॥

उनके इस प्रकार कहने पर राजा के हित में सदा लगे रहनेवाले सर्वधर्मज्ञ मुनिवर वसिष्ठजी ने तप में आसक्तचित्त उन नरेश से कहा- 'महाराज ! यदि तुम परमात्मा नारायण का साक्षात्कार करना चाहते हो तो तपस्या और शुभकर्मों के द्वारा उन भगवान् जनार्दन की आराधना करो । कोई भी पुरुष तपस्या किये बिना देवदेव जनार्दन का दर्शन नहीं पा सकता । इसलिये तुम तपस्या के द्वारा उनका पूजन करो । यहाँ से पाँच योजन दूर सरयू के तट पर पूर्व और दक्षिण भाग में एक पवित्र स्थान है, जहाँ गालव आदि ऋषियों का आश्रम है । वह स्थान नाना प्रकार के वृक्षों और लताओं से व्याप्त तथा विविध भाँति के पुष्पों से परिपूर्ण है । राजन् ! अपने बुद्धिमान् एवं नीतिज्ञ मन्त्री अर्जुन को राज्य का भार तथा सारा कार्य- कलाप सौंप, तत्पश्चात् गणनायक भगवान् विनायक की स्तुति एवं आराधना करके तपस्या की सिद्धिरुप प्रयोजन की इच्छा मन में लेकर यहाँ से उस आश्रम की यात्रा करो और वहाँ पहुँचकर तपस्या में संलग्न हो जाओ । तपस्वी का वेष धारणकर, साग और फल- मूल का आहार करते हुए, भगवान् नारायण के ध्यान में तत्पर रहकर सदा ही 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।' - इस मन्त्र का जप करो । यह 'द्वादशाक्षर' - संज्ञक मन्त्र अभीष्ट को सिद्ध करनेवाला है । प्राचीन काल के ऋषियों ने इस मन्त्र का जप करके परम सिद्धि प्राप्त की है । चन्द्रमा और सूर्य आदि ग्रह जा- जाकर पुनः लौट आते हैं, परंतु द्वादशाक्षर – मन्त्र का चिन्तन करनेवाले पुरुष आजतक नहीं लौटे – भगवान को पाकर आवागमन से मुक्त हो गये । नरेश्वर ! बाह्य इन्द्रियों को हृदय में स्थापित कर तथा मन को सूक्ष्म परात्मत्त्व में स्थिर करके इस मन्त्र का जप करो; इससे तुम्हें भगवान् मधुसूदन का दर्शन होगा । इस प्रकार इस समय तुम्हारे पूछने पर मैंने तपरुप कर्म से भगवान की प्राप्ति का उपाय बतलाया; अब तुम्हारी जैसी इच्छा हो, करो ' ॥३३ - ४४॥

इत्येवमुक्तो मुनिना स राजा राज्यं भुवो मन्त्रिवरे समर्प्य ।

स्तुत्वा गणेशं सुमनोभिरर्च्य गतः पुरान् स्वात् तपसे धृतात्मा ॥४५॥

मुनिवर वसिष्ठ के इस प्रकार कहने पर वे राजा इक्ष्वाकु अपने श्रेष्ठ मन्त्री को भूमण्डल के राज्य का भार सौंपकर, पुष्पों द्वारा गणेशजी का पूजन तथा स्तवन करके, तपस्या करने का दृढ़ निश्चय मन में लेकर, अपने नगर से चल दिये ॥४५॥

इति श्रीनरसिंहपुराणे इक्ष्वाकुचरित्रे चतुर्विशोऽध्यायः ॥२४॥

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराण में 'इक्ष्वाकु का चरित्र' विषयक चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥२४॥

आगे जारी- श्रीनरसिंहपुराण अध्याय 25

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