वामनपुराण अध्याय ५
वामनपुराण के अध्याय ५ में दक्ष
यज्ञ का विध्वंस, देवताओं का
प्रताड़न, शंकर के कालरूप और राश्यादि रूपों में स्वरूप कथन का
वर्णन है।
श्रीवामनपुराण अध्याय ५
Vaman Purana
chapter 5
श्रीवामनपुराणम् पञ्चमोऽध्यायः
वामनपुराणम् अध्यायः ५
वामन पुराण पाँचवाँ अध्याय
श्रीवामनपुराण पञ्चम अध्याय
श्रीवामनपुराण
अध्याय ५
पुलस्त्य उवाच
जटाधरं हरिर्दृष्ट्वा
क्रोधादारक्तलोचनम् ।
तस्मात् स्थानादपाक्रम्य
कुब्जाग्रेऽन्तर्हितः स्थितः ॥१॥
वसवोऽष्टौ हरं दृष्ट्वा
सुस्त्रुवुर्वेगतो मुने ।
सा तु जाता सरिच्छ्रेष्ठा सीता नाम
सरस्वती ॥२॥
एकादश तथा रुद्रास्त्रिनेत्रा
वृषकेतनाः ।
कान्दिशीका लयं जग्मुः समभ्येत्यैव
शंकरम् ॥३॥
विश्वेऽश्विनौ च साध्याश्च
मरुतोऽनलभास्कराः ।
समासाद्य पुरोडाशं भक्षयन्तो
महामुने ॥४॥
पुलस्त्यजी बोले –
जटाधारी भगवान् शिव को क्रोध से आँखें लाल किये देखकर भगवान् विष्णु
उस स्थान से हटकर कुब्जा (ऋषिकेश) में छिप गये। मुने! क्रुद्ध शिव को देखकर आठ वसु
तेजी से पिघलने लगे । इस कारण वहाँ सीता नाम की श्रेष्ठ नदी प्रवाहित हुई। वहाँ
पूजा के लिये स्थित त्रिनेत्रधारी ग्यारहों रुद्र भय के मारे इधर-उधर भागते हुए
शंकर के निकट जाकर उनमें ही लीन हो गये। महामुनि नारद! शंकर को निकट आते देख
विश्वेदेवगण, अश्विनीकुमार, साध्यवृन्द,
वायु, अग्नि एवं सूर्य पुरोडाश खाते हुए भाग
गये ॥ १-४॥
चन्द्रः सममृक्षगणैर्निशां
समुपदर्शयन् ।
उत्पत्यारुह्य गगनं स्वमधिष्ठानमास्थितः
॥५॥
कश्यपाद्याश्च ऋषयो जपन्तः
शतरुद्रियम् ।
पुष्पाञ्जलिपुटा भूत्वा प्रणताः
संस्थिता मुने ॥६॥
असकृद् दक्षदयिता दृष्ट्वा रुद्रं
बलाधिकम् ।
शक्रादीनां सुरेशानां कृपणं विललाप
ह ॥७॥
ततः क्रोधाभिभूतेन शंकरेण महात्मना
।
तलप्रहारैरमरा बहवो विनिपातिताः ॥८॥
फिर तो ताराओं के साथ चन्द्रमा
रात्रि को प्रकाशित करते हुए आकाश में ऊपर जाकर अपने स्थान पर स्थित हो गये। इधर
कश्यप आदि ऋषि शतरुद्रिय (मन्त्र) - का जप करते हुए अञ्जलि में पुष्प लेकर
विनीतभाव से खड़े हो गये । इन्द्रादि सभी देवताओं से अधिक बली रुद्र को देखकर दक्ष
पत्नी अत्यन्त दीन होकर बार-बार करुण विलाप करने लगी। इधर क्रुद्ध भगवान् शंकर ने
थप्पड़ों के प्रहार से अनेक देवताओं को मार गिराया ॥ ५-८ ॥
पादप्रहारैरपरे त्रिशूलेनापरे मुने
।
दृष्ट्यग्निना तथैवान्ये देवाद्याः
प्रलयीकृताः ॥९॥
ततः पूषा हरं वीक्ष्य विनिघ्नन्तं
सुरासुरान् ।
क्रोधाद बाहू प्रसार्याथ प्रदुद्राव
महेश्वरम् ॥१०॥
तमापतन्तं भगवान् संनिरीक्ष्य
त्रिलोचनः ।
बाहुभ्यां प्रतिजग्राह करेणैकेन
शंकरः ॥११॥
कराभ्यां प्रगृहीतस्य
शंभुनांशुभतोऽपि हि ।
कराङ्गुलिभ्यो निश्चेरुसृग्धाराः
समन्ततः ॥१२॥
मुने! शंकर ने इसी प्रकार कुछ
देवताओं को पैरों के प्रहार से, कुछ को
त्रिशूल से और कुछ को अपने तृतीय नेत्र की अग्नि द्वारा नष्ट कर दिया। उसके बाद
देवों एवं असुरों का संहार करते हुए शंकर को देखकर पूषादेवता ( अन्यतम सूर्य)
क्रोधपूर्वक दोनों बाँहों को फैलाकर शिवजी की ओर दौड़े। त्रिलोचन शिव ने उन्हें
अपनी ओर आते देख एक ही हाथ से उनकी दोनों भुजाओं को पकड़ लिया। शिव द्वारा सूर्य के
पकड़ी गयी दोनों भुजाओं की अङ्गुलियों से चारों ओर रक्त की धारा प्रवाहित होने लगी
। ९-१२ ॥
ततो वेगेन महता अंशुमन्तं दिवाकरम्
।
भ्रामयामास सततं सिंहो मृगशिशुं यथा
॥१३॥
भ्रामितस्यातिवेगेन नारदांशुमतोऽपि
हि ।
भुजौ हस्वत्वमापन्नौ
त्रुटितस्त्रायुबन्धनौ ॥१४॥
रुधिराप्लुतसर्वाङ्गमंशुमन्तं
महेश्वरः ।
संनिरीक्ष्योत्ससर्जैनमन्यतोऽभिजगाम
ह ॥१५॥
ततस्तु पूषा विहसन् दशनानि
विदर्शयन् ।
प्रोवाचैह्येहि कापालिन् पुनः पुनरथेश्वरम्
॥१६॥
फिर भगवान् शिव दिवाकर सूर्यदेव को
अत्यन्त वेग से ऐसे घुमाने लगे जैसे सिंह हिरण शावक को घुमाता (दौड़ाता है। नारदजी
! अत्यन्त वेग से घुमाये गये सूर्य की भुजाओं के स्नायुबन्ध टूट गये और वे
(स्नायुएँ) बहुत छोटी— नष्टप्राय हो गयीं।
सूर्य के सभी अङ्गों को रक्त से लथपथ देखकर उन्हें छोड़कर शंकरजी दूसरी ओर चले
गये। उसी समय हँसते एवं दाँत दिखलाते हुए पूषा देवता ( बारह आदित्यों में से एक
सूर्य) कहने लगे- ओ कपालिन्! आओ इधर आओ ॥१३-१६ ॥
ततः क्रोधाभीभूतेन पूष्पो वेगेन
शंभुना ।
मुष्टिनाहत्य दशनाः पातिता धरणीतले
॥१७॥
भग्नदन्तस्तथा पूषा
शोणिताभिप्लुताननः ।
पपात भुवि निः संज्ञो वज्राहत
इवाचलः ॥१८॥
भगोऽभिवीक्ष्य पूषाणं पतितं
रुधिरोक्षितम् ।
नेत्राभ्यां घोररुपाभ्यां
वृषध्वजमवैक्षत ॥१९॥
त्रिपुरघ्नस्ततः क्रुद्धस्तलेनाहत्य
चक्षुषी ।
निपातयामास भुवि क्षोभयन्
सर्वदेवताः ॥२०॥
इस पर क्रुद्ध रुद्र ने वेगपूर्वक
मुक्के से मारकर पूषा के दाँतों को धरती पर गिरा दिया। इस प्रकार दाँत टूटने एवं
रक्त से लथपथ होकर पूषा देवता वज्र से नष्ट हुए पर्वत के समान बेहोश होकर पृथ्वी पर
गिर पड़े। इस प्रकार गिरे हुए पूषा को रुधिर से लथपथ देखकर भग देवता (तृतीय
सूर्यभेद) भयंकर नेत्रों से शिवजी को देखने लगे। इससे क्रुद्ध त्रिपुरान्तक शिव ने
सभी देवताओं को क्षुब्ध करते हुए हथेली से पीटकर भग की दोनों आँखें पृथ्वी पर गिरा
दीं ॥। १७ - २० ॥
ततो दिवाकराः सर्वे पुरस्कृत्य
शतक्रतुम् ।
मरुद्भिश्च हुताशैश्च
भयाज्जग्मुर्दिशो दश ॥२१॥
प्रतियातेषु देवेषु प्रह्लादाद्या
दितीश्वराः ।
नमस्कृत्य ततः सर्वे तस्थुः
प्राञ्जलयो मुने ॥२२॥
ततस्तं यज्ञवाटं तु शंकरो
घोरचक्षुषा ।
ददर्श दग्धुं कोपेन सर्वांश्चैव
सुरासुरान् ॥२३॥
ततो निलिल्यिरे वीराः
प्रणेमुर्दुद्रुवुस्तथा ।
भयादन्ये हरं दृष्ट्वा गता
वैवस्वतक्षयम् ॥२४॥
फिर क्या था ?
सभी दसों सूर्य इन्द्र को आगे कर मरुद्गणों तथा अग्नियों के साथ भय से
दसों दिशाओं में भाग गये। मुने! देवताओं के चले जाने पर प्रह्लाद आदि दैत्य
महेश्वर को प्रणाम कर अञ्जलि बाँधकर खड़े हो गये। इसके बाद शंकर उस यज्ञमण्डप को
तथा सभी देवासुरों को दग्ध करने के लिये क्रोधपूर्ण घोर दृष्टि से देखने लगे। इधर
दूसरे वीर महादेव को देखकर भय से जहाँ-तहाँ छिप गये। कुछ लोग प्रणाम करने लगे,
कुछ भाग गये और कुछ तो भय से ही सीधे यमपुरी पहुँच गये ॥ २१-२४ ॥
त्रयोऽग्नयस्त्रिभिर्नेत्रैर्दुःसहं
समवैक्षत ।
दृष्टमात्रास्त्रिनेत्रेण
भस्मीभूताभवन् क्षणात् ॥२५॥
अग्नौ प्रणष्टे यज्ञोऽपि भूत्वा
दिव्यवपुर्मृगः ।
दुद्राव
विक्लवगतिर्दक्षिणासहितोऽम्बरे ॥२६॥
तमेवानुससारेशश्चापमानम्य वेगवान् ।
शरं पाशुपतं कृत्वा कालरुपी महेश्वरः
॥२७॥
अर्द्धेन यज्ञवाटान्ते जटाधर इति
श्रुतः ।
अर्द्धेन गगने शर्वः कालरुपी च
कथ्यते ॥२८॥
फिर भगवान् शिव ने अपने तीनों
नेत्रों से तीनों अग्नियों (आहवनीय, गार्हपत्य
और शालाग्नियों) को देखा। उनके देखते ही वे अग्रियाँ क्षणभर में नष्ट हो गयीं।
उनके नष्ट होने पर यज्ञ भी मृग का शरीर धारण कर आकाश में दक्षिणा के साथ तीव्रगति से
भाग गया। कालरूपी वेगवान् भगवान् शिव धनुष को झुकाकर उस पर पाशुपत बाण संधानकर उस
मृग के पीछे दौड़े और आधे रूप से तो यज्ञशाला में स्थित हुए जिनका नाम 'जटाधर' पड़ा। इधर आधे दूसरे रूप से वे आकाश में
स्थित होकर 'काल' कहलाये । २५ - २८ ॥
नारद उवाच
कालरुपी त्वयाख्यातः शंभुर्गगनगोचरः
।
लक्षणं च स्वरुपं च सर्वं
व्याख्यातुमर्हसि ॥२९॥
नारदजी बोले –
(मुने!) आपने आकाश में स्थित शिव को कालरूपी कहा है। आप उनके
सम्पूर्ण स्वरूप और लक्षणों की भी व्याख्या कर दें ॥ २९ ॥
पुलस्त्य उवाच
स्वरुपं त्रिपुरघ्नस्य वदिष्ये
कालरुपिणः ।
येनाम्बरं मुनिश्रेष्ठ व्याप्तं
लोकहितेप्सुना ॥३०॥
यत्राश्विनी च भरणी
कृत्तिकायास्तथांशकः ।
मेषो राशिः कुजक्षेत्रं तच्छिरः
कालरुपिणः ॥३१॥
आग्नेयांशास्त्रयो ब्रह्मन्
प्राजापत्यं कवेर्गृहम् ।
सौम्यार्द्धं वृषनामेदं वदनं
परिकीर्तितम् ॥३२॥
मृगार्द्धमार्द्रादित्याशांस्त्रयः
सौम्यगृहं त्विदम् ।
मिथुनं भुजयोस्तस्य गगनस्थस्य
शूलिनः ॥३३॥
पुलस्त्यजी ने कहा- मुनिवर ! मैं
त्रिपुर को मारनेवाले कालरूपी उन शंकर के स्वरूप को ( वास्तविक रूप को) बतलाता
हूँ। उन्होंने लोक की भलाई की इच्छा से ही आकाश को व्याप्त किया है। सम्पूर्ण अश्विनी
तथा भरणी नक्षत्र एवं कृत्तिका के एक चरण से युक्त भौम का क्षेत्र मेष राशि ही
कालरूपी महादेव का सिर कही गयी है। ब्रह्मन् ! इसी प्रकार कृत्तिका के तीन चरण,
सम्पूर्ण रोहिणी नक्षत्र एवं मृगशिरा के दो चरण, यह शुक्र की वृष राशि ही उनका मुख है। मृगशिरा के शेष दो चरण सम्पूर्ण
आर्द्रा और पुनर्वसु के तीन चरण बुध की (प्रथम) स्थिति स्थान मिथुन राशि आकाश में
स्थित शिव की दोनों भुजाएँ हैं । ३०-३३ ॥
आदित्यांशश्च पुष्यं च आश्लेशा
शशिनो गृहम् ।
राशिः कर्कटको नाम पार्श्वे
मखविनाशिनः ॥३४॥
पित्र्यर्क्षं भगदैवत्यमुत्तरांशश्च
केसरी ।
सूर्यक्षेत्रं विभोर्ब्रह्मन् हदयं
परिगीयते ॥३५॥
उत्तरांशास्त्रयः पाणिश्चित्रार्धं
कन्यका त्वियम् ।
सोमपुत्रस्य सद्मैतद् द्वितीयं जठरं
विभोः ॥३६॥
चित्रांशद्वितयं स्वातिर्विशाखायांशकत्रयम्
।
द्वितीयं शुक्रसदनं तुला
नाभिरुदाहता ॥३७॥
इसी प्रकार पुनर्वसु का अन्तिम चरण,
सम्पूर्ण पुष्य और आश्लेषा नक्षत्रोंवाला चन्द्रमा का क्षेत्र कर्क
राशि यज्ञविनाशक शंकर के दोनों पार्श्व (बगल) हैं। ब्रह्मन् ! सम्पूर्ण मघा,
सम्पूर्ण पूर्वाफाल्गुनी और उत्तराफाल्गुनी का प्रथम चरण, सूर्य की सिंह राशि शंकर का हृदय कही जाती है। उत्तराफाल्गुनी के तीन चरण,
सम्पूर्ण हस्त नक्षत्र एवं चित्रा के दो पहले चरण, बुध की द्वितीय राशि, कन्याराशि शंकर का जठर है।
चित्रा के शेष दो चरण, स्वाती के चारों चरण एवं विशाखा के
तीन चरणों से युक्त शुक्र का दूसरा क्षेत्र तुला राशि महादेव की नाभि है ॥ ३४-३७ ॥
विशाखांशमनूराधा ज्येष्ठा भौमगृहं
त्विदम् ।
द्वितीयं वृश्चिको राशिर्मेढ़्रं
कालस्वरुपिणः ॥३८॥
मूलं पूर्वोत्तरांशश्च
देवाचार्यगृहं धनुः ।
ऊरुयुगलमीशस्य अमरर्षे प्रगीयते
॥३९॥
उत्तरांशास्त्रयो ऋक्षं श्रवणं मकरो
मुने ।
धनिष्ठार्थं शनिक्षेत्रं जानुनी
परमेष्ठिनः ॥४०॥
धनिष्ठार्धं शतभिषा
प्रौष्ठपद्यांशकत्रयम् ।
सौरेः सद्मापरमिदं कुम्भो जङ्घें च
विश्रुते ॥४१॥
विशाखा का एक चरण,
सम्पूर्ण अनुराधा और ज्येष्ठा नक्षत्र, मङ्गल का
द्वितीय क्षेत्र वृश्चिक राशि कालरुपी महादेव का उपस्थ है । सम्पूर्ण मूल, पूरा पूर्वाषाढ और उत्तराषाढ की प्रथम चरणवाली धनु राशि जो बृहस्पति का
क्षेत्र है, महेश्वर के दोनों ऊरु हैं । मुने ! उत्तराषाढ़ के
शेष तीन चरण, सम्पूर्ण श्रवण नक्षत्र और धनिष्ठा के दो पूर्व
चरण की मकर राशि शनि का क्षेत्र और परमेष्ठी महेश्वर के दोनों घुटने हैं । धनिष्ठा
के दो चरण, सम्पूर्ण शताभिष और पूर्वभाद्रपद के तीन चरणवाली
कुम्भ राशि शनि का द्वितीय गृह और शिव की दो जंघाएँ हैं ॥३८ - ४१॥
प्रौष्ठपद्यांशमेकं तु उत्तरा रेवती
तथा ।
द्वितीयं जीवसदनं मीनस्तु चरणावुभौ
॥४२॥
एवं कृत्वा कालरुपं त्रिनेत्रो
यज्ञं क्रोधान्मार्गणैराजघान ।
विद्धश्चासौ वेदनाबुद्धिमुक्तः खे
संतस्थौ तारकाभिश्चिताङ्गः ॥४३॥
पूर्वभाद्रपद के शेष एक चरण,
सम्पूर्ण उत्तरभाद्रपद और सम्पूर्ण रेवती नक्षत्नोंवाला बृहस्पति का
द्वितीय क्षेत्र एवं मीन राशि उनके दो चरण हैं । इस प्रकार कालरुप धारण कर शिव ने
क्रोधपूर्वक हरिणरुपधारी यज्ञ को बाणों से मारा । उसके बाद बाणों से विद्ध होकर,
किंतु वेदना की अनुभूति न करता हुआ, वह यज्ञ
ताराओं से घिरे शरीरवाला होकर आकाश में स्थित हो गया ॥४२ - ४३॥
नारद उवाच
राशयो गदिता ब्रह्मंस्त्वया द्वादश
वै मम ।
तेषां विशेषतो ब्रूहि लक्षणानि
स्वरुपतः ॥४४॥
नारदजी ने कहा - ब्रह्मन् ! आपने
मुझझे बारहों राशियों का वर्णन किया । अब विशेषरुप से उनके स्वरुप के अनुसार
लक्षणों को बतलायें ॥४४॥
पुलस्त्य उवाच
स्वरुपं तव वक्ष्यामि राशीनां
श्रृणु नारद ।
यादृशा यत्र संचारा यस्मिन् स्थाने
वसन्ति च ॥४५॥
मेषः समानमूर्तिश्च अजाविकधनादिषु ।
संचारस्थानमेवास्य
धान्यरत्नाकरादिषु ॥४६॥
नवशाद्वलसंछन्नवसुधायां च सर्वशः ।
नित्यं चरति फुल्लेषु सरसां
पुलिनेषु च ॥४७॥
वृषः सदृशरुपो हि चरते गोकुलादिषु ।
तस्याधिवासभूमिस्तु कृषीवलधराश्रयः
॥४८॥
पुलस्त्यजी बोले - नारदजी ! आपको
मैं राशियों का स्वरुप बतलाता हूँ; सुनिये
। वे जैसी हैं तथा जहाँ संचार और निवास करती हैं वह सभी वर्णित करता हूँ । मेष
राशि भेड़ के समान आकारवाली है । बकरी, भेड़, धन - धान्य एवं रत्नाकरादि इसके संचार - स्थान हैं तथा नवदुर्वा से
आच्छादित समग्र पृथ्वी एवं पुष्पित वनस्पतियों से युक्त सरोवरों के पुलिनों में यह
नित्य संचरण करती हैं । वृषभ के समान रुपयुक्त वृषराशि गोकुलादि में विचरण करती है
तथा कृषकों की भूमि इसका निवास स्थान हैं ॥४५ - ४८॥
स्त्रीपुंसयोः समं रुपं
शय्यासनपरिग्रहः ।
वीणावाद्यधृड़ः मिथुनं
गीतनर्तकशिल्पिषु ॥४९॥
स्थितः क्रीडारतिर्नित्यं
विहारावनिरस्य तु ।
मिथुनं नाम विख्यातं
राशिर्द्वधात्मकः स्थितः ॥५०॥
कर्कः कुलीरेण समः सलिलस्थः
प्रकीर्तितः ।
केदारवापीपुलिने विविक्तावनिरेव च
॥५१॥
सिंहस्तु
पर्वतारण्यदुर्गकन्दरभूमिषु ।
वसते व्याधपल्लीषु गह्वरेषु गुहासु
च ॥५२॥
मिथुन राशि एक स्त्री और एक पुरुष के
साथ - साथ रहने के समान रुपवाली है । यह शय्या और आसनों पर स्थित हैं । पुरुष –
स्त्री के हाथों में वीणा एवं ( अन्य ) वाद्य हैं । इस राशि का संचरण गानेवालों,
नाचनेवालों एवं शिल्पियों में होता है । इस द्विस्वभाव राशि को
मिथुन कहते हैं । इस राशि का निवास क्रीडास्थल एवं विहार – भूमियों में होता है ।
कर्क राशि केकड़े के रुप के समान रुपवाली है एवं जल में रहनेवाली है । जल से पूर्ण
क्यारी एवं नदी - तीर अथवा बालुका एवं एकान्त भूमि इसके रहने के स्थान हैं । सिंह
राशि का निवास वन, पर्वत, दुर्गमस्थान,
कन्दरा, व्याधों के स्थान, गुफा आदि होता है ॥४९ - ५२॥
ब्रीहिप्रदीपिककरा नावारुढा च
कन्यका ।
चरते स्त्रीरतिस्थाने वसते नडवलेषु
च ॥५३॥
तुलापाणिश्च पुरुषो वीथ्यापणविचारकः
।
नगराध्वानशालासु वसते तत्र नारद
॥५४॥
श्वभ्रवल्मीकसंचारी वृश्चिको
वृश्चिकाकृतिः ।
विषगोमयकीटादिपाषाणादिषु संस्थितः
॥५५॥
धनुस्तुरङ्गजघनो दीप्यमानो धनुर्धरः
।
वाजिशूरास्त्रविद्वीरः स्थायी
गजरथादिषु ॥५६॥
कन्या राशि अन्न एवं दीपक हाथ में
लिये हुए है तथा नौका पर आरुढ़ है । यह स्त्रियों के रतिस्थान और सरपत,
कण्डा आदि में विचरण करती है । नारद ! तुला राशि हाथ में तुला लिये
हुए पुरुष के रुप में गलियों और बाजारों में विचरण करती है तथा नगरों, मार्गो एवं भवनों में निवास करती है । वृश्चिक राशि का आकार बिच्छू - जैसा
है । यह गड्डे एवं वाल्मीक आदि में विचरण करती हैं । यह विष, गोबर, कीट एवं पत्थर आदि में भी निवास करती है । धनु
राशि की जंघा घोड़े के समान है । यह ज्योतिः स्वरुप एवं धनुष लिये है । यह घुड़सवारी,
वीरता के कार्य एवं अस्त्र – शस्त्रों का ज्ञाता तथा शूर है । गज
एवं रथ आदि में इसका निवास होता है ॥५३ - ५६॥
मृगास्यो मकरो ब्रह्मन्
वृषस्कन्धेक्षणाङ्गजः ।
मकरोऽसौ नदौचारी वसते च महौदधौ ॥५७॥
रिक्तकुम्भश्च पुरुषः स्कन्धधारी
जलाप्लुतः ।
द्यूतशालाचरः कुम्भः स्थायी
शौण्डिकसद्मसु ॥५८॥
मीनद्वयमथासक्तं
मीनस्तीर्थाब्धिसंचरः ।
वसते पुण्यदेशेषु देवब्राह्मणसद्मसु
॥५९॥
लक्षणा गदितास्तुभ्यं मेषादीनां
महामुने ।
न कस्यचित् त्वयाख्येयं
गुह्यमेतत्पुरातनम् ॥६०॥
एतन् मया ते कथितं सुरर्षे यथा
त्रिनेत्रः प्रममाथ यज्ञम् ।
पुण्यं पुराणं परमं
पवित्रमाख्यातवान्पापहरं शिवं च ॥६१॥
ब्रह्मन् ! मकर राशि का मुख मृग के
मुख - सदृश एवं कंधे वृष के कन्धों के तुल्य तथा नेत्र हाथी के नेत्र के समान हैं
। यह राशि नदी में विचरण करती तथा समुद्र में विश्राम करती है । कुम्भ राशि रिक्त
घड़े को कंधे पर लिये जल से भीगे पुरुष के समान है । इसका संचार - स्थान द्यूतगृह
एवं सुरालय ( मद्यशाला ) है । मीन राशि दो संयुक्त मछलियों के आकारवाली है । यह
तीर्थस्थान एवं समुद्र – देश में संचरण करती है । इसका निवास पवित्र देशों,
देवमन्दिरों एवं ब्राह्मणों के घरों में होता है । महामुने ! मैंने
आपको मेषादि राशियों का लक्षण बतलाया । आप इस प्राचीन रहस्य को जिस प्रकार यज्ञ को
प्रमथित किया, उसका मैंने आपसे वर्णन कर दिया । इस प्रकार
मैंने आपको श्रेयस्कर, परम पवित्र, पापहारी
एवं कल्याणकारी अत्यन्त पुराना पुराण आख्यान सुनाया॥५७ - ६१॥
इति श्रीवामपुराणे पञ्चमोऽध्यायः ।।
५ ।।
॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराण में
पाँचवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥५॥
आगे जारी........ श्रीवामनपुराण अध्याय 6
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