वराहपुराण अध्याय ४
वराहपुराण के अध्याय ४ में महामुनि
कपिल और जैगीषव्य द्वारा राजा अश्वशिरा को भगवान् नारायण की सर्वव्यापकता का
प्रत्यक्ष दर्शन कराने का वर्णन है।
वराह पुराण अध्याय ४
Varah Purana chapter 4
श्रीवराहपुराणम् चतुर्थोऽध्यायः
वराहपुराणम् अध्यायः ४
श्रीवराहपुराण चौथा अध्याय
श्रीवराहपुराण चतुर्थ अध्याय
श्रीवराहपुराण
अध्याय ४
धरण्युवाच ।
योऽसौ नारायणो देवः परमात्मा सनातनः
।
भगवन् सर्वभावेन उताहो नेति शंस मे
।। ४.१ ।।
पृथ्वी बोली- भगवन्! जो सनातन,
देवाधिदेव, परमात्मा नारायण हैं, वे भगवान्के परिपूर्णतम स्वरूप हैं या नहीं ? आप
इसे स्पष्ट बताने की कृपा करें।
श्रीवराह उवाच ।
मत्स्यः कूर्मो वराहश्च नरसिंहोऽथ
वामनः ।
रामो रामश्च कृष्णश्च बुद्धः कल्की
च ते दश ।। ४.२ ।।
इत्येताः कथितास्तस्य मूर्त्तयो
भूतधारिणि ।
दर्शनं प्राप्तुमिच्छूनां सोपानानीव
शोभते ।। ४.३ ।।
यत् तस्य परमं रूपं तन्न पश्यन्ति
देवताः ।
अस्मदादिस्वरूपेण पूरयन्ति ततो
धृतिम् ।। ४.४ ।।
ब्रह्मा भगवतो मूर्त्या
रजसस्तमसस्तथा ।
याभिः संस्थाप्यते विश्वं स्थितौ
संचाल्यते च ह ।। ४.५ ।।
भगवान् वराह कहते हैं- समस्त
प्राणियों को आश्रय देनेवाली पृथ्वि ! मत्स्य, कच्छप,
वराह, नरसिंह, वामन,
परशुराम, राम, कृष्ण,
बुद्ध और कल्कि - ये दस उन्हीं सनातन परमात्मा के स्वरूप कहे जाते
हैं। शोभने ! उनके साक्षात् दर्शन पाने की अभिलाषा रखनेवाले पुरुषों के लिये ये
सोपानरूप हैं। उनका जो परिपूर्णतम स्वरूप है, उसे देखने में
तो देवता भी असमर्थ हैं। वे मेरे एवं पूर्वोक्त अन्य अवतारों के रूप का दर्शन करके
ही अपनी मन:कामना पूर्ण करते हैं। ब्रह्मा उन्हीं की रजोगुण और तमोगुण - मिश्रित
मूर्ति हैं, उनके माध्यम से ही श्रीहरि संसार की सृष्टि एवं
संचालन करते हैं।
त्वमेका तस्य देवस्य मूर्तिराद्या
धराधरे ।
द्वितीया सलिलं मूर्तिस्तृतीया
तैजसी स्मृता ।। ४.६ ।।
चतुर्थी वायुमूर्तिः स्यादाकाशाख्या
तु पञ्चमी ।
एतास्तु मूरत्यस्तस्य
क्षेत्रज्ञत्वं हि मद्धियाम् ।
मूर्त्तित्रयं तथा तस्य
इत्येताश्चाष्टमूर्तयः ।। ४.७ ।।
आभिव्यप्तिमिदं सर्वं जगन्नारायणेन
ह ।
इत्येतत् कथितं देवि
किमन्यच्छ्रोतुमिच्छसि ।। ४.८ ।।
धरणि! तुम उन्हीं भगवान् नारायण की
आदि मूर्ति हो, उनकी दूसरी मूर्ति जल और तीसरी
मूर्ति तेज है। इसी प्रकार वायु को चौथी और आकाश को पाँचवीं मूर्ति कहते हैं। ये
सभी उन्हीं परब्रह्म परमात्मा की मूर्तियाँ हैं। इनके अतिरिक्त क्षेत्रज्ञ,
बुद्धि एवं अहंकार – ये उनकी तीन मूर्तियाँ और
हैं। इस प्रकार उनकी आठ मूर्तियाँ हैं । देवि ! यह सारा जगत् भगवान् नारायण से
ओत-प्रोत है। मैंने तुम्हें ये सभी बातें बता दीं। अब तुम दूसरा कौन-सा प्रसङ्ग
सुनना चाहती हो ?
धरण्युवाच ।
नारदेनैवमुक्तस्तु तदा राजा
प्रियव्रतः ।
कृतवान् किं ममाचक्ष्व प्रसादात्
परमेश्वर ।। ४.९ ।।
पृथ्वी बोली- भगवन् ! नारदजी के
द्वारा भगवान् श्रीहरि के परायण होने के लिये कहने पर राजा प्रियव्रत किस कार्य में
प्रवृत्त हुए? मुझे यह बताने की कृपा करें।
श्रीवराह उवाच ।
भवतीं सप्तधा कृत्वा पुत्राणां च
प्रदाय सः ।
प्रियव्रतस्तपस्तेपे
नारदाच्छ्रुतविस्मयः ।। ४.१० ।।
नारायणात्मकं ब्रह्म परं जप्त्वा
स्वयंभुवः ।
ततस्तुष्टमनाः पारं परं
निर्वाणमाप्तवान् ।। ४.११ ।।
श्रृणु चान्यद् वरारोहे यद् वृत्तं
परमेष्ठिनः ।
आराधनाय यततः पुराकाले नृपस्य ह ।।
४.१२ ।।
भगवान् वराह कहते हैं - पृथ्वि !
मुनिवर नारद की विस्मयजनक बात सुनकर राजा प्रियव्रत को महान् आश्चर्य हुआ।
उन्होंने अपने राज्य को सात भागों में बाँटकर पुत्रों को सौंप दिया और स्वयं
तपस्या में संलग्न हो गये। परब्रह्म परमात्मा के 'नारायण' नाम का जप करते-करते उनकी मनोवृत्ति भगवान्
नारायण में स्थिर हो गयी; अतः उन्हें देहत्याग के पश्चात्
भगवान् के परमधाम की प्राप्ति हुई। सुन्दरि ! अब ब्रह्माजी से सम्बन्ध रखनेवाला
एक दूसरा प्रसङ्ग है, उसे सुनो।
आसीदश्वशिरा नाम राजा परमधार्मिकः ।
सोऽश्वमेधेन यज्ञेन यष्ट्वा
सुबहुदक्षिणः ।। ४.१३ ।।
स्नातश्चावभृथे सोऽथ ब्राह्मणैः
परिवारितः ।
यावदास्ते स राजर्षिस्तावद् योगिवरो
मुनिः ।
आययौ कपिलः श्रीमान् जैगीषव्यश्च
योगिराट् ।। ४.१४ ।।
ततस्त्वरितमुत्थाय स राजा
स्वागतक्रियाम् ।
चकार परया युक्तः स मुदा राजसत्तमः
।। ४.१५ ।।
तावर्च्चितावासनगौ दृष्ट्वा राजा
महाबलः ।
पप्रच्छ तौ तिग्मधियौ योगज्ञौ
स्वेच्छयागतौ ।। ४.१६ ।।
भवन्तौ संशयं विप्रौ पृच्छामि
पुरुषोत्तमौ ।
कथमाराधयेद् देवं हरिं नारायणं परम्
।। ४.१७ ।।
प्राचीन काल में अश्वशिरा नाम के एक
परम धार्मिक राजा थे। उन्होंने अश्वमेध यज्ञ के द्वारा भगवान् नारायण का यजन किया
था,
जिसमें उन्होंने बहुत बड़ी दक्षिणा बाँटी थी । यज्ञ की समाप्ति पर
उन राजा ने अवभृथ स्नान किया । इसके पश्चात् वे ब्राह्मणों से घिरे हुए बैठे थे,
उसी समय भगवान् कपिलदेव वहाँ पधारे। उनके साथ योगिराज जैगीषव्य भी
थे। अब महाराज अश्वशिरा बड़ी शीघ्रता से उठे, अत्यन्त हर्ष के
साथ उनका सत्कार किया और तत्काल दोनों मुनियों के विधिवत् स्वागत की व्यवस्था की।
जब दोनों मुनिश्रेष्ठ भलीभाँति पूजित होकर आसन पर विराजमान हो गये, तब महापराक्रमी राजा अश्वशिरा ने उनकी ओर देखकर पूछा- 'आप दोनों अत्यन्त तीक्ष्ण बुद्धिवाले और योग के आचार्य हैं। आपने
कृपापूर्वक स्वयं अपनी इच्छा से यहाँ आकर मुझे दर्शन दिया है। आप मनुष्यों में
श्रेष्ठ ब्राह्मणदेवता हैं। आप दोनों मेरे इस संशय का समाधान करें कि भगवान्
नारायण की आराधना मैं कैसे करूँ ?"
विप्रावूचतुः ।
क एष प्रोच्यते राजंस्त्वया नारायणो
गुरुः ।
आवां नारायणौ द्वौ तु
त्वत्प्रत्यक्षगतौ नृप ।। ४.१८ ।।
दोनों ऋषियों ने कहा- राजन् ! तुम नारायण
किसे कहते हो? महाराज! हम दो नारायण तो
तुम्हारे सामने प्रत्यक्षरूप से उपस्थित हैं ।
अश्वशिरा उवाच ।
भवन्तौ ब्राह्मणौ सिद्धौ तपसा
दग्धकिल्बिषौ ।
कथं नारायणावावामिति वाक्यमथेरितम्
।। ४.१९ ।।
शङ्खचक्रगदापाणिः पीतवासा जनार्दनः
।
गरुडस्थो महादेवः कस्तस्य सदृशो
भुवि ।। ४.२० ।।
राजा अश्वशिरा बोले- आप दोनों
महानुभाव ब्राह्मण हैं, आपको सिद्धि सुलभ
हो चुकी है। तपस्या से आपके पाप भी नष्ट हो गये - यह मैं मानता हूँ, किंतु 'हम दोनों नारायण हैं, ' ऐसा आपलोग कैसे कह रहे हैं? भगवान् नारायण तो
देवताओं के भी देवता हैं । शङ्ख, चक्र और गदा से उनकी भुजाएँ
अलङ्कृत रहती हैं । वे पीताम्बर धारण करते हैं। गरुड़ उनका वाहन है। भला, संसार में उनकी समानता कौन कर सकता है ?
तस्य राज्ञो वचः श्रुत्वा तौ विप्रौ
संशितव्रतौ ।
जहसतुः पश्य विष्णुं राजन्निति
जजल्पतुः ।। ४.२१ ।।
एवमुक्त्वा स कपिलः स्वयं
विष्णुर्बभूव ह ।
जैगीषव्यश्च गरुडस्तत्क्षणात्
समजायत ।। ४.२२ ।।
ततो हाहाकृतं त्वासीत् तत्क्षणाद्
राजमण्डलम् ।
दृष्ट्वा नारायणं देवं गरुडस्थं
सनातनम् ।। ४.२३ ।।
कृताञ्जलिपुटो भूत्वा ततो राजा
महायशाः ।
उवाच शाम्यतां विप्रौ नायं
विष्णुरथेदृशः ।। ४.२४ ।।
यस्य ब्रह्मा समुत्पन्नो
नाभिपङ्कजमध्यतः ।
तस्माच्च ब्रह्मणो रुद्रः स विष्णुः
परमेश्वरः ।। ४.२५ ।।
(भगवान् वराह कहते हैं -) कपिल और
जैगीषव्य- ये दोनों ऋषि कठोर व्रत का पालन करनेवाले थे। वे राजा अश्वशिरा की बात
सुनकर हँस पड़े और बोले— 'राजन् ! तुम विष्णु का दर्शन करो।'
इस प्रकार कहकर कपिलजी उसी क्षण स्वयं विष्णु बन गये और जैगीषव्य ने
गरुड़ का रूप धारण कर लिया । अब तो उस समय राजाओं के समूह में हाहाकार मच गया।
गरुड़वाहन सनातन भगवान् नारायण को देखकर महान् यशस्वी राजा अश्वशिरा हाथ जोड़कर
कहने लगे- 'विप्रवरो ! आप दोनों शान्त हों। भगवान् विष्णु
ऐसे नहीं हैं। जिनकी नाभि से उत्पन्न कमल पर प्रकट होकर ब्रह्मा अपने रूप से
विराजते हैं, वह रूप परमप्रभु भगवान् विष्णु का है।'
इति राजवचः श्रुत्वा तदा तौ
मुनिपुंगवौ ।
चक्रतुः परमां मायां योगमायां
विशेषतः ।। ४.२६ ।।
कपिलः पद्मनाभस्तु जैगीषव्यः
प्रजापतिः ।
कमलस्थो बभौ ह्रस्वस्तस्य चाङ्के
कुमारकः ।। ४.२७ ।।
ददर्श राजा रक्ताक्षं
कालानलसमद्युतिम् ।
कपिल एवं जैगीषव्य - ये दोनों
मुनियों में श्रेष्ठ थे। राजा अश्वशिरा की उक्त बात सुनकर उन्होंने योगमाया का
विस्तार कर दिया। अब कपिलदेव पद्मनाभ विष्णु के तथा जैगीषव्य प्रजापति ब्रह्मा के
रूप में परिणत हो गये। कमल के ऊपर ब्रह्माजी सुशोभित होने लगे और उनके श्रीविग्रह से
कालाग्नि के तुल्य लाल नेत्रोंवाले परम तेजस्वी रुद्र का प्राकट्य हो गया।
नेत्थं भवति विश्वेशो मायैषा
योगिनां सदा ।
सर्वव्यापी हरिः श्रीमानिति राजा
जगाद ह ।। ४.२८ ।।
ततो वाक्यावसाने तु तस्य राज्ञो हि
संसदि ।
मशका मत्कुणा यूका भ्रमराः
पक्षिणोरगाः ।। ४.२९ ।।
अश्वा गावो द्विपाः सिंहा व्याघ्रा
गोमायवो मृगाः ।
अन्येऽपि पशवः कीटा
ग्राम्यारण्याश्च सर्वशः ।
दृश्यन्ते राजभवने कोटिशो भूतधारिणि
।। ४.३० ।।
तं दृष्ट्वा भूतसंघातं राजा
विस्मितमानसः ।
यावच्चिन्तयते किं
स्यादेतदित्यवगम्य च ।
जैगीषव्यस्य माहात्म्यं कपिलस्य च
धीमतः ।। ४.३१ ।।
राजा ने सोचा- '
हो - न हो यह इन योगीश्वरों की ही माया है; क्योंकि
जगदीश्वर इस प्रकार सहज ही दृष्टिगोचर नहीं हो सकते, वे
सर्वशक्तिसम्पन्न श्रीहरि तो सदा सर्वत्र विराजते हैं। भूत-प्राणियों को धारण
करनेवाली पृथ्वि ! राजा अश्वशिरा अपनी सभा में इस प्रकार कह ही रहे थे कि उनकी बात
समाप्त होते-न-होते खटमल, मच्छर, जूँ,
भौरे, पक्षी, सर्प,
घोड़े, गाय, हाथी,
बाघ, सिंह, शृगाल,
हरिण एवं इनके अतिरिक्त और भी करोड़ों ग्राम्य एवं वन्य पशु राजभवन में
चारों ओर दिखायी पड़ने लगे। उस समय झुंड -के- झुंड प्राणियों के समूह को देखकर
राजा के आश्चर्य की सीमा न रही। राजा अश्वशिरा यह विचार करने लगे कि अब मुझे क्या
करना चाहिये। इतने में ही सारी बात उनकी समझ में आ गयी। अहो ! यह तो परम
बुद्धिमान् कपिल और जैगीषव्य मुनि का ही माहात्म्य है।
कृताञ्जलिपुटो भूत्वा स
राजाऽश्वशिरास्तदा ।
पप्रच्छ तावृषी भक्त्या किमिदं
द्विजसत्तमौ ।। ४.३२ ।।
फिर तो राजा अश्वशिरा ने हाथ जोड़कर
उन ऋषियों से भक्तिपूर्वक पूछा - 'विप्रवरो
! यह क्या प्रपञ्च है ? '
द्विजावूचतुः ।
आवां पृष्टौ त्वया राजन् कथं
विष्णुरिहेज्यते ।
प्राप्यते वा महाराज तेनेदं दर्शितं
तव ।। ४.३३ ।।
सर्वज्ञस्य गुणा ह्येते ये राजंस्तव
दर्शिताः ।
स च नारायणो देवः सर्वज्ञः
कामरूपवान् ।। ४.३४ ।।
सौम्यस्तु संस्थितः क्वापि
प्राप्यते मनुजैः किल ।
आराधनेन चैतस्य वाक्यमर्थवदिष्यते
।। ४.३५ ।।
कपिल और जैगीषव्य ने कहा- राजन् !
हम दोनों से तुम्हारा प्रश्न था कि भगवान् श्रीहरि की आराधना एवं उनको प्राप्त
करने का क्या विधान है ? महाराज ! इसीलिये
हम लोगों ने तुमको यह दृश्य दिखलाया है। राजन् ! सर्वज्ञ भगवान् श्रीहरि की यह
त्रिगुणात्मिका सृष्टि है, जो तुम्हें दृष्टिगोचर हुई है ।
भगवान् नारायण एक ही हैं । वे अपनी इच्छा के अनुसार अनेक रूप धारण करते रहते हैं।
किसी काल में जब वे अपनी अनन्त तेजोराशि को आत्मसात् करके सौम्यरूप में सुशोभित
होते हैं, तभी मनुष्यों को उनकी झाँकी प्राप्त होती है ।
अतएव उन नारायण की अव्यक्त रूप में आराधना सद्यः फलवती नहीं हो पाती। *
*श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने भी कहा है-
क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्
।
अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं
देहवद्भिरवाप्यते ॥ (१२।५)
उन सच्चिदानन्दघन निराकार
ब्रह्म में आसक्त चित्तवाले पुरुषों के साधन में क्लेश विशेष है; क्योंकि देहाभिमानियों के द्वारा अव्यक्तविषयक गति
दुःखपूर्वक प्राप्त की जाती है।
किन्तु सर्वशरीरस्थः परमात्मा
जगत्पतिः ।
स्वदेहे दृश्यते भक्त्या
नैकस्थानगतस्तु सः ।। ४.३६ ।।
अतोऽर्थं दर्शितं रूपं देवस्य
परमात्मनः ।
आवयोस्तव राजेन्द्र प्रतीतिः स्याद्
यथा तव ।
एवं सर्वगतो विष्णुस्तव देहे
जनेश्वर ।। ४.३७ ।।
मन्त्रिणां भृत्यसङ्घस्य सुराद्या
ये प्रदर्शिताः ।
पशवः कीटसङ्घाश्च तेऽपि विष्णुमया
नृप ।। ४.३८ ।।
भावनां तु दृढां कुर्याद् यथा
सर्वगतो हरिः ।
नान्यत् तत् सदृशं भूतमिति भावेन
सेव्यते ।। ४.३९ ।।
एष ते ज्ञानसद्भावस्तव राजन्
प्रकीर्तितः ।
परिपूर्णेन भावेन स्मरन् नारायणं
हरिम् ।। ४.४० ।।
परिपूर्णेन बावेन स्मर नारायणं
गुरुम् ।
पुष्पोपहारैर्धूपैश्च ब्राह्मणानां
च तर्पणैः ।
ध्यानेन सुस्थितेनाशु प्राप्यते
परमेश्वरः ।। ४.४१ ।।
वे जगत्प्रभु परमात्मा ही सबके शरीर
में विराजमान हैं। भक्ति का उदय होने पर अपने शरीर में ही उन परमात्मा का
साक्षात्कार हो सकता है। वे परमात्मा किसी स्थानविशेष में ही रहते हों,
ऐसी बात नहीं है; वे तो सर्वव्यापक हैं।
महाराज ! इसी निमित्त हम दोनों के प्रभाव से तुम्हारे सामने यह दृश्य उपस्थित हुआ
है। इसका प्रयोजन यह है कि भगवान् की सर्वव्यापकता पर तुम्हारी आस्था दृढ़ हो
जाय। राजन् ! इसी प्रकार तुम्हारे इन मन्त्रियों एवं सेवकों के – सभी के शरीर में
भगवान् श्रीहरि विराजमान हैं। राजन्! हमने जो देवता एवं कीट – पशुओं के समूह तुमको
अभी दिखलाये, वे सब-के-सब विष्णु के ही रूप हैं। केवल अपनी
भावना को दृढ़ करने की आवश्यकता है; क्योंकि भगवान् श्रीहरि
तो सबमें व्याप्त हैं ही। उनके समान दूसरा कोई भी नहीं है, ऐसी
भावना से उन श्रीहरि की सेवा करनी चाहिये। राजन् ! इस प्रकार मैंने सच्चे ज्ञान का
तुम्हारे सामने वर्णन कर दिया। अब तुम अपनी परिपूर्ण भावना से भगवान् नारायण का,
जो सबके परम गुरु हैं, स्मरण करो । धूप-दीप
आदि पूजा की सामग्रियों से ब्राह्मणों को तथा तर्पण द्वारा पितरों को तृप्त करो।
इस प्रकार ध्यान में चित्त को समाहित करने से भगवान् नारायण शीघ्र ही सुलभ हो जाते
हैं ।
।। इति श्रीवराहपुराणे
भगवच्छास्त्रे चतुर्थोऽध्यायः ।। ४ ।।
आगे जारी........ श्रीवराहपुराण अध्याय 5
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