वामनपुराण अध्याय ८

वामनपुराण अध्याय ८     

वामनपुराण के अध्याय ८ में प्रह्लाद और नारायण का तुमुल युद्ध, भक्ति से विजय का वर्णन है।

वामनपुराण अध्याय ८

श्रीवामनपुराण अध्याय ८     

Vaman Purana chapter 8 

श्रीवामनपुराणम् अष्टमोऽध्यायः        

वामनपुराणम् अध्यायः ८     

वामन पुराण आठवाँ अध्याय

श्रीवामनपुराण अष्टम अध्याय 

श्रीवामनपुराण

अध्याय ८

पुलस्त्य उवाच

शार्ङ्गपाणिनमायान्तं दृष्ट्वाऽग्रे दानवेश्वरः।

परिभ्राम्य गदां वेगात् मूर्ध्नि साध्यमताडयत् ॥१॥

ताडितस्याथ गदया धर्मपुत्रस्य नारद।

नेत्राभ्यामपतद् वारि वह्निवर्षनिभं भुवि ॥२॥

मूर्ध्नि नारायणस्यापि सा गदा दानवार्पिता।

जगाम शतधा ब्रह्मञ्शैलश्रृङ्गे यथाऽशनिः ॥३॥

ततो निवृत्य दैत्येन्द्रः समास्थाय रथं द्रुतम्।

आदाय कार्मुकं वीरस्तूणद् बाणं समाददे ॥४॥

पुलस्त्यजी बोले – प्रह्लाद ने जब हाथ में शार्ङ्गधनुष लिये भगवान् नारायण को सामने से आते देखा तो अपनी गदा घुमाकर वेग से उनके सिर पर प्रहार कर दिया । नारदजी ! गदा से प्रताडित होने पर नारायण के नेत्रों से आग के स्फुलिंग के समान आँसू पृथ्वी पर गिरने लगे । ब्रह्मन् ! पर्वत की चोटी पर गिरकर जैसे वज्र टूट जाता है, उसी प्रकार दानव द्वारा नारायण के सिर पर चलायी गयी वह गदा भी सैकड़ों टुकड़े हो गयी । उसके बाद शीघ्रतापूर्वक लौटकर वीर दैत्येन्द्र ने रथ पर आरुढ़ हो धनुष लेकर अपनी तरकस से बाण निकाल लिया ॥१ - ४॥

आनम्य चापं वेगेन गार्द्धपत्राञ्शिलीमुखान्।

मुमोच साध्याय तदा क्रोधान्धकारिताननः ॥५॥

तानापतत एवाशु बाणांश्चन्द्रार्द्धसन्निभान्।

चिच्छेद बाणैरपरैर्निर्बिभेद च दानवम् ॥६॥

ततो नारायणं दैत्यो दैत्यं नारायणः शरैः।

आविध्येतां तदाऽन्योन्यं मर्मभिद्भिरजिह्मगैः ॥७॥

ततोऽम्बरे संनिपातो देवानामभवन्मुने।

दिदृक्षूणां तदा युद्धं लघु चित्रं च सुष्ठु च ॥८॥

फिर क्रोधान्ध प्रह्लाद ने शीघ्रता से धनुष को चढ़ाकर गृध्र के पंखवाले अनेक बाणों को नारायण की ओर चलाया । नारायण ने भी बड़ी शीघ्रता से अपनी ओर आ रहे उन अर्धचन्द्र - तुल्य बाणों को अपने बाणों से काट डाला और कुछ दूसरे बाणों से प्रह्लाद को विद्ध कर दिया । तब दैत्य ने नारायण को और नारायण ने दैत्य को - एक- दूसरे को - मर्मभेदी एवं सीधे चलनेवाले बाणों से वेध दिया । मुने ! उस समय शीघ्रतापूर्वक हो रहे इस कौशलयुक्त विचित्र एवं सुन्दर युद्ध को देखने की इच्छावाले देवताओं का समूह आकाश में एकत्र हो गया ॥५ - ८॥

ततः सुराणां दुन्दुभ्यस् त्ववाद्यन्त महास्वनाः।

पुष्पवर्षमनौपम्यं मुमुचुः साध्यदैत्ययोः ॥९॥

ततः पश्यत्सु देवेषु गगनस्थेषु तावुभौ।

अयुध्येतां महेष्वासौ प्रेक्षकप्रीतिवर्द्धनम् ॥१०॥

बबन्धतुस्तदाकाशं तावुभौ शरवृष्टिभिः।

दिशश्च विदिशश्चैव छादयेतां शरोत्करैः ॥११॥

ततो नारायणश्चापं समाकृष्य महामुने।

बिभेद मार्गणैस्तीक्ष्णैः प्रह्लादं सर्वमर्मसु ॥१२॥

तथा दैत्येश्वरः क्रुद्धश्चापमानम्य वेगवान्।      

बिभेद हृदये बाह्वोर्वदने च नरोत्तमम् ॥१३॥

उसके बाद बड़े जोर से बजनेवाले नगाड़ों को बजाकर देवताओं ने भगवान् नारायण के और दैत्य के ऊपर अनुपमरुप में पुष्पों की वर्षा की । फिर उन दोनों धनुर्धारियों ने आकाश में स्थित देवताओं के सामने दर्शकों को आनन्द देनेवाला ( दिलचस्प ) अनूठा युद्ध किया । उस समय उन दोनों ने बाणों की वृष्टि से आकाश को मानो बाँध दिया और बाणवृष्टि से दिशाओं एवं विदिशाओं को ढक दिया । महामुनि नारदजी ! तब नारायण ने धनुष को खींचकर तेज बाणों से प्रह्लाद के सभी मर्मस्थलों में प्रहार किया और फुर्तीवाले दैत्येश्वर ने क्रोधपूर्वक धनुष को चढ़ाकर नरोत्तम के हदय, दोनों भुजाओं और मुँह को भी (बाणों से) बेध दिया ॥९ - १३॥

ततोऽस्यतो दैत्यपतेः कार्मुकं मुष्टिबन्धनात्।

चिच्छेदैकेन बाणेन चन्द्रार्धाकारवर्चसा ॥१४॥

अपास्यत धनुश्छिन्नं चापमादाय चापरम्।

अधिज्यं लाघवात् कृत्वा ववर्ष निशिताञ्शरान् ॥१५॥

तानप्यस्य शरान् साध्यश्छित्त्वा बाणैरवारयत्।

कार्मुकं च क्षुरप्रेण चिच्छेद पुरुषोत्तमः ॥१६॥

छिन्नं छिन्नं धनुर्दैत्यस्त्वन्यदन्यत्समाददे।

समादत्तं तदा साध्यो मुने चिच्छेद लाघवात् ॥१७॥

उसके बाद नारायण ने बाण चला रहे प्रह्लाद के धनुष के मुष्टिबन्ध को अर्धचन्द्र के आकारवाले एक तेजस्वी बाण से काट दिया । प्रह्लाद ने भी कटे धनुष को झट फेंककर दूसरा धनुष हाथ में ले लिया और शीघ्र ही उसकी प्रत्यञ्चा (डोरी) चढ़ाकर तेज बाणों की वर्षा प्रारम्भ कर दी । पर उसके उन शरों को भी नारायण ने बाणों से काटकर निवारित कर दिया और उन पुरुषोत्तम ने तीक्ष्ण बाण से उसके धनुष को भी काट डाला । नारदजी ! एक धनुष के छिन्न होने पर दैत्यराज ने बारम्बार दूसरा धनुष ग्रहण किया, किंतु नारायण ने लिये हुए उन - उन धनुषों को भी तुरंत काटकर गिरा दिया ॥१४ - १७॥

संछिन्नेष्वथ चापेषु जग्राह दितिजेश्वरः।

परिघं दारुणां दीर्घं सर्वलोहमयं दृढम् ॥१८॥

परिगृह्याथ परिघं भ्रामयामास दानवः।

भ्राम्यमाणं स चिच्छेद नाराचेन महामुनिः ॥१९॥

छिन्ने तु परिघे श्रीमान् प्रह्लादो दानवेश्वरः।

मुद्गरं भ्राम्य वेगेन प्रचिक्षेप नराग्रजे ॥२०॥

तमापतन्तं बलवान् मार्गणैर्दशभिर्मुने।

चिच्छेद दशधा साध्यः स छिन्नो न्यपतद् भुवि ॥२१॥

फिर धनुषों के कट जाने पर दैत्यपति प्रह्लाद ने एक भयंकर, मजबूत और लौत (फौलाद) - से बने 'परिघ' नामक अस्त्र को उठा लिया । उसे लेकर वे दानव ( प्रह्लाद ) चारों ओर घुमाने लगे । उस घुमाये जाते हुए परिघ को भी महामुनि नारायण ने बाण से काट दिया । उसके कट जाने पर श्रीमान् दनुजेश्वर प्रह्लाद ने पुनः एक मुदगर को वेग से घुमाकर उसे नारायण के ऊपर फेंका । नारदजी ! उस आते हुए मुदगर को भी बलवान् नारायण ने दस बाणों से दस भागों में काट दिया; वह नष्ट होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा ॥१८ - २१॥

मुद्गरे वितथे जाते प्रासमाविध्य वेगवान्।

प्रचिक्षेप नराग्र्याय तं च चिच्छेद धर्मजः ॥२२॥

प्रासे छिन्ने ततो दैत्यः शक्तिमादाय चिक्षिपे।

तां च चिच्छेद बलवान् क्षुरप्रेण महातपाः ॥२३॥

छिन्नेषु तेषु शस्त्रेषु दानवोऽन्यन्महद्धनुः।

समादाय ततो बाणैरवतस्तार नारद ॥२४॥

ततो नारायणो देवो दैत्यनाथं जगद्गुरुः।

नाराचेन जघानाथ हृदये सुरतापसः ॥२५॥

प्रह्लाद ने मुदगर के विफल हो जाने पर 'प्राश' नाम का अस्त्र लेकर बड़े जोर से नर के बड़े भाई नारायण के ऊपर चला दिया; पर उन्होंने उसे भी काट डाला । प्राश के नष्ट हो जाने पर दैत्य ने तेज 'शक्ति' फेंकी, पर बलवान महातपा नारायण ने उसे भी अपने क्षुरप्र के द्वारा काट डाला । नारदजी ! उन सभी अस्त्रों के नष्ट हो जाने पर प्रह्लाद दूसरे विशाल धनुष को लेकर बाणों की वर्षा करने लगे । तब परम तपस्वी जगदगुरु नारायणदेव ने प्रह्लाद के हृदय में नाराच से प्रहार किया ॥२२ - २५॥

संभिन्निहृदयो ब्रह्मन् देवेनाद्भुतकर्मणा।

निपपात रथोपस्थे तमपोवाह सारथिः ॥२६॥

स संज्ञां सुचिरेणैव प्रतिलभ्य दितीश्वरः।

सुदृढं चापमादाय भूयो योद्धमुपागतः ॥२७॥

तमागतं संनिरीक्ष्य प्रत्युवाच नराग्रजः।

गच्छ दैत्येन्द्र योत्स्यामः प्रातस्त्वाह्निकमाचर ॥२८॥

एवमुक्तो दितीशस्तु साध्येनाद्भुतकर्मणा।

जगाम नैमिषारण्यं क्रियां चक्रे तदाऽऽह्निकीम् ॥२९॥

नारदजी ! अद्भुत पराक्रमी नारायण के प्रहार से प्रह्लाद का हृदय बिंध गया, फलतः वे बेहोश होकर वहाँ से हटाकर दूर ले गया । बहुत देर के बाद जब उन्हें चेतना प्राप्त हुई- होश आया, तब वे पुनः सुदृढ़ धनुष लेकर नर – नारायण से युद्ध करने के लिये संग्रामभूमि में आ गये । उन्हें आया देख नारायण ने कहा- दैत्येन्द्र ! अब हम कल प्रातः युद्ध करेंगे; तुम भी जाओ, इस समय अपना नित्य कर्म करो । अद्भुत पराक्रमी श्रीनारायण के ऐसा कहने पर प्रह्लाद नैमिषारण्य चले गये और वहाँ अपने नित्य कर्म सम्पन्न किये ॥२६ - २९॥

एवं युध्यति देवे च प्रह्लादो ह्यसुरो मुने।

रात्रौ चिन्तयते युद्धे कथं जेष्यामि दाम्भिकम् ॥३०॥

एवं नारायणेनाऽसौ सहायुध्यत नारद।

दिव्यं वर्षसहस्रं तु दैत्यो देवं न चाजयत् ॥३१॥

ततो वर्षसहस्रान्ते ह्यजिते पुरुषोत्तमे।

पीतवाससमभ्येत्य दानवो वाक्यमब्रवीत् ॥३२॥

किमर्थं देवदेवेश साध्यं नारायणं हरिम्।

विजेतुं नाऽद्य शक्नोमि एतन्मे कारणं वद ॥३३॥

नारदजी ! इस प्रकार भगवान् नारायण एवं दानवेन्द्र प्रह्लाद- दोनों में युद्ध चलता रहा । रात्रि में प्रह्लाद यह विचार किया करते थे कि मैं युद्ध में इन दम्भ करनेवाले ऋषि को कैसे जीतूँगा ? नारदजी ! इस प्रकार प्रह्लाद ने भगवान् नारायण के साथ एक हजार दिव्य वर्षोंतक युद्ध किया, परंतु वे उन्हें (नारायण को) जीत न पाये । फिर हजार दिव्य वर्षों के बीत जाने पर भी पुरुषोत्तम नारायण को न जीत सकने पर प्रह्लाद ने वैकुण्ठ में जाकर पीतावस्त्रधारी भगवान् विष्णु से कहा- देवेश ! मैं (सरलता से) साध्य नारायण को आजतक क्यों न जीत पाया, आप मुझें इसका कारण बतलायें ॥३० - ३३॥

पीतवासा उवाच

दुर्जयोऽसौ महाबाहुस्त्वया प्रह्लाद धर्मजः।

साध्यो विप्रवरो धीमान् मृधे देवासुरैरपि ॥३४॥

इस पर पीतावस्त्रधारी भगवान् विष्णु बोले - प्रह्लाद ! महाबाहु धर्मपुत्र नारायण तुम्हारे द्वारा दुर्जेय है । वे ब्राह्मणों में श्रेष्ठ ऋषि परम ज्ञानी है । वे सभी देवताओं एवं असुरों से भी युद्ध में नहीं जीते जा सकते ॥३४॥

प्रह्लाद उवाच

यद्यसौ दुर्जयो देव मया साध्यो रणाजिरे।

तत्कथं यत्प्रतिज्ञातं तदसत्यं भविष्यति ॥३५॥

हीनप्रतिज्ञो देवेश कथं जीवेत मादृशः।

तस्मात्तवाग्रतो विष्णो करिष्ये कायशोधनम् ॥३६॥

प्रह्लाद ने कहा - देव ! यदि वे साध्यदेव (नारायण) युद्धभूमि में मुझसे जीते नहीं जा सकते हैं तो मैंने जो प्रतिज्ञा की है, उसका क्या होगा ? वह तो मिथ्या हो जायगी । देवेश ! मुझ- जैसा व्यक्ति हीनप्रतिज्ञ होकर कैसे जीवित रह सकेगा ? इसलिये हे विष्णु ! अब मैं आपके सामने अपने शरीर की शुद्धि करुँगा ॥३५ - ३६॥

पुलस्त्य उवाच

इत्येवमुक्त्वा वचनं देवाग्रे दानवेश्वरः।

शिरःस्नातस्तदा तस्थौ गृणन् ब्रह्म सनातनम् ॥३७॥

ततो दैत्यपतिं विष्णुं पीतवासाऽब्रवीद्वचः।

गच्छ जेष्यसि भक्त्या तं न युद्धेन कथंचन ॥३८॥

पुलस्त्यजी बोले – भगवान से ऐसा कहकर दानवेश्वर प्रह्लाद सिर से पैरतक स्नानकर वहाँ बैठ गये और 'ब्रह्मगायत्री' का जप करने लगे । उसके बाद पीताम्बरधारी विष्णु ने प्रह्लाद से कहा - हाँ, तुम जाओ, तुम उन्हें भक्ति से जीत सकोगे, युद्ध से कथमपि नहीं ॥३७ - ३८ ॥

प्रह्लाद उवाच

मया जितं देवदेव त्रैलोक्यमपि सुव्रत।

जितोऽयं त्वत्प्रसादेन शक्रः किमुत धर्मजः ॥३९॥

असौ यद्यजयो देव त्रैलोक्येनापि सुव्रतः।

न स्थातुं त्वत्प्रसादेव शक्यं किमु करोम्यज ॥४०॥

प्रह्लादजी बोले - देवाधिदेव ! सुव्रत ! आपकी कृपा से मैंने तीनों लोकों तथा इन्द्र को भी जीत लिया है; इन धर्मपुत्र की बात ही क्या है ? हे अज ! यदि ये सदव्रती त्रिलोकी से भी अजेय हैं तथा आपके प्रसाद से भी मैं उनके सामने नहीं ठहर सकता तो फिर मैं क्या करुँ ? ॥३९ - ४०॥

पीतवासा उवाच

सोऽहं दानवशार्दूल लोकानां हितकाम्यया।

धर्मं प्रवर्त्तापयितुं तपश्चर्यां समास्थितः ॥४१॥

तस्माद्यदिच्छसि जयं तमाराधय दानव।

तं पराजेष्यसे भक्त्या तस्माच्छुश्रूष धर्मजम् ॥४२॥

( इस पर ) भगवान् विष्णु बोले - दानवश्रेष्ठ ! वस्तुतः नारायणरुप में वहाँ मैं ही हूँ । मैं ही जगत की भलाई की इच्छा से धर्मप्रवर्तन के लिये उस रुप में तप कर रहा हूँ । इसलिये प्रह्लाद ! यदि तुम विजय चाहते हो तो मेरे उस रुप की आराधना करो । तुम नारायण को भक्ति द्वारा ही पराजित कर सकोगे । इसलिये धर्मपुत्र नारायण की आराधना करो- इसी अर्थ में वे सुसाध्य हैं ॥४१ - ४२॥

पुलस्त्य उवाच

इत्युक्तः पीतवासेन दानवेन्द्रो महात्मना।

अब्रवीद्वचनं हृष्टः समाहूयाऽन्धकं मुने ॥४३॥

पुलस्त्यजी बोले - मुने ! भगवान् विष्णु के ऐसा कहने पर प्रह्लाद प्रसन्न हो गये । उन्होंने फिर अन्धक को बुलाकर इस प्रकार कहा ॥४३॥

प्रह्लाद उवाच

दैत्याश्च दानवाश्चैव परिपाल्यास्त्वयान्धक।

मयोत्सृष्टमिदं राज्यं प्रतीच्छस्व महाभुज ॥४४॥

इत्येवमुक्तो जग्राह राज्यं हैरण्यलोचनिः।

प्रह्लादोऽपि तदाऽगच्छत् पुण्यं बदरिकाश्रमम् ॥४५॥

दृष्ट्वा नारायणं देवं नरं च दितिजेश्वरः।

कृताञ्जलिपुटो भूत्वा ववन्दे चरणौ तयोः ॥४६॥

तमुवाच महातेजा वाक्यं नारायणोऽव्ययः।

किमर्थं प्रणतोऽसीह मामजित्वा महासुर ॥४७॥

प्रह्लादजी बोले - अन्धक ! तुम दैत्यों और दानवों का प्रतिपालन करो । महाबाहो ! मैं यह राज्य छोड़ रहा हूँ । इसे तुम ग्रहण करो । इस प्रकार कहने पर जब हिरण्याक्ष के पुत्र ने राज्य को स्वीकार कर लिया, तब प्रह्लाद पवित्र बदरिकाश्रम चले गये । वहाँ उन्होंने भगवान् नारायण तथा नर को देखकर हाथ जोड़कर उनके चरणों में प्रणाम किया । महातेजस्वी भगवान् नारायण ने उनसे कहा - महासुर ! मुझे बिना जीते ही अब तुम क्यों प्रणाम कर रहे हो ? ॥४४ - ४७॥

प्रह्लाद उवाच

कस्त्वां जेतुं प्रभो शक्तः कस्त्वत्तः पुरुषोऽधिकः।

त्वं हि नारायणोऽनन्तः पीतवासा जनार्दनः ॥४८॥

त्वं देवः पुण्डरीकाक्षस्त्वं विष्णुः शार्ङ्गचापधृक्।

त्वमव्ययो महेशानः शाश्वतः पुरुषोत्तमः ॥४९॥

त्वां योगिनश्चिन्तयन्ति चार्चयन्ति मनीषिणः।

जपन्ति स्नातकास्त्वां च यजन्ति त्वां च याज्ञिकाः ॥५०॥

त्वमच्युतो हृषीकेशश्चक्रपाणिर्धराधरः।

महामीनो हयशिरास्त्वमेव वरकच्छपः ॥५१॥

प्रह्लाद बोले - प्रभो ! आपको भला कौन जीत सकता है ? आपसे बढ़कर कौन हो सकता है ? आप ही अनन्त नारायण पीताम्बरधारी जनार्दन हैं । आप ही कमलनयन शार्ङ्गधनुषधारी विष्णु हैं । आप अव्यय, महेश्वर तथा शाश्वत परम पुरुषोत्तम हैं । योगिजन आपका ही ध्यान करते हैं । विद्वान पुरुष आपकी ही पूजा करते है । वेदज्ञ आपके नाम का जप करते हैं तथा याज्ञिकजन आपका यजन करते हैं । आप ही अच्युत, हृषीकेश, चक्रपाणि, धराधर, महामत्स्य, हयग्रीव तथा श्रेष्ठ कच्छप ( कूर्म ) अवतारी हैं ॥४८ - ५१॥

हिरण्याक्षरिपुः श्रीमान् भगवानथ सूकरः।

मत्पितुर्नाशनकरो भवानपि नृकेसरी ॥५२॥

ब्रह्म त्रिनेत्रोऽमरराड् हुताशः प्रेताधिपो नीरपतिः समीरः।

सूर्यो मृगाङ्कोऽचलजङ्गमाद्यो भवान् विभो नाथ खगेन्द्रकेतो ॥५३॥

त्वं पृथ्वी ज्योतिराकाशं जलं भूत्वा सहस्रशः।

त्वया व्याप्तं जगत्सर्वं कस्त्वां जेष्यति माधव ॥५४॥

भक्त्या यदि हृषीकेश तोषमेषि जगद्गुरो।

नान्यथा त्वं प्रशक्तोऽसि जेतुं सर्वगताव्यय ॥५५॥

आप हिरण्याक्ष दैत्य का वध करनेवाले ऐश्वर्ययुक्त और भगवान् आदि वाराह हैं । आप ही मेरे पिता को मारने वाले भगवान् नृसिंह हैं । आप ब्रह्मा, शिव, इन्द्र, अग्नि, यम, वरुण और वायु है । हे स्वामिन् ! हे खगेन्द्रकेतु (गरुड़ध्वज ! ) आप सुर्य, चन्द्र तथा स्थावर और जंगम के आदि हैं । पृथ्वी, अग्नि, आकाश और जल आप ही हैं । सहस्त्रों रुपों से आपने समस्त जगत को व्याप्त किया है । माधव ! आपको कौन जीत सकेगा ? जगदगुरो ! हृषीकेश ! आप भक्ति से ही संतुष्ट हो सकते हैं । हे सर्वगत ! हे अविनाशिन् ! आप दूसरे किसी भी अन्य प्रकार से नहीं जीते जा सकते ॥५२ - ५५॥

भगवानुवाच

परितुष्टोऽस्मि ते दैत्य स्तवेनानेन सुव्रत।

भक्त्या त्वनन्यया चाहं त्वया दैत्य पराजितः ॥५६॥

पराजितश्च पुरुषो दैत्य दण्डं प्रयच्छति।

दण्डार्थं ते प्रदास्यामि वरं वृणु यमिच्छसि ॥५७॥

श्रीभगवान् बोले - सुव्रत ! दैत्य ! तुम्हारी इस स्तुति से मैं अत्यन्त संतुष्ट हूँ । दैत्य ! अनन्य भक्ति से तुमने मुझे जीत लिया है । प्रह्लाद ! पराजित पुरुष विजेता को दण्ड (के रुप में कुछ) देता है । परंतु मैं तुम्हारे दण्ड के बदले तुम्हें वर दूँगा; तुम इच्छित वर माँगो ॥५६ - ५७॥

प्रह्लाद उवाच

नारायण वरं याचे यं त्वं मे दातुमर्हसि।

तन्मे पापं लयं यातु शारीरं मानसं तथा ॥५८॥

वाचिकं च जगन्नाथ यत्त्वया सह युध्यतः.

नरेण यद्यप्यभवद् वरमेतत्प्रयच्छ मे ॥५९॥

प्रह्लादजी बोले - हे नारायण ! मैं आपसे वर माँग रहा हूँ; आप उसे देने की कृपा करें । हे जगन्नाथ ! आपके तथा नर के साथ युद्ध करने में मेरे शरीर, मन और वाणी से जो भी पाप (अपकर्म) हुआ हो वह सब नष्ट हो जाय । आप मुझे यही वर दें ॥५८ - ५९॥

नारायण उवाच

एवं भवतु दैद्येन्द्र पापं ते यातु संक्षयम्।

द्वितीयं प्रार्थय वरं तं ददामि तवासुर ॥६०॥

नारायण ने कहा - दैत्येन्द्र ! ऐसा ही होगा । तुम्हारा पाप नष्ट हो जाय । अब प्रह्लाद ! तुम दूसरा एक वर और माँग लो, मैं उसे भी तुम्हें दूँगा ॥६०॥

प्रह्लाद उवाच

या या जायेत मे बुद्धिः सा सा विष्णो त्वदाश्रिता।

देवार्चने च निरता त्वच्चित्ता त्वत्परायणा ॥६१॥

प्रह्लादजी बोले - हे भगवन् ! मेरी जो भी बुद्धि हो, वह आपसे ही सम्बद्ध हो, वह देवपूजा में लगी रहे । मेरी बुद्धि, आपका ही ध्यान करे और आपके चिन्तन में लगी रहे ॥६१॥

नारायण उवाच

एवं भविष्यत्यसुर वरमन्यं यमिच्छसि।

तं वृणीष्व महाबाहो प्रदास्याम्यविचारयन् ॥६२॥

नारायण ने कहा - प्रह्लाद ! ऐसा ही होगा ! पर हे महाबाहो ! तुम एक और अन्य वर भी, जो तुम चाहो, माँगो। मैं बिना विचारे ही- बिना देय- अदेय का विचार किये ही- वह भी तुम्हे दूँगा ॥६२॥

प्रह्लाद उवाच

सर्वमेव मया लब्धं त्वत्प्रसादादधोक्षज।

त्वत्पादपङ्कजाभ्यां हि ख्यातिरस्तु सदा मम ॥६३॥

प्रह्लाद ने कहा - अधोक्षज ! आपके अनुग्रह से मुझे सब कुछ प्राप्त हो गया । आपके चरणकमलों से मैं सदा लगा रहूँ और ऐसी मेरी प्रसिद्धि भी हो अर्थात् मैं आपके भक्त के रुप में ही चर्चित होऊँ ॥६३॥

नारायण उवाच

एवमस्त्वपरं चास्तु नित्यमेवाक्षयोऽव्ययः।

अजरश्चामरश्चापि मत्प्रसादाद् भविष्यसि ॥६४॥

गच्छस्व दैत्यशार्दूल स्वमावासं क्रियारतः।

न कर्मबन्धो भवतो मच्चित्तस्य भविष्यति ॥६५॥

प्रशासयदमून् दैत्यान् राज्यं पालय शाश्वतम्।

स्वजातिसदृशं दैत्य कुरु धर्ममनुत्तमम् ॥६६॥

नारायण ने कहा - ऐसा ही होगा । इसके अतिरिक्त मेरे प्रसाद से तुम अक्षय, अविनाशी, अजर और अमर होगे । दैत्यश्रेष्ठ ! अब तुम अपने घर जाओ और सदा (धर्म) कार्य में रत हो । मुझमें मन लगाये रखने से तुम्हें कर्मबन्धन नहीं होगा । इन दैत्यों पर शासन करते हुए तुम शाश्वत (सदा बने रहनेवाले) राज्य का पालन करो । दैत्य ! अपनी जाति के अनुकूल श्रेष्ठ धर्मो का अनुष्ठान करो ॥६४ - ६६॥

पुलस्त्य उवाच

इत्युक्तो लोकनाथेन प्रह्लादो देवमब्रवीत्।

कथं राज्यं समादास्ये परित्यक्तं जगद्गुरो ॥६७॥

तमुवाच जगत्स्वामी गच्छ त्वं निजमाश्रयम्।

हितोपदेष्टा दैत्यानां दानवानां तथा भव ॥६८॥

नारायणेनैवमुक्तः स तदा दैत्यनायकः।

प्रणिपत्य विभुं तुष्टो जगाम नगरं निजम् ॥६९॥

दृष्टः सभाजितश्चापि दानवैरन्धकेन च।

निमन्त्रितश्च राज्याय न प्रत्यैच्छत्स नारद ॥७०॥

राज्यं परित्यज्य महाऽसुरेन्द्रो नियोजयन् सत्पथि दानवेन्द्रान्।

ध्यायन् स्मरन् केशवमप्रमेयं तस्थौ तदा योगविशुद्धदेहः ॥७१॥

एवं पुरा नारद दानवेन्द्रो नारायणेनोत्तमपूरुषेण।

पराजितश्चापि विमुच्य राज्यं तस्थौ मनो धातरि सन्निवेश्य ॥७२॥

पुलस्त्यजी बोले – लोकनाथ के ऐसा कहने पर प्रह्लाद ने भगवान से कहा - जगदगुरो ! अब मैं छोड़े हुए राज्य को कैसे ग्रहण करुँ ? इस पर भगवान ने उनसे कहा - तुम अपने घर जाओ तथा दैत्यों एवं दानवों को कल्याणकारी बातों का उपदेश करो । नारायण के ऐसा कहने पर वे दैत्यनायक (प्रह्लाद) परमेश्वर को प्रणाम कर प्रसन्नतापूर्वक अपने नगर निवास- स्थान को चले गये । नारदजी ! अन्धक तथा दानवों ने प्रह्लाद को देखा एवं उनका सम्मान किया और उन्हें राज्य स्वीकार करने के लिये अनुरोधित किया; किंतु उन्होंने राज्य स्वीकार नहीं किया । दैत्येश्वर प्रह्लाद राज्य को छोड़ अपने उपदेशों से दानव- श्रेष्ठों को शुभ मार्ग में नियोजित तथा भगवान् नारायण का ध्यान और स्मरण करते हुए योग के द्वारा शुद्ध शरीर होकर विराजित हुए । नारदजी ! इस प्रकार पहले पुरुषोत्तम नारायण द्वारा पराजित दानवेन्द्र प्रह्लाद राज्य छोड़कर भगवान् नारायण के ध्यान में लीन होकर शान्त एवं सुस्थिर हुए थे ॥६७ - ७२॥

इति श्रीवामनपुराणे अष्टमोऽध्यायः ॥८॥

॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें आठवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥८॥

आगे जारी........ श्रीवामनपुराण अध्याय 9

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