वामनपुराण अध्याय १०

वामनपुराण अध्याय १०     

वामनपुराण के अध्याय १० में अन्धक के साथ देवताओं का युद्ध और अन्धक की विजय का वर्णन है।

वामनपुराण अध्याय १०

श्रीवामनपुराण अध्याय १०     

Vaman Purana chapter 10 

श्रीवामनपुराणम् दशमोऽध्यायः        

वामनपुराणम् अध्यायः १०     

वामन पुराण दसवाँ अध्याय

श्रीवामनपुराण दशम अध्याय 

श्रीवामनपुराण

अध्याय १०

पुलस्त्य उवाच

ततः प्रवृत्ते संग्रामे भीरूणां भयवर्धने।

सहस्रक्षो महाचापमादाय व्यसृजच्छरान् ॥१॥

अन्धकोऽपि महावेगं धनुराकृष्य भास्वरम्।

पुरंदराय चिक्षेप शरान् बर्हिणवाससः ॥२॥

तावन्योन्यं सुतीक्ष्णाग्रैः शरैः संनतपर्वभिः।

रुक्मपुङ्खैर्महावेगैराजघ्नतुरुभावपि ॥३॥

ततः क्रुद्धः शतमखः कुलिशं भ्राम्य पाणिना।

चिक्षेप दैत्यराजाय तं ददर्श तथान्धकः ॥४॥

आजघान च बाणौघैरस्त्रैः शस्त्रैः स नारद।

तान् भस्मसात्तदा चक्रे नगानिव हुताशनः ॥५॥

पुलस्त्यजी बोले - तत्पश्चात् भीरुओं के लिये भय बढ़ानेवाला समर आरम्भ हो गया । हजार नेत्रोंवाले इन्द्र अपने विशाल धनुष को लेकर बाणों की वर्षा करने लगे । अन्धक भी अपने दीप्तिमान् धनुष को लेकर बड़े वेग से मयूरपंख लगे बाणों को इन्द्र पर छोड़ने लगा । वे दोनों एक- दूसरे को झुके हुए पर्वोवालें स्वर्णपंखयुक्त तथा महावेगवान् तीक्ष्ण बाणों से आहत कर दिये । फिर इन्द्र ने क्रुद्ध होकर वज्र को अपने हाथ से घुमाकर उसे अन्धक के ऊपर फेंका । नारदजी ! अंधक ने उसे आते देखा । उसने बाणों, अस्त्रों और शस्त्रों से उस पर प्रहार किया; पर अग्नि जिस प्रकार वनों, पर्वतों (या वृक्षों)- को भस्म कर देती है, उसी प्रकार उस वज्र ने उन सभी अस्त्रों की भस्म कर डाला ॥१ - ५॥

ततोऽतिवेगिनं वज्रं दृष्ट्वा बलवतां वरः।

समाप्लुत्य रथात्तस्थौ भुवि बाहु सहायवान् ॥६॥

रथं सारथिना सार्धं साश्वध्वजसकूबरम्।

भस्म कृत्वाथ कुलिशमन्धकं समुपाययौ ॥७॥

तमापतन्तं वेगेन मुष्टिनाहत्य भूतले।

पातयामास बलवान् जगर्ज च तदाऽन्धकः ॥८॥

तब बलवानों में श्रेष्ठ अन्धक अति वेगवान् वज्र को आते देखकर रथ से कूदकर बाहुबल का आश्रय लेकर पृथ्वी पर खड़ा हो गया । वह वज्र, सारथि, अश्व, ध्वजा एवं कूबर के साथ रथ को भस्म कर इन्द्र के पास पहुँच गया । उस (वज्र)- को वेगपूर्वक आते देख बलवान् अन्धक ने मुष्टि से मारकर उसे भूमि पर गिरा दिया और गर्जन करने लगा ॥६ - ८॥

तं गर्जमानं वीक्ष्याथ वासवः सायकैर्दृढम्।

ववर्ष तान् वारयन् स समभ्यायाच्छतक्रतुम् ॥९॥

आजघान तलेनेभं कुम्भमध्ये पदा करे।

जानुना च समाहत्य विषाणं प्रबभञ्ज च  ॥१०॥

वाममुष्ट्या तथा पार्श्वं समाहत्यान्धकस्त्वरन्।

गजेन्द्रं पातयामास प्रहारैर्जर्जरीकृतम् ॥११॥

गजेन्द्रात् पतमानाच्च अवप्लुत्य शतक्रतुः।

पाणिना वज्रमादाय प्रविवेशामरावतीम् ॥१२॥

उसे इस प्रकार गरजते देखकर इन्द्र ने उसके ऊपर जोरों से बाणों की वर्षा प्रारम्भ कर दी । अन्धक भी उनकी निवारित करते हुए इन्द्र के पास पहुँच गया । उसने अपने हाथ से ऐरावत हाथी के सिर पर एवं अपने पैर से सूँड पर प्रहार कर और घुटनों से दाँतों पर प्रहार कर उन्हें तोड़ डाला । फिर अन्धक ने बायीं मुट्ठी से ऐरावत की कमर पर शीघ्रतापूर्वक चोट मारकर उसे जर्जर कर गिरा दिया । इन्द्र भी हाथी से नीचे गिरे जा रहे थे । वे झट से कूदकर एवं हाथ में वज्र लेकर अमरावती में प्रविष्ट हो गये ॥९ - १२॥

पराङ्मुखे सहस्राक्षे तदा दैवतबलं महत्।

पातयामास द्रत्येन्द्रः पादमुष्टितलादिभिः ॥१३॥

ततो वैवस्वतो दण्डं परिभ्राम्य द्विजोत्तम।

समभ्यधावत् प्रह्लादं हन्तुकामः सुरोत्तमः ॥१४॥

तमापतन्तं बाणोघैर्ववर्ष रविनन्दनम्।

हिरण्यकशिपोः पुत्रश्चापमानम्य वेगवान् ॥१५॥

तां बाणवृष्टिमतुलां दण्डेनाहत्य भास्करिः।

शातयित्वा प्रचिक्षेप दण्डं लोकभयंकरम् ॥१६॥

इन्द्र के रण से विमुख हो जाने पर अन्धक ने उस विशाल देव- सेना को पैर, मुट्ठी एवं थप्पड़ों आदि से मारकर गिरा दिया । नारदजी ! इसके बाद देवश्रेष्ठ यमराज अपना दण्ड घुमाते हुए प्रह्लाद को मारने की इच्छा से दौड़ पड़े । यमराज को अपनी ओर आते देख प्रह्लाद ने भी अपने धनुष को चढ़ाकर फुर्ती से बाण- समूहों की झड़ी लगा दी । यमराज ने अपने दण्ड के प्रहार से उस अतुलनीय बाण- वृष्टि को व्यर्थ कर लोकभयकारी दण्ड चला दिया ॥१३ - १६॥

स वायुपथमास्थाय धर्मराजकरे स्थितः।

जज्वाल कालग्निनिभो यद्वद् दग्धुं जगत्त्रयम् ॥१७॥

जाज्वल्यमानमायान्तं दण्डं दृष्ट्वा दितेः सुताः।

प्राक्रोशन्ति हतः कष्टं प्रह्लादोऽयं यमेन हि ॥१८॥

तमाक्रन्दितमाकर्ण्य हिरण्याक्षसुतोऽन्धकः।

प्रोवाच मा भैष्ट मयि स्थिते कोऽयं सुराधमः ॥१९॥

इत्येवमुक्त्वा वचनं वेगेनाभिससार च।

जग्राह पाणिना दण्डं हसन् सव्येन नारद ॥२०॥

धर्मराज के हाथ में स्थित वह दण्ड हवा में ऊपर घूम रहा था । वह ऐसा लगता था मानो तीनों लोकों को जलाने के लिये कालाग्नि प्रज्वलित हो रही हो । उस प्रज्वलित दण्ड को अपनी ओर आते देखकर दैत्य लोग चिल्लाने लगे- हाय ! हाय ! यमराज ने प्रह्लाद को मार दिया । उस आक्रन्दन को सुनकर हिरण्याक्ष के पुत्र अन्धक ने कहा- डरो मत । मेरे रहते ये यमराज क्या वस्तु हैं ? नारदजी ! ऐसा कहकर वह वेग से दौड़ पड़ा और हँसते हुए उस दण्ड को बायें हाथ से पकड़ लिया ॥१७ - २०॥

तमादाय ततो वेगाद् भ्रामयामास चान्धकः।

जगर्ज च महानादं यथा प्रावृषि तोयदः ॥२१॥

प्रह्लादं रक्षितं दृष्ट्वा दण्डाद् दैत्येश्वरेण हि।

साधुवादं ददुर्हृष्टा दैत्यदानवयूथपाः ॥२२॥

भ्रामयन्तं महादण्डं दृष्ट्वा भानुसुतो मुने।

दुःसहं दुर्धरं मत्वा अन्तर्धानमगाद् यमः ॥२३॥

अन्तर्हिते धर्मराजे प्रह्लादोऽपि महामुने।

दारयामास बलवान् देवसैन्यं समन्ततः ॥२४॥

फिर अन्धक उसे लेकर घुमाने लगा और साथ ही वर्षाकालिक मेघ के तुल्य वह महानाद करते हुए गर्जन करने लगा । अन्धक के द्वारा यम- दण्ड से प्रह्लाद को सुरक्षित देखकर दैत्यों एवं दानवों के सेनानायक प्रसन्न होकर उसे धन्यवाद देने लगे । मुने ! अपने महादण्ड को अन्धक द्वारा घुमाते देख सूर्यतनय यम दैत्य को दुःसह और दुर्धर समझकर अन्तर्धान हो गये । महामुने ! धर्मराज के अन्तर्हित होने पर अब बली प्रह्लाद भी सभी ओर से देवसेना को नष्ट करने लगे ॥२१ - २४॥

वरुणः शिशुमारस्थो बद्‌ध्वा पाशैर्महाऽसुरान्।

गदया दारयामास तमभ्यागाद् विरोचनः ॥२५॥

तोमरैर्वज्रसंस्पर्शैः शक्तिभिर्मार्गणैरपि।

जलेशं ताडयामास मुद्गरैः कणपैरपि ॥२६॥

ततस्तं गदयाऽभ्येत्य पातयित्वा धरातले।

अभिद्रुत्य बबन्धाथ पाशैर्मत्तगजं बली ॥२७॥

तान् पाशाञ्शतधा चक्रे वेगाच्च दनुजेश्वरः।

वरुणं च समभ्येत्य मध्ये जग्राह नारद ॥२८॥

वरुणदेव सूँस पर स्थित थे । वे प्रबल असुरों को अपने पाशों से बाँधकर गदा द्वारा विदीर्ण करने लगे । इस पर विरोचन ने उनका सामना किया । उसने वज्रतुल्य तोमर, शक्ति, बाण, मुदगर और कणपो (भल्लों)- से वरुणदेव पर प्रहार किया । इस पर वरुण ने उसके निकट जाकर गदा से मारकर उन्हें पृथ्वी पर गिरा दिया । फिर दौड़कर उन्होंने पाशों से उसके मतवाले हाथी को बाँध लिया । पर अन्धक ने तुरन्त ही उन पाशों के सैकड़ों टुकड़े कर दिये । नारदजी ! इतना ही नहीं, उसने वरुण के निकट जाकर उनकी कमर भी पकड़ ली ॥२५ - २८॥

ततो दन्ती च श्रृङ्गाभ्यां प्रचिक्षेप तदाऽव्ययः।

ममर्द च तथा पद्भ्यां सवाहं सलिलेश्वराम् ॥२९॥

तं मर्द्यमानं वीक्ष्याथ शशाङ्कः शिशिरांशुमान्।

अभ्येत्य ताडयामास मार्गणैः कायदारणैः ॥३०॥

स ताड्यमानः शिशिरांशुबाणैरवाप पीडां परमां गजेन्द्रः।

दुष्टश्च वेगात् पयसामधीशं मुहुर्मुहुः पादतलैर्ममर्द ॥३१॥

स मृद्यमानो वरुणो गजेन्द्रं पद्भ्यां सुगाढं जगृहे महर्षे।

पादेषु भूमिं करयोः स्पृशंश्च मूर्द्धानमुल्लाल्य बलान्महात्मा ॥३२॥

गृह्याङ्गुलीभिश्च गजस्य पुच्छं कृत्वेह बन्धं भुजगेश्वरेण।

उत्पाट्य चिक्षेप विरोचनं हि सकुञ्जरं खे सनियन्तृवाहम् ॥३३॥

उस हाथी ने भी अपने प्रबल दाँतों से वरुण को उठाकर फेंक दिया । साथ ही वह वाहनसहित वरुण को अपने पैरों से कुचलने लगा । यह देख शीतकिरण चन्द्रमा ने हाथी के पास पहुँचकर अपने तेज नुकीले बाणों से विद्ध होने पर अन्धक के हाथी को अत्याधिक पीड़ा हुई । वह अपने पैरों से वरुण को तेजी से बार- बार कुचलने लगा । नारदजी ! वरुणदेव ने भी हाथी के दोनों पैरों को दृढ़तापूर्वक पकड़ लिया एवं अपने हाथों तथा पैरों से भूमि का स्पर्श करते हुए मस्तक उठाकर बलपूर्वक अङ्गुलियों से उस हाथी की पूँछ पकड़ ली और सर्पराज वासुकि से विरोचन को बाँधकर उसे हाथी और पिलवान के सहित उठाकर आकाश में फेंक दिया ॥२९ - ३३॥

क्षिप्तो जलेशेन विरोचनस्तु सकुञ्जरो भूमितले पपात।

साट्टं सन्यत्रार्गलहर्म्यभूमि पुरं सुकेशेरिव भास्करेण ॥३४॥

ततो जलेशः सगदः सपाशः समभ्यधावद् दितिजं निहन्तुम्।

ततः समाक्रन्दमनुत्तमं हि मुक्तं तु दैत्यैर्घनरावतुल्यम् ॥३५॥

हा हा हतोऽसौ वरुणेन वीरो विरोचनो दानवसैन्यपालः।

प्रह्लाद हे जम्भकुजम्भकाद्या रक्षध्वमभ्येत्य सहान्धकेन ॥३६॥

अहो महात्मा बलवाञ्जलेशः संचूर्णयन् दैत्यभटं सवाहम्।

पाशेन बद्‌ध्वा गदया निहन्ति यथा पशुं वाजिमखे महेन्द्रः ॥३७॥

श्रुतत्वाथ शब्दं दितिजैः समीरितं जम्भप्रधाना दितिजेश्वरास्ततः।

समभ्यधावंस्त्वरिता जलेश्वरं यथा पतङ्गा ज्वलितं हुताशनम् ॥३८॥

वरुण द्वारा फेंका गया विरोचन आकाश से हाथीसहित पृथ्वी पर इस प्रकार आ गिरा, जैसे सूर्य द्वारा पहले सुकेशी दैत्य का नगर अट्टालिकाओं, यन्त्रों, अर्गलाओं एवं महलों के सहित पृथ्वी पर गिराया गया था । उसके बाद वरुण गदा और पाश लेकर दैत्य को मारने के लिये दौड़े । अब दैत्य लोग मेघ- गर्जन- जैसे जोर- जोर से रोने लगे- हाय ! हाय ! राक्षस- सेना के रक्षक वीर विरोचन वरुण द्वारा मारे जा रहे हैं । हे प्रह्लाद ! हे जम्भ ! हे कुजम्भ ! तुम सभी अन्धक के साथ आकर (उन्हें) बचाओ । हाय ! बलवान् वरुण दैत्यवीर विरोचन को वाहनसहित चूर्ण करते हुए उन्हें पाश में बाँधकर गदा से इस प्रकार मार रहे हैं, जैसे अश्वमेध यज्ञ में इन्द्र पशु को मारते हैं । दैत्यों के रुदन को सुनकर जम्भ आदि प्रमुख दैत्यगण वरुण की ओर शीघ्रता से ऐसे दौड़े जैसे पतङ्ग प्रज्वलित अग्नि की ओर दौड़ते हैं ॥३४ - ३८॥

तानागतान् वै प्रसमीक्ष्य देवः प्राह्लादिमुत्सृज्य वितत्य पाशम्।

गदां समुद्भ्राम्य जलेश्वरस्तु दुद्राव तान् जम्भमुखानरातीन् ॥३९॥

जम्भं च पाशेन तथा निहत्य तारं तलेनाशनिसंनिभेन।

पादेन वृत्रं तरसा कुजम्भं निपातयामास बलं च मुष्ट्या ॥४०॥

तेनार्दिता देववरेण दैत्याः संप्राद्रवन् दिक्षु विमुक्तशस्त्राः।

ततोऽन्धकः सत्वरितोऽभ्युपेयाद् रणाय योद्‌धुं जलनायकेन ॥४१॥

तमापतन्तं गदया जघान पाशेन बद्‌ध्वा वरुणोऽसुरेशम्।

तं पाशमाविध्य गदां प्रगृह्य चिक्षेप दैत्यः स जलेश्वराय ॥४२॥

उन दैत्यों को आया देख वरुण प्रह्लाद- पुत्र ( विरोचन ) - की छोड़ करके पाश फैलाकर और गदा घुमाकर उन जम्भप्रभृति शत्रुओं की ओर दौड़े । उन्होंने जम्भ की पाश से, तार- दैत्य को वज्र- तुल्य करतल के प्रहार से, वृत्राशुर को पैरों से, कुजम्भ को अपने वेग से और बल नामक असुर को मुक्के से मारकर गिरा दिया । देवप्रवर ! वरुण द्वारा मर्दित दैत्य अपने अस्त्र- शस्त्रों को छोड़कर दसों दिशाओं में भागने लगे । उसके बाद अन्धक वरुनदेव के साथ युद्ध करने के लिये बड़ी तेजी से उनके पास पहुँचा । अपनी ओर आते देख वरुण ने उस दैत्यनायक अन्धक को अपने पाश से बाँधकर गदा से मारा, किंतु दैत्य ने उस पाश और गदा को छीनकर वरुण पर ही फेंक दिया ॥३९ - ४२॥

तमापतन्तं प्रसमीक्ष्य पाशं गदां च दाक्षायणिनन्दनस्तु।

विवेश वेगात् पयसां निधानं ततोऽन्धको देवबलं ममर्द ॥४३॥

ततो हुताशः सुरशत्रुसैन्यं ददाह रोषात् पवनावधूतः।

तमभ्ययाद् दानवविश्वकर्मा मयो महाबाहुरुदग्रवीर्यः ॥४४॥

तमापतन्तं सह शम्बरेण समीक्ष्य वह्निः पवनेन सार्धम्।

शक्त्या मयं शम्बरमेत्य कण्ठे संताड्य जग्राह बलान्महर्षे ॥४५॥

शक्त्या स कायावरणे विदारिते संभिन्नदेहो न्यपतत् पृथिव्याम्।

मयः प्रजज्वाल च शम्वरोऽपि कण्ठावलग्ने ज्वलने प्रदीप्ते ॥४६॥

स दह्यमानो दितिजोऽग्निनाऽथ सुविस्वरं घोरतरं रुराव।

सिंहाभिपन्नो विपिने यथैव मत्तो गजः क्रन्दति वेदनार्त्तः ॥४७॥

उस पाश और गदा को अपनी ओर आते देखकर दाक्षायणी के पुत्र वरुण शीघ्रता से समुद्र में पैठ गये । तब अन्धक देवसेना का मर्दन करने लगा । उसके बाद पवन द्वारा प्रज्वलित अग्निदेव क्रोधदेव असुरों की सेना को दग्ध करने लगे । तब दानवों का 'विश्वकर्मा' ( शिल्पिराज ) प्रचण्ड प्रतापी महाबाहु मय उनके सामने आया । नारदजी ! शम्बर के साथ उसे आते देख अग्निदेव ने वायुदेवता के साथ शक्ति के प्रहार से मय और शम्बर के कण्ठ में चोट पहुँचाकर उन दोनों को ही जोर से पकड़ लिया । शक्ति से कवच के फट जाने पर छिन्न - भिन्न शरीरवाला मय पृथ्वी पर गिर पड़ा और शम्बरासुर कण्ठ में प्रदीप्त अग्नि के लग जाने से दग्ध होने लगा । अग्नि द्वारा जलते दैत्य ने उस समय मुक्त कण्ठ से इस प्रकार रोदन किया, जैसे वन में सिंह से आक्रान्त मतवाला हाथी वेदना से दुःखी होकर करुण चिग्घाड़ करता है ॥४३ - ४७॥

तं शब्दमाकर्ण्य च शम्बरस्य दैत्येश्वरः क्रोधविरक्तदृष्टिः।

आः किं किमेतन्ननु केन युद्धे जितो मयः शम्बरदानवश्च ॥४८॥

ततोऽब्रुवन् दैत्यभटा दितीशं प्रदह्यते ह्येष हुताशनेन।

रक्षस्व चाभ्येत्य न शक्यतेऽन्यैर्हुताशनो वारयितुं रणाग्रे ॥४९॥

इत्थं स दैत्यैरभिनोदितस्तु हिरण्यचक्षुस्तनयो महर्षे।

उद्यम्य वेगात् परिघं हुताशं समाद्रवत् तिष्ठ तिष्ठ ब्रुवन् हि ॥५०॥

श्रुत्वाऽन्धकस्यापि वचोऽव्ययात्मा संक्रुद्धचित्तस्त्वरितो हि दैत्यम्।

उत्पाट्य भूम्यां च विनिष्पिपेष ततोऽन्धकः पावकमाससाद ॥५१॥

शम्बर के उस शब्द को सुनकर क्रोध से लाल नेत्रोंवाले दैत्येश्वर ने कहा - अरे ! यह क्या है ? युद्ध में मय और शम्बर को किसने जीता है ? इस पर दैत्ययोद्धाओं ने अन्धक से कहा - अग्निदेव इनको जला रहे हैं । आप जाकर उनकी रक्षा करें । आपके अतिरिक्त दूसरा कोई भी अग्नि को नहीं रोक सकता । नारदजी ! दैत्यों के ऐसा कहने पर हिरण्याक्षपुत्र शीघ्रता से परिघ उठाकर 'ठहरो- ठहरो' - कहता हुआ अग्नि की ओर दौड़ पड़ा । अन्धक के वचन को सुनकर अव्ययात्मा अग्निदेव ने अत्यन्त क्रोध से उस दैत्य को शीघ्र ही उठाकर पृथ्वी पर पटक दिया । उसके बाद अन्धक अग्नि के पास पहुँचा ॥४८ - ५१॥

समाजघानाथ हुताशनं हि वरायुधेनाथ वराङ्गमध्ये।

समाहतोऽग्निः परिमुच्य शम्बरं तथाऽन्धकं स त्वरितोऽभ्यधावत् ॥५२॥

तमापतन्तं परिघेण भूयः समाहनन्मूर्ध्नि तदान्धकोऽपि।

स ताडितोऽग्निर्दितिजेश्वरेण भयात् प्रदुद्राव रणाजिराद्वि ॥५३॥

ततोऽन्धको मारुतचन्द्रभास्करान् साध्यान् सरुद्राश्विवसून् महोरगान्।

यान् याञ्शरेण स्पृशते पराक्रमी पराङ्मुखांस्तान्कृतवान् रणाजिरात् ॥५४॥

ततो विजित्यामरसैन्यमुग्रं सेन्द्रं सरुद्रं सयमं ससोमम्।

संपूज्यमानो दनुपुंगवैस्तु तदाऽन्धको भूमिमुपाजगाम ॥५५॥

आसाद्य भूमिं करदान् नरेन्द्रान् कृत्वा वशे स्थाप्य चराचरं च ।

जगत्समग्रं प्रविवेश धीमान् पातालमग्र्यं पुरमश्मकाह्वम् ॥५६॥

तत्र स्थितस्यापि महाऽसुरस्य गन्धर्वविद्याधरसिद्धसंघाः।

सहाप्सरोभिः परिचारणाय पातालमभ्येत्य समावसन्तःश् ॥५७॥

उसने श्रेष्ठ अस्त्र के द्वारा अग्नि के सिर पर प्रहार किया । इस प्रकार आहत अग्निदेव शम्बर को छोड़कर तत्काल अन्धक की ओर दौड़े । अन्धक ने आते हुए अग्निदेव के सिर पर पुनः परिघ से प्रहार किया । अन्धक द्वारा ताडित अग्निदेव भयभीत हो रणक्षेत्र से भाग गये । उसके बाद पराक्रमी अन्धक वायु, चन्द्र, सूर्य, साध्य, रुद्र, अश्विनीकुमार, वसु और महानागों में जिन- जिनको बाण से स्पर्श करता था, वे सबी युद्धभूमि से पराङ्मुख हो जाते थे । इस प्रकार इन्द्र, रुद्र, यम, सोमसहित देवताओं को उग्र सेना को जीतकर अन्धक श्रेष्ठ दानवों के द्वारा पूजित होकर पृथ्वी पर आ गया । वहाँ वह बुद्धिमान् दैत्य सभी राजाओं को अपना करद (सामन्त ) बना करके तथा समस्त चराचर जगत को वश में कर पाताल में स्थित अपने अश्मक नामक उत्तम नगर में चला गया । वहाँ उस महासुर अन्धक की सेवा करने के लिये अप्सराओं के साथ सभी प्रमुख गन्धर्व, विद्याधर एवं सिद्धों के समूह पाताल में आकर निवास करने लगे ॥५२ - ५७॥

इति श्रीवामनपुराणे दशमोध्यायः  ॥१०॥

॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें दसवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥१०॥

आगे जारी........ श्रीवामनपुराण अध्याय 11

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