वामनपुराण अध्याय ९

वामनपुराण अध्याय ९     

वामनपुराण के अध्याय ९ में अन्धकासुर की विजिगीषा, देवों और असुरों के वाहनों एवं युद्ध का वर्णन है।

वामनपुराण अध्याय ९

श्रीवामनपुराण अध्याय ९     

Vaman Purana chapter 9 

श्रीवामनपुराणम् नवमोऽध्यायः        

वामनपुराणम् अध्यायः ९     

वामन पुराण नौवाँ अध्याय

श्रीवामनपुराण नवम अध्याय 

श्रीवामनपुराण

अध्याय ९

नारद उवाच

नेत्रहीनः कथं राज्ये प्रह्लादेनान्धको मुने।

अभिषिक्तो जानताऽपि राजधर्मं सनातनम् ॥१॥

नारदजी ने कहा - मुने ! प्रह्लादजी सनातन राजधर्म को भलीभाँति जानते थे । ऐसी दशा में उन्होंने नेत्रहीन अन्धक को राजगद्दी पर कैसे बैठाया ? ॥१॥

पुलस्त्य उवाच

लब्धचक्षुरसौ भूयो हिरण्याक्षेऽपि जीवति।

ततोऽभिषिक्तो दैत्येन प्रह्लादेन निजे पदे ॥२॥

पुलस्त्यजी बोले – हिरण्याक्ष के जीवनकाल में ही अन्धक को पुनः दृष्टि प्राप्त हो गयी थी, अतः दैत्यवर्य प्रह्लाद ने उसे अपने पद पर अभिषिक्त किया था ॥२॥

नारद उवाच

राज्येऽन्धकोऽभिषिक्तस्तु किमाचरत सुव्रत।

देवादिभिः सह कथं समास्ते तद् वदस्व मे ॥३॥

नारदजी ने पूछा - सुव्रत ! मुझे यह बतलाइये कि अन्धक ने राज्य पर अभिषिक्त होने पर क्या - क्या किया तथा  वह देवताओं आदि के साथ कैसा व्यवहार करता था ॥३॥

पुलस्त्य उवाच

राज्येऽभिषिक्तो दैत्येन्द्रो हिरण्याक्षसुतोऽन्धकः।

तपसाराध्य देवेशं शूलपाणिं त्रिलोचनम् ॥४॥

अजेयत्वमवध्यत्वं सुरसिद्धर्षिपन्नगैः।

अदाह्यत्वं हुताशेन अक्लेद्यत्वं जलेन च ॥५॥

एवं स वरलब्धस्तु दैत्यो राज्यमपालयत्।

शुक्रं पुरोहितं कृत्वा समध्यास्ते ततोऽन्धकः ॥६॥

ततश्चक्रे समुद्योगं देवानामन्धकोऽसुरः।

आक्रम्य वसुधां सर्वां मनुजेन्द्रान् पराजयत् ॥७॥

पुलस्त्यजी बोले – हिरण्याक्ष के पुत्र दैत्यराज अन्धक ने राज्य प्राप्त करके तपस्या द्वारा शूलपाणि भगवान् शंकर की आराधना की और उनसे देवता, सिद्ध, ऋषि एवं नागों द्वारा नहीं जीते जाने और नहीं मारे जाने का वर प्राप्त कर लिया । इसी प्रकार वह अग्नि के द्वारा न जलने, जल से न भीगने आदि का भी वरदान प्राप्त कर राज्य का संचालन कर रहा था । उसने शुक्राचार्य को अपना पुरोहित बना लिया था । फिर अन्धकासुर ने देवताओं को जीतने का उपक्रम (आरम्भ) किया और उन्हें जीतकर सम्पूर्ण पृथ्वी को अपने वश में कर लिया- सभी श्रेष्ठ राजाओं को परास्त कर दिया ॥४ - ७॥

पराजित्य महीपालान् सहायार्थे नियोज्य च।

तैः समं मेरुशिखरं जगामाद्भुतदर्शनम् ॥८॥

शक्रोऽपि सुरसैन्यानि समुद्योज्य महागजम्।

समारुह्यामरावत्यां गुप्तिं कृत्वा विनिर्ययौ ॥९॥

शक्रस्यानु तथैवान्ये लोकपाला महौजसः।

आरुह्य वाहनं स्वं स्वं सायुधा निर्ययुर्बहिः ॥१०॥

देवसेनाऽपि च समं शक्रोणाद्भुतकर्मणा

निर्जगामातिवेगेन गजवाजिराथादिभिः ॥११॥

अग्रतो द्वादशादित्याः पृष्ठतश्च त्रिलोचनाः।

मध्येऽष्टौ वसवो विश्वे साध्याश्विमरुतां गणाः।

यक्षविद्याधराद्याश्च स्वं स्वं वाहनमास्थिताः ॥१२॥

उसने सभी राजाओं को पराजित कर उन्हें (सामन्त बनाकर) अपनी सहायता में नियुक्त कर दिया । फिर उनके साथ वह सुमेरुगिरि पर्वत को देखने के लिये उसके अद्भुत शिखर पर गया । इधर इन्द्र भी देवसेना को तैयार कर और अमरावती में सुरक्षा की व्यवस्था कर अपने ऐरावत हाथी पर सवार होकर युद्ध के लिये बाहर निकले । इसी प्रकार दूसरे तेजस्वी लोकपालगण भी अपने- अपने वाहनों पर सवार होकर तथा अपने अस्त्र लेकर इन्द्र के पीछे- पीछे चल पड़े । हाथी, घोड़े, रथ आदि से युक्त देवसेना भी बड़े अद्भुत पराक्रमी इन्द्र के साथ तेजी से निकल पड़ी । सेना के आगे- आगे बारहों आदित्य और उनके पृष्ठभाग में ग्यारह रुद्रगण थे । उसके मध्य में आठों वसु, तेरहों विश्वेदेव, साध्य, अश्विनीकुमार, मरुदगण, यक्ष, विद्याधर आदि अपने- अपने वाहन पर सवार होकर चल रहे थे ॥८ - १२॥

नारद उवाच

रुद्रादीनां वदस्वेह वाहनानि च सर्वशः।

एकैकस्यापि धर्मत्र परं कौतूहलं मम ॥१३॥

नारदजी ने पूछा- धर्मज्ञ ! रुद्र आदि के वाहनों का एक- एक कर पूरी तरह वर्णन कीजिये । इस विषय में मुझे बड़ी उत्सुकता हो रही है ॥१३॥

पुलस्त्य उवाच

श्रृणुष्व कथयिष्यामि सर्वेषामपि नारद।

वाहनानि समासेन एकैकस्यानुपूर्वशः ॥१४॥

रुद्रहस्ततलोत्पन्नो महावीर्यो महाजवः।

श्वेतवर्णो गजपतिर्देवराजस्य वाहनम् ॥१५॥

रुद्रोरुसंभवो भीमः कृष्णवर्णो मनोजवः।

पौण्ड्रको नाम महिषो धर्मराजस्य नारद ॥१६॥

रुद्रकर्ममलोद्भूतः श्यामो जलधिसंज्ञकः।

शिशुमारो दिव्यगतिः वाहनं वरुणस्य च ॥१७॥

रौद्रः शकटचक्राक्षः शैलाकारो नरोत्तमः।

अम्बिकापादसंभूतो वाहनं धनदस्य तु ॥१८॥

पुलस्त्यजी बोले - नारदजी ! सुनिये; मैं एक एक करके क्रमशः सभी देवताओं के वाहनों का संक्षेप में वर्णन करता हूँ । रुद्र के करतल से उत्पन्न अति पराक्रमवाला, अति तीव्रगतिवाला, श्वेतवर्ण का ऐरावत हाथी देवराज (इन्द्र)- का वाहन है । हे नारद ! रुद्र के उरु से उत्पन्न भयंकर कृष्णवर्णवाला एवं मन के सदृश गतिमान् पौण्ड्रक नामक महिष धर्मराज का वाहन है । रुद्र के कर्ण- मल से उत्पन्न श्यामवर्णवाला दिव्यगतिशील जलधि नामक शिशुमार (सूँस) वरुण का वाहन है । अम्बिका के चरणों से उत्पन्न गाड़ी के चक्के के समान भयंकर आँखवाला, पर्वताकार नरोत्तम कुबेर का वाहन है ॥१४ - १८॥

एकादशानां रुद्राणां वाहनानि महामुने।

गन्धर्वाश्च महावीर्या भुजगेन्द्राश्च दारुणाः।

श्वेतानि सौरभेयाणि वृषाण्युग्रजवानि च ॥१९॥

रथं चन्द्रमसश्चार्द्धूसहस्रं हंसवाहनम्।

हरयो रथवाहाश्च आदित्या मुनिसत्तम ॥२०॥

कुञ्जरस्थाश्च वसवो यक्षाश्च नरवाहनाः।

किन्नरा भुजगारूढा हयारूढौ तथाश्विनौ ॥२१॥

सारङ्गधिष्ठिता ब्रह्मन् मरुतो घोरदर्शनाः।

शुकारूढाश्च कवयो गन्धर्वाश्च पदातिनः ॥२२॥

हे महामुने ! एकादश रुद्रो के वाहन महापराक्रमशाली गन्धर्वगण, भयंकर सर्पराजगण तथा सुरभि के अंश से उत्पन्न तीव्रगतिवाले सफेद बैल हैं । मुनिश्रेष्ठ ! चन्द्रमा के रथ को खींचनेवाले आधे हजार (पाँच सौ) हंस हैं । आदित्यों के रथ के वाहन घोड़े हैं । वसुओं के वाहन हाथी, यक्षों के वाहन नर, किन्नरों के वाहन सर्प एवं अश्विनीकुमारों के वाहन घोड़े हैं । ब्रह्मन् ! भयंकर दीखनेवाले मरुद्गणों के वाहन घोड़े हैं । ब्रह्मन ! भयंकर दीखनेवाले मरुद्गणों के वाहन हरिण हैं, भृगुओं के वाहन शुक हैं और गन्धर्व लोग पैदल ही चलते हैं ॥१९ - २२॥

आरुह्य वाहनान्येवं स्वानि स्वान्यमरोत्तमाः।

संनह्य निर्ययुर्हृष्टा युद्धाय सुमहौजसः ॥२३॥

इस प्रकार बड़े तेजस्वी श्रेष्ठ देवगण अपने- अपने वाहनों पर आरुढ़ एवं सन्नद्ध (तैयार) होकर प्रसन्नतापूर्वक युद्ध के लिये निकल पड़े ॥२३॥

नारद उवाच

गदितानि सुरादीनां वाहनानि त्वया मुने।

दैत्यानां वाहनान्येवं यथावद् वक्तुमर्हसि ॥२४॥

नारद ने कहा - मुने ! आपने देवादिकों के वाहनों का वर्णन किया; इसी प्रकार अब असुरों के वाहनों का भी यथावत्‍ वर्णन करें ॥२४ ॥

पुलस्त्य उवाच

श्रृणुष्व दानवादीनां वाहनानि द्विजोत्तम।

कथयिष्यामि तत्त्वेन यथावच्छ्रोतुमर्हसि ॥२५॥

अन्धकस्य रथो दिव्यो युक्तः परमवाजिभिः।

कृष्णवर्णैः सहस्रारस् त्रिनल्वपरिमाणवान् ॥२६॥

प्रह्लादस्य रथो दिव्यश्चन्द्रवर्णैर्हयोत्तमैः।

उह्यमानस्तथाऽष्टाभिः श्वेतरुक्ममयः शुभः ॥२७॥

विरोचनस्य च गजः कुजम्भस्य तुरंगमः।

जम्भस्य तु रथो द्वियो हयैः काञ्जनसन्निभैः ॥२८॥

पुलस्त्यजी बोले - द्विजोत्तम ! ( अब ) दानवों के वाहन को सुनो । मैं तत्त्वतः उनका ठीक - ठीक वर्णन करता हूँ । अन्धक का अलौकिक रथ कृष्णवर्ण के श्रेष्ठ अश्वों से परिचालित होता था । वह हजार अरों पहिये की नाभि और नेमि के बीच की लकड़ियों से युक्त बारह सौ हाथों का परिमाणवाला था । प्रह्लाद का दिव्य रथ सुन्दर एवं सुवर्ण- रजत- मण्डित था । उसमें चन्द्रवर्णवाले आठ उत्तम घोड़े जुते हुए थे । विरोचन का वाहन हाथी था एवं कुजम्भ घोड़े पर सवार था । जम्भ का दिव्य रथ स्वर्णवर्ण के घोड़ों से युक्त था ॥२५ - २८॥

शङ्कुकर्णस्य तुरगो हयग्रीवस्य कुञ्जरः।

रथो मयस्य विख्यातो दुन्दुभेश्च महोरगः।

शम्बरस्य विमानोऽभूदयः शङ्कोर्मृगाधिपः ॥२९॥

बलवृत्रौ च बलिनौ गदामुसलधारिणौ।

पद्भ्यां दैवतसैन्यानि अभिद्रवितुमुद्यतौ ॥३०॥

ततो रणोऽभूत् तुमुलः संकुलोऽतिभयंकरः।

रजसा संवृतो लोकी पिङ्गवर्णेन नारद ॥३१॥

नाज्ञासीच्च पिता पुत्रं न पुत्रः पितरं तथा।

स्वानेवान्ये निजघ्नुर्वै परानन्ये च सुव्रत  ॥३२॥

इसी प्रकार शंकुकर्ण का वाहन घोड़ा, हयग्रीव का हाथी और मय दानव का वाहन दिव्य रथ था । दुन्दुभि का वाहन विशाल नाग था । शम्बर विमान पर चढ़ा हुआ था तथा अयः शंकु सिंह पर सवार था । गदा और मुसलधारी बलवान् बल और वृत्र पैदल थे; पर देवताओं की सेना पर चढ़ाई करने के लिये उद्यत थे । फिर अति भयङ्कर घमासान युद्ध प्रारम्भ हो गया । नारदजी ! समस्त लोक पीली धूल से ढक गया, जिससे पिता पुत्र को और पुत्र पिता को भी परस्पर एक- दूसरेको पहचान नहीं पाते थे । सुव्रत ! कुछ लोग अपने ही पक्ष के लोगों को तथा कुछ लोग विरोधी पक्ष के लोगों को मारने लगे ॥२९ - ३२॥

अभिद्रुतो महावेगो रथोपरि रथस्तदा।

गजो मत्तगजेन्द्रं च सादी सादिनमभ्यगात् ॥३३॥

पदातिरपि संक्रुद्धः पदातिनमथोल्बणम्।

परस्परं तु प्रत्यघ्नन्नन्योन्यजयकाङ्क्षिणः ॥३४॥

ततस्तु संकुले तस्मिन् युद्धे दैवासुरे मुने।

प्रावर्तत नदी घोरा शमयन्ती रणाद्रजः ॥३५॥

शोणितोदा रथावर्त्ता योधसंघट्टवाहिनी।

गजकुम्भमहाकूर्मा शरमीना दुरत्यया ॥३६॥

उस युद्ध में रथ के ऊपर रथ और हाथी के ऊपर हाथी टूट पड़े तथा घुड़सवार घुड़सवारों की ओर वेग से आक्रमण करने लगे । इसी प्रकार पादचारी (पैदल) सैनिक क्रुद्ध होकर अन्य बलशाली पैदलों पर चढ़ बैठे । इस प्रकार एक – दूसरे को जीतने की इच्छा से सभी परस्पर प्रहार करने लगे । मुने ! उसके बाद देवताओं और असुरों के उस घोर संग्राम में युद्ध सें उत्पन्न धूलि को शान्त करती हुई रक्तरुपी जलधारावाली एवं रथरुपी भँवरवाली और योद्धाओं के समूह को बहा ले जानेवाली एवं गजकुम्भरुपी महान् कूर्म तथा शररुपी मीन से युक्त बड़ी भारी नदी बह चली ॥३३ - ३६॥

तीक्ष्णाग्रप्रासमकरा महासिग्राहवाहिनी।

अन्त्रशैवलसंकीर्णा पताकाफेनमालिनी ॥३७॥

गृध्रकङ्कमहाहंसा श्येनचक्राह्वमण्डिता।

वनवायसकादम्बा गोमायुश्वापदाकुला ॥३८॥

पिशाचमुनिसंकीर्णा दुस्तरा प्राकृतैर्जनैः।

रथप्लवैः संतरन्तः शूरास्तां प्रजगाहिरे ॥३९॥

आगुल्फादवमज्जन्तः सूदयन्तः परस्परम्।

समुत्तरन्तो वेगेन योधा जयधनेप्सवः ॥४०॥

उस नदी में तेज धारवाले प्रास (एक प्रकार का अस्त्र) ही मकर थे, बड़ी - बड़ी तलवारें ही ग्राह थीं, उसमें आँतिं, ही शैवाल, पताका ही फेन, गृध्र एवं कङ्क पक्षी महाशंख, बाज ही चक्रवाक और जंगली कौवे ही मानो कलहंस थे । वह नदी श्रृगालरुपी हिंस्त्र एवं पिशाचरुपी मुनियों से संकीर्ण थी और साधारण मनुष्यों से दुस्तर थी । जयरुप धन की इच्छावाले शूर योद्धा लोग घुटनोंतक डूबते और एक- दूसरे को मारते हुए रथरुपी नौकाओं द्वारा उस नदी को वेग से पार कर रहे थे ॥३७ - ४०॥

ततस्तु रौद्रो सुरदैत्यसादने महाहवे भीरुभयंकरेऽथ।

रक्षांसि यक्षाश्च सुसंप्रहृष्टाः पिशाचयूथास्त्वभिरेमिरे च ॥४१॥

पिबन्त्यसृग्गाढतरं भटानामालिङ्ग्य मांसानि च भक्षयन्ति।

वसां विलुम्पन्ति च विस्फुरन्ति गर्जन्त्यथान्योन्यमथो वयांसि ॥४२॥

मुञ्चन्ति फेत्काररवाञ्शिवाश्च क्रन्दन्ति योधा भुवि वेदनार्त्ताः।

शस्त्रप्रतप्ता निपतन्ति चान्ये युद्धं श्मशानप्रतिमं बभूव ॥४३॥

तस्मिञ्शिवाघोररवे प्रवृत्ते सुरासुराणां सुभयंकरे ह।

युद्धं बभौ प्राणपणोपविद्धं द्वन्द्वेऽतिशस्त्राक्षगतो दुरोदरः ॥४४॥

वह युद्ध डरपोकों के लिये भयावना, देवों एवं दैत्यों का संहार करनेवाला तथा वस्तुतः अत्यन्त भयंकर था । उसमें यक्ष और राक्षस लोग अत्यन्त आनन्दित हो रहे थे । पिशाचों का समूह भी प्रसन्न था । वे वीरों के गाढ़े रुधिर का पान करते थे तथा ( उनके शवों का ) आलिंगन कर मांस का भक्षण करते थे । पक्षी चर्बी को नोचते और उछलते थे एवं एक दूसरे के प्रति गर्जन करते थे । सियारिनें 'फेत्कार' शब्द कर रही थीं, भूमि पर पड़े हुए वेदना से दुःखी योद्धा कराह रहे थे । कुछ लोग शस्त्र से आहत होकर गिर रहे थे । युद्धभूमि मरघट के समान हो गयी थी । सियारिनों के भयंकर शब्द से युक्त देवासुर- संग्राम ऐसा लगता था, मानो युद्ध में निपुण योद्धा लोग शस्त्ररुपी पाशा लेकर अपने प्राणों की बाजी लगाते हुए जुआ खेल रहे हैं ॥४१ - ४४॥

हिरण्यचक्षुस्तनयो रणेऽन्धको रथे स्थितो वाजिसहस्रयोजिते।

मत्तेभपृष्टस्थितमुग्रतेजसं समेयिवान् देवपतिं शतक्रतुम् ॥४५॥

समापतन्तं महिषाधिरूढं यमं प्रतीच्छद् बलवान् दितीशः।

प्रह्लादनामा तुरगाष्टयुक्तं रथं समास्थाय समुद्यतास्त्रः ॥४६॥

विरोचनश्चापि जलेश्वरं त्वगाज्जम्भस्त्वथागाद् धनदं बलाढ्यम्।

वायुं समभ्येत्य च शम्बरोऽथ मयो हुताशं युयुधे मुनीन्द्र ॥४७॥

अन्ये हयग्रीवमुखा महाबला दितेस्तनूजा दनुपुंगवाश्च।

सुरान् हुताशार्कवसूरकेश्वरान् द्वन्द्वं समासाद्य महाबलान्विताः ॥४८॥

हिरण्याक्ष का पुत्र अन्धक हजारों घोड़ों से युक्त रथ पर आरुढ़ होकर मतवाले हाथी की पीठ पर स्थित महातेजस्वी देवराज इन्द्र के साथ जा भिड़ा । इधर आठ घोड़ों से युक्त रथ पर आरुढ़ अस्त्र उठाये बलवान् दैत्यराज प्रह्लाद ने महिष पर सवार यमराज का सामना किया । नारदजी ! उधर विरोचन वरुणदेव से युद्ध करने के लिये आगे बढ़ा तथा जम्भ बलशाली कुबेर की ओर चला । शम्बर वायुदेवता के सामने जा खड़ा हुआ एवं मय अग्नि के साथ युद्ध करने लगा । हयग्रीव आदि अन्यान्य महाबलवान् दैत्य तथा दानव अग्नि, सूर्य, अष्ट वसुओं था शेषनाग आदि देवताओं के साथ द्वन्द्वयुद्ध करने लगे ॥४५ - ४८॥

गर्जन्त्यथान्योन्यमुपेत्य युद्धे चापानि कर्षन्त्यतिवेगिताश्च।॥

मुञ्चन्ति नाराचगणान् सहस्रश अगच्छ हे तिष्ठसि किं ब्रुवन्तः ॥४९॥

शरैस्तु तीक्ष्णैरतितापयन्तः शस्त्रैरमोघैरभिताडयन्तः।

मन्दाकिनीवेगनिभां वहन्तीम् प्रवर्तयन्तो भयदां नदीं च ॥५०॥

त्रैलोक्यमाकांक्षिभिरुग्रवेगैः सुरासुरैर्नारद संप्रयुद्धे।

पिशाचरक्षोगणपुष्टिवर्धनीमुत्तर्तुमिच्छद्भिरसृग्नदी बभौ ॥५१॥

वाद्यन्ति तूर्याणि सुरासुराणाम् पश्यन्ति खस्था मुनिसिद्धसंघाः।

नयन्ति तानप्सरसां गणाग्र्या हता रणे येऽभिमुखास्तु शूराः ॥५२॥

वे एक- दूसरे के साथ युद्ध करते हुए भीषण गर्जन कर रहे थे । वे वेगपूर्वक धनुष चढ़ा करके हजारों बाणों की झड़ी लगाकर कहने लगे - अरे ! आओ, आओ, रुक क्यों गये । तेज बाणों की वर्षा करते हुए तथा अमोघ शस्त्रों से प्रहार करते हुए उन लोगों ने गङ्गा के समान तीव्र वेग से प्रवाहित होनेवाली, (किंतु) भयंकर नदी को प्रवर्तित कर दिया । नारदजी ! उस युद्ध में तीनों लोकों को चाहनेवाले उग्रवेगशाली देवता एवं असुरगण पिशाचों एवं राक्षसों की पुष्टि बढ़ानेवाली शोणित- सरिता को पार करने की इच्छा कर रहे थे । उस समय देवता और दानवों के बाजे बज रहे थे । आकाश में स्थित मुनियों और सिद्धों के समूह उस युद्ध को देख रहे थे । जो वीर उस युद्ध में सम्मुख मारे गये थे, उन्हें अप्सराएँ सीधे स्वर्ग में लिये चली जा रही थीं ॥४९ - ५२॥

इति श्रीवामनपुराणे नवमोऽध्यायः ॥९॥

॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें नवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥९॥

आगे जारी........ श्रीवामनपुराण अध्याय 10

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