वराहपुराण अध्याय ५

वराहपुराण अध्याय ५             

वराहपुराण के अध्याय ५ में रैभ्य मुनि और राजा वसु का देवगुरु बृहस्पति से संवाद तथा राजा अश्वशिरा द्वारा यज्ञमूर्ति भगवान् नारायण का स्तवन एवं उनके श्रीविग्रह में लीन होने का वर्णन है।

वराहपुराण अध्याय ५

वराह पुराण अध्याय ५  

Varah Purana chapter 5 

श्रीवराहपुराणम् पञ्चमोऽध्यायः

वराहपुराणम् अध्यायः ५ 

श्रीवराहपुराण पाँचवाँ अध्याय

श्रीवराहपुराण पञ्चम अध्याय 

श्रीवराहपुराण

अध्याय ५ 

अश्वशिरा उवाच ।

भवन्तौ मम संदेहमेकं छेत्तुमिहार्हतः ।

येन छिन्नेन जायेत मम संसारविच्युतिः ।। ५.१ ।।

एवमुक्ते नृपतिना तदा योगिवरो मुनिः ।

कपिलः प्राह धर्मात्मा राजानं यजतां वरम् ।। ५.२ ।।

राजा अश्वशिरा बोले- 'मुनिवरो ! मेरे मन में एक संदेह है, उसे दूर करने में आप दोनों पूर्ण समर्थ हैं। उसके फलस्वरूप मुझे मुक्ति सुलभ हो सकती है।' उनके इस प्रकार कहने पर योगीश्वर, परम धर्मात्मा कपिलमुनि ने यज्ञ करनेवालों में श्रेष्ठ उस राजा से कहा ।

कपिल उवाच ।

कस्ते मनसि संदेहो राजन् परमधार्मिक ।

छिन्दामि येन तच्छ्रुत्वा ब्रूहि यत्तेऽभिवाञ्छितम् ।। ५.३ ।।

कपिलजी ने कहा- राजन् ! तुम परम धार्मिक हो। तुम्हारे मन में क्या संदेह है ? बताओ, उसे सुनकर मैं दूर कर दूँगा ।

राजोवाच ।

कर्मणा प्राप्यते मोक्ष उताहो ज्ञानिना मुने ।

एतन्मे संशयं छिन्धि यदि मेऽनुग्रहः कृतः ।। ५.४ ।।

राजा अश्वशिरा बोले- मुने! मोक्ष पाने का अधिकारी कर्मशील पुरुष है या ज्ञानी ? - मेरे मन में यह संदेह उत्पन्न हो गया है। यदि मुझपर आपकी दया हो तो इसे दूर करने की कृपा करें।

कपिल उवाच ।

इमं प्रश्नं महाराज पुरा पृष्टो बृहस्पतिः ।

रैभ्येण ब्रह्मपुत्रेण राज्ञा च वसुना पुरा ।

वसुरासीन्नृपश्रेष्ठो विद्वान् दानपतिः पुरा ।। ५.५ ।।

चाक्षुषस्य मनोः काले ब्रह्मणोऽन्वयवर्द्धनः ।

वसुश्च ब्रह्मणः सद्म गतवांस्तद्दिदृक्षया ।। ५.६ ।।

पथि चैत्ररथं दृष्ट्वा विद्याधरवरं नृप ।

कपिलजी ने कहा- महाराज ! प्राचीन काल की बात है, यही प्रश्न ब्रह्माजी के पुत्र रैभ्य तथा राजा वसु ने बृहस्पति से पूछा था । पूर्वकाल में चाक्षुष मन्वन्तर में एक अत्यन्त प्रसिद्ध राजा थे, जिनका नाम था वसु । वे बड़े विद्वान् और विख्यात दानी थे । ब्रह्माजी के वंश में उनका जन्म हुआ था । राजन्! वे महाराज वसु ब्रह्माजी का दर्शन करने के विचार से ब्रह्मलोक को चल पड़े। मार्ग में ही चित्ररथ नामक विद्याधर से उनकी भेंट हो गयी।

अपृच्छच्च वसुः प्रीत्या ब्रह्मणोऽवसरं प्रभो ।। ५.७ ।।

राजा ने प्रेमपूर्वक चित्ररथ से पूछा - 'प्रभो ! ब्रह्माजी का दर्शन किस समय हो सकता है ?'

सोऽब्रवीद् देवसमितिर्वर्तते ब्रह्मणो गृहे ।

एवं श्रुत्वा वसुस्तस्थौ द्वारि ब्रह्मौकसस्तदा ।

तावत् तत्रैव रैभ्यस्तु आजगाम महातपाः ।। ५.८ ।।

स राजा प्रीतमनसा वसुः संपूर्णमानसः ।

उवाच पूजयित्वाग्रे क्व प्रयातोऽसि वै मुने ।। ५.९ ।।

चित्ररथ ने कहा- 'ब्रह्माजी के भवन में इस समय देवताओं की सभा हो रही है।' ऐसा सुनकर वे नरेश ब्रह्मभवन के द्वार पर ठहर गये। इतने में महान् तपस्वी रैभ्य भी वहीं आ गये । उनको देखकर राजा वसु के मन में बड़ी प्रसन्नता हुई। उनका रोम-रोम आनन्द से खिल उठा। तदनन्तर रैभ्य मुनि की पूजा करके राजा ने उनसे पूछा - 'मुने ! आप कहाँ चल पड़े ?'

रैभ्य उवाच ।

अहं बृहस्पतेः पार्श्वे आगतोऽस्मि महानृप ।

किञ्चित्कार्यान्तरं प्रष्टुमहं देवपुरोहितम् ।। ५.१० ।।

एवं वदति रैभ्ये तु ब्रह्मणस्तन्महत्सदः ।

उत्तस्थौ स्वानि धिष्ण्यानि गता देवगणाः प्रभो ।। ५.११ ।।

तावद् बृहस्पतिस्तत्र रैभ्येण सह संविदम् ।

कृत्वा स्वधिष्ण्यमगमद् वसुना च सुपूजितः ।। ५.१२ ।।

रैभ्य आङ्गिरसो राजा वसुश्चोपविवेश ह ।

उपविष्टेषु राजेन्द्र तेषु तेष्वपि सोऽब्रवीत् ।। ५.१३ ।।

बृहस्पतिर्देवगुरू रैभ्यं वचनमन्तिके ।

किं करोमि महाभाग वेदवेदाङ्गपारग ।। ५.१४ ।।

रैभ्य मुनि बोले- 'महाराज ! मैं देवगुरु बृहस्पति के पास से आ रहा हूँ। किसी कार्य के विषय में पूछने के लिये मैं उनके पास चला गया था।' रैभ्य मुनि इस प्रकार बोल ही रहे थे कि इतने में ब्रह्माजी की वह विशाल सभा विसर्जित हो गयी। सभी देवता अपने-अपने स्थान को चले गये । अतः अब बृहस्पतिजी भी वहीं आ गये । राजा वसु ने उनका स्वागत-सत्कार किया। तत्पश्चात् तीनों ही एक साथ बृहस्पति के भवन पर गये । राजेन्द्र ! वहाँ रैभ्य, बृहस्पति एवं राजा वसु - तीनों बैठ गये। सबके बैठ जाने पर देवताओं के गुरु बृहस्पति ने रैभ्य मुनि से कहा - 'महाभाग ! तुम्हें तो स्वयं वेद एवं वेदाङ्गों का पूर्ण ज्ञान है । कहो, तुम्हारा मैं कौन-सा कार्य करूँ ?'

रैभ्य उवाच ।

बृहस्पते कर्मणा किं प्राप्यते ज्ञानिनाऽथवा ।

मोक्ष एतन्ममाचक्ष्व पृच्छतः संशयं प्रभो ।। ५.१५ ।।

रैभ्य मुनि बोले- बृहस्पतिजी ! कर्मशील और ज्ञानसम्पन्न इन दोनों में कौन मोक्ष पाने का अधिकारी है ? इस विषय में मुझे संदेह उत्पन्न हो गया है। प्रभो! आप इसका निराकरण करने की कृपा करें।

बृहस्पतिरुवाच ।

यत्किंचित् कुरुते कर्म पुरुषः साध्वसाधु वा ।

सर्वं नारायणे न्यस्य कुर्वन् नैव च लिप्यते ।। ५.१६ ।।

श्रूयते च द्विजश्रेष्ठ संवादो विप्रलुब्धयोः ।

आत्रेयो ब्राह्मणः कश्चिद् वेदाभ्यासरतो मुनिः ।। ५.१७ ।।

वसत्यविरतं प्रातःस्नायी त्रिषवणे रतः ।

नाम्ना संयमनः पूर्वमेकस्मिन् दिवसे नदीम् ।

धर्मारण्ये गतः स्नातुं धन्यां भागीरथीं शुभाम् ।। ५.१८ ।।

तत्रासीनं महायूथं हरिणानां विचक्षणः ।

लुब्धो निष्ठुरको नाम धनुःपाणिः कृतान्तवत् ।

आययौ तं जिघांसुः स धनुष्यायोज्य सायकम् ।। ५.१९ ।।

ततः संयमनो विप्रो दृष्ट्वा तं मृगयारतम् ।

वारयामास मा भद्र जीवघातमिमं कुरु ।। ५.२० ।।

एतच्छ्रुत्वा वचो व्याधः स्मितपूर्वमिदं वचः ।

उवाच नाहं हिंसामि पृथग्जीवं द्विजोत्तम ।। ५.२१ ।।

परमात्मा त्वयं भूतैः क्रीडते भगवान् स्वयम् ।

कृता मृदा बलीवर्द्दास्तद्वदेतन्न संशयः ।। ५.२२ ।।

बृहस्पतिजी ने कहा- मुने! पुरुष शुभ या अशुभ जो कुछ भी कर्म करे, वह सब का - सब भगवान् नारायण को समर्पण कर देने से कर्मफलों से लिप्त नहीं हो सकता । द्विजवर ! इस विषय में एक ब्राह्मण और व्याध का संवाद सुना जाता है । अत्रि के वंश में उत्पन्न एक ब्राह्मण थे। उनकी वेदाभ्यास में बड़ी रुचि थी। वे प्रातः, मध्याह्न तथा सायं - त्रिकाल स्नान करते हुए तपस्या करते थे । संयमन नाम से उनकी प्रसिद्धि थी। एक दिन की बात है - वे ब्राह्मण धर्मारण्यक्षेत्र में परम पुण्यमयी गङ्गानदी के तटपर स्नान करने के उद्देश्य से गये । वहाँ मुनि ने निष्ठुरक नाम के व्याध को देखकर उसे मना करते हुए कहा - ' भद्र! तुम निन्द्य कर्म मत करो।' तब मुनि पर दृष्टि डालकर वह व्याध मुस्कुराते हुए बोला- 'द्विजवर! सभी जीवधारियों में आत्मारूप से स्थित होकर स्वयं भगवान् ही इन जीवों के वेश में क्रीडा कर रहे हैं। जैसे माया जाननेवाला व्यक्ति मन्त्रों का प्रयोग करके माया फैला देता है, ठीक वैसे ही यह प्रभु की माया है, इसमें कोई संदेह नहीं करना चाहिये।

अहे भावः सदा ब्रह्मन्नविद्येयं मुमुक्षुणाम् ।

यात्राप्राणरतं सर्वं जगदेतद् विचेष्टितम् ।

तत्राहमिति यः शब्दः स साधुत्वं न गच्छति ।। ५.२३ ।।

इत्याकर्ण्य स विप्रेन्द्रो द्विजः संयमनस्तदा ।

विस्मयेनाब्रवीद् वाक्यं लुब्धं निष्ठुरकं द्विजः ।। ५.२४ ।।

किमेतदुच्यते भद्र प्रत्यक्षं हेतुमद्वचः ।

ततः श्रुत्वा मुनेर्विप्रं लुब्धकः प्राह धर्मवित् ।

कुत्वा लोहमयं जालं तस्याधो ज्वलनं ददौ ।। ५.२५ ।।

दत्त्वा वह्निं द्विजं प्राह ज्वाल्यतां काष्ठसचयः ।

विप्रवर! मोक्ष की इच्छा करनेवाले पुरुषों को चाहिये कि वे कभी भी अपने मन में अहंभाव को न टिकने दें। यह सारा संसार अपनी जीवनयात्रा के प्रयत्न में संलग्न रहता है। हाँ, इस कार्य के विषय में 'अहम्' अर्थात् 'मैं कर्ता हूँ' - इस भाव का होना उचित नहीं है। जब विप्रवर संयमन ने निष्ठुरक व्याध की बात सुनी तो वे अत्यन्त आश्चर्ययुक्त होकर उसके प्रति यह वचन बोले- 'भद्र ! तुम ऐसी युक्तिसंगत बात कैसे कह रहे हो ?' ब्राह्मण की बात सुनकर धर्म के मर्मज्ञ उस व्याध ने पुनः अपनी बात प्रारम्भ की। उसने सर्वप्रथम लोहे का एक जाल बनाया। उसे फैलाकर उसके नीचे सूखी लकड़ियाँ डाल दीं। तदनन्तर ब्राह्मण के हाथ में अग्नि देकर उसने कहा- 'आर्य! इस लकड़ी के ढेर में आग लगा दीजिये ।'

ततो विप्रो मुखेनाग्निं प्रज्वाल्य विरराम ह ।। ५.२६ ।।

ज्वलिते तु पुनर्वह्नौ तं जालं लोहसंभवम् ।

पृथक्पृथक् सहस्त्राणि निन्येऽन्तर्जालकैर्द्विज ।

एकस्थानगतस्यापि वह्नेरायसजालकैः ।। ५.२७ ।।

ततो लुब्धोऽब्रवीद्विप्रमेकां ज्वालां महामुने ।

गृहाण येन शेषाणां करिष्यामीह नाशनम् ।। ५.२८ ।।

तत्पश्चात् ब्राह्मण ने मुख से फूँककर अग्नि प्रज्वलित कर दी और शान्त होकर बैठ गये । जब आग धधकने लगी, तो वह लोहे का जाल भी गरम हो उठा। साथ ही उसमें जो गाय की आँख के समान छिद्र थे, उनमें से निकलती हुई ज्वाला इस प्रकार शोभा पाने लगी, मानो हंस के बच्चे श्रेणीबद्ध होकर निकल रहे हों। उस जलती हुई अग्नि से हजारों ज्वालाएँ अलग-अलग फूट पड़ीं। आग के एक जगह रहने पर भी उस लौहमय जाल के छिद्रों से ऐसा दृश्य प्रतीत होने लगा । तब व्याध ने उन ब्राह्मण से कहा- 'मुनिवर ! आप इनमें से कोई भी एक ज्वाला उठा लें, जिससे मैं शेष ज्वालाओं को बुझाकर शान्त कर दूँ ।'

एवमुक्त्वा हुताशे तु तोयपूर्णं घटं द्रुतम् ।

चिक्षेप सहसा वह्निः प्रशशामाशु पूर्ववत् ।। ५.२९ ।।

ततोऽब्रवील्लुब्धकस्तु ब्राह्मणं तं तपोधनम् ।

भगवन् या त्वया ज्वाला गृहोतासीद्धुताशनात् ।

प्रयच्छ येन मार्गाणि मांसान्यानाय्य भक्षये ।। ५.३० ।।

एवमुक्तस्तदा विप्रो यावदायसजालकम् ।

पश्यत्येव न तत्राग्निर्मूलनाशे गतः क्षयम् ।। ५.३१ ।।

ततो विलक्षभावेन ब्राह्मणः शंसितव्रतः ।

तूष्णींभूतस्थितस्तावल्लुब्धको वाक्यमब्रवीत् ।। ५.३२ ।।

एतस्मिञ्ज्वलितो वह्निर्बहुशाखश्च सत्तम ।

मूलनाशे भवेन्नाशस्तद्वदेतदपि द्विज ।। ५.३३ ।।

इस प्रकार कहकर उस व्याध ने जलती हुई आग पर जल से भरा एक घड़ा तुरंत फेंका। फिर तो वह आग एकाएक शान्त हो गयी। सारा दृश्य पूर्ववत् हो गया। अब व्याध ने तपस्वी संयमन से कहा- 'भगवन्! आपने जो जलती आग ले रखी है, वह उसी अग्निपुञ्ज से प्राप्त हुई है। उसे मुझे दे दें, जिसके सहारे मैं अपनी जीवनयात्रा सम्पन्न कर सकूँ।' व्याध के इस प्रकार कहने पर जब ब्राह्मण ने लोहे के जाल की ओर दृष्टि डाली तो वहाँ अग्नि थी ही नहीं। वह तो पुञ्जीभूत अग्नि के समाप्त होते ही शान्त हो गयी थी। तब कठोर व्रत का पालन करनेवाले संयमन की आँखें मुँद गयीं और वे मौन होकर बैठ गये। ऐसी स्थिति में व्याध ने उनसे कहा- 'विप्रवर! अभी थोड़ी देर पहले आग धधक रही थी, ज्वालाओं का ओर-छोर नहीं था; किंतु मूल के शान्त होते ही सब की सब ज्वालाएँ शान्त हो गयीं। ठीक यही बात इस संसार की भी है। '

आत्मा स प्रकृतिस्थश्च भूतानां संश्रयो भवेत् ।

भूय एषा जगत्सृष्टिस्तत्रैव जगतो भवेत् ।। ५.३४ ।।

'परमात्मा ही प्रकृति का संयोग प्राप्त करके समस्त भूत-प्राणियों के आश्रयरूप में विराजमान होते हैं। यह जगत् तो प्रकृति में विक्षोभ- विकार उत्पन्न होने से प्रादुर्भूत होता है, अतएव संसार की यही स्थिति है । '

पिण्डग्रहणधर्मेण यदस्य विहितं व्रतम् ।

तत्तदात्मनि संयोज्य कुर्वाणो नावसीदति ।। ५.३५ ।।

'यदि जीवात्मा शरीर धारण करने पर अपने स्वाभाविक धर्म का अनुष्ठान करता हुआ हृदय में सदा परमात्मा से संयुक्त रहता है तो वह किसी प्रकार का कर्म करता हुआ भी विषाद को प्राप्त नहीं होता।'

एवमुक्ते तु व्याधेन ब्राह्मणे राजसत्तम ।

पुष्पवृष्टिरथाकाशात् तस्योपरि पपात ह ।। ५.३६ ।।

विमानानि च दिव्यानि कामगानि महान्ति च ।

बहुरत्नानि मुख्यानि ददृशे ब्राह्मणोत्तमः ।। ५.३७ ।।

तेषु निष्ठुरकं लुब्धं सर्वेषु समवस्थितम् ।

ददृशे ब्राह्मणस्तत्र कामरूपिणमुत्तमम् ।। ५.३८ ।।

अद्वैतवासनासिद्धं योगाद् बहुशरीरकम् ।

दृष्ट्वा विप्रो मुदा युक्तः प्रययौ निजमाश्रमम् ।। ५.३९ ।।

एवं ज्ञानवतः कर्म्म कुर्वतोऽपि स्वजातिकम् ।

भवेन्मुक्तिर्द्विजश्रेष्ठ रैभ्य राजन् वसो ध्रुवम् ।। ५.४० ।।

बृहस्पतिजी ने कहा- राजेन्द्र ! निष्ठुरक व्याध और संयमन ब्राह्मण की उपर्युक्त बातें समाप्त होते ही उस व्याध के ऊपर आकाश से पुष्पों की वर्षा होने लगी। साथ ही द्विजश्रेष्ठ संयमन ने देखा कि कामचारी अनेक दिव्य विमान वहाँ पहुँच गये हैं। वे सभी विमान बड़े विशाल एवं भाँति-भाँति के रत्नों से सुसज्जित थे, जो निष्ठुरक को लेने आये थे। तत्पश्चात् विप्रवर संयमन ने उन सभी विमानों में निष्ठुरक व्याध को मनोऽनुकूल उत्तम रूप धारण करके बैठे हुए देखा। क्योंकि निष्ठुरक व्याध अद्वैत ब्रह्म का उपासक था, उसे योग की सिद्धि सुलभ थी, अतएव उसने अपने अनेक शरीर बना लिये। यह दृश्य देखकर संयमन के मन में बड़ी प्रसन्नता हुई और वे अपने स्थान को चले गये। अतः द्विजवर रैभ्य एवं राजा वसु ! अपने वर्णाश्रम धर्म के अनुसार कर्म करनेवाला कोई भी व्यक्ति निश्चय ही ज्ञान प्राप्त करके मुक्ति का अधिकारी हो सकता है।

एवं तौ संशयच्छेदं प्राप्तौ रैभ्यवसू नृप ।

बृहस्पतेस्ततो धिष्ण्याज्जग्मतुर्निजमाश्रमम् ।। ५.४१ ।।

तस्मात् त्वमपि राजेन्द्र देवं नारायणं प्रभुम् ।

अभेदेन स्वदेहस्थं पश्यन्नाराधय प्रभुम् ।। ५.४२ ।।

राजन् ! यह प्रसङ्ग सुनकर रैभ्य और वसु के मन में जो संदेह था, वह समाप्त हो गया । अतः वे दोनों बृहस्पतिजी के लोक से अपने-अपने आश्रमों को चले गये। अतएव राजेन्द्र! तुम भी परमप्रभु भगवान् नारायण की उपासना करते हुए अभेदबुद्धि से उन परमप्रभु परमेश्वर की अपने शरीर में स्थिति का अनुभव करते रहो ।

कपिलस्य वचः श्रुत्वा स राजाऽश्वशिरा विभुः ।

ज्येष्ठं पुत्रं समाहूय धन्यं स्थूलशिराह्वयम् ।

अभिषिच्य निजे राज्ये स राजा प्रययौ वनम् ।। ५.४३ ।।

नैमिषाख्यं वरारोहे तत्र यज्ञतनुं गुरुम् ।

तपसाराधयामास यज्ञमूर्तिं स्तवेन च ।। ५.४४ ।।

 (भगवान् वराह कहते हैं— ) पृथ्वि ! मुनिवर कपिलजी की यह बात सुनकर राजा अश्वशिरा ने अपने यशस्वी ज्येष्ठ पुत्र को, जिसका नाम स्थूलशिरा था, बुलाया और उसे अपने राज्य पर अभिषिक्त कर वे स्वयं वन में चले गये। नैमिषारण्य पहुँचकर, वहाँ यज्ञमूर्ति भगवान् नारायण का स्तवन करते हुए उन्होंने उनकी उपासना आरम्भ कर दी ।

धरण्युवाच ।

कथं यज्ञतनोः स्तोत्रं राज्ञा नारायणस्य ह ।

स्तुतिः कृता महाभाग पुनरेतच्च शंस मे ।। ५.४५ ।।

पृथ्वी बोली- परम शक्तिशाली प्रभो ! राजा अश्वशिरा ने यज्ञपुरुष भगवान् नारायण की किस प्रकार स्तुति की और वह स्तोत्र कैसा है ? यह भी मुझे बताने की कृपा करें।

भगवान् वराह कहते हैंराजा अश्वशिरा द्वारा यज्ञमूर्ति भगवान् नारायण की स्तुति इस प्रकार हुई-

नारायण स्तुति

श्रीवराह उवाच ।

नमामि याज्यं त्रिदशाधिपस्य

भवस्य सूर्यस्य हुताशनस्य ।

सोमस्य राज्ञो मरुतामनेक-

रूपं हरिं यज्ञनरं नमस्ये ।। ५.४६ ।।

जो सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि, इन्द्र, रुद्र तथा वायु आदि अनेक रूपों में विराजमान हैं, उन यज्ञमूर्ति भगवान् श्रीहरि को मेरा नमस्कार है।

सुभीमदंष्ट्रं शशिसूर्यनेत्रं

संवत्सरे चायनयुग्मकुक्षम् ।

दर्भाङ्गरोमाणमथेध्मशक्तिं

सनातनं यज्ञनरं नमामि ।। ५.४७ ।।

जिनके अत्यन्त भयंकर दाढ़ हैं, सूर्य एवं चन्द्रमा जिनके नेत्र हैं, संवत्सर और दोनों अयन जिनके उदर हैं, कुशसमूह ही जिनकी रोमावली है, उन प्रचण्ड शक्तिशाली यज्ञस्वरूप सनातन श्रीहरि को मैं प्रणाम करता हूँ।

द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि

व्याप्तं शरीरेण दिशश्च सर्वाः ।

तमीड्यमीशं जगतां प्रसूतिं

जनार्दनं तं प्रणतोऽस्मि नित्यम् ।। ५.४८ ।।

स्वर्ग और पृथ्वी के बीच का सम्पूर्ण आकाश तथा सभी दिशाएँ जिनसे परिपूर्ण हैं, उन परम आराध्य, सर्वशक्तिसम्पन्न एवं सम्पूर्ण जगत्की उत्पत्ति के कारण सनातन श्रीहरि को मैं प्रणाम करता हूँ।

सुरासुराणां च जयाजयाय

युगे युगे यः स्वशरीरमाद्यम् ।

सृजत्यनादिः परमेश्वरो य-

स्तं यज्ञमूर्तिं प्रणतोऽस्मि नाथम् ।। ५.४९ ।।

जिन पर कभी देवताओं और दानवों का प्रभुत्व स्थापित नहीं होता, जो प्रत्येक युग में विजयी होने के लिये प्रकट होते हैं, जिनका कभी जन्म नहीं होता, जो स्वयं जगत्की रचना करते हैं, उन यज्ञरूपधारी परम प्रभु भगवान् नारायण को मैं नित्य नमस्कार करता हूँ।

दधार मायामयमुग्रतेजा

जयाय चक्रं त्वमलांशुशुभ्रम् ।

गदासिशार्ङ्गादिचतुर्भुजोऽयं

तं यज्ञमूर्तिं प्रणतोऽस्मि नित्यम् ।। ५.५० ।।

जो महातेजस्वी श्रीहरि शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने के लिये महामायामय परम प्रकाशयुक्त जाज्वल्यमान सुदर्शनचक्र धारण करते हैं तथा शार्ङ्गधनुष एवं शङ्ख आदि से जिनकी चारों भुजाएँ सुशोभित होती हैं, उन यज्ञरूपधारी भगवान् नारायण को मैं नित्य नमस्कार करता हूँ ।

क्वचित् सहस्त्रं शिरसां दधार

क्वचिन्महापर्वततुल्यकायम् ।

क्वचित् स एव त्रसरेणुतुल्यो

यस्तं सदा यज्ञनरं नमामि ।। ५.५१ ।।

जो कभी हजार सिरवाले, कभी महान् पर्वत के समान शरीर धारण करनेवाले तथा कभी त्रसरेणु के समान सूक्ष्म शरीरवाले बन जाते हैं, उन यज्ञपुरुष भगवान् नारायण को मैं सदा प्रणाम करता हूँ।

चतुर्मुखो यः सृजते समग्रं

रथाङ्गपाणिः प्रतिपालनाय ।

क्षयाय कालानलसन्निभो य-

स्तं यज्ञमूर्तिं प्रणतोऽस्मि नित्यम् ।। ५.५२ ।।

जिनकी चार भुजाएँ हैं, जिनके द्वारा अखिल जगत् की सृष्टि हुई है, अर्जुन की रक्षा के निमित्त जिन्होंने हाथ में रथ का चक्र उठा लिया था तथा जो प्रलय के समय कालाग्नि का रूप धारण कर लेते हैं, उन यज्ञस्वरूप भगवान् नारायण को मैं नित्य नमस्कार करता हूँ ।

संसारचक्रक्रमणक्रियायै

य इज्यते सर्वगतः पुराणः ।

यो योगिभिर्ध्यायते चाप्रमेयस्

तं यज्ञमूर्तिं प्रणतोऽस्मि नित्यम् ।। ५.५३ ।।

संसार के जन्म-मरणरूप चक्र से मुक्ति पाने के लिये जिन सर्वव्यापक पुराणपुरुष परमात्मा की मानव पूजा किया करते हैं तथा जिन अप्रमेय परम प्रभु का दर्शन योगियों को केवल ध्यान द्वारा प्राप्त होता है, उन यज्ञमूर्ति भगवान् नारायण को मैं नित्य नमस्कार करता हूँ ।

सम्यङ्मनस्यर्पितवानहं ते

यदा सुदृश्यं स्वतनौ नु तत्त्वम् ।

न चान्यदस्तोति मतिः स्थिरा मे

यतस्ततो मावतु शुद्धभावम् ।। ५.५४ ।।

भगवन्! जिस समय मुझे अपने शरीर में आपके वास्तविक स्वरूप की झाँकी प्राप्त हुई, उसी क्षण मैंने मन ही मन अपने को आपके अर्पण कर दिया। मेरी बुद्धि में यह बात भलीभाँति प्रतीत होने लगी कि जगत्में आपके अतिरिक्त कुछ है ही नहीं। तभी से मेरी भावना परम पवित्र बन गयी है ।

इतीरितस्तस्य हुताशनार्चिः -

प्रख्यं तु तेजः पुरतो बभूव ।

तस्मिन् स राजा प्रविवेश बुद्धिं

कृत्वा लयं प्राप्तवान् यज्ञमूर्तौ ।। ५.५५ ।।

इस प्रकार राजा अश्वशिरा यज्ञमूर्ति भगवान् नारायण की स्तुति कर रहे थे। इतने में यज्ञवेदी से निकलकर उनके सामने अग्निशिखा के तुल्य एक महान् तेज उपस्थित हो गया। अब इस शरीर का त्याग करने की इच्छा से राजा अश्वशिरा उसी में समा गये और यज्ञपुरुष भगवान् नारायण के उस तेजोमय श्रीविग्रह में लीन हो गये।

।। इति श्रीवराहपुराणे भगवच्छास्त्रे पञ्चमोऽध्यायः ।। ५ ।।

आगे जारी........ श्रीवराहपुराण अध्याय 6

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