वामनपुराण अध्याय ६
वामनपुराण के अध्याय ६ में नर-नारायण की उत्पत्ति, तपश्चर्या, बदरिकाश्रम की वसन्त की शोभा, काम दाह और काम की अनङ्गता का है।
श्रीवामनपुराण अध्याय ६
Vaman Purana
chapter 6
श्रीवामनपुराणम् षष्ठोऽध्यायः
वामनपुराणम् अध्यायः ६
वामन पुराण छटवाँ अध्याय
श्रीवामनपुराण षष्ठ अध्याय
श्रीवामनपुराण
अध्याय ६
पुलस्त्य उवाच॥
हृद्भवो ब्रह्मणो योऽसौ धर्मो
दिव्यवपुर्मुने।
दाक्षायाणी तस्य भार्या
तस्यामजनयत्सुतान् ॥१॥
हरिं कृष्णं च देवर्षे नारायणनरौ
तथा।
योगाभ्यासरतौ नित्यं हरिकृष्णौ बभूवतुः
॥२॥
नरनारायणौ चैव जगतो हितकाम्यया।
तप्येतां च तपः सौम्यौ
पुराणवृषिसत्तमौ ॥३॥
प्रालेयाद्रिं समागम्य तीर्थे
बदरिकाश्रमे।
गृणन्तौ तत्परं ब्रह्म गङ्गाया
विपुले तटे ॥४॥
पुलस्त्यजी बोले - मुने ! ब्रह्माजी
के हृदय से जो दिव्यदेहधारी धर्म प्रकट
हुआ था, उसने दक्ष की पुत्री 'मूर्ति'
नाम की भार्या से हरि, कृष्ण, नर और नारायण नामक चार पुत्रों को उत्पन्न किया । देवर्षे ! इनमें हरि और
कृष्ण ये दो तो नित्य योगाभ्यास में निरत हो गये और पुरातन ऋषि शान्तमना नर तथा
नारायण संसार के कल्याण के लिये हिमालय पर्वत पर जाकर बदरिकाश्रम तीर्थ में गङ्गा के
निर्मल तट पर ( परब्रह्म का नाम ॐ कार का जप करते हुए ) तप करने लगे ॥१ - ४॥
नरनारायणाभ्यां च जगदेतच्चराचरम्।
तापितं तपसा ब्रह्मन् शक्रः क्षोभं
तदा ययौ ॥५॥
संक्षुब्धस्तपसा ताभ्यां क्षोभणाय
शतक्रतुः।
रम्भाद्याप्सरसः श्रेष्ठाः प्रेषयत्स
महाश्रमम् ॥६॥
कन्दर्पश्च
सुदुर्धर्षश्चूताङ्कुरमहायुधः।
समं सहचरेणैव वसन्तेनाश्रमं गतः ॥७॥
ततो माधवकन्दर्पौ ताश्चैवाप्सरसो
वराः।
बदर्याश्रममागम्य
विचिक्रीडुर्यथेच्छया ॥८॥
ब्रह्मन् ! नर- नारायण की दुष्कर
तपस्या से सारा स्थावर - जंगमात्मक यह जगत् परितप्त हो गया । इससे इन्द्र
विक्षुब्ध हो उठे । उन दोनों की तपस्या से अत्यन्त व्यग्र इन्द्र ने उन्हें मोहित
करने के लिये रम्भा आदि श्रेष्ठ अप्सराओं को उनके विशाल आश्रम में भेजा । कामदेव के
आयुधों में अशोक, आम्रादि की
मंजरियाँ विशेष प्रभावक हैं । इन्हें तथा अपने सहयोगी वसन्त ऋतु को साथ लेकर वह भी
उस आश्रम में गया । अब वे वसन्त, कामदेव तथा श्रेष्ठ
अप्सराएँ - ये सब बदरिकाश्रम में जाकर निर्बादेह क्रीड़ा करने लग गये ॥५ - ८॥
ततो वसन्ते संप्राप्ते सिंशुका
ज्वलनप्रभाः।
निष्पत्राः सततं रेजुः शोभयन्तो
धरातलम् ॥९॥
शिशिरं नाम मातङ्गं विदार्य
नखरैरिव।
वसन्तकेसरी प्राप्तः
पलाशकुसुमैर्मुने ॥१०॥
मया तुषारौघकरी निर्जितः स्वेन
तेजसा।
तमेव हसतेत्युच्चैः वसन्तः
कुन्दकुड्मलैः ॥११॥
वनानि कर्णिकाराणां पुष्पितानि
विरेजिरे।
यथा नरेन्द्रपुत्राणि कनकाभरणानि हि
॥१२॥
तब वसन्त ऋतु के आ जाने पर अग्नि-
शिखा के सदृश कान्तिवाले पलाश पत्रहीन होकर रात - दिन पृथ्वी की शोभा बढ़ाते हुए
सुशोभित होने लगे । मुने ! वसन्तरुपी सिंह मानो पलाश - पुष्परुपी नखों से
शिशिररुपी गजराज को विदीर्ण कर वहाँ अपना साम्राज्य जमा चुका था । वह सोचने लगा -
मैंने अपने तेज से शीतसमूहरुपी हाथी को जीत लिया है और वह कुन्दकी कलियों के बहाने
उसका उपहास भी करने लगा है । इधर सुवर्ण के अलंकारों से मण्डित राजकुमारों के समान
पुष्पित कचनार अमलतास के वन सुशोभित होने लगे ॥९ - १२॥
तेषामनु तथा नीपाः पिङ्करा इव
रेजिरे।
स्वामिसंलब्धसंमाना भृत्या
राजसुतानिव ॥१३॥
रक्ताशोकवना भान्ति पुष्पिताः
सहसोज्ज्वलाः।
भृत्या वसन्तनृपतेः
संग्रामेऽसृक्प्लुता इव ॥१४॥
मृगवृन्दाः पिञ्जरिता राजन्ते गहने
वने।
पुलकाभिर्वृता यद्वत् सज्जनाः
सुहृदागमे ॥१५॥
मञ्जरीभिर्विराजन्ते नदीकूलेषु
वेतसाः।
वक्तुकामा इवाङ्गुल्या कोऽस्माकं
सदृशो नगः ॥१६॥
जैसे राजपुत्रों के पीछे उनके
द्वारा सम्मानित सेवक खड़े रहते हैं, वैसे
ही उन (वर्णित- वनों)- के पीछे- पीछे कदम्बवृक्ष सुशोभित हो रहे थे । इसी प्रकार
लाल अशोक आदि के समूह भी सहसा पुष्पित एवं उद्भासित हो सुशोभित होने लगे । लगता था
मानो ऋतुराज वसन्त के अनुयायी युद्ध में रक्त से लथपथ हो रहे हों । घने वन में
पीले रंग के हरिण इस प्रकार सुशोभित हो रहे थे जिस प्रकार सुहृद के आने से सज्जन
(आनन्द से) पुलकित होकर सुशोभित होते हैं । नदी के तटों पर अपनी मंजरियों के
द्वारा वेतस ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो वे अंगुलियों के द्वारा यह कहना चाहते हैं
कि हमारे सदृश अन्य कौन वृक्ष है ॥१३ - १६॥
रक्ताशोककरा तन्वी देवर्षे
किंशुकाऽङ्घ्रिका।
नीलाशोककचा श्यामा विकासिकमलानना
॥१७॥
नीलेन्दीवरनेत्रा च ब्रह्मन्
बिल्वफलस्तनी।
प्रफुल्लकुन्ददशना मञ्जरीकरशोभिता
॥१८॥
बन्धुजीवाधरा शुभ्रा
सिन्दुवारनखाद्भता।
पुंस्कोकिलस्वना दिव्या अङ्कोलवसना
शुभा ॥१९॥
बर्हिवृन्दकलापा च सारसस्वरनूपुरा।
प्राग्वंशरसना ब्रह्मन्
मत्तहंसगतिस्तथा ॥२०॥
पुत्रजीवांशुका
भृङ्गरोमराजिविराजिता।
वसन्तलक्ष्मीः संप्राप्ता ब्रह्मन्
बदरिकाश्रमे ॥२१॥
ततो नारायणो दृष्ट्वा
आश्रमस्यानवद्यताम्।
समीक्ष्य च दिशः
सर्वास्ततोऽनङ्गमपश्यत ॥२२॥
देवर्षे ! जो दिव्य पतली एवं यौवन से
भरी वसन्तलक्ष्मी उस बदरिकाश्रम में प्रकट हुई थी, उसके मानो रक्ताशोक ही हाथ, पलाश ही चरण, नीलाशोक केशपाश, विकसित कमल ही मुख और नीलकमल ही
नेत्र थे । उसके बिल्वफल मानों स्तन, कुन्दपुष्प दन्त,
मञ्जरी हाथ, दुपहरियाफूल अधर, सिन्दुवार नख, नर कोयल की काकली (बोली ) स्वर,
अंकोल वस्त्र, मयूरयूथ आभूषण, सारस नूपुरस्वरुप और आश्रम के शिखर करधनी थे । उसके मत्त हंस गति, पुत्रजीव ऊर्ध्व वस्त्र और भ्रमर मानो रोमावलीरुप में विराजित थे । तब
नारायण ने आश्रम की अद्भुत रमणीयता देखकर सभी दिशाओं की ओर देखा और फिर कामदेव को
भी देखा ॥१७ - २२॥
नारद उवाच॥
कोऽसावनङ्गो ब्रह्मर्षे तस्मिन्
बदरिकाश्रमे।
यं ददर्श जगन्नाथो देवो
नारायणोऽव्ययः ॥२३॥
नारदजी ने पूछा - ब्रह्मर्षे ! जिसे
अव्यय जगन्नाथ नारायण ने बदरिकाश्रम में देखा था, वह अनङ्ग (काम) कौन है ? ॥२३॥
पुलस्त्य उवाच॥
कन्दर्पो हर्षतनयो योऽसौ कामो
निगद्यते।
स शंकरेण संदग्धो ह्यनङ्गत्वमुपागतः
॥२४॥
पुलस्त्यजी ने कहा - यह कंदर्प हर्ष
का पुत्र है, इसे ही काम कहा जाता है । शंकर-
(की नेत्राग्नि-) द्वारा भस्म होकर वह 'अनङ्ग' हो गया ॥२४॥
नारद उवाच॥
किमर्थं कामदेवोऽसौ देवदेवेन
शंभुना।
दग्धस्तु कारणे
कस्मिन्नेतद्व्याख्यातुमर्हसि ॥२५॥
नारदजी ने पूछा - पुलस्त्यजी ! आप
यह बतलायें कि देवाधिदेव शंकर ने कामदेव को किस कारण से भस्म किया ?
॥२५॥
पुलस्त्य उवाच॥
यदा दक्षसुता ब्रह्मन् सती याता
यमक्षयम्।
विनाश्य दक्षयज्ञं तं विचचार
त्रिलोचनः ॥२६॥
ततो वृषध्वजं दृष्ट्वा कन्दर्पः
कुसुमायुधः।
अपत्नीकं तदाऽस्त्रेण
उन्मादेनाभ्यताडयत् ॥२७॥
ततो हरः शरेणाथ उन्मादेनाशु ताडितः।
विचचार तदोन्मत्तः काननानि सरांसि च
॥२८॥
स्मरन् सतीं महादेवस्तथोन्मादेन
ताडितः।
न शर्म लेभे देवर्षे बाणविद्ध इव
द्विपः ॥२९॥
पुलस्त्यजी ने कहा - ब्रह्मन् !
दक्ष- पुत्री सती के प्राण- त्याग करने पर शिवजी दक्ष- यज्ञ का ध्वंस कर
(जहाँ-तहाँ) विचरण करने लगे । तब शिवजी को स्त्रीरहित देखकर पुष्पास्त्रवाले
कामदेव ने उन पर अपना 'उन्मादन' नामक अस्त्र छोड़ा । इस उन्मादन- बाण से आहत होकर शिवजी उन्मत्त होकर वनों
और सरोवरों में घूमने लगे । देवर्षे ! बाणविद्ध गज के समान उन्माद से व्यथित
महादेव सती का स्मरण करते हुए बड़े अशान्त हो रहे थे- उन्हें चैन नहीं था ॥२६ - २९॥
ततः पपात देवेशः कालिन्दीसरितं
मुने।
निमग्ने शंकरे आपो दग्धाः
कृष्णत्वमागताः ॥३०॥
तदा प्रभृति कालिन्द्या
भृङ्गाञ्जननिभं जलम्।
आस्यन्दत् पुण्यतीर्था सा
केशपाशमिवावनेः ॥३१॥
ततो नदीषु पुण्यासु सरस्सु च नदीषु
च।
पुलुनेषु च रम्येषु वापीषु नलिनीषु
च ॥३२॥
पर्वतेषु च रम्येषु काननेषु च
सानुषु।
विचरन् स्वेच्छया नैव शर्म लेभे
महेश्वरः ॥३३॥
मुने ! उसके बाद शिवजी यमुना नदी में
कूद पड़े । उनके जल में निमज्जन करने से उस नदी का जल काला हो गया । उस समय से
कालिन्दी नदी का जल भृंग और अंजन के सदृश कृष्णवर्ण का हो गया एवं वह पवित्र
तीर्थोवाली नदी पृथ्वी के केशपाश के सदृश प्रवाहित होने लगी । उसके बाद पवित्र
नदियों,
सरोवरों, नदों, रमणीय
नदी- तटों, वापियों, कमलवनों, पर्वतों, मनोहर काननों तथा पर्वत- श्रृङ्गों पर
स्वेच्छापूर्वक विचरण करते हुए भगवान् शिव कहीं भी शान्ति नहीं प्राप्त कर सके ॥३०
- ३३॥
क्षणं गायति देवर्षे क्षणं रोदिति
शंकरः।
क्षणं ध्यायति तन्वङ्गीं दक्षकन्यां
मनोरमाम् ॥३४॥
ध्यात्वा क्षणं प्रस्वपिति क्षणं
स्वप्नायते हरः।
स्वप्ने तथेदं गदति तां दृष्ट्वा
दक्षकन्यकाम् ॥३५॥
निर्घृणे तिष्ठ किं मूढे त्यजसे
मामनिन्दिते।
मुग्धे त्वया विरहितो दग्धोऽस्मि
मदनाग्निना ॥३६॥
सति सत्यं प्रकुपिता मा कोपं कुरु
सुन्दरि।
पादप्रणामावनतमभिभाषितुमर्हसि ॥३७॥
देवर्षे ! वे कभी गाते,
कभी रोते और कभी कृशाङ्गी सुन्दरी सती का ध्यान करते । ध्यान करके कभी
सोते और कभी स्वप्न देखने लगते थे; स्वप्नकाल में सती को
देखकर वे इस प्रकार कहते थे - निर्दये ! रुको, हे मूढे !
मुझे क्यों छोड़ रही हो ? हे अनिन्दिते ! हे मुग्धे !
तुम्हारे विरह में मैं कामाग्नि से दग्ध हो रहा हूँ । हे सति ! क्या तुम वस्तुतः
क्रुद्ध हो ? सुन्दरि ! क्रोध मत करो ! मैं तुम्हारे चरणों में
अवनत होकर प्रणाम करता हूँ । तुम्हें मेरे साथ बात तो करनी ही चाहिये ॥३४ - ३७॥
श्रूयसे दृश्यसे नित्यं स्पृश्यसे
वन्द्यसे प्रिये।
आलिङ्ग्यसे च सततं किमर्थं
नाभिभाषसे ॥३८॥
विलपन्तं जनं दृष्ट्वा कृपा कस्य न
जायते।
विशेषतः पतिं बाले ननु
त्वमतिनिर्घृणा ॥३९॥
त्वयोक्तानि वचांस्येवं पूर्वं मम
कृशोदरि।
विना त्वया न जीवेयं तदसत्यं त्वया
कृतम् ॥४०॥
एह्येहि कामसंतप्तं परिष्वज
सुलोचने।
नान्यथा नश्यते तापः सत्येनापि शपे
प्रिये ॥४१॥
प्रिये ! मैं सतत तुम्हारी ध्वनि
सुनता हूँ, तुम्हें देखता हूँ, तुम्हारा स्पर्श करता हूँ, तुम्हारी वन्दना करता हूँ
और तुम्हारा परिषङ्ग करता हूँ । तुम मुझसे बात क्यों नहीं कर रही हो ? बाले ! विलाप करनेवाले व्यक्ति को देखकर किसे दया नहीं उत्त्पन्न होती ?
विशेषतः अपने पति को विलाप करता देखकर तो किसे दया नहीं आती ?
निश्चय ही तुम अति निर्दयी हो ! सूक्ष्मकटिवाली ! तुमने पहले मुझसे
कहा था कि तुम्हारे बिना मैं जीवित नहीं रहूँगी । उसे तुमने असत्य कर दिया ।
सुलोचने ! आओ, आओ, कामसन्तप्त मुझे
आलिङ्गित करो । प्रिये ! मैं सत्य की शपथ खाकर कहता हूँ कि अन्य किसी प्रकार मेरा
ताप नहीं शान्त होगा ॥३८ - ४१॥
इत्थं विलप्य स्वप्नान्ते
प्रतिबुद्धस्तु तत्क्षणात्।
उत्कूजति तथाऽरण्ये मुक्तकण्ठं पुनः
पुनः ॥४२॥
तं कूजमानं विलपन्तमारात्
समीक्ष्य कामो वृषकेतनं हि।
विव्याध चापं तरसा विनाम्य
संतापनाम्ना तु शरेण भूयः ॥४३॥
संतापनास्त्रेण तदा स विद्धो
भूयः स संतप्ततरो बभूव।
संतापयंश्चापि जगत्समग्रं
फूत्कृत्य फूत्कृत्य विवासते स्म
॥४४॥
तं चापि भूयो मदनो जघान
विजृण्भणास्त्रेण ततो विजृम्भे।
ततो भृशं कामशरैर्वितुन्नो
विजृम्भमाणः परितो भ्रमंश्च ॥४५॥
ददर्श यक्षाधिपतेस्तनूजं
पाञ्चालिकं नाम जगत्प्रधानम्।
दृष्ट्वा त्रिनेत्रो धनदस्य पुत्रं
पार्श्वं समभ्येत्य वचो बभाषे।
भ्रातृव्य वक्ष्यामि वचो यदद्य
तत् त्वं कुरुष्वामितविक्रमोऽसि
॥४६॥
इस प्रकार वे विलाप कर स्वप्न के
अन्त में उठकर वन में बार- बार रोने लगे । इस प्रकार मुक्तकण्ठ से विलाप करते हुए
भगवान् शंकर को दूर से देखकर काम ने अपना धनुष झुका (चढा) - कर पुनः वेग से उन्हें
संतापक अस्त्र से वेध डाला । अब वे इससे विद्ध होकर और भी अधिक संतप्त हो गये एवं
मुख से बारंबार ( विलख ) फूत्कार कर सम्पूर्ण विश्व को दुःखी करते हुए जैसे - तैसे
समय बिताने लगे । फिर काम ने उन पर विजृम्भण नामक अस्त्र से प्रहार किया । इससे
उन्हें जँभाई आने लगी । अब काम के बाणों से विशेष पीड़ित होकर जँभाई लेते हुए वे
चारों और घूमने लगे । इसी समय उन्होंने कुबेर के पुत्र पाञ्चालिक को देखा और उसको
देखकर उसके पास जाकर त्रिनेत्र शंकर ने यह बात कही - भ्रातृव्य ! तुम अमित
विक्रमशाली हो, मैं जो आज बात कहता हूँ तुम उसे
करो ॥४२ - ४६॥
पाञ्चालिक उवाच॥
यन्नाथ मां वक्ष्यसि तत्करिष्ये
सुदुष्करं यद्यपि देवसंघैः।
आज्ञापयस्वातुलवीर्यशंभो
दासोऽस्मि ते भक्तियुतस्तथेश ॥४७॥
पाञ्चालिक ने कहा - स्वामिन् ! आप
जो कहेंगे, देवताओं द्वारा सुदुष्कर होने पर
भी उसे मैं करुँगा । हे अतुल बलशाली शिव ! आप आज्ञा करें । ईश ! मैं आपका
श्रद्धालु भक्त एवं दास हूँ ॥४७॥
ईश्वर उवाच॥
नाशं गतायां वरदाम्बिकायां
कामाग्निना प्लुष्टसुविग्रहोऽस्मि।
विजृम्भणोन्मादशरैर्विभिन्नो
धृतिं न विन्दामि रतिं सुखं वा ॥४८॥
विजृम्भणं पुत्र तथैव
तापमुन्मादमुग्रं मदनप्रणुन्नम्।
नान्यः पुमान् धारयितुं हि शक्तो
मुक्त्वा भवन्तं हि ततः प्रतीच्छ
॥४९॥
भगवान् शिव बोले - वरदायिनी अम्बिका
(सती) - के नष्ट होने से मेरा सुन्दर शरीर कामाग्नि से अत्यन्त दग्ध हो रहा है ।
काम के विजृम्भण और उन्माद शरों से विद्ध होने से मुझे धैर्य,
रति या सुख नहीं प्राप्त हो रहा है । पुत्र ! तुम्हारे अतिरिक्त
अन्य कोई पुरुष, कामदेव से प्रेरित विजृम्भण, संतापन और उन्माद नामक उग्र अस्त्र सहन करने में समर्थ नहीं है । अतः तुम
इन्हें ग्रहण कर लो ॥४८ - ४९॥
पुलस्त्य उवाच॥
इत्येवमुक्तो वृषभध्वजेन
यक्षः प्रतीच्छत् स विजृम्भणादीन्।
तोषं जगामाशु ततस्त्रिशूली
तुष्टस्तदैवं वचनं बभाषे ॥५०॥
पुलस्त्यजी बोले - भगवान् शिव के
ऐसा कहने पर उस यक्ष ( कुबेर- पुत्र पाञ्चालिक ) - ने विजृम्भण आदि सभी अस्त्रों को
उनसे ले लिया । इससे त्रिशूली को तत्काल संतोष प्राप्त हो गया और प्रसन्न होकर
उन्होंने उससे ये वचन कहे - ॥५०॥
हर उवाच॥
यस्मात्त्वया पुत्र सुदुर्धराणि
विजृम्भणादीनि प्रतीच्छितानि।
तस्माद्वरं त्वां प्रतिपूजनाय
दास्यामि लोकस्य च हास्यकारि ॥५१॥
यस्त्वां यदा पश्यति चैत्रमासे
स्पृशेन्नरो वार्चयते च भक्त्या।
वृद्धोऽथ बालोऽथ युवाथ योषित् सर्वे
तदोन्मादधरा भवन्ति ॥५२॥
गायन्ति नृत्यन्ति रमन्ति यक्ष
वाद्यानि यत्नादपि वादयन्ति।
तवाग्रतो हास्यवचोऽभिरक्ता भवन्ति
ते योगयुतास्तु ते स्युः ॥५३॥
ममैव नाम्ना भविताऽसि पूज्यः
पाञ्चालिकेशः प्रथितः पृथिव्याम्।
मम प्रसादाद् वरदो नराणां भविष्यसे
पूज्यतमोऽभिगच्छ ॥५४॥
भगवान् महादेवजी बोले - पुत्र !
तुमने अति भयंकर विजृम्भण आदि अस्त्रों को ग्रहण कर लिया,
अतः प्रत्युपकार में तुम्हें सब लोगों के लिये आनन्ददायक वर दूँगा !
चैत्रमास में जो वृद्ध, बालक, युवा या
स्त्री तुम्हारा स्पर्श करेंगे या भक्तिपूर्वक तुम्हारी पूजा करेंगे वे सभी
उन्मत्त हो जायँगे । यक्ष ! फिर वे गायेंगे, नाचेंगे,
आनन्दित होंगे और निपुणता के साथ बाजे बजायेंगे । किंतु तुम्हारे
सम्मुख हँसी की बात करते हुए भी वे योगयुक्त रहेंगे । मेरे ही नाम से तुम पूज्य
होगे । विश्व में तुम्हारा पाञ्चालिकेश नाम प्रसिद्ध होगा । मेरे आशीर्वाद से तुम
लोगों के वरदाता और पूज्यतम होगे; जाओं ॥५१ - ५४॥
इत्येवमुक्तो विभुना स यक्षो जगाम
देशान् सहसैव सर्वान्।
कालञ्जरस्योत्तरतः सुपुण्यो देशो
हिमाद्रेरपि दक्षिणस्थः ॥५५॥
तस्मिन् सुपुण्ये विषये निविष्टो
रुद्रप्रसादादभिपूज्यतेऽसौ।
तस्मिन् प्रयाते भगवांस्त्रिनेत्रो
देवोऽपि विन्ध्यं गिरिमभ्यगच्छत् ॥५६॥
तत्रापि मदनो गत्वा ददर्श
वृषकेतनम्।
दृष्ट्वा प्रहर्त्तुकामं च ततः प्रादुद्रवद्धरः
॥५७॥
ततो दारुवनं घोरं मदनाभिसृतो हरः।
विवेश ऋषयो यत्र सपत्नीका
व्यवस्थिताः ॥५८॥
भगवान् शिव के ऐसा कहने पर वह यक्ष
तुरंत सब देशों में घूमने लगा । फिर वह कालंजर के उत्तर और हिमालय के दक्षिण परम
पवित्र स्थान में स्थिर हो गया । वह शिवजी की कृपा से पूजित हुआ । उसके चले जाने पर
भगवान् त्रिनेत्र भी विन्ध्यपर्वत पर आ गये । वहाँ भी काम ने उन्हें देखा । उसे
पुनः प्रहार की चेष्टा करते देख शिवजी भागने लगे । उसके बाद कामदेव के द्वारा पीछा
किये जाने पर महादेवजी घोर दारुवन में चले गये, जहाँ
ऋषिगण अपनी पत्नियों के साथ निवास करते थे ॥५५ - ५८॥
ते चापि ऋषयः सर्वे दृष्ट्वा
मूर्ध्ना नताभवन्।
ततस्तान् प्राह भगवान् भिक्षा मे
प्रतिदीयताम् ॥५९॥
ततस्ते मौनिनस्तस्थुः सर्व एव
महर्षयः।
तदाश्रमाणि सर्वाणि परिचक्राम नारदः
॥६०॥
तं प्रविष्टं तदा दृष्ट्वा
भार्गवात्रेययोषितः।
प्रक्षोभमगमन् सर्वा हीनसत्त्वाः
समन्ततः ॥६१॥
ऋते त्वरुन्धतीमेकामनसूयां च
भामिनीम्।
एताभ्यां भर्तृपूजासु तच्चिन्तासु
स्थितं मनः ॥६२॥
उन ऋषियों ने भी उन्हें देखकर सिर
झुकाकर प्रणाम किया । फिर भगवान ने उनसे कहा - आप लोग मुझे भीक्षा दीजिये । इस पर
सभी महर्षि मौन रह गये । नारदजी ! इस पर महादेवजी सभी आश्रमों में घूमने लगे । उस
समय उन्हें आश्रम में आया हुआ देख पतिव्रता अरुन्धती और अनुसूया को छोड़कर ऋषियों की
समस्त पत्नियाँ प्रक्षुब्ध एवं सत्यहीन हो गयीं । पर अरुन्धती और अनुसूया पतिसेवा में
ही लगी रहीं ॥५९ - ६२॥
ततः संक्षुभिताः सर्वा यत्र याति
महेश्वरः।
तत्र प्रयान्ति कामार्त्ता
मदविह्वलितेन्द्रियाः ॥६३॥
त्यक्त्वाश्रमणि शून्यानि स्वानि ता
मुनियोषितः।
अनुजग्मुर्यथा मत्तं करिण्य इव
कुञ्जरम् ॥६४॥
ततस्तु ऋषयो दृष्ट्वा
भार्गवाङ्गिरसो मुने।
क्रोधान्विताब्रुवन्सर्वे लिङ्गेऽस्य
पततां भुवि ॥६५॥
ततः पपात देवस्य लिङ्गं पृथ्वीं
विदारयन्।
अन्तर्द्धानं जगामाथ त्रिशूली
नीललोहितः ॥६६॥
अब शिवजी जहाँ- जहाँ जाते थे,
वहाँ- वहाँ संक्षुभित, कामातं एवं मद से विकल
इन्द्रियोंवाली स्त्रियाँ भी जाने लगीं । मुनियों की वे स्त्रियाँ अपने आश्रमों को
सूना छोड़ उनका इस प्रकार अनुसरण करने लगीं, जैसा करेणु
मदमत्त गज का अनुसरण करे । मुने ! यह देखकर ऋषिगण क्रुद्ध हो गये एवं कहा कि इनका
लिङ्ग भूमि पर गिर जाय । फिर तो महादेव का लिङ्ग पृथ्वी को विदीर्ण करता हुआ गिर
गया एवं तब नीललोहित त्रिशूली अन्तर्धान हो गये ॥६३ - ६६॥
ततः स पतितो लिङ्गो विभिद्य
वसुधातलम्।
रसातलं विवेशाशु ब्रह्मण्डं
चोर्ध्वतोऽभिनत् ॥६७॥
ततश्चचाल पृथिवी गिरयः सरितो नगाः।
पातालभुवनाः सर्वे
जङ्गमाजङ्गमैर्वृताः ॥६८॥
संक्षुब्धान् भुवनान् दृष्ट्वा
भूर्लोकादीन् पितामहः।
जगाम माधवं द्रष्टुं क्षीरोदं नाम
सागरम् ॥६९॥
तत्र दृष्ट्वा हृषीकेशं प्रणिपत्य च
भक्तितः।
उवाच देव भुवनाः किमर्थ क्षुभिता
विभो ॥७०॥
वह पृथ्वी पर गिरा लिंग उसका भेदन
कर तुरंत रसातल में प्रविष्ट हो गया एवं ऊपर की ओर भी उसने विश्वब्रह्माण्ड का
भेदन कर दिया । इसके बाद पृथ्वी, पर्वत,
नदियाँ, पादप तथा चराचर से पूर्ण समस्त
पाताललोक काँप उठे । पितामह ब्रह्मा भूर्लोक आदि भुवनों को संक्षुब्ध देखकर
श्रीविष्णु से मिलने क्षीरसागर पहुँचे । वहाँ उन्हें देख भक्तिपूर्वक प्रणाम कर
ब्रह्मा ने कहा - देव ! समस्त भुवन विक्षुब्ध कैसे हो गये हैं ? ॥६७ - ७०॥
अथोवाच हरिर्ब्रह्मन् शार्वो लिङ्गो
महर्षिभिः।
पातितस्तस्य भारार्ता संचचाल
वसुंधरा ॥७१॥
ततस्तदद्भुततमं श्रुत्वा देवः
पितामहः।
तत्र गच्छाम देवेश एवमाह पुनः पुनः
॥७२॥
ततः पितामहो देवः केशवश्च जगत्पतिः।
आजग्मतुस्तमुद्देशं यत्र लिङ्गं
भवस्य तत् ॥७३॥
ततोऽनन्तं हरिर्लिङ्गं
दृष्ट्वारुह्य खगेश्वरम्।
पातालं प्रविवेशाथ विस्मयान्तरितो
विभुः ॥७४॥
इस पर श्रीहरि ने कहा - ब्रह्मन् !
महर्षियों ने शिव के लिङ्ग को गिरा दिया है । उसके भार से कष्ट में पड़ी आर्त
पृथ्वी विचलित हो रही है । इसके बाद ब्रह्माजी उस अद्भुत बात को सुनकर देवेश ! हम
लोग वहाँ चलें - ऐसा बार- बार कहने लगे । फिर ब्रह्मा और जगत्पति विष्णु वहाँ
पहुँचे,
जहाँ शंकर का लिङ्ग गिरा था । वहाँ उस अनन्त लिङ्ग को देखकर
आश्चर्यचकित होकर हरि गरुड़ पर सवार हो उसका पता लगाने के लिये पाताल में प्रविष्ट
हुए ॥७१ - ७४॥
ब्रह्म पद्मविमानेन उर्ध्वमाक्रम्य
सर्वतः।
नैवान्तमलभद् ब्रह्मन् विस्मितः
पुनरागतः ॥७५॥
विष्णुर्गत्वाऽथ पातालान् सप्त
लोकपरायणः।
चक्रपाणिर्विनिष्क्रान्तो लेभेऽन्तं
न महामुने ॥७६॥
विष्णुः पितामहश्चोभौ हरलिङ्गं
समेत्य हि।
कृताञ्जलिपुटौ भूत्वा स्तोतुं देवं
प्रचक्रतुः ॥७७॥
नारदजी ! ब्रह्माजी अपने पद्मयान के द्वारा सम्पूर्ण ऊर्ध्वाकाश को लाँघ गये, पर उस लिङ्ग का अन्त नहीं पा सके और आश्चर्यचकित होकर वे लौट आये । मुने ! इसी प्रकार जब चक्रपाणि भगवान् विष्णु भी सातों पातालों में प्रवेश कर उस लिङ्ग का बिना अन्त पाये ही वहाँ से बाहर आये, तब ब्रह्मा, विष्णु दोनों शिवलिङ्ग के पास जाकर हाथ जोड़कर उनकी स्तुति करने लगे ॥७५ - ७७॥
शिवस्तोत्रम्
हरिब्रह्माणावूचतुः॥
नमोऽस्तु ते शूलपाणे नमोऽस्तु
वृषभध्वज ।
जीमूतवाहन कवे शर्व त्र्यम्बक शंकर
॥७८॥
महेश्वर महेशान सुपर्णाक्ष वृषाकपे ।
दक्षयज्ञक्षयकर कालरूप नमोऽस्तु ते
॥७९॥
त्वमादिरस्य जगतस्त्वं मध्यं
परमेश्वर ।
भवानन्तश्च भगवान् सर्वगस्त्वं
नमोऽस्तु ते ॥८०॥
ब्रह्मा - विष्णु बोले - शूलपाणिजी
! आपको प्रणाम है । वृषभध्वज ! जीमूतवाहन ! कवि ! शर्व ! त्र्यम्बक ! शंकर ! आपको
प्रणाम है । महेश्वर ! महेशान ! सुवर्णाक्ष ! वृषाकपे ! दक्ष - यज्ञ - विध्वंसक !
कालरुप शिव ! आपको प्रणाम है । परमेश्वर ! आप इस जगत के आदि मध्य एवं अन्त हैं ।
आप षडैश्वर्यपूर्ण भगवान् सर्वत्रगामी या सर्वत्रव्याप्त हैं । आपको प्रणाम है ॥७८
- ८०॥
पुलस्त्य उवाच॥
एवं संस्तूयमानस्तु तस्मिन् दारुवने
हरः।
स्वरूपी ताविदं वाक्यमुवाच वदतां
वरः ॥८१॥
पुलस्त्यजी बोले - उस दारुवन में इस
प्रकार स्तुति किये जाने पर वक्ताओं में श्रेष्ठ हर ने अपने स्वरुप में प्रकट होकर
(अर्थात् मूर्तिमान् होकर) उन दोनों से इस प्रकार कहा - ॥८१॥
हर उवाच॥
किमर्थं देवतानाथौ परिभूतक्रमं
त्विह।
मां स्तुवाते भृशास्वस्थं
कामतापितविग्रहम् ॥८२॥
भगवान् शंकर बोले - आप दोनों सभी
देवताओं के स्वामी हैं । आप लोग चलते- चलते थके हुए तथा कामाग्नि से दग्ध और मुझ
सब प्रकार से अस्वस्थ व्यक्ति की क्यों स्तुति कर रहे हैं ?
॥८२॥
देवावूचतुः ॥
भक्तः पातितं लिङ्गं यदेतद् भुवि
शंकर।
एतत् प्रगृह्यतां भूय अतो देव
स्तुवावहे ॥८३॥
इस पर ब्रह्मा- विष्णु दोनों बोले -
शिवजी ! पृथ्वी पर आपका जो यह लिङ्ग गिराया गया है, उसे पुनः आप ग्रहण करें । इसीलिये हम आपकी स्तुति कर रहे हैं ॥८३॥
हर उवाच॥
यद्यर्चयन्ति त्रिदशा मम लिङ्गं
सुरोत्तमौ।
तदेतत्प्रतिगृह्णीयां नान्यथेति
कथंचन ॥८४॥
ततः प्रोवाच भगवानेवमस्त्विति केशव।
ब्रह्म स्वयं च जग्राह लिङ्गं
कनकपिङ्गलम् ॥८५॥
ततश्चकार भगवांश्चातुर्वर्ण्यं
हरार्चने।
शास्त्राणि चैषां मुख्यानि
नानोक्तिविदितानि च ॥८६॥
आद्यं शैवं परिख्यातमन्यत्पाशुपतं
मुने।
तृतीयं कालवदनं चतुर्थं च कपालिनम्
॥८७॥
शिवजी ने कहा - श्रेष्ठ देवो ! यदि
सभी देवता मेरे लिङ्ग की पूजा करना स्वीकार करें, तभी मैं इसे पुनः ग्रहण करुँगा, अन्यथा किसी प्रकार
भी इसे नहीं धारण करुँगा । तब भगवान् विष्णु बोले - ऐसा ही होगा । फिर ब्रह्माजी ने
स्वयं उस स्वर्ण के सदृश पिंगल लिङ्ग को ग्रहण किया । तब भगवान ने चारों वर्णों को
हर- लिङ्ग की अर्चना का अधिकारी वनाया । इनके मुख्य शास्त्र नाना प्रकार के वचनों से
प्रख्यात हैं । मुने ! उन शिवभक्तों का प्रथम सम्प्रदाय शैव, द्वितीय पाशुपत, तृतीय कालमुख और चतुर्थ सम्प्रदाय
कापालिक या भैरवनाम से विख्यात है ॥८४ - ८७॥
शैवश्चासीत्स्वयं शक्तिर्वसिष्ठस्य
प्रियः श्रुतः।
तस्य शिष्यो बभूवाथ गोपायन इति
श्रुतः ॥८८॥
महापाशुपतश्चासीद्भरद्वाजस्तपोधनः।
तस्य शिष्योऽप्यभूद्राजा ऋषभः
सोमकेश्वरः ॥८९॥
कालस्यो भगवानासीदापस्तम्बस्तपोधनः।
तस्य शिष्योभवद्वैश्यो नाम्ना
क्राथेश्वरो मुने ॥९०॥
महाव्रती च धनदस्तस्य शिष्यश्च
विर्यवान्।
कर्णोदर इति ख्यातो जात्या शूद्रो
महातपाः ॥९१॥
महर्षि वसिष्ठ के प्रियपुत्र शक्ति
ऋषि स्वयं शैव थे । उनके एक शिष्य गोपायन नाम से प्रसिद्ध हुए । उन्होंने शैव
सम्प्रदाय को दूर तक फैलाया । तपोधन भरद्वाज महापाशुपत थे और सोमकेश्वर राजा ऋषभ
उनके शिष्य हुए, जिनसे पाशुपत- सम्प्रदाय
विशेषरुप से परिवर्तित हुआ । मुने ! ऐश्वर्य एवं तपस्या के धनी महर्षि आपस्तम्ब,
कालमुख सम्प्रदाय के आचार्य थे । क्राथेश्वर नाम के उनके वैश्य
शिष्य ने इस सम्प्रदाय का विशेष रुप से प्रचार किया । महाव्रती साक्षात् कुबेर
प्रथम कापालिक या भैरव- सम्प्रदाय के आचार्य हुए थे । शूद्रजाति के महातपस्वी
कर्णोदर नामक उनके एक प्रसिद्ध शिष्य हुए । इन्होंने इस मत का विशेष प्रचार किया
॥८८ - ९१॥
एवं स भगवान्ब्रह्म पूजनाय शिवस्य
तु।
कृत्वा तु चातुराश्रम्यं स्वमेव
भवनं गतः ॥९२॥
गते ब्रह्मणि शर्वोऽपि उपसंहृत्य तं
तदा।
लिङ्गं चित्रवने सूक्ष्मं
प्रतिष्ठाप्य चचार ह ॥९३॥
विचरन्तं तदा भूयो महेशं
कुसुमायुधः।
आरात्स्थित्वाऽग्रतो धन्वी
संतापयितुमुद्यतः ॥९४॥
ततस्तमग्रतो दृष्ट्वा
क्रोधाध्मातदृशा हरः।
स्मरमालोकयामास
शिखाग्राच्चरणान्तिकम् ॥९५॥
इस प्रकार ब्रह्माजी शिव की उपासना के
लिये चार सम्प्रदायों का विधान कर ब्रह्मलोक को चले गये । ब्रह्माजी के जाने पर
महादेव ने उस लिङ्ग को उपसंहृत कर लिया- समेट लिया एवं वे चित्रवन में सूक्ष्म
लिङ्ग प्रतिष्ठापित कर विचरण करने लगे । यहाँ भी शिवजी को घूमते देख पुष्पधनुष
कामदेव पुनः उनके सामने सहसा बहुत निकट आकर उन्हें संतापन बाण से बेधने को उद्यत
हुआ । तब उसे इस प्रकार सामने खड़ा देखकर शिवजी ने उस कामदेव को सिर से चरण तक
क्रोधभरी दृष्टि से देखा ॥९२ - ९५॥
आलोकितस्त्रिनेत्रेण मदनो
द्युतिमानपि।
प्रादह्यत तदा ब्रह्मन् पादादारभ्य
कक्षवत् ॥९६॥
प्रदह्यमानौ चरणौ दृष्ट्वाऽसौ
कुसुमायुधः।
उत्ससर्ज धनुः श्रेष्ठं तज्जगामाथ
पञ्चधा ॥९७॥
यदासीन्मुष्टिबन्धं तु रुक्मपृष्ठं
महाप्रभम्।
स चम्पकतरुर्जातः सुगन्धाढ्यो
गुणाकृतिः ॥९८॥
नाहस्थानं शुभाकारं
यदासीद्वज्रभूषितम्।
तज्जातं केसरारण्यं बकुलं नामतो
मुने ॥९९॥
या च कोटी शुभा
ह्यासीदिन्द्रनीलविभूषिता।
जाता सा पाटला रम्या
भृङ्गराजिविभूषिता ॥१००॥
ब्रह्मन् ! वह कामदेव अत्यन्त
तेजस्वी था । फिर भी भगवान द्वारा इस प्रकार दृष्ट होने पर वह पैर से लेकर
कटिपर्यन्त दग्ध हो गया । अपने चरणों को जलते हुए देखकर पुष्पायुध काम ने अपने
श्रेष्ठ धनुष को दूर फेंक दिया । इससे उसके पाँच टुकड़े हो गये । उस धनुष का जो
चमचमाता हुआ सुवर्णयुक्त मुठबंध था, वह
सुगन्धपूर्ण सुन्दर चम्पक वृक्ष हो गया। मुने ! उस धनुष का जो हीरा जड़ा हुआ
सुन्दर कृतिवाला नाहस्थान था, वह केसरवन में बकुल ( मौलेसरी
) नाम का वृक्ष बना । इन्द्रनील से सुशोभित उसकी सुन्दर कोटि भृंगो से विभूषित
सुन्दर पाटला ( गुलाब )- के रुप में परिणत हो गयी ॥९६ - १००॥
नाहोपरि तथा मुष्टौ स्थानं
शशिमणिप्रभम्।
पञ्चगुल्माऽभवज्जाती
शशाङ्ककिरणोज्ज्वला ॥१०१॥
ऊर्ध्व मुष्ट्या अधः कोट्योः स्थानं
विद्रुमभूषितम्।
तस्माद्बहुपुटा मल्ली संजाता विविधा
मुने ॥१०२॥
पुष्पोत्तमानि रम्याणि सुरभीणि च
नारद।
जातियुक्तानि देवेन स्वयमाचरितानि च
॥१०३॥
मुमोच मार्गणान् भूम्यां शरीरे
दह्यति स्मरः।
फलोपगानि वृक्षाणि संभूतानि सहस्रशः
॥१०४॥
चूतादीनि सुगन्धीनि स्वादूनि
विविधानि च।
हरप्रसादाज्जातानि भोज्यान्यपि
सुरोत्तमैः ॥१०५॥
एवं दग्ध्वा स्मरं रुद्रः संयम्य
स्वतनुं विभुः।
पुष्यार्था शिशिराद्रिं स जगाम
तपसेऽव्ययः ॥१०६॥
एवं पुरा देववरेण शंभुना कामस्तु
दग्धः सशरः सचापः।
ततस्त्वनङ्गेति महाधनुर्द्धरो
देवैस्तु गीतः सुरपूर्वपूजितः ॥१०७॥
धनुषनाह के ऊपर मुष्टि में स्थित
चन्द्रकान्तमणि की प्रभा से युक्त स्थान चन्द्रकिरण के समान उज्ज्वल पाँच
गुल्मवाली जाती ( चमेली - पुष्प ) बन गया । मुने मुष्टि के ऊपर दोनों कोटियों के
नीचेवाले विद्रुममणिविभूषित स्थान से अनेक पुटोंवाली मल्लिका ( मालती ) हो गयी ।
नारदजी ! देव के द्वारा जाती के साथ अन्य सुन्दर तथा सुगन्धित पुष्पों की सृष्टि
हुई । ऊर्ध्व शरीर के दग्ध होने के समय कामदेव ने अपने बाणों को भी पृथ्वी पर
फेंका था,
इससे हजारों प्रकार के फलयुक्त वृक्ष उत्पन्न हो गये । शिवजी की
कृपा से श्रेष्ठ देवताओं द्वारा भी अनेक प्रकार के सुगन्धित एवं स्वादिष्ट आम्र
आदि फल उत्पन्न हुए, जो खाने में स्वादुयुक्त हैं । इस
प्रकार कामदेव को भस्म कर एवं अपने शरीर को संयतकर समर्थ, अविनाशी
शिव पुण्य की कामना से हिमालय पर तपस्या करने चले गये । इस प्रकार प्राचीन समय में
देवश्रेष्ठ शिवजी द्वारा धनुषबाणसहित काम दग्ध किया गया था । तब से देवताओं में
प्रथम पूजित वह महाधनुर्धर देवों द्वारा 'अनङ्ग' कहा गया ॥१०१ - १०७॥
इति श्रीवामनपुराणे षष्ठोऽध्यायः
॥६॥
॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें छठा
अध्याय समाप्त हुआ ॥६॥
आगे जारी........ श्रीवामनपुराण अध्याय 7
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