भविष्यपुराण ब्राह्म पर्व अध्याय ४
भविष्यपुराण ब्राह्म पर्व अध्याय ४
में वेदाध्ययन-विधि, ओंकार तथा
गायत्री-महात्म्य, आचार्यादि-लक्षण, ब्रह्मचारि-धर्म-निरूपण,
अभिवादन-विधि, स्नातक की महिमा में
अङ्गिरापुत्र का आख्यान, माता-पिता और गुरु की महिमा का
वर्णन है।
भविष्यपुराण ब्राह्म पर्व अध्याय ४
Bhavishya puran Brahma parva chapter 4
भविष्यपुराणम् पर्व ब्राह्मपर्व अध्यायः ४
भविष्यपुराणम् पर्व १ (ब्राह्मपर्व)
अध्यायः ४
भविष्यपुराण ब्राह्म पर्व चौंथा अध्याय
भविष्यपुराण ब्राह्म पर्व अध्याय ४ भावार्थ
सहित
अथ चतुर्थोऽध्यायः
सुमन्तु मुनि ने कहा –
राजन् ! ब्राह्मण का केशान्त (समावर्तन) – संस्कार
सोलहवें वर्ष में, क्षत्रिय का बाइसवें वर्ष में तथा वैश्य
का पचीसवें वर्ष में करना चाहिये। स्त्रियों के संस्कार अमंत्रक करने चाहिये।
केशान्त-संस्कार होने के अनन्तर चाहे तो गुरु-गृह में रहे अथवा अपने घर में आकर
विवाह कर अग्निहोत्र ग्रहण करे। स्त्रियों के लिए मुख्य संस्कार विवाह है।
राजन् ! यहाँ तक मैंने उपनयन का
विधान बतलाया। अब आगे का कर्म बताते हैं, उसे
आप सुनें। शिष्य का यज्ञोपवीत कर गुरु पहले उसको शौच, आचार,
संध्योपासन, अग्नि-कार्य सिखाये और वेद का
अध्ययन कराये। शिष्य भी आचमन कर उत्तराभिमुख हो ब्रह्माञ्जलि बाँधकर एकाग्र-चित्त
हो प्रसन्न-मन से वेदाध्ययन के लिए बैठे। पढ़ने के आरम्भ तथा अन्त में गुरु के
चरणों की वंदना करे। पढ़ने के समय दोनों हाथों की जो अञ्जलि बाँधी जाती है,
उसे ‘ब्रह्माञ्जलि’ कहा
जाता है। शिष्य गुरु का दाहिना चरण दाहिने हाथ से और बायाँ चरण बायें हाथ से छूकर
उनको प्रणाम करे। वेद के पढने के समय आदि में और अंत में ॐ-कार का उच्चारण न करने
से सब निष्फल हो जाता है पहले का पढ़ा हुआ विस्मृत हो जाता है और आगे का विषय याद
नहीं होता।
पूर्व दिशा में अग्र-भाग वाले कुशा
के आसन पर बैठकर पवित्री धारण करे तथा तीन बार प्राणायाम से पवित्र होकर ॐ-कार का
उच्चारण करे। प्रजापति ने तीनों वेदों के प्रतिनिधि –
भूत अकार, उकार और मकार — इन तीन वर्णों को तीनों वेदों से निकाला है, इनसे
ॐ-कार बनता है। भूर्भुवः स्वः — ये तीनों व्याहृतियाँ और
गायत्री के तीन पाद तीनों वेदों से निकले है। इसलिये जो ब्राह्मण ॐ-कार तथा
व्याहृत्ति-पूर्वक त्रिपदा गायत्री का दोनों संध्याओं में जप करता है, वह वेदपाठ के पुण्य को प्राप्त करता है। और जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अपनी क्रिया से हीन होते हैं,
उनकी साधू पुरुषों में निन्दा होती है तथा परलोक में भी वे कल्याण
के भागी नहीं होते, इसलिए अपने कर्म का त्याग नही करना
चाहिये। प्रणव, तीन व्याहृतियाँ और त्रिपदा गायत्री —
ये सब मिलकर जो मंत्र (गायत्री-मंत्र) होता है, वह ब्रह्मा का मुख है। जो इस गायत्री-मन्त्र का श्रद्धा-भक्ति से तीन वर्ष
तक नित्य नियम से विधि-पूर्वक जप करता है, वह वायु के समान
वेग सम्पन्न होकर आकाश के स्वरुप को धारणकर ब्रह्मतत्त्व को प्राप्त करता है।
एकाक्षर ‘ॐ’ परब्रह्म है, प्राणायाम परम तप है। सावित्री (गायत्री) से बढकर कोई मन्त्र नहीं है और
मौन से सत्य बोलना श्रेष्ठ है। तपस्या, हवन, दान, यज्ञादि क्रियाएँ स्वरूपतः नाशवान हैं, किंतु प्रणव-स्वरुप एकाक्षर ब्रह्म ॐ-कार का कभी नाश नहीं होता।
विधि-यज्ञों (दर्श-पौर्णमास आदि) से जप-यज्ञ (प्रणवादि – जप)
सदा ही श्रेष्ठ है। उपांशु-जप (जिस जप में केवल ओठ और जीभ चलते हैं, शब्द न सुनायी पड़े) लाख गुना और उपांशु-जप से मानस-जप हजार गुना अधिक फल
देने वाला होता है। जो पाक-यज्ञ (पितृकर्म, हवन, बलिवैश्वदेव) विधि-यज्ञ के बराबर हैं, वे सभी
जप-यज्ञ की सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं है। ब्राह्मण को सब सिद्धि जप से प्राप्त
हो जाती है और कुछ करे या न करे, पर ब्राह्मण को गायत्री-जप
अवश्य करना चाहिये।
सूर्योदय से पूर्व जब तारे दिखायी
देते रहें तभी से प्रातः संध्या आरम्भ कर देनी चाहिये और सूर्योदय-पर्यन्त
गायत्री-जप करता रहे। इसी प्रकार सूर्यास्त से पहिले ही सायं-संध्या आरम्भ करे और
तारों के दिखायी देने तक गायत्री-जप करता रहे। प्रातः-संध्या में खड़े होकर जप करने
से रात्रि के पाप नष्ट होते हैं और सायं-संध्या के समय बैठकर गायत्री-जप करने से
दिन के पाप नष्ट होते है। इसलिए दोनों कालों की संध्या अवश्य करनी चाहिये। जो
दोनों संध्याओं को नहीं करता उसे सम्पूर्ण द्वि-जाति के विहित कर्मों से बहिष्कृत
कर देना चाहिये। घर के बाहर एकान्त-स्थान में, अरण्य
या नदी-सरोवर आदि के तट पर गायत्री का जप करने से बहुत लाभ होता है। मन्त्रों के
जप, संध्या के मन्त्र और जो ब्रह्म-यज्ञादि नित्य-कर्म हैं,
इनके मन्त्रों के उच्चारण में अनध्याय का विचार नहीं करना चाहिये
अर्थात् नित्यकर्म में अनध्याय नहीं होता।
यज्ञोपवीत के अनन्तर
समावर्तन-संस्कार तक शिष्य गुरु के घर में रहे। भूमि पर शयन करे,
सब प्रकार से गुरु की सेवा करे और वेदाध्ययन करता रहे। सब कुछ जानते
हुए भी जडवत् रहे। आचार्य का पुत्र, सेवा करने वाला, ज्ञान देने वाला, धार्मिक, पवित्र,
विश्वासी, शक्तिमान्, उदार,
साधुस्वभाव तथा अपनी जाति वाला – ये दस
अध्यापन के योग्य हैं। बिना पूछे किसी से कुछ न कहे, अन्याय
से पूछने वाले को कुछ न बताये। जो अनुचित ढंग से पूछता है और जो अनुचित ढंग से
उत्तर देता है, वे दोनों नरक में जाते है और जगत् में सबके
अप्रिय होते है। जिसको पढ़ाने से धर्म या अर्थ की प्राप्ति न हो और वह कुछ
सेवा-शुश्रूषा भी न करे, ऐसे को कभी न पढाये, क्योंकि ऐसे विद्यार्थी को दी गयी विद्या ऊपर में बीज-वपन के समान निष्फल
होती है। विद्या के अधिष्ठातृ-देवता ने ब्राह्मण से कहा – ‘मैं
तुम्हारी निधि हूँ, मेरी भली-भाँति रक्षा करो, मुझे ब्राह्मणों (अध्यापकों) के गुणों में दोष-बुद्धि रखने वाले को और
द्वेष करने वाले को न देना, इससे मैं बलवती रहूँगी। जो
ब्राह्मण जितेन्द्रिय, पवित्र, ब्रह्मचारी
और प्रमाद से रहित हो उसे मुझे देना।’
जो गुरु की आज्ञा के बिना
वेद-शास्त्र आदि को स्वयं ग्रहण करता है, वह
अति भयंकर रौरव नरक को प्राप्त होता है। जो लौकिक, वैदिक
अथवा आध्यात्मिक ज्ञान दे, उसे सर्वप्रथम प्रणाम करना
चाहिये। जो केवल गायत्री जानता हो, पर शास्त्र की मर्यादा में
रहे वह सबसे उत्तम है, किंतु सभी वेदादि शास्त्रों को जानते
हुए भी मर्यादा में न रहे और भक्ष्याभक्ष्य का कुछ भी विचार न करे तथा सभी वस्तुओं
को बेचे, वह अधम है। गुरु के आगे, शय्या
अथवा आसन पर न बैठे। यदि पहिले से बैठा हो तो गुरु को आते देख नीचे उतर जाय और उनका
अभिवादन करे। वृद्ध-जनों को आते देख छोटों के प्राण उच्छ्वसित हो जाते है, इसलिये नम्रतापूर्वक खड़े होकर उन्हें प्रणाम करने से वे प्राण पुनः अपने
स्थान पर आ जाते है। प्रतिदिन बड़ों की सेवा और उन्हें प्रणाम करने वाले पुरुष के
विद्या, यज्ञ और बल – ये चारों निरन्तर
बढ़ते रहते हैं –
अभिवादनशीलस्य नित्यं
वृद्धेपसेविनः।
चत्वारि सम्यग्वर्धन्ते आयुः
प्रज्ञा यशो बलम् ॥ ( ब्राह्मपर्व ४।५०)
अभिवादन के समय दुसरे की स्त्री को
और जिससे किसी प्रकार का सम्बन्ध न हो उसे भवती (आप),
सुभगे अथवा भगिनी (बहन) कहकर सम्बोधित करे। चाचा, मामा, ससुर, ऋत्विक् और गुरु —
इनको अपना नाम लेते हुए प्रणाम करना चाहिये। मौसी, मामी, सास, बुआ (पिता की बहन)
और गुरु की पत्नी — ये सब मान्य एवं पूज्य हैं। बड़े भाई की
सवर्णा स्त्री (भाभी) का जो नित्य आदर करता है और उसे माता के समान समझता है,
वह विष्णु-लोक को प्राप्त करता है। पिता की बहन, माता की बहन और अपनी बड़ी बहन — ये तीनों माता के
समान ही है। फिर भी अपनी माता – इन सबकी अपेक्षा श्रेष्ठ है।
पुत्र, मित्र और भानजा (बहन का लड़का) इनको अपने समान समझना
चाहिए। धन-सम्पत्ति, बन्धु, अवस्था,
कर्म और विद्या — ये पांचो महत्त्व के कारण
हैं – इनमे उत्तरोत्तर एक से दुसरा बड़ा है अर्थात् विद्या
सर्वश्रेष्ठ है।
वित्तं बन्धुर्वयः: कर्म विद्या
भवति पञ्चमी।
एतानि मान्यस्थानानि गरीयो
यद्यदुत्तरम् ॥ (ब्राह्मपर्व ४।७०)
रथ आदि यान पर चढ़े हुए,
अतिवृद्ध, रोगी, भारयुक्त,
स्त्री, स्नातक (जिसका समावर्तन-संस्कार हो
गया हो), राजा और वर (दूल्हा) यदि सामने से आते हों तो
इन्हें मार्ग पहले देना चाहिये। ये सभी यदि एक साथ आते हो तो स्नातक और राजा मान्य
हैं। इन दोनों में से भी स्नातक विशेष मान्य है।
चक्रिणो दशमीस्थस्य रोगिणो भारिणः
स्त्रियाः ।
स्नातकस्य तु राजश्च पन्था देयो
वरस्य च ॥
एषां समागमे तात पूज्यौ
स्नातकपार्थिवो ।
आभ्यां समागमे राजन् स्नातको
नृपमानभाक् ॥ (ब्राह्मपर्व ४।७२-७३)
जो ब्राह्मण शिष्य का उपनयन कराकर
रहस्य (यज्ञ, विद्या और उपनिषद) तथा कल्प
सहित वेदाध्ययन कराता है, उसे ‘आचार्य’
कहते हैं। जो जीविका के निमित्त वेद का एक भाग अथवा वेदाङ्ग पढाता
है, यह ‘उपाध्याय’ कहलाता है। जो निषेक अर्थात् गर्भाधनादि संस्कारों को रीति से कराता है और
अन्नादि से पोषण करता है, उस ब्राह्मण को ‘गुरु’ कहते हैं। जो अग्निष्टोम, अग्निहोत्र, पाक-यज्ञादि कर्मों का वरण लेकर जिसके
निमित्त करता है, वह उसका ‘ऋत्विक्’
कहलाता है। जो पुरुष वेद-ध्वनि से दोनों कान भर देता है, उसे माता-पिता के समान समझकर उससे कभी द्वेष नही करना चाहिये।
उपाध्याय से दस गुना गौरव आचार्य का
और आचार्य से सौ गुना पिता का तथा पिता से हजार गुना गौरव माता का होता है –
उपाध्यायान्दशाचार्य आचार्याणां शतं
पिता।
सहस्त्रेण पितुर्माता
गौरवेणात्तिरिच्यते ॥ (ब्राह्मपर्व
४।७९)
जन्म देनेवाला और वेद पढ़ने वाला-ये
दोनों पिता हैं, किंतु इनमें भी वेदाध्ययन कराने
वाला श्रेष्ठ है, क्योंकि ब्राह्मण का मुख्य जन्म तो वेद
पढने से ही होता है। इसलिये ‘उपाध्याय’ आदि जितने पूज्य हैं, उनमे सबसे अधिक गौरव महागुरु
का ही होता है।
राजा शतानीक ने पूछा —
हे मुने ! आपने उपाध्याय आदि के लक्षण बताये, अब
महागुरु किसे कहते है ? यह भी बताने की कृपा करें।
सुमन्तु मुनि बोले —
राजन् ! जो ब्राह्मण जयोपजीवी हो अर्थात् अष्टादश-पुराण, रामायण, विष्णुधर्म, शिवधर्म,
महाभारत (भगवान श्रीकृष्ण-द्वैपायन व्यास द्वारा रचित महाभारत जो
पंचम वेद के नाम से भी विख्यात है) तथा श्रौत एवं स्मार्त-धर्म (विद्वान् लोग इन
सभी को ‘जय’ नाम से अभिहित करते है) का
ज्ञाता हो, वह “महागुरु” कहलाता है।
जयोपजीवी यो विप्रः स
महागुरुरुच्यते ।
अष्टादशपुराणानि रामस्य चरितं तथा ॥
विष्णुधर्मादयो धर्माः शिवधर्माश्च
भारत ।
कार्ष्णं वेदं पञ्चमं वेदं तु
यन्महाभारतं स्मृतम् ॥
श्रौता धर्माश्च राजेन्द्र
नारदोक्ता महीपते ।
जयेति नाम एतेषां प्रवदन्ति मनीषिणः
॥ (ब्राह्मपर्व ४।८६-८८)
वह सभी वर्णों के लिये पूज्य है। जो
शास्त्र द्वारा थोड़ा या बहुत उपकार करे, उसको
भी उस उपकार के बदले गुरु मानना चाहिए। अवस्था में चाहे छोटा क्यों न हो, पढ़ाने से वह बालक वृद्ध का भी पिता हो सकता है। राजन् ! इस विषयमें एक
प्राचीन आख्यान सुनो –
पूर्वकाल में अङ्गिरा मुनि के पुत्र
बृहस्पति (बालक होने भी) बड़े वृद्धों को पढ़ाते थे और पढ़ाने के समय ‘हे पुत्रो! पढ़ो’ ऐसा कहते थे। बालक द्वारा ‘पुत्र’ सम्बोधन सुनकर उनको बड़ा क्षोम हुआ और वे
देवताओं नेके पास गये तथा उन्होंने सारा वृत्तान्त बतलाया। तब देवताओं ने कहा –
पितृगणों ! उस बालक ने न्यायोचित बात ही कही हैं, क्योंकि जो अज्ञ हो अर्थात् कुछ न जानता हो वही सच्चे अर्थ में बालक है,
किन्तु जो मन्त्र को देने वाला है (वेदों को पढानेवाला है ),
उपदेशक है, यह युवा आदि होने पर भी पिता होता
है। अवस्था अधिक होने से, केश श्वेत होने से और बहुत वित्त
तथा बन्धु-बान्धवों के होने से कोई बड़ा नही होता, बल्कि इस
विषय मे ऋषियों यह व्यवस्था की है कि जो विद्या में अधिक हो, वही सबसे महान् (वृद्ध) है। ब्राह्मण, क्षत्रिय,
वैश्य और शूद्रों में क्रमशः ज्ञान, बल,
धन तथा जन्म से बड़प्पन होता है। सिर के बाल श्वेत हो जाने से कोई
वृद्ध नहीं होता, यदि कोई युवा भी वेदादि शास्त्रों का
भली-भाँति ज्ञान प्राप्त कर ले तो उसी को वृद्ध (महान्) समझना चाहिये। जैसे काष्ठ
से बना हाथी, चमड़े से मढ़ा मृग किसी काम का नहीं, उसी प्रकार वेद से हीन ब्राह्मण का जन्म निष्फल है। मुर्ख को दिया हुआ दान
जैसे निष्फल होता है, वैसे ही वेद की ऋचाओं को न जानने वाले
ब्राह्मण का जन्म निष्फल होता है। ऐसा ब्राह्मण नाम-मात्र का ब्राह्मण होता है।
वेदों का स्वयं कथन है कि जो हमें पढकर हमारा अनुष्ठान न करे, वह पढ़ने का व्यर्थ क्लेश उठाता है, इसलिए वेद पढकर
वेद में कहे हुए कर्मों का जो अनुष्ठान करता है अर्थात् तदनुकूल आचरण करता है,
उसी का वेद पढ़ना सफल है। जो वेदादि शास्त्रों को जानकर धर्म का
उपदेश करते है, वही उपदेश ठीक है, किंतु
जो मुर्ख वेदादि शास्त्रों को जाने बिना धर्म का उपदेश करते है, वे बड़े पाप के भागी होते है। शौचरहित (अपवित्र), वेद
से रहित तथा नष्ट-व्रत ब्राह्मण को जो अन्न दिया जाता है, वह
अन्न रोदन करता है कि ‘मैंने ऐसा कौन-सा पाप किया था जो ऐसे
मुर्ख ब्राह्मण के हाथ पड़ा। और वही अन्न यदि जयोपजीवी को दिया जाय तो प्रसन्नता से
नाच उठता है और कहता है कि ‘मेरा अहो-भाग्य है, जो मैं ऐसे पात्र के हाथ आया।’ विद्या और तप के
अभ्यास से सम्पन्न ब्राह्मण के घर में आने पर सभी अन्नादि ओषधियाँ अति प्रसन्न
होती है और कहती हैं कि अब हमारी भी सद्गति हो जायगी। व्रत, वेद
और जप से हीन ब्राह्मण को दान नहीं देना चाहिये, क्योंकि
पत्थर की नाव नदी के पार नहीं उतार सकती। इसलिए श्रोत्रिय1 को हव्य-कव्य देने से देवता और पितरों की
तृप्ति होती है। घर के समीप रहने वाले मुर्ख ब्राह्मण से दूर रहने वाले विद्वान्
ब्राह्मण को ही बुलाकर दान देना चाहिये। परंतु घर के समीप रहने वाला ब्राह्मण यदि
गायत्री भी जानता हो तो उसका परित्याग न करे। परित्याग करने से रौरव नरक की
प्राप्ति होती है, क्योंकि ब्राह्मण चाहे निगुर्ण हो या
गुणवान, परंतु यदि वह गायत्री जानता है तो वह परमदेव-स्वरुप
है। जैसे अन्न से रहित ग्राम, जल से रहित कूप केवल नाम-धारक
है, वैसे ही विद्याध्ययन से रहित ब्राह्मण भी केवल नाम-मात्र
का ब्राह्मण है।
प्राणियों के कल्याण के लिये अहिंसा
तथा प्रेम से ही अनुशासन करना श्रेष्ठ है। धर्म की इच्छा करने वाले शासन को सदा
मधुर तथा नम्र वचनों का प्रयोग करना चाहिये। जिसके मन,
वचन, शुद्ध और सत्य है, वह
वेदान्त में कहे गये मोक्ष आदि फलों को प्राप्त करता है। आर्त होने पर भी ऐसा वचन
कभी न कहे जिससे किसी की आत्मा दुःखी हो और सुनने वालों को अच्छा न लगे। दुसरे का
अपकार करने की बुद्धि नहीं करनी चाहिये। पुरुष को जैसा आनन्द मीठी वाणी से मिलता
है, वैसा आनन्द न चन्द्र-किरणों से मिलता है, न चन्दन से, न शीतल छाया से और न शीतल जल से।
न तथा शशी न सलिलं न चन्दनरसो न
शीतलच्छाया ।
प्रह्लादयति च पुरुषं यथा
मधुरभाषिणी वाणी ॥ (ब्राह्मपर्व ४।१२८)
ब्राह्मण को चाहिये कि सम्मान की
इच्छा को भयंकर विष के समान समझकर उससे डरता रहे और अपमान को अमृत के सामान
स्वीकार करे, क्योंकि जिसकी अवमानना होती है,
उसकी कुछ हानि नहीं होती, वह सुखी ही रहता है
और जो अवमानना करता है, वह विनाश को प्राप्त होता है। इसलिये
तपस्या करता हुआ द्विज नित्य वेद का अभ्यास करे, क्योंकि
वेदाभ्यास ही ब्राह्मण का परम तप है।
ब्राह्मण के तीन जन्म होते है –
एक तो माता के गर्भ से, दूसरा यज्ञोपवीत होने
से और तीसरा यज्ञ की दीक्षा लेने से। यज्ञोपवीत के समय गायत्री माता और आचार्य
पिता होता है। वेद की शिक्षा देने से आचार्य को पिता कहते है, क्योंकि यज्ञोपवीत होने के पूर्व किसी भी वैदिक कर्म के करने का अधिकारी
वह नहीं होता। श्राद्ध में पढ़े जानेवाले वेद-मंत्रो को छोडकर (अनुपनीत द्विज)
वेद-मंत्र का उच्चारण न करे, क्योंकि जब तक वेदारम्भ न हो
जाय, तब तक वह शुद्र के समाना माना गया है। यज्ञोपवीत
सम्पन्न हो जाने पर वटु को व्रत का उपदेश ग्रहण करना चाहिये और तभी से विधि-पूर्वक
वेदाध्ययन करना चाहिये। यज्ञोपवित के समय जो-जो मेखला-चर्म, दण्ड
और यज्ञोपवीत तथा वस्त्र जिस-जिसके लिए कहा गया है वह-वह ही धारण करे। अपनी तपस्या
की वृद्धि के लिए ब्रह्मचारी जितेन्द्रिय होकर गुरु के पास रहे और नियमों का पालन
करता रहे। नित्य स्नानकर पवित्र हो देवता, ऋषियों तथा पितरों
का तर्पण करे। पुष्प, फल, जल, समिधा, मृत्तिका, कुशा और अनेक
प्रकार के काष्ठों का संग्रह रखे। मद्य, मांस, गन्ध, पुष्पमाला, अनेक प्रकार
के रस और स्त्रियों का परित्याग करे। प्राणियों की हिंसा, शरीर
में उबटन, अंजन लगाना, जूता और छत्र
धारण करना, गीत सुनना, नाच देखना,
जुआ खेलना, झूठ बोलना, निन्दा
करना, स्त्रियों के समीप बैठना और काम, क्रोध तथा लोभादिके वशीभूत होना -इत्यादि बातें ब्रह्मचारी के लिए निषिद्ध
हैं। उसे संयम-पूर्वक एकाकी रहना चाहिये। वह जल, पुष्प,
गौ का गोबर, मृत्तिका और कुशा तथा
आवश्यकतानुसार भिक्षा नित्य लाये। जो पुरुष अपने कर्मों में तत्पर हों और
वेदादि-शास्त्रों को पढ़े तथा यज्ञादि में श्रद्धावान् हों, ऐसे
गृहस्थों के घर से ही ब्रह्मचारी को भिक्षा ग्रहण करनी चाहिये। गुरु के कुल में और
अपने पारिवारिक बन्धु-बान्धवों के घरों से भिक्षा न माँगे। यदि भिक्षा अन्यत्र न
मिले तो इनके घर से भी भिक्षा ग्रहण करे, किंतु जो महापातकी
हो उनकी भिक्षा न लें। नित्य समिधा लाकर सायंकाल और प्रातःकाल हवन करे। भिक्षा
माँगने के समय वाणी संयमित रखे। ब्रह्मचारी के लिए भिक्षा का अन्न मुख्य है। एक का
अन्न नित्य न ले। भिक्षावृत्ति से रहना उपवास के बराबर माना गया है। यह धर्म केवल
ब्राह्मण के लिए कहा गया है, क्षत्रिय और वैश्य के धर्म में
कुछ भेद है।
ब्रह्मचारी गुरु के सम्मुख हाथ
जोडकर खड़ा रहे, जब गुरु की आज्ञा हो तब बैठे,
परंतु आसन पर न बैठे। गुरु के उठने से पूर्व उठे, सोने के पश्चात् सोये, गुरु के सम्मुख अति नम्रता से
बैठे, परोक्ष में गुरु का नाम उच्चारण न करे, किसी भी बात में गुरु का अनुकरण अर्थात् नकल न करें। गुरु की निंदा न करे
और जहाँ होती हो, आलोचना होती हो वहाँ से उठकर चला जाय अथवा
कान बंद कर लें –
परिवादस्तथा निन्दा गुरोर्यत्र
प्रवर्तते ।
कर्णौ तत्र पिधातव्यौ गन्तव्यं वा
ततोऽन्यतः ॥ (ब्राह्मपर्व ४:१७१)
वाहन पर चढ़ा हुआ गुरु का अभिवादन न
करे,
अर्थात् वाहन से उतरकर प्रणाम करे। गुरु के साथ एक वाहन, शिला, नौकायान आदि पर बैठ सकता है। गुरु के गुरु तथा
श्रेष्ठ सम्बन्धी-जनों एवं गुरुपुत्र के साथ गुरु के समान ही व्यवहार करे। गुरु की
सवर्णा स्त्री को गुरु के समान ही समझे, परंतु गुरुपत्नी के
उबटन लगाना, स्नानादि कराना, चरण दबाना
आदि क्रियाएँ निषिद्ध हैं। माता, बहन या बेटी के साथ एक आसन
पर न बैठे, क्योंकि बलवान् इन्द्रियों का समूह विद्वान् को
भी अपनी ओर खींच लेता है।
मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा न
विविक्तोसनो भवेत् ।
बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि
कर्षति ॥ (ब्राह्मपर्व ४।१८४)
जिस प्रकार भूमि को खोदते-खोदते जल
मिल जाता है, उसी प्रकार सेवा-शुश्रूषा
करते-करते गुरु से विद्या मिल जाती है। मुण्डन कराये हो, जटाधारी
हो अथवा शिखी (बड़ी शिखासे युक्त) हो, चाहे जैसा भी
ब्रह्मचारी हो उसको गाँव में रहते हुए सूर्योदय और सूर्यास्त नहीं होना चाहिये
अर्थात् जल के तट अथवा निर्जन स्थान पर जाकर दोनों संध्याओं में संध्या-वन्दन करना
चाहिये। जिसके सोते-सोते सूर्योदय अथवा सूर्यास्त हो जाय वह महान् पाप का भागी
होता है और बिना प्रायश्चित (कृच्छ्रव्रत) के शुद्ध नही होता।
माता, पिता भाई और आचार्य का विपत्ति में भी अनादर न करें। आचार्य ब्रह्मा की
मूर्ति है, पिता प्रजापति की, माता
पृथ्वी की तथा भाई आत्म-मूर्ति है। इसलिये इनका सदा आदर करना चाहिये। प्राणियों की
उत्पत्ति में तथा पालन-पोषण में माता-पिता को जो क्लेश सहन करना पड़ता है, उस क्लेश से उऋण वे सौ वर्षों में भी सेवा करके नही चूका पाते।
आचार्यो ब्रह्मणो मूर्तिः पिता
मूर्तिः प्रजापतेः ।
माताप्यथादितेर्मूर्तिर्भ्राता
स्यान्मूर्तिरात्मनः ॥
यन्मातापितरौ क्लेशं सहेते सम्भवे
नृणाम् ।
न तस्य निष्कृतिः शक्या कर्तुं
वर्षशतैरपि ॥ (ब्राह्मपर्व ४।१९५-१९६)
इसलिए माता-पिता और गुरु की सेवा
नित्य करनी चाहिये। इन तीनों के संतुष्ट हो जाने से सब प्रकार के तपों का फल
प्राप्त हो जाता है, इनकी शुश्रूषा ही परम
तप कहा गया है। इन तीनों की आज्ञा के बिना किसी अन्य धर्म का आचरण नही करना
चाहिये। ये ही तीनों लोक है, ये ही तीनों आश्रम हैं, ये ही तीनो वेद है और ये ही तीनों अग्रियाँ हैं। माता ‘गार्हपत्य’ नामक अग्नि है, पिता
‘दक्षिणाग्नि’-स्वरुप हैं और गुरु ‘आहवनीय’ अग्नि है। जिस पर ये तीनों प्रसन्न हो जायें,
वह तीनों लोकों पर विजय प्राप्त कर लेता है और दीप्यमान होते हुए
देवलोक में देवताओं की भाँती सुख-भोग करता हैं।
त्रिषु तुष्टेषु चैतेषु
त्रीँल्लोकाञ्जयते गृही ।
दीप्यमानः स्ववपुषा देववद्दिवि
मोदते ॥ (ब्राह्मपर्व ४।२०१)
पिता की भक्ति से इहलोक,
माता की भक्ति से मध्यलोक और गुरु की सेवा से इंद्रलोक प्राप्त होता
है। जो इन तीनों की सेवा करता है, उसके सभी धर्म सफल हो जाते
हैं और जो इनका आदर नहीं करता, उसकी सभी क्रियाएँ निष्फल
होती है। जब तक ये तीनों जीवित रहते है, तब तक इनकी नित्य
सेवा-शुश्रूषा और इनका हित करना चाहिये। इन तीनों की सेवा-शुश्रूषा-रूपी धर्म में
पुरुष का सम्पूर्ण कर्त्तव्य पूरा हो जाता है, यही साक्षात्
धर्म है, अन्य सभी उपधर्म कहे गये है।
उत्तम विद्या अधम पुरुष में हो तो
भी उससे ग्रहण कर लेनी चाहिये। इसी प्रकार चाण्डाल से भी मोक्षधर्म की शिक्षा,
नीच कुल से भी उत्तम स्त्री, विष से भी अमृत,
बालक से भी सुंदर उपदेशात्मक बात, शत्रु से भी
सदाचार और अपवित्र स्थान से भी सुवर्ण ग्रहण कर लेना चाहिये।
श्रद्दधानः शुभां
विद्यामाददीतावरादपि ।
अन्त्यादपि परं स्त्रीरत्नं दुष्कुलादपि
॥
विषादप्यमृतं ग्राह्यं बालादपि
सुभाषितम् ।
अमित्रादपि सद्वृत्तममेध्यादपि
काञ्चनम् ॥ (ब्राह्मपर्व ४।२०७-२०८)
उत्तम स्त्री,
रत्न, विद्या, धर्म,
शौच, सुभाषित तथा अनेक प्रकार के शिल्प जहाँ
से भी प्राप्त हो, ग्रहण कर लेने चाहिये। गुरु के
शरीर-त्यागपर्यंत जो गुरु की सेवा करता है, वह श्रेष्ठ
ब्रह्मलोक को प्राप्त करता हैं। पढ़ने के समय गुरु को कुछ देने की इच्छा न करें,
किंतु पढने के अनन्तर गुरु की आज्ञा पाकर भूमि, सुवर्ण, गौ, घोड़ा, छत्र, उपानह, धान्य, शाक तथा वस्त्र आदि अपनी शक्ति के अनुसार गुरु-दक्षिणा के रूप में देने
चाहिए। जब गुरु का देहान्त हो जाय, तब गुणवान् गुरु-पुत्र,
गुरु की स्त्री और गुरु के भाइयों के साथ गुरु के समान ही व्यवहार
करना चाहिये। इस प्रकार जो अविच्छिन्न-रूपसे ब्रह्मचारी-धर्म का आचरण करता है,
वह ब्रह्मलोक को प्राप्त करता है।
सुमन्तु मुनि पुनः बोले –
हे राजन् ! इस प्रकार मैंने ब्रह्मचारी-धर्म का वर्णन किया।
ब्राह्मण का उपनयन वसन्त में, क्षत्रिय का ग्रीष्म में और
वैश्य का शरद् ऋतु में प्रशस्त माना गया है। अब गृहस्थ-धर्म का वर्णन आगे
सुने।
* धर्मग्रन्थों का ज्ञान
प्राप्त करके प्रवचन द्वारा वास्तविक सत्य को प्रकट करने वाला श्रोत्रिय कहलाता
है। आध्यात्मिक ज्ञान को प्राप्त वह श्रेष्ठ {श्रोत्रिय} ब्राह्मण श्रद्धेय और
पूजा योग्य होता है।
भविष्यपुराण ब्राह्म पर्व अध्याय ४ सम्पूर्ण।
भविष्यपुराण ब्राह्म पर्व चतुर्थोऽध्यायः
प्रणवार्थसावित्रीमाहात्म्योपनयनविधिवर्णनञ्च
सुमन्तुरुवाच
केशान्तः षोडशे वर्षे ब्राह्मणस्य
विधीयते ।
राजन्यबन्धोर्द्वाविंशे वैश्यस्य
त्र्यधिके ततः । । १
अमन्त्रिका सदा कार्या स्त्रीणां
चूडा महीपते ।
संस्कारहेतोः कायस्य यथाकालं
विभागशः । । २
वैवाहिको विधिः स्त्रीणां संस्कारो
नैगमः स्मृतः ।
निवसेद्वा गुरोर्वापि गृहे
वाग्निपरिक्रिया । । ३
एष ते कथितो राजन्नौपनायनिको विधिः
।
द्विजातीनां महाबाहो
उत्पत्तिव्यञ्जकः परः । । ४
कर्मयोगमिदानीं ते कथयामि महाबल ।
उपनीय गुरुः शिष्यं प्रथमं
शौचमादिशेत् । । ५
आचारमग्निकार्यं च सन्ध्योपासनमेव च
।
अध्यापयेत्तु सच्छिष्यान्सदाचान्त
उदङ्मुखः । । ६
ब्रह्माञ्जलिकरो नित्यमध्याप्यो
विजितेन्द्रियः ।
लघुवासास्तथैकाग्रः सुमना
सुप्रतिष्ठितः । । ७
ब्रह्मारम्भेऽवसाने च पादौ पूज्यौ
गुरोः सदा ।
संहत्य हस्तावध्येयं स हि
ब्रह्माञ्जलिः स्मृतः । । ८
व्यत्यस्तपाणिना कार्यमुपसङ्ग्रहणं
गुरोः ।
सव्येन सव्यः स्प्रष्टव्यो दक्षिणेन
तु दक्षिणः । । ९
अध्येष्यमाणं तु
गुरुर्नित्यकालमतन्द्रितः ।
अधीष्व भो इति
ब्रूयाद्विरामोऽस्त्विति वारयेत् । । १०
ब्रह्मणः प्रणवं कुर्यादादावन्ते च
सर्वदा ।
स्रवत्यनोङ्कृतं पूर्वं परस्ताच्च
विशीर्यते । । ११
श्रूयतां चापि राजेन्द्र यथोङ्कारं
द्विजोऽर्हति ।
प्राक्कूलान्पर्युपासीनः
पवित्रैश्चैव पावितः । । १२
प्राणायामैस्त्रिभिः
पूतस्ततस्त्वोङ्कारमर्हति ।
ॐकारलक्षणं चापि शृणुष्व कुरुनन्दन
। । १३
अकारं चाप्युकारं च मकारं च
प्रजापतिः ।
वेदत्रयात्तु निर्गृह्य भूर्भुवः
स्वरितीति च । । १४
त्रिभ्य एव तु वेदेभ्यः
पादंपादमदूदुहत् ।
तदित्यृचोऽस्याः सावित्र्याः
परमेष्ठी प्रजापतिः । । १५
एतदक्षरमेतां च
जपन्व्याहृतिपूर्विकाम् ।
सन्ध्ययोरुभयोर्विप्रो वेद पुण्येन
युज्यते । । १६
सहस्रकृत्वस्त्वभ्यस्य
बहिरेतत्त्रिकं द्विजः ।
महतोऽप्येनसो
मासात्त्वचेवाहिर्विमुच्यते । । १७
एतयर्चा विसंयुक्तः काले च क्रियया
स्वया ।
विप्रक्षत्रियविड्योनिर्गर्हणां
याति साधुषु । । १८
शृणुष्वैकमना राजन्परमं ब्रह्मणो
मुखम् ।
ॐकारपूर्विकास्तिस्रो महाव्याहृतयोऽव्ययाः
। । १९
त्रिपदा चैव सावित्री विज्ञेया
ब्रह्मणो मुखम् ।
योऽधीतेऽहन्यहन्येतां त्रीणि
वर्षाण्यतन्द्रितः । । २०
स ब्रह्म परमभ्येति वायुभूतः
खमूर्तिमान् ।
एकाक्षरं परं ब्रह्म प्राणायामः
परन्तप । । २१
सावित्र्यास्तु परं नास्ति
मौनात्सत्यं विशिष्यते ।
तपः किया होमक्रिया तथा दानक्रिया
नृप । । २२
अक्षयान्ताः सदा राजन्यथाह
भगवान्मनुः ।
अवरं स्वक्षरं ज्ञेयं ब्रह्म चैव
प्रजापतिः । । २३
विधियज्ञात्सदा राजञ्जपयज्ञो
विशिष्यते ।
नानाविधैर्गुणोद्देशैः
सूक्ष्माख्यातैर्नृपोत्तम । । २४
पांशुः स्याल्लक्षगुणः सहस्रो मानसः
स्मृतः ।
ये पाकयज्ञाश्चत्वारो विधियज्ञेन
चान्विताः । । २५
सर्वे ते जपयज्ञस्य कलां नार्हन्ति
षोडशीम् ।
जपादेव तु संसिध्येद्द्ब्राह्मणो
नात्र संशयः । । २६
कुर्यादन्यन्न वा कुर्यान्मैत्रो
ब्राह्मण उच्यते ।
पूर्वां सन्ध्यां
जपंस्तिष्ठेत्सावित्रीमार्कदर्शनात् । । २७
पश्चिमां तु समासीनः
सम्यगृक्षविभावनात् ।
दिनस्यादौ भवेत्पूर्वा शर्वर्यादौ
तथा परा । । २८
सनक्षत्रा परा ज्ञेया अपरा सदिवाकरा
।
जपंस्तिष्ठन्परां सन्ध्यां नैशमेनो
व्यपोहति । । २९
अपरां तु समासीनो मलं हन्ति
दिवाकृतम् ।
नोपतिष्ठति यः पूर्वां नोपास्ते
पश्चिमां नृप । । ३०
स शूद्रवद्बहिष्कार्यः
सर्वस्माद्द्विजकर्मणः ।
अपां समीपे नियतो नैत्यकं
विधिमास्थितः । । ३१
सावित्रीमप्यधीयीत गत्याऽरण्यं
समाहितः ।
वेदोपकरणे राजन्स्वाध्याये चैव
नैत्यके । । ३२
नात्र दोषोस्त्यनध्याये
होममन्त्रेषु वा विभो ।
नैत्यके नास्त्वनध्यायो ब्रह्मसत्रं
हि तत्कृतम् । । ३३
ब्रह्माहुतिहुतं
पुष्यमनध्यायवषट्कृतम् ।
ऋगेकां यस्त्वधीयीत विधिना नियतो
द्विजः । । ३४
तस्य नित्यं क्षरत्येषा पयो मेध्यं
घृतं मधु ।
अग्निशुश्रूषणं भैक्षमधः शय्यां
गुरोर्हितम् । । ३५
आसमावर्तनात्कुर्यात्कृतोपनयनो
द्विजः ।
आचार्यपुत्रशुश्रूषां ज्ञानदो
धार्मिकः शुचिः । । ३६
आप्तः शक्तोन्नदः साधुः
स्वाध्याप्या दश धर्मतः ।
नापृष्टः कस्यचिद्ब्रूयान्न
चान्यायेन पृच्छतः । । ३७
जानन्नपि हि मेधावी जडवल्लोक आचरेत्
।
अधर्मेण च यः प्राह यश्चाधर्मेण
पृच्छति । । ३८
तयोरन्यतरः प्रैति विद्वेषं वा
निगच्छति ।
धर्मार्थौ यत्र न स्यातां शुश्रूषा
चापि तद्विधा । ।
न तत्र विद्या वप्तव्या शुभं
बीजमिवोषरे । । ३९
विद्ययैव समं कामं मर्तव्यं
ब्रह्मवादिना ।
आपद्यपि हि घोरायां न त्वेनामीरिणे
वपेत् ।। ४ ०
विद्या ब्राह्मणमित्याह
शेवधिस्तेऽस्मि रक्ष माम् ।
असूयकाय मा प्रादास्तथा स्यां
वीर्यवत्तमा । ।४ १
शेवं सुखमुशन्तीह केचिज्ज्ञानं
प्रचक्षते ।
तौ धारयति वै यस्माच्छेवधिस्तेन
सोच्यते । ।४२
यमेव तु शुचिं विद्यान्नियतं
ब्रह्मचारिणम् ।
तस्मै मां ब्रूहि विप्राय
निधिपायाप्रमादिने । ।४ ३
ब्रह्म यस्त्वननुज्ञातमधीयानादवाप्नुयात्
। । ४४
लौकिकं वैदिकं वापि तथाध्यात्मिकमेव
च ।
स याति नरकं घोरं रौरवं भीमदर्शनम्
। । ४५
अणुमात्रात्मकं देहं षोडशार्धमिति
स्मृतम् ।
आददीत यतो ज्ञानं तं
पूर्वमभिवादयेत् । । ४६
सावित्रीसारमात्रोऽपि वरो विप्रः
सुयन्त्रितः ।
नायन्त्रितस्त्रिवेदोऽपि सर्वाशी
सर्वविक्रयी । । ४७
शय्यासनेध्याचरिते श्रेयसा न
समाविशेत् ।
शय्यासनस्थश्चैवेनं
प्रत्युत्थायाभिवादयेत् । । ४८
ऊर्ध्वं प्राणा ह्युत्क्रामन्ति
यूनः स्थविर आगते ।
प्रत्युत्थानाभिवादाभ्यां
पुनस्तान्प्रतिपद्यते । । ४९
अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः
।
चत्वारि सम्यग्वर्धन्ते आयुः
प्रज्ञा यशो बलम् । । ५०
अभिवादपरो विप्रो
ज्यायांसमभिवादयेत् ।
असौ नामाहमस्मीति स्वनाम
परिकीर्तयेत् । । ५१
नामधेयस्य ये केचिदभिवादं न जानते ।
तान्प्राज्ञोऽहमिति
ब्रूयात्स्त्रियः सर्वास्तथैव च । । ५२
भोः शब्दं कीर्तयेदन्ते स्वस्य
नाम्नोभिवादने ।
नाम्नः स्वरूपभावो हि भो भाव ऋषिभिः
स्मृतः । । ५३
आयुष्मान्भव सौम्येति वाच्यो
विप्रोऽभिवादने ।
अकारश्चास्य नाम्नोऽन्ते वाच्यः
पूर्वाक्षरः प्लुतः । । ५४
यो न वेत्त्यभिवादस्य विप्रः
प्रत्यभिवादनम् ।
नाभिवाद्यः स विदुषा यथा शूद्रस्तथैव
सः । । ५५
अभिवादे कृते यस्तु न
करोत्यभिवादनम् ।
आशीर्वा कुरुशार्दूल स याति नरकं
ध्रुवम् । । ५६
अभीति भगवान्विष्णुार्वादयामीति
शङ्करः ।
द्वावेव पूजितौ तेन यः
करोत्यभिवादनम् । । ५७
ब्राह्मणं कुशलं
पृच्छेत्क्षत्रबन्धुमनामयम् ।
वैश्यं क्षेमं समागम्य शूद्रमारोग्यमेव
तु । । ५८
न वाच्यो दीक्षितो नाम्ना यवीयानपि
यो भवेत् ।
भो भवत्पूर्वकत्वेन इति
स्वायम्भुवोऽब्रवीत् । ५९
परपत्नी तु या राजन्नसम्बद्धा तु
योनितः ।
वक्तव्या भवतीत्येवं सुभगे भगनीति च
। । ६०
पितृव्यान्मातुलान्राजञ्छ्वशुरानृत्विजो
गुरून् ।
असावहमिति ब्रूयात्प्रत्युत्थाय
जघन्यजः । । ६१
मातृष्वसा मातुलानी श्वश्रूरथ
पितृष्वसा ।
सम्पूज्या गुरुपत्नी च समास्ता
गुरुभार्यया । । ६२
ज्येष्ठस्य भ्रातुर्या भार्या
सवर्णाहन्यहन्यपि ।
२पूजयन्प्रयतो विप्रो याति
विष्णुसदो नृप । । ६३
प्रवासादेत्य सम्पूज्या ज्ञातिसम्बन्धियोषितः
।
पितुर्या भगिनी राजन्मातुश्चापि
विशाम्पते । । ६४
आत्मनो भगिनी या च ज्येष्ठा
कुरुकुलोद्वह ।
सदा
स्वमातृवद्धृत्तिमातिष्ठेद्भारतोत्तम । । ६५
गरीयसी ततस्ताभ्यो माता ज्ञेया
नराधिप ।
पुत्रमित्रभागिनेया द्रष्टव्या
ह्यात्मना समाः । । ६६
दशाब्दाख्यं पौरसख्यं पञ्चाब्दाख्यं
कलाभृताम् ।
अब्दपूर्वं श्रोत्रियाणां
स्वल्पेनापि स्वयोनिषु । । ६७
ब्राह्मणं दशवर्षं च शतवर्षं च
भूमिपम् ।
पितापुत्रौ विजानीयाद्ब्राह्मणस्तु
तयोः पिता । । ६८
इत्येवं क्षत्रियपिता वैश्यस्यापि
पितामहः ।
प्रपितामहश्च शूद्रस्य प्रोक्तो
विप्रो मनीषिभिः । । ६९
वित्तं बन्धुर्वयः कर्म विद्या भवति
पञ्चमी ।
एतानि मान्यस्थानानि गरीयो
यद्यदुत्तरम् । । ७०
पञ्चानां त्रिषु वर्गेषु भूयांसि
गुणवन्ति च ।
यस्य स्युः सोऽत्र मानार्हः
शूद्रोऽपि दशमीं गतः । । ७१
चक्रिणो दशमीस्थस्य रोगिणो भारिणः स्त्रियाः
।
स्नातकस्य तु राज्ञश्च पन्था देयो
वरस्य च । । ७२
एषां समागमे तात पूज्यौ
स्नातकपार्थिवौ ।
आभ्यां समागमे राजन्स्नातको
नृपमानभाक् । । ७३
अध्यापयेद्यस्तु शिष्यं कृत्वोपनयनं
द्विजः ।
सरहस्यं सकल्पं च वेदं भरतसत्तम । ।
तमाचार्यं महाबाहो प्रवदन्ति
मनीषिणः । । ७४
एकदेशं तु वेदस्य वेदाङ्गान्यपि वा
पुनः ।
योऽध्यापयति वृत्त्यर्थमुपाध्यायः स
उच्यते । । ७५
निषेकादीनि कार्याणि यः करोति
नृपोत्तम ।
अध्यापयति चान्येन स विप्रो
गुरुरुच्यते । । ७६
अग्न्याधेयं
पाकयज्ञानग्निष्टोमादिकान्मखान् ।
यः करोति वृतो यस्य स तस्यर्त्विगिहोच्यते
। । ७७
य आवृणोत्यवितथं ब्रह्मणा
श्रवणावुभौ ।
स माता स पिता ज्ञेयस्तं न
द्रुह्येत्कथञ्चन १ । । ७८
उपाध्यायान्दशाचार्यं आचार्याणां
शतं पिता ।
सहस्रेण पितुर्माता
गौरवेणातिरिच्यते । । ७९
उत्पादकब्रह्मदात्रोर्गरीयान्ब्रह्मदः
पिता ।
ब्रह्मजन्म हि विप्रस्य प्रेत्य चेह
च शाश्वतम् । । ८०
कामान्माता पिता चैनं यदुत्पादयतो
मिथः ।
सम्भूतिं तस्य तां
विद्याद्यद्योनावभिजायते । । ८१
आचार्यस्तस्य तां जातिं
विधिद्वेदपारगः ।
उत्पादयति सावित्र्या सा सत्या
साऽजरामरा । । ८२
उपाध्यायमादितः कृत्वा ये पूज्याः
कथितास्तव ।
महागुरुर्महाबाहो सर्वेषामधिकः
स्मृतः । । ८३
सहस्रशतसंख्योऽसावाचार्याणामिदं
मतम् ।
चतुर्णामपि वर्णानां स
महागुरुरुच्यते । । ८४
शतानीक उवाच
य एते भवता प्रोक्ता उपाध्यायमुखा
द्विजाः ।
विदिता एव मे सर्वे न महागुरुरेव हि
। । ८५
सुमन्तुरुवाच
जयोपजीवी यो विप्रः स
महागुरुरुच्यते ।
अष्टादशपुराणानि रामस्य चरितं तथा ।
। ८६
विष्णुधर्मादयो धर्माः शिवधर्माश्च
भारत ।
कार्ष्णं वेदं पञ्चमं तु
यन्महाभारतं स्मृतम् । । ८७
श्रौता १ धर्माश्च राजेन्द्र
नारदोक्ता महीपते ।
जयेति नाम एतेषां प्रवदन्ति मनीषिणः
। । ८८
एवं विप्रकदम्बस्य धारकः प्रवरः
स्मृतः ।
यस्त्वेतानि समस्तानि पुराणानीह
विन्दति । । ८९
भारतं च महाबाहो स सर्वज्ञो मतो
नृणाम् ।
तस्मात्स पूज्यो राजेन्द्र
वर्णैर्विप्रादिभिः सदा । । ९०
किं त्वया न श्रुतं वाक्यं यदाह
भगवान्विभुः ।
अल्पं वा बहु वा यस्य
श्रुतस्योपकरोति यः । ।
तमपीह गुरुं विद्याच्छ्रुतोपक्रियया
तया । । ९१
ब्राह्मस्य जन्मनः कर्ता स्वधर्मस्य
च शासिता ।
बालोऽपि विप्रो वृद्धस्य पिता भवति
धर्मतः । । ९२
अध्यापयामास पितॄञ्छिशुराङ्गिरसः
कविः ।
पुत्रका इति होवाच ज्ञानेन परिगृह्य
ताम् । । ९३
ते तमर्थमपृच्छन्त देवानागतमन्यवः ।
देवाश्चैतान्समेत्योचुर्न्याय्यं वै
शिशुरुक्तवान् । । ९४
अज्ञो भवति वै बालः पिता भवति
मन्त्रदः ।
अज्ञं हि बालमित्याहुः पितेत्येव तु
मन्त्रदम् । । ९५
पितामहेति जयदमित्यूचुस्ते दिवौकसः
।
जयो मन्त्रास्तथा वेदा देहमेकं
त्रिधा कृतम् । । ९६
नहायनैर्न पलितैर्न मित्रेण न
बन्धुभिः ।
ऋषयश्चक्रिरे धर्मं योऽनूचानः स नो
महान् । । ९७
ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च
विशांपते ।
ज्येष्ठं वन्दन्ति राजेन्द्र
सन्देहं शृणु वै यथा । । ९८
ज्ञानतो वीर्यतो राजन्धनतो
जन्मतस्तथा ।
शीलतस्तु प्रधाना ये ते प्रधाना मता
मम । । ९९
न तेन स्थविरो भवति येनास्य पलितं
शिरः ।
यो वै युवाप्यधीयानस्तं देवाः
स्थविरं विदुः । । १००
यथा काष्ठमयो हस्ती यथा चर्ममयो
मृगः ।
यश्च विप्रोऽनधीयानस्त्रयस्ते नाम बिभ्रति
। । १०१
यथा योषाऽफला स्त्रीषु यथा गौर्गवि
चाफला ।
यथा चाज्ञेऽफलं दानं यथा
विप्रोऽनृचोऽफलः । । १०२
वैश्वदेवेन ये हीना आतिथ्येन
विवर्जिताः ।
सर्वे तु वृषला ज्ञेयाः प्राप्तवेदा
अपि द्विजाः । । १०३
नानृग्ब्राह्मणो भवति न वणिङ्न
कुशीलवः ।
न शूद्रः प्रेषणं कुर्वन्नस्तेनो न
चिकित्सकः । । १०४
अव्रता ह्यनधीयाना यत्र भैक्षचरा
द्विजाः ।
तं ग्रामं दण्डयेद्राजा
चोरभक्तप्रदो हि सः । । १०५
सन्तुष्टो यत्र वै विप्रः साग्निकः
कुरुनन्दन ।
याति साफल्यतां वेदैर्देवैरेवं हि
भाषितम् । । १०६
वेदैरुक्तं यथा वीर
सुरज्येष्ठमुपेत्य वै ।
वेपन्ते ब्राह्मणा भूमावभ्यस्यन्ति
ह्यनग्निकाः । ।
क्लिश्यन्ते ते किमर्थं हि मूढा वै
फलकाम्यया । । १०७
अनुष्ठानविहीनानामस्मानभ्यसतां भुवि
।
क्लेशो हि केवलं देव नास्मदभ्यसने
फलम् । । १०८
अनुष्ठानं परं
देवमस्मत्स्वभ्यसनात्सदा ।
इत्येवं राजशार्दूल वेदा ऊचुर्हि
वेधसम् । ।
तस्माच्च वेदाभ्यसनादनुष्ठानं परं
मतम् । । १०९
चत्वारो वा त्रयो वापि
यद्ब्रूयुर्वेदपारगाः ।
स धर्म इति विज्ञेयो नेतरेषां
सहस्रशः । । 1.4.११०
यद्वदन्ति तमोमूढा मूर्खा
धर्ममजानतः १ ।
तत्पापं शतधा भूत्वा
वक्तॄनेवानुगच्छति । । १११
शौचहीने व्रतभ्रष्टे विप्रे
वेदविवर्जिते ।
दीयमानं रुदत्यन्नं कि मया दुष्कृतं
कृतम् । । ११२
जपोपजीविने दत्तं यदात्मानं
प्रपश्यति ।
नृत्यति स्म तदा राजन्करावुद्धृत्य
भारत । । ११३
विद्यातपोभ्यां सम्पन्ने ब्राह्मणे
गृहमागते ।
क्रीडन्त्यौषधयः सर्वा यास्यामः
परमां गतिम् । । ११४
१अव्रतानाममन्त्राणामजपानां च भारत
।
प्रतिग्रहो न दातव्यो न शिला तारयेच्छिलाम्
। । ११५
श्रोत्रियायैव देयानि हव्यकव्यानि
नित्यशः ।
अश्रोत्रियाय दत्तानि न पितॄन्नापि देवताः
। । ११६
यस्य चैव गृहे मूर्खो दूरे चापि
बहुश्रुतः ।
बहुश्रुताय दातव्यं नास्ति
मूर्खव्यतिक्रमः । । ११७
ब्राह्मणातिक्रमो नास्ति मूर्खे
जपविवर्जिते ।
ज्वलन्तमग्निमुत्सृज्य न हि भस्मनि
हूयते । । ११८
न चैतदेव मन्यन्ते .पितरो
देवतास्तथा ।
सगुणं निर्गुणं वापि ब्राह्मणं
दैवतं परम् । । ११९
नातिक्रमेद्गृहासीनं ब्राह्मणं
विप्रकर्मणि ३ ।
अतिक्रमन्महाबाहो रौरवं याति भारत ।
। १२०
गायत्रीमात्रसारोऽपि ब्राह्मणः
पूज्यतां गतः ।
गृहासन्नो विशेषेण न भवेत्पतितस्तु
सः । । १२१
धान्यशून्यो यथा ग्रामो यथा कूपश्च
निर्जलः ।
ब्राह्मणश्चानधीयानस्त्रयस्ते
नामधारकाः । । १२२
यस्त्वेकपङ्क्त्यां विषमं ददाति
स्नेहाद्भयाद्वा यदि वार्थहेतोः ।
वेदेषु दृष्टमृषिभिश्च गीतं तां
ब्रह्महत्यां मुनयो वदन्ति । । १२३
अहिंसयैव भूतानां कार्यं
श्रेयोऽनुशासनम् ।
वाक्चैव मधुरा श्लक्ष्णा प्रयोज्या
धर्ममीप्सता । । १२४
यस्य वाङ्मनसी शुद्धे सत्यगुप्ते च
भारत ।
स वै सर्वमवाप्नोति वेदान्तोपगतं
फलम् । । १२५
नारुन्तुदः स्यादार्तोऽपि न
परद्रोहकर्मधीः ।
ययास्यो द्विजते लोको न तां
वाचमुदीरयेत् । । १२६
यत्करोति शुभं वाचा १ प्रोच्यमाना
मनीषिभिः ।
श्रूयतां कुरुशार्दूल सदा चापि
तथोच्यताम् । । १२७
न तथा शशी न सलिलं न चन्दनरसो न
शीतलच्छाया ।
प्रह्लादयति च पुरुषं यथा
मधुरभाषिणी वाणी । । १२८
अर्हणाद्ब्राह्मणो नित्यमुद्विजेत विषादिव
।
अमृतस्येव चाकांक्षेदपमानस्य सर्वदा
। । १२९
सुखं ह्यवमतः शेते सुखं च
प्रतिबुध्यते ।
सुखं चरति लोकेस्मिन्नवमन्ता
विनश्यति । । १३०
अनेन विधिना राजन्संस्कृतात्मा
द्विजः शनैः ।
गुरौ वसन्सेचिनुयाद्ब्रह्माधिगमिदं
तपः । । १३१
तपोविशेषैर्विविधैर्व्रतैश्च
विविधोदितैः ।
वेदः कृत्स्नोधिगन्तव्यः सरहस्यो
द्विजन्मना । । १३२
वेदमेवाभ्यसेन्नित्यं तपस्तप्यं
द्विजोत्तमः ।
वेदाभ्यासो हि विप्रस्य तपः
परमिहोच्यते । । १३३
आहैव स नखाग्रेभ्यः परमं तप्यते तपः
।
यः सुप्तोऽपि द्विजोऽधीते
स्वाध्यायं शक्तितोऽन्वहम् । । १३४
योऽनधीत्य द्विजो वेदमन्यत्र कुरुते
श्रमम् ।
स जीवन्नेव शूद्रत्वमाशु गच्छति
सान्वयः । । १३५
न यस्य वेदो न जपो न विद्याश्च
विशाम्पते ।
स शूद्र एव मन्तव्य इत्याह
भगवान्विभुः । । १३६
मातुरग्रे च जननं द्वितीयो
मौञ्जिबन्धनम् ।
तृतीयो यज्ञदीक्षायां द्विजस्य
विधिरीरितः । । १३७
तत्र यद्ब्रह्म जन्मास्य
मौञ्जीबन्धनचिह्नितम् । । १३८
तत्रास्य माता सावित्री पिता
त्वाचार्य उच्यते ।
वेदप्रदानात्त्वाचार्यं पितरं
मनुरब्रवीत् । । १३९
न ह्यस्य विद्यते कर्म
किञ्चिदामौञ्जिबन्धनात् ।
नाभिव्याहारयेद्ब्रहम
स्वधानिनयनादृते । । १४०
शूद्रेण तु समं तावद्यावद्वेदे न
जायते ।
कृतोपनयनस्यास्य व्रतादेशनमिष्यते ।
।
ब्रह्मणो ग्रहणं चैव क्रमेण
विधिपूर्वकम् । । १४१
यत्सूत्रं चापि यच्चर्म या या चास्य
च मेखला ।
वसनं चापि यो दण्डस्तद्वै तस्य
व्रतेष्वपि । । १४२
सेवेतेमांस्तु नियमान्ब्रह्मचारी गुरौ
वसन् ।
सन्नियम्येन्द्रियग्रामं
तपोवृद्ध्यर्थमात्मनः । । १४३
वृन्दारकर्षिपितॄणां
कुर्यात्तर्पणमेव हि ।
नराणां च महाबाहो नित्यं स्नात्वा
प्रयत्नतः । । १४४
पुष्पं तोयं फलं चापि समिदाधानमेव ३
च ।
नानाविधानि काष्ठानि मृत्तिकां च
तथा कुशान् । । १४५
वर्जयेन्मधु मांसं च
गन्धमाल्यरथान्स्त्रियः ।
शुक्लानि चैव सर्वाणि प्राणिनां १
चैव हिंसनम् । । १४६
अभ्यङ्गमञ्जनं
चाक्ष्णोरुपानच्छत्रधारणम् ।
संकल्पं कामजं क्रोधं लोभं गीतं च
वादनम् । । १४७
नर्तनं च तथा द्यूतं जनवादं
तथानृतम् ।
परिवादं चापि विभो दूरतः
परिवर्जयेत् । । १४८
स्त्रीणां च प्रेक्षणालम्बो रपवीतं२
परस्य च ।
पुंश्चलीभिस्तथा सङ्गं न
कुर्यात्कुरुनन्दन । । १४९
एकः शयीत सर्वत्र न रेतः
स्कन्दयेत्क्वचित् ।
कामाद्धि स्कन्दयन्रेतो हिनस्ति
व्रतमेव तु । । १५०
सुप्तः क्षरन्ब्रह्मचारी द्विजः
शुक्रमकामतः ।
स्नात्वार्कमर्चयित्वा तु
पुनर्मामित्यृचं जपेत् । । १५१
मनोरपि तथा चात्र श्रूयते परमं वचः
।
उदकुम्भं सुमनसो गोशकृन्मृत्तिकां
कुशान् । ।
आहरेद्यावदर्थान्हि भैक्षं चापि हि
नित्यशः । । १५२
गृहेषु येषां कर्तव्यं ताञ्छृणुष्व
नृपोत्तम ।
स्वकर्मसु रता ये वै तथा वेदेषु ये
रताः । ।
यज्ञेषु चापि राजेन्द्र ये च
श्रद्धासमाश्रिताः । । १५३
ब्रह्मचार्या हरेद्भैक्षं गृहेभ्यः
प्रयतोऽन्वहम् ।
गुरोः कुले न भिक्षेत्
स्वज्ञातिकुलबन्धुषु । । १५४
अलाभे त्वन्यगोत्राणां पूर्वं
पूर्वं विवर्जयेत् ।
सर्वं चापि चरेद्ग्रामं
पूर्वोक्तानामसम्भवे । ।
अन्त्यवर्जं महाबाहो इत्याह
भगवान्विभुः । । १५५
वाचं नियम्य प्रयतस्त्वग्निं
शस्त्रं च वर्जयेत् ।
चातुर्वर्ण्यं चरेद्भैक्षमलाभे
कुरुनन्दन । । १५६
आरादाहृत्य समिधः. सन्निदध्याद्
गृहोपरि ।
सायंप्रातस्तु
जुहुयात्ताभिरग्निमतन्द्रितः । । १५७
भैक्षाचरणमकृत्वा न तमग्निं समिध्य
वै ।
अनातुरः सप्तरात्रमवकीर्णिव्रतं
चरेत् । । १५८
वर्तनं चास्य भैक्षेण प्रवदन्ति
मनीषिणः ।
तस्माद्भैक्षेण वै नित्यं
नैकान्नादी भवेद्यती । । १५९
भैक्षेण व्रतिनो वृत्तिरुपवाससमा
स्मृता ।
दैवत्ये व्रतवद्राजन्पित्र्ये
कर्मण्यथर्षिवत् । ।
काममभ्यर्थितोऽश्नीयाद्व्रतमस्य न
लुप्यते । । १६०
ब्राह्मणस्य महाबाहो कर्म
यत्समुदाहृतम् ।
राजन्यवैश्ययोर्नैतत्पण्डितैः
कुरुनन्दन । । १६१
चोदितोऽचोदितो १ वापि गुरुणा
नित्यमेव हि ।
कुर्यादध्ययने योगमाचार्यस्य हितेषु
च । । १६२
बुद्धीन्द्रियाणि मनसा शरीरं वाचमेव
हि ।
नियम्य
प्राञ्जलिस्तिष्ठेद्वीक्षमाणो गुरोर्मुखम् । । १६३
नित्यमुद्धृतपाणिः
स्यात्साध्वाचारस्तु संयतः ।
आस्यतामिति चोक्तः सन्नासीताभिमुखं
गुरोः । । १६४
वस्त्रवेषैस्तथान्नैस्तु हीनः
स्याद्गुरुसन्निधौ ।
उत्तिष्ठेत्प्रथमं चास्य जघन्यं
चापि संविशेत् । । १६५
प्रतिश्रवणसम्भाषे तल्पस्थो न
समाचरेत् ।
न चासीनो न भुञ्जानो न तिष्ठन्न
पराङ्मुखः । । १६६
आसीनस्य स्थितः कुर्यादभिगच्छंश्च
तिष्ठतः ।
प्रत्युद्गन्ता तु व्रजतः
पश्चाद्धावंश्च धावतः । । १६७
पराङ्मुखस्याभिमुखो दूरस्थस्यैत्य
चान्तिकम् ।
नमस्कृत्य शयानस्य निदेशे तिष्ठेत्सर्वदा
। । १६८
नीचं शय्यासनं चास्य सर्वदा
गुरुसन्निधौ ।
गुरोश्च चक्षुर्विषये न यथेष्टासनो
भवेत् । । १६९
नामोच्चारणमेवास्य परोक्षमपि सुव्रत
।
न चैनमनुकुर्वीत गतिभाषणचेष्टितैः ।
। १७०
परीवादस्तथा निन्दा गुरोर्यत्र
प्रवर्तते ।
कर्णौ तत्र पिधातव्यो गन्तव्यं वा
ततोऽन्यतः । । १७१
परीवादाद्रासभः स्यात्सारमेयस्तु
निन्दकः ।
परिभोक्ता कृमिर्भवति कीटो भवति
मत्सरी । । १७२
दूरस्थो नार्चयेदेनं न क्रुद्धो
नान्तिके स्त्रियाः ।
यानासनगतो राजन्नवरुह्याभिवादयेत् ।
। १७३
प्रतिकूले समाने तु नासीत गुरुणा सह
।
अशृण्वंति गुरौ राजन्न किञ्चिदपि
कीर्तयेत् । । १७४
गोश्वोष्ट्रयानप्रासादप्रस्तरेषु
कटेषु च ।
आसीत गुरुणा सार्धं शिलाफलक नौषु च
।। १७५
गुरोर्गुरौ सन्निहिते
गुरुवद्वृत्तिमाचरेत् ।
गुरुपुत्रेषु चार्येषु गुरोश्चैव
स्वबन्धुषु ।। १७६
बालः समानजन्मा वा विशिष्टो
यज्ञकर्मणि ।
अध्यापयन्गुरुसुतो गुरुवन्मानमर्हति
।। १७७
उत्सादनमथाङ्गानां
स्नापनोच्छिष्टभोजने ।
पादयोर्नेजन राजन्गुरुपुत्रेषु
वर्जयेत् ।। १७८
गुरुवत्प्रतिपूज्यास्तु सवर्णा
गुरुयोषितः ।
असवर्णास्तु सम्पूज्याः
प्रत्युत्थानाभिवादनैः ।। १७९
अभ्यञ्जनं स स्नपनं गात्रोत्सादनमेव
च ।
गुरुपत्न्या न कार्याणि केशानां च
प्रसाधनम् ।। १८०
गुरुपत्नीं तु युवतीं नाभिवादेत
पादयोः ।
पूर्णविंशतिवर्षेण गुणदोषौ विजानता
।। १८१
स्वभाव एव नारीणां नराणामिह दूषणम्
।
अतोर्थान्न प्रमाद्यन्ति प्रतिपाद्य
विपश्चितः ।। १८२
अविद्वांसमलं लोके विद्वांसमपि वा
पुनः ।
प्रमदा ह्युत्पथं नेतुं
कामक्रोधवशानुगम् ।। १८३
मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा न
विविक्तासनो भवेत् ।
बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि
कर्षति ।। १८४
राजेन्द्र गुरुपत्नीनां युवतीनां
युवा भुवि ।
विधिवद्वन्दनं कुर्यादसावहमिति
ब्रुवन् ।। १८५
विप्रोऽस्य पादग्रहणमन्वहं
चाभिवादनम् ।
गुरुदारेषु कुर्वीत सतां
धर्ममनुस्मरन् ।। १८६
यथा खनन्खनित्रेण जलमाप्नोति मानवः
।
तथा गुरुगतां विद्यां
शुश्रूषुरधिगच्छति ।। १८७
मुण्डो वा जटिलो वा स्यादथ वा
स्याच्छिखी जटी ।
नैनं ग्रामेऽभिनिम्लोचेदर्को
नाभ्युदियात्क्वचित् ।। १८८
तं चेदभ्युदियात्सूर्यः शयानं
कामकारतः ।
निम्लोचेद्वाप्यभिज्ञानाज्जपन्नुपवसेद्दिनम्
।। १८९
सूर्येण ह्यभिनिर्मुक्तः
शयानोभ्युदितश्च यः ।
प्रायश्चित्तमकुर्वाणो युक्तः
स्यान्महतैनसा ।। १९०
उपस्पृश्य महाराज उभे सन्ध्ये
समाहितः ।
शुचौ देशे जपञ्जप्यमुपासीत यथाविधि
।। १९१
यदि स्त्री यद्यवरजः श्रेयः
किञ्चित्समाचरेत् ।
तत्सर्वमाचरेद्युक्तो यत्र वा रमते
मनः ।। १९२
धर्मार्थावुच्यते श्रेयः कामार्थौ
धर्ममेव च ।
अर्थ एवेह वा श्रेयस्त्रिवर्ग इति
संस्थितिः ।। १९३
पिता माता तथा भ्राता आचार्याः
कुरुनन्दन ।
नार्तेनाप्यवमन्तव्या ब्राह्मणेन
विशेषतः ।। १९४
आचार्यो ब्रह्मणो मूर्तिः पिता
मूर्तिः प्रजापतेः ।
माताप्यथादितेर्मूर्तिर्भ्राता
स्यान्मूर्तिरात्मनः ।। १९५
यन्माता पितरौ क्लेशं सहेते सम्भवे
नृणाम् ।
न तस्य निष्कृतिः शक्या कर्तुं
वर्षशतैरपि । । १९६
तयोर्नित्यं प्रियं कुर्यादाचार्यस्य
च भारत ।
तेषु हि त्रिषु तुष्टेषु तपः सर्वं
समाप्यते । । १९७
तेषां त्रयाणां शुश्रूषा परमं तप
उच्यते ।
न तैरनभ्यनुज्ञातो धर्ममन्यं
समाचरेत् । । १९८
त एव हि त्रयो लोकास्त एव त्रय
आश्रमाः ।
त एव च त्रयो वेदास्त
एवोक्तास्त्रयोऽग्नयः । । १९९
माता वै गार्हपत्याग्निः पिता वै
दक्षिणः स्मृतः ।
गुरुराहवनीयश्च साग्नित्रेता गरीयसी
। । २००
त्रिषु तुष्टेषु चैतेषु
त्रींल्लोकाञ्जयते गृही ।
दीप्यमानः स्ववपुषा देववद्दिवि
मोदते । । २०१
इमं लोकं पितृभक्त्या मातृभक्त्या
तु मध्यमम् ।
गुरुशुश्रूषया चैव गच्छेच्छक्रसलोकताम्
। । २०२
सर्वे तेनादृता धर्मा यस्यैते त्रय
आदृताः ।
अनादृतास्तु येनैते
सर्वास्तस्याफलाः ।।२०३
यावत्त्रयस्ते
जीवेयुस्तावन्नान्यत्समाचरेत्।
तेष्वेव नित्यं शुश्रूषां
कुर्यात्प्रियहिते रतः । । २०४
तेषामनुपरोधेन पार्थक्यं २
यद्यदाचरेत् ।
तत्तन्निवेदयेत्तेभ्यो
मनोवचनकर्मभिः । । २०५
त्रिष्वेतेष्विति कृत्यं हि
पुरुषस्य समाप्यते ।
एष धर्मः परः साक्षादुपधर्मोऽन्य
उच्यते । । २०६
श्रद्धधानः शुभां
विद्यामाददीतावरादपि ।
अन्त्यादपि परं धर्मं स्त्रीरत्नं
दुष्कुलादपि । । २०७
विषादप्यमृतं ग्राह्यं बालादपि
सुभाषितम् ।
अमित्रादपि सद्वृत्तममेध्यादपि
काञ्चनम् । । २०८
स्त्रियो रत्नं नयो विद्या धर्मः
शौचं सुभाषितम् ।
विविधानि च शिल्पानि समादेयानि
सर्वशः । । २०९
अब्राह्मणादध्ययनमापत्काले विधीयते
।
अनुव्रज्या च शुश्रूषा यावदध्ययनं
गुरोः । । २१०
नाब्राह्मणे गुरौ शिष्यो वासमात्यन्तिकं
वसेत् ।
ब्राह्मणे चाननूचाने
काञ्क्षन्गतिमनुत्तमाम् । । २११
यदि त्वात्यन्तिको वासो रोचते च
गुरोः कुले ।
युक्तः परिचरेदेनमाशरीरविमोक्षणात्
। । २१२
आ समाप्तेः शरीरस्य यस्तु शुश्रूषते
गुरुम् ।
स गच्छत्यञ्जसा विप्रो ब्राह्मणः
सद्य शाश्वतम् । । २१३
न पूर्वं गुरवे किञ्चिदुपकुर्वीत
धर्मवित् ।
स्नानाय गुरुणाज्ञस्तः शक्त्या
गुर्वर्थमाहरेत् । । २१४
क्षेत्रं हिरण्यं गामश्वं
छत्रोपानहमेव च ।
धान्यं वासांसि शाकं वा गुरवे
प्रीतमाहरेत् । । २१५
स्वर्गते गां परित्यज्य गुरौ
भरतसत्तम ।
गुणान्विते गुरुसुते गुरुदारेऽथ वा
नृप । ।
सपिण्डे वा गुरोश्चापि
गुरुवद्वृत्तिमाचरेत् । । २१६
एतेष्वविद्यमानेषु
स्थानासनविहारवान् ।
प्रयुञ्जानोऽग्निशुश्रूषां
साधयेद्देहमात्सनः । ।
वीरस्य कुर्वञ्छुश्रूषां याति
वीरसलोकताम् । । २१७
चरत्येवं हि यो विप्रो
ब्रह्मचर्यमविप्लुतः ।
स गत्वा ब्रह्मसदनं ब्रह्मणा सह
मोदते । । २१८
इत्येष कथितो धर्मः प्रथमं
ब्रह्मचारिणः ।
गृहस्थस्यापि राजेन्द्र शृणु
धर्ममशेषतः । । २१९
काले प्राप्य व्रतं विप्र ऋतुयोगेन
भारत ।
प्रपालयन्व्रतं याति
ब्रह्मसालोक्यतां विभो । । २२०
सदोपनयनं शस्तं वसन्ते ब्राह्मणस्य
तु ।
क्षत्रियस्य ततो ग्रीष्मे प्रशस्तं
मनुरब्रवीत् । । २२१
प्राप्ते शरदि वैश्यस्य सदोपनयनं
परम् ।
इत्येष त्रिविधः कालः कथितो
व्रतयोजने । । २२२
इति श्रीभविष्ये महापुराणे शतार्द्धसाहस्र्यां संहितायां ब्राह्मे पर्वणि उपनयनविधिवर्णनं नाम चतुर्थोऽध्यायः४ ।
आगे जारी- भविष्यपुराण ब्राह्म पर्व अध्याय 5
0 Comments:
Post a Comment
Please do not enter any spam link in the comment box