वामनपुराण अध्याय ७
वामनपुराण के अध्याय ७ में उर्वशी की
उत्पत्ति कथा, प्रह्लाद-प्रसंग, नर-नारायण से
संवाद एवं युद्धोपक्रम का वर्णन है।
श्रीवामनपुराण अध्याय ७
Vaman Purana
chapter 7
श्रीवामनपुराणम् सप्तमोऽध्यायः
वामनपुराणम् अध्यायः ७
वामन पुराण सातवाँ अध्याय
श्रीवामनपुराण सप्तम अध्याय
श्रीवामनपुराण
अध्याय ७
पुलस्त्य उवाच
ततोऽनङ्गं विभुर्दृष्ट्वा ब्रह्मन्
नारायणो मुनिः।
प्रहस्यैवं वचः प्राह कन्दर्प इह
आस्यताम् ॥१॥
तदक्षुब्धत्वमीक्ष्यास्य कामो
विस्मयमागतः।
वसन्तोऽपि महाचिन्तां जगामाशु
महामुने ॥२॥
ततश्चाप्सरसो दृष्ट्वा
स्वागतेनाभिपूज्य च।
वसन्तमाह भगवानेह्येहि स्थीयतामिति
॥३॥
ततो विहस्य भगवान् मञ्जरीं
कुसुमावृताम्।
आदाय
प्राक्सुवर्णाङ्गीमूर्वोर्बालां विनिर्ममे ॥४॥
ऊरूद्भवां स कन्दर्पो दृष्ट्वा
सर्वाङ्गसुन्दरीम्।
अमन्यत तदाऽनङ्गः किमियं सा प्रिया
रतिः ॥५॥
पुलस्त्यजी बोले - नारदजी ! उसके
बाद समर्थ नारायण ऋषि कामदेव को हँसते हुए देखकर यों बोले - काम ! तुम यहाँ बैठो ।
काम उनकी उस अक्षुब्धता ( स्थिरता ) - को देखकर चकित हो गया । महामुने ! वसन्त को
भी उस समय बड़ी चिन्ता हुई । फिर अप्सराओं की ओर देखकर स्वागत के द्वारा उनकी पूजा
कर भगवान् नारायण ने वसन्त से कहा - आओ बैठो । उसके पश्चात् भगवान् नारायण मुनि ने
हँसकर एक फूल से भरी मञ्जरी ली और अपने ऊरु पर एक सुवर्ण अङ्गवाली तरुणी का चित्र
लिखकर उसकी सजीव रचना कर दी । नारायण की जाँघ से उत्पन्न उस सर्वाङ्ग सुन्दरी को
देखकर कामदेव मन में सोचने लगा - क्या यह सुन्दरी मेरी पत्नी रति है ! ॥१ - ५॥
तदेव वदनं चारु
स्वक्षिभ्रूकुटिलालकम्।
सुनासावंशाधरोष्ठमालोकनपरायणम् ॥६॥
तावेवाहार्य विरलौ पीवरौ
मग्नचूचुकौ।
राजेतेऽस्यः कुचौ पीनौ सज्जनाविव
संहतौ ॥७॥
तदेव तनु चार्वङ्ग्या
वलित्रयविभूषितम्।
उदरं राजते श्लक्ष्णं
रोमावलिविभूषितम् ॥८॥
रोमावलीच जघनाद् यान्ती स्तनतटं
त्वियम्।
राजते भृङ्गमालेव पुलिनात् कमलाकरम्
॥९॥
इसकी वैसी ही सुन्दर आँखें,
भौंह एवं कुटिल अलकें हैं । इसका वैसा ही मुखमण्डल, वैसी सुन्दर नासिका, वैसा वंश और वैसा ही इसका
अधरोष्ठ भी सुन्दर है । इसे देखने से तृप्ति नहीं होती हैं । रति के समान ही मनोहर तथा अत्यन्त मग्न
चूचुकवाले स्थूल ( मांसल ) स्तन दो सज्जन पुरुषों के सदृश परस्पर मिले हैं । इस
सुन्दरी का वैसा ही कृश, त्रिवलीयुक्त, कोमल तथा रोमावलिवाला उदर भी शोभित हो रहा है । उदर पर नीचे से ऊपर की ओर
स्तनतटतक जाती हुई इसकी रोमराजि सरोवर आदि के तट से कमलवृन्द की ओर जाती हुई
भ्रमरमण्डली के समान सुशोभित हो रही है ॥६ - ९॥
जघनं त्वतिविस्तीर्ण भात्यस्या
रशनावृतम्।
श्रीरोदमथने नद्धं भूजंगेनेव
मन्दरम् ॥१०॥
कदलीस्तम्भसदृशैरूर्ध्वमूलैरथोरुभिः।
विभाति सा सुचार्वङ्गी
पद्मकिञ्जल्कसन्निभा ॥११॥
जानुनी गूढगुल्फे च शुभे जङ्घे
त्वरोमशे।
विभातोऽस्यास्तथा
पादावलक्तकसमत्विषौ ॥१२॥
इति संचिन्तयन्
कामस्तामनिन्दितलोचनाम्।
कामातुरोऽसौ संजातः किमुतान्यो जनो
मुने ॥१३॥
इसका करधनी से मण्डित स्थूल जघन -
प्रदेश क्षीरसागर के मन्थन के समय में वासुकि नाग से वेष्टित मन्दरपर्वत के समान
सुशोभित हो रहा है । कदलीस्तम्भ के समान ऊर्ध्वमूल ऊरुओंवाली कमल के केसर के समान
गौरवर्ण की यह सुन्दरी है । इसके दोनों घुटने, गूढगुल्फ,
रोमरहित सुन्दर जंघा तथा अलक्तक के समान कान्तिवाले दोनों पैर
अत्यन्त सुशोभित हो रहे हैं । मुने ! इस प्रकार उस सुन्दरी के विषय में सोचते हुए
जब यह कामदेव स्वयमेव कामातुर हो गया तो फिर अन्य पुरुषों की तो बात ही क्या थी
॥१० - १३॥
माधवोऽप्युर्वशीं दृष्ट्वा
संचिन्तयत नारद।
किंस्वित् कामनरेन्द्रस्य राजधानी
स्वयं स्थिता ॥१४॥
आयाता शशिनो नूनमियं
कान्तिर्निशाक्षये।
रविरश्मिप्रतापार्तिभीता शरणमागता
॥१५॥
इत्थं संचितयन्नेव
अवष्टभ्याप्सरोगणम्।
तस्थौ मुनिरिव ध्यानमास्थितः स तु
माधवः ॥१६॥
ततः स विस्मितान् सर्वान्
कन्दर्पादीन् महामुने।
दृष्ट्वा प्रोवाच वचनं स्मितं
कृत्वा शुभव्रतः ॥१७॥
इयं ममोरुसंभृता कामाप्सरस माधव।
नीयतां सुरलोकाय दीयतां वासवाय च
॥१८॥
इत्युक्ताः कम्पमानास्ते
जग्मुर्गृह्योर्वशीं दिवम्।
सहस्राक्षाय तां प्रादाद्
रूपयौवनशालिनीम् ॥१९॥
आचक्षुश्चरितं ताभ्यां धर्मजाभ्यां
महामुने।
देवराजाय कामाद्यास्ततोऽभूद्
विस्मयः परः ॥२०॥
एतादृशं हि चरितं ख्यातिमग्र्यां
जगाम ह।
पातालेषु तथा मर्त्ये दिक्ष्वष्टासु
जगाम च ॥२१॥
नारदजी ! अब वसन्त भी उस उर्वशी को
देखकर सोचने लगा कि क्या यह राजा काम की राजधानी ही स्वयं आकर उपस्थित हो गयी हैं ?
अथवा रात्रि का अन्त होने पर सूर्य की किरणों के ताप से भय से स्वयं
चन्द्रिका ही शरण में आ गयी है । इस प्रकार सोचते हुए अप्सराओं को रोककर वसन्त
मुनि के सदृश ध्यानस्थ हो गया । महामुने ! उसके बाद शुभव्रत नारायण मुनि ने कामादि
सभी को चकित देखकर हँसते हुए कहा - हे काम, हे अप्सराओ,
हे वसन्त ! यह अप्सरा मेरी जाँघ से उत्पन्न हुई है । इसे तुम लोग
देवलोक में ले जाओ और इन्द्र को दे दो । उनके ऐसा कहने पर वे सभी भय से काँपते हुए
उर्वशी को लेकर स्वर्ग में चले गये और उस रुप- यौवनशालिनी अप्सरा को इन्द्र को दे
दिया । महामुने ! उन कामादि ने इन्द्र से उन दोनों धर्म के पुत्रों ( नर- नारायण )
- के चरित्र को कहा, जिससे इन्द्र को बड़ा विस्मय हुआ । नर और
नारायण के इस चरित्र की चर्चा आगे सर्वत्र बढ़ती गयी तथा वह पाताल, मर्त्यलोक एवं सभी दिशाओं में व्याप्त हो गयी ॥१४ - २१॥
एकदा निहते रौद्रो हिरण्यकशिपौ
मुने।
अभिषिक्तस्तदा राज्ये प्रह्लादे नाम
दानवः ॥२२॥
तस्मिञ्शासति दैत्येन्द्रे
देवब्राह्मणपूजके।
मखानि भुवि राजानो यजन्ते
विधिवत्तदा ॥२३॥
ब्राह्मणाश्च तपो धर्मं
तीर्थयात्राश्च कुर्वते।
वैश्याश्च पशुवृत्तिस्थाः शूद्राः
शुश्रूषणे रताः ॥२४॥
मुने ! एक बार की बात है । जब भयंकर
हिरण्यकशिपु मारा गया तब प्रह्लाद नामक दानव राजगद्दी पर बैठा । वह देवता और
ब्राह्मणों का पूजक था । उसके शासनकाल में पृथ्वी पर राजा लोग विधिपूर्वक
यज्ञानुष्ठान करते थे । ब्राह्मण लोग तपस्या, धर्म
- कार्य और तीर्थयात्रा, वैश्य लोग पशुपालन तथा शूद्र लोग
सबकी सेवा प्रेम से करते थे ॥२२ - २४॥
चातुर्वर्ण्यं ततः स्वे स्वे आश्रमे
धर्मकर्मणि।
आवर्त्तत ततो देवा वृत्त्या
युक्ताभवन् मुने ॥२५॥
ततस्तु च्यवनो नाम भार्गवेन्द्रो
महातपाः।
जगाम नर्मदां स्नातुं तीर्थं
चैवाकुलीश्वरम् ॥२६॥
तत्र दृष्ट्वा महादेवं नदीं
स्नातुमवातरत्।
अवतीर्णं प्रजग्राह नागः केकरलोहितः
॥२७॥
गृहीतस्तेन नागेन सस्मार मनसा
हरिम्।
संस्मृते पुण्डरीकाक्षे
निर्विषोऽभून्महोरगः ॥२८॥
मुने ! इस प्रकार चारों वर्ण अपने
आश्रम में स्थित रहकर धर्म- कार्यों में लगे रहते थे । इससे देवता भी अपने कर्म में
संलग्न हो गये । उसी समय ब्राह्मणों में श्रेष्ठ भार्गववंशी महातपस्वी च्यवन नामक
ऋषि नर्मदा के नकुलीश्वर तीर्थ में स्नान करने गये । वहाँ वे महादेव का दर्शनकर
नदी में स्नान करने के लिये उतरे । जल में उतरते ही ऋषि को एक भूरे वर्ण के साँप ने
पकड़ लिया । उस साँप द्वारा पकड़े जाने पर ऋषि ने अपने मन में विष्णु भगवान का स्मरण
किया । कमलनयन भगवान् श्रीहरि को स्मरण करने पर वह महान् सर्प विषहीन हो गया ॥२५ -
२८॥
नीतस्तेनातिरौद्रेण पन्नगेन
रसातलम्।
निर्विषश्चापि तत्याज च्यवनं
भुजगोत्तमः ॥२९॥
संत्यक्तमात्रो नागेन च्यवनो
भार्गवोत्तमः।
चचार नागकन्याभिः पूज्यमानः समन्ततः
॥३०॥
विचरन् प्रविवेशाथ दानवानां महत्
पुरम्।
संपूज्यमानो दैत्येन्द्रः
प्रह्लादोऽथ ददर्श तम् ॥३१॥
भृगुपुत्रे महातेजाः पूजां चक्रे
यथार्हतः।
संपूजितोपविष्टश्च पृष्टश्चागमनं
प्रति ॥३२॥
फिर उस भयंकर विषरहित सर्प ने च्यवन
मुनि को रसातल में ले जाकर छोड़ दिया । सर्प ने भार्गवश्रेष्ठ च्यवन को मुक्त कर
दिया । फिर वे नागकन्याओं से पूजित होते हुए चारों ओर विचरण करने लगे । वहाँ घूमते
हुए वे दानवों के विशाल नगर में प्रविष्ट हुए । इसके बाद श्रेष्ठ दैत्यों द्वारा पूजित
प्रह्लाद ने उन्हें देखा । महातेजस्वी प्रह्लाद ने भृगुपुत्र की यथायोग्य पूजा की
। पूजा के बाद उनके बैठने पर प्रह्लाद ने उनसे उनके आगमन का कारण पूछा ॥२९ - ३२॥
स चोवाच महाराज महातीर्थं महाफलम्।
स्नातुमेवागतोऽस्म्यद्य
द्रष्टुञ्चैवाकुलीश्वरम् ॥३३॥
नद्यामेवावतीर्णोऽस्मि
गृहीतश्चाहिना बलान्।
समानीतोऽस्मि पाताले दृष्टश्चात्र
भवानपि ॥३४॥
एतच्छ्रुत्वा तु वचनं च्यवनस्य
दितीश्वरः।
प्रोवाच धर्मसंयुक्तं स वाक्यं
वाक्यकोविदः ॥३५॥
उन्होंने कहा - महाराज ! आज मैं
महाफलदायक महातीर्थ में स्नान एवं नकुलीश्वर का दर्शन करने आया था । वहाँ नदी में
उतरते ही एक नाग ने मुझे बलात् पकड़ लिया । वही मुझे पाताल में लाया और मैंने यहाँ
आपको भी देखा । च्यवन की इस बात को सुनकर सुन्दर वचन बोलनेवाले दैत्यों के ईश्वर (
प्रह्लाद ) - ने धर्मसंयुक्त यह वाक्य कहा ॥३३ - ३५॥
प्रह्लाद उवाच
भगवन् कानि तीर्थानि पृथिव्यां कानि
चाम्बरे।
रसातले च कानि स्युरेतद् वक्तुं
ममार्हसि ॥३६॥
प्रह्लाद ने पूछा - भगवन् ! कृपा
करके मुझे बतलाइये कि पृथ्वी, आकाश और पाताल
में कौन- कौन से ( महान् ) तीर्थ हैं ? ॥३६॥
च्यवन उवाच
पृथिव्यां नैमिषं तीर्थमन्तरिक्षे च
पुष्करम्।
चक्रतीर्थं महाबाहो रसातलतले विदुः
॥३७॥
(प्रह्लाद के वचन को सुनकर ) च्यवनजी ने कहा -
महाबाहो ! पृथ्वी में नैमिषारण्यतीर्थ, अन्तरिक्ष
में पुष्कर, और पाताल में चक्रतीर्थ प्रसिद्ध हैं ॥३७॥
पुलस्त्य उवाच
श्रुत्वा तद्भार्गववचो दैत्यराजो
महामुने।
नेमिषै गन्तुकामस्तु
दानवानिदमब्रवीत् ॥३८॥
पुलस्त्यजी ने कहा - महामुने !
भार्गव की इसी बात को सुनकर दैत्यराज प्रह्लाद ने नैमिषतीर्थ में जाने के लिये
इच्छा प्रकट की और दानवों से यह बात कही ॥३८॥
प्रह्लाद उवाच
उत्तिष्ठध्वं गमिष्यामः स्नातुं
तीर्थं हि नैमिषम्।
द्रक्ष्यामः पुण्डरीकाक्षं
पीतवाससमच्युतम् ॥३९॥
प्रह्लाद बोले - उठो,
हम सभी नैमिषतीर्थ में स्नान करने जायँगे तथा वहाँ पीताम्बरधारी एवं
कमल के समान नेत्रोंवाले भगवान् अच्युत (विष्णु) - के दर्शन करेंगे ॥३९॥
पुलस्त्य उवाच
इत्युक्ता दानवेन्द्रेण सर्वे ते
दैत्यदानवाः।
चक्रुरुद्योगमतुलं निर्जग्मुश्च
रसातलात् ॥४०॥
ते समभ्येत्य दैतेया दानवाश्च
महाबलाः।
नेमिषारण्यमागत्य स्नानं
चक्रुर्मुदान्विताः ॥४१॥
ततो दितीश्वरः श्रीमान् मृगव्यां स
चचार ह।
चरन् सरस्वतीं पुण्यां ददर्श
विमलोदकाम् ॥४२॥
तस्यादूरे महाशाखं शालवृक्षं शरैश्चितम्।
ददर्श बाणानपरान् मुखे लग्नान्
परस्परम् ॥४३॥
पुलस्त्यजी ने कहा - दैत्यराज
प्रह्लाद के ऐसा कहने पर वे सभी दैत्य और दानव रसातल से बाहर निकले एवं अतुलनीय
उद्योग में लग गये । उन महाबलवान् दितिपुत्रों एवं दानवों नें नैमिषारण्य में आकर
आनन्दपूर्वक स्नान किया । इसके बाद श्रीमान् दैत्यश्रेष्ठ प्रह्लाद मृगया (आखेट या
शिकार) - के लिये वन में घूमने लगे । वहाँ घूमते हुए उन्होंने पवित्र एवं निर्मल
जलवाली सरस्वती नदी को देखा । वहीं समीप ही बाणों से खचाखच बिंधे बड़ी - बड़ी
शाखाओंवाले एक शाल वृक्ष को देखा । वे सभी बाण एक- दूसरे के मुख से लगे हुए थे ॥४०
- ४३॥
ततस्तानद्भुताकारान् बाणान्
नागोपवीतकान्।
दृष्ट्वाऽतुलं तदा चक्रे क्रोधं
दैत्येश्वरः किल ॥४४॥
स ददर्श ततोऽदूरात्कृष्णाजिनधरौ
मुनी।
समुन्नतजटाभारौ तपस्यासक्तमानसौ
॥४५॥
तयोश्च पार्श्वयोर्दिव्ये धनुषी
लक्षणान्विते।
शार्ङ्गमाजगवं चैव अक्षय्यौ च
महेषुधी ॥४६॥
तौ दृष्ट्वाऽमन्यत तदा दाम्बिकाविति
दानवः।
ततः प्रोवाच वचनं तावुभौ
पुरुषोत्तमौ ॥४७॥
तब उन अद्भुत आकारवाले नागोपवीत
(साँपों से लिपटे) बाणों को देखकर दैत्येश्वर को बड़ा क्रोध हुआ । फिर उन्होंने दूर
से ही काले मृगचर्म को धारण किये हुए बड़ी - बड़ी जटाओंवाले तथा तपस्या में लगे दो
मुनियों को देखा । उन दोनों के बगल में सुलक्षण शार्ङ्ग और आजगव नामक दो दिव्य
धनुष एवं दो अक्षय तथा बड़े- बड़े तरकस वर्तमान थे । उन दोनों को इस प्रकार देखकर
दानवराज प्रह्लाद ने उन्हें दम्भ से युक्त समझा । फिर उन्होंने उन दोनों श्रेष्ठ
पुरुषों से कहा - ॥४४ - ४७॥
किं भवद्भ्यां समारब्धं दम्भं
धर्मविनाशनम्।
क्व तपः क्व जटाभारः क्व चेमौ
प्रवरायुधौ ॥४८॥
अथोवाच नरो दैत्यं का ते चिन्ता
दितीश्वर।
सामर्थ्ये सति यः कुर्यात्
तत्संपद्येत तस्य हि ॥४९॥
अथोवाच दितीशस्तौ का
शक्तिर्युवयोरिह।
मयि तिष्ठति दैत्येन्द्रे
धर्मसेतुप्रवर्तके ॥५०॥
नरस्तं प्रत्युवाचाथ आवाभ्यां
शक्तिरूर्जिता।
न कश्चिच्छक्नुयाद् योद्धुं
नरनारायणौ युधि ॥५१॥
आप दोनों यह धर्मविनाशक दम्भपूर्ण
कार्य क्यों कर रहे हैं ? कहाँ तो आपकी यह
तपस्या और जटाभार, कहाँ ये दोनों श्रेष्ठ अस्त्र? इस पर नर ने उनसे कहा - दैत्येश्वर ! तुम उसकी चिन्ता क्यों कर रहे हो ?
सामर्थ्य रहने पर कोई भी व्यक्ति जो कर्म करता है, उसे वही शोभा देता है । तब दितीश्वर प्रह्लाद ने उन दोनों से कहा – धर्म सेतु
के स्थापित करनेवाले मुझ दैत्येन्द्र के रहते यहाँ आप लोग (सामर्थ्य- बल से) क्या
कर सकते हैं ? इस पर नर ने उन्हें उत्तर दिया - हमने
पर्याप्त शक्ति प्राप्त कर ली है । हम नर और नारायण- दोनों से कोई भी युद्ध नहीं
कर सकता ॥४८ - ५१॥
दैत्येश्वरस्ततः क्रुद्धः
प्रतिज्ञामारुरोह च।
यथा कथंचिज्जेष्यामि नरनारायणौ रणे
॥५२॥
इत्येवमुक्त्वा वचनं महात्मा
दितीश्वरः स्थाप्य बलं वनान्ते।
वितत्य चापं गुणमाविकृष्य तलध्वनिं
घोरतरं चकार ॥५३॥
ततो नरस्त्वाजगवं हि चापमानम्य
बाणान् सुबहूञ्शिताग्रान्।
मुमोच तानप्रतिमैः पृषत्कैश्चिच्छेद
दैत्यस्तपनीयपुङ्खैः ॥५४॥
छिन्नान् समीक्ष्याथ नरः पृषत्कान्
दैत्येश्वरेणाप्रतिमेव संख्ये।
क्रुद्धः समानम्य महाधनुस्ततो मुमोच
चान्यान् विविधान् पृषत्कान् ॥५५॥
इस पर दैत्येश्वर ने क्रुद्ध होकर
प्रतिज्ञा कर दी कि मैं युद्ध में जिस किसी भी प्रकार आप नर और नारायण दोनों को
जीतूँगा । ऐसी प्रतिज्ञाकर दैत्येश्वर प्रह्लाद ने वन की सीमा पर अपनी सेना खड़ी कर
दी और धनुष को फैलाकर उस पर डोरी चढ़ायी तथा घोरतर करतलध्वनि की- ताल ठोंकी । इस पर
नर ने भी आजगव धनुष को चढ़ाकर बहुत- से तेज बाण छोड़े । परंतु प्रह्लाद ने अनेक
स्वर्ण- पुंखवाले अप्रतिम बाणों से उन बाणों को काट डाला । फिर नर ने युद्ध में
अप्रतिम दैत्येश्वर के द्वारा बाणों को नष्ट हुआ देख क्रुद्ध होकर अपने महान् धनुष
को चढ़ाकर पुनः अन्य अनेक तीक्ष्ण बाण छोड़े ॥५२ - ५५॥
एकं नरो द्वौ दितिजेश्वरश्च त्रीन्
धर्मसूनुश्चतुरो दितीशः।
नरस्तु बाणान् प्रमुमोच पञ्च षड्
दैत्यनाथो निशितान् पृषत्कान् ॥५६॥
सप्तर्षिमुख्यो द्विचतुश्च दैत्यो
नरस्तु षट् त्रीणि च दैत्यमुख्ये।
षट्त्रीणि चैकं च दितीश्वरेण
मुक्तानि बाणानि नराय विप्र ॥५७॥
एकं च षट् पञ्च नरेण
मुक्तास्त्वष्टौ शराः सप्त च दानवेन।
षट् सप्त चाष्टौ नव षण्नरेण
द्विसप्ततिं दैत्यपतिः ससर्ज्ज ॥५८॥
शतं नरस्त्रीणि शतानि दैत्यः षड्
धर्मपुत्रो दश दैत्यराजः।
ततोऽप्यसंख्येयतरान् हि बाणान्
मुमोचतुस्तौ सुभृशं हि कोपात् ॥५९॥
नर के एक बाण छोड़ने पर प्रह्लाद ने
दो बाण छोड़े; नर के तीन बाण छोड़ने पर
प्रह्लाद ने चार बाण छोड़े । इसके बाद पुनः नर ने पाँच बाण और फिर दैत्यश्रेष्ठ
प्रह्लाद ने छः तेज बाण छोड़े । विप्र ! नर के सात बाण छोड़ने पर दैत्य ने आठ बाण
छोड़े । नर के नव बाण छोड़ने पर प्रह्लाद ने उन पर दस बाण छोड़े । नर के बारह बाण
छोड़ने पर दानव ने पंद्रह बाण छोड़े । नर के छत्तीस बाण छोड़ने पर दैत्यपति ने बहत्तर
बाण चलाये । नर के सौ बाणों पर दैत्य ने तीन सौ बाण चलाये । धर्मपुत्र के छः सौ
बाणों पर दैत्यराज ने एक हजार बाण छोड़े । फिर तो उन दोनों ने अत्यन्त क्रोध से
(एक- दूसरे पर) असंख्य बाण छोड़े ॥५६ - ५९॥
ततो नरो बाणगणैरसख्यैरवास्तरद्भूमिमथो
दिशः खम्।
स चापि दैत्यप्रवरः
पृषत्कैश्चिच्छेद वेगात् तपनीयपुङ्खैः ॥६०॥
ततः पतत्त्रिभिर्वीरौ सुभृशं
नरदानवौ।
युद्धे वरास्त्रैर्युध्येतां
घोररूपैः परस्परम् ॥६१॥
ततस्तु दैत्येन वरास्त्रपाणिना चापे
नियुक्तं तु पितामहास्त्रम्।
महेश्वरास्त्रं पुरुषोत्तमेव समं
समाहत्य निपेततुस्तौ ॥६२॥
ब्रह्मास्त्रे तु प्रशमिते
प्रह्लादः क्रोधमूर्छितः।
गदां प्रगृह्य तरसा प्रचस्कन्द
रथोत्तमात् ॥६३॥
उसके बाद नर ने असंख्य बाणों से
पृथ्वी,
आकाश और दिशाओं को ढक दिया । फिर दैत्यप्रवर प्रह्लाद ने
स्वर्णपुंखवाले बाणों को बड़े वेग से छोड़कर उनके बाणों को काट दिया । तब नर और दानव
दोनों वीर बाणों तथा भयंकर श्रेष्ठ अस्त्रों से परस्पर युद्ध करने लगे । इसके बाद
दैत्य ने हाथ में ब्रह्मास्त्र लेकर उस धनुष पर नियोजित कर चला दिया एवं उन
पुरुषोत्तम ने भी माहेश्वरास्त्र का प्रयोग कर दिया । वे दोनों अस्त्र परस्पर एक –
दूसरे से टक्कर खाकर गिर गये । ब्रह्मास्त्र के व्यर्थ होने पर क्रोध से मूर्च्छित
हुए प्रह्लाद वेग से गदा लेकर उत्तम रथ से कूद पड़े ॥६० - ६३॥
गदापाणिं समायान्तं दैत्यं
नारायणस्तदा।
दृष्ट्वाऽथ पृष्ठतश्चक्रे नरं योद्धुमनाः
स्वयम् ॥६४॥
ततो दितीशः सगदः समाद्रवत्
सशार्ङ्गपाणिं तपसां निधानम्।
ख्यातं पुराणर्षिमुदारविक्रमं
नारायणं नारद लोकपालम् ॥६५॥
ऋषि नारायण ने उस समय दैत्य को हाथ में
गदा लिये अपनी ओर आते देखकर स्वयं युद्ध करने की इच्छा से नर को पीछे हटा दिया ।
नारदजी ! तब प्रह्लादजी गदा लेकर तपोनिधान, शार्ङ्गधनुष
को धारण करनेवाले, प्रसिद्ध पुरातन ऋषि, महापराक्रमशाली, लोकपति नारायण की ओर दौड़ पड़े ॥६४ -
६५॥
इति श्रीवामनपुराणे सप्तमोऽध्यायः
॥७॥
॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें
सातवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥७॥
आगे जारी........ श्रीवामनपुराण अध्याय 8
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