श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध षष्ठ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध षष्ठ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध षष्ठ अध्याय

"नारदजी के पूर्व चरित्र का शेष भाग"

श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध षष्ठ अध्याय

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः १ अध्यायः ६

                           {प्रथम स्कन्ध:}

                      षष्ठ अध्याय:

सूत उवाच ।

(अनुष्टुप्)

एवं निशम्य भगवान् देवर्षेर्जन्म कर्म च ।

भूयः पप्रच्छ तं ब्रह्मन् व्यासः सत्यवतीसुतः ॥। १ ॥

व्यास उवाच ।

भिक्षुभिर्विप्रवसिते विज्ञानादेष्टृभिस्तव ।

वर्तमानो वयस्याद्ये ततः किमकरोद्‍भवान् ॥। २ ॥

स्वायंभुव कया वृत्त्या वर्तितं ते परं वयः ।

कथं चेदमुदस्राक्षीः काले प्राप्ते कलेवरम् ॥। ३ ॥

प्राक्कल्पविषयामेतां स्मृतिं ते सुरसत्तम ।

न ह्येष व्यवधात्काल एष सर्वनिराकृतिः ॥। ४ ॥

नारद उवाच ।

भिक्षुभिर्विप्रवसिते विज्ञानादेष्टृभिर्मम ।

वर्तमानो वयस्याद्ये तत एतदकारषम् ॥। ५ ॥

एकात्मजा मे जननी योषिन्मूढा च किङ्करी ।

मय्यात्मजेऽनन्यगतौ चक्रे स्नेहानुबंधनम् ॥। ६ ॥

सास्वतंत्रा न कल्पासीद् योगक्षेमं ममेच्छती ।

ईशस्य हि वशे लोको योषा दारुमयी यथा ॥। ७ ॥

अहं च तद्‍ब्रह्मकुले ऊषिवांस्तदपेक्षया ।

दिग्देशकालाव्युत्पन्नो बालकः पञ्चहायनः ॥। ८ ॥

एकदा निर्गतां गेहाद् दुहन्तीं निशि गां पथि ।

सर्पोऽदशत्पदा स्पृष्टः कृपणां कालचोदितः ॥ ९ ॥

तदा तदहमीशस्य भक्तानां शमभीप्सतः ।

अनुग्रहं मन्यमानः प्रातिष्ठं दिशमुत्तराम् ॥ १० ॥

स्फीताञ्जनपदांस्तत्र पुरग्रामव्रजाकरान् ।

खेटखर्वटवाटीश्च वनान्युपवनानि च ॥ ११ ॥

चित्रधातुविचित्राद्रीन् इभभग्नभुजद्रुमान् ।

जलाशयान् शिवजलान् नलिनीः सुरसेविताः ॥ १२ ॥

चित्रस्वनैः पत्ररथैः विभ्रमद् भ्रमरश्रियः ।

नलवेणुशरस्तम्ब कुशकीचकगह्वरम् ॥ १३ ॥

एक एवातियातोऽहं अद्राक्षं विपिनं महत् ।

घोरं प्रतिभयाकारं व्यालोलूकशिवाजिरम् ॥ १४ ॥

परिश्रान्तेन्द्रियात्माहं तृट्परीतो बुभुक्षितः ।

स्नात्वा पीत्वा ह्रदे नद्या उपस्पृष्टो गतश्रमः ॥ १५ ॥

तस्मिन्निर्मनुजेऽरण्ये पिप्पलोपस्थ आश्रितः ।

आत्मनात्मानमात्मस्थं यथाश्रुतमचिन्तयम् ॥ १६ ॥

ध्यायतश्चरणांभोजं भावनिर्जितचेतसा ।

औत्कण्ठ्याश्रुकलाक्षस्य हृद्यासीन्मे शनैर्हरिः ॥ १७ ॥

प्रेमातिभरनिर्भिन्न पुलकाङ्गोऽतिनिर्वृतः ।

आनंदसंप्लवे लीनो नापश्यमुभयं मुने ॥ १८ ॥

रूपं भगवतो यत्तन् मनःकान्तं शुचापहम् ।

अपश्यन् सहसोत्तस्थे वैक्लव्याद् दुर्मना इव ॥ १९ ॥

दिदृक्षुस्तदहं भूयः प्रणिधाय मनो हृदि ।

वीक्षमाणोऽपि नापश्यं अवितृप्त इवातुरः ॥ २० ॥

एवं यतन्तं विजने मामाहागोचरो गिराम् ।

गंभीरश्लक्ष्णया वाचा शुचः प्रशमयन्निव ॥ २१ ॥

हन्तास्मिन् जन्मनि भवान् मा मां द्रष्टुमिहार्हति ।

अविपक्वकषायाणां दुर्दर्शोऽहं कुयोगिनाम् ॥ २२ ॥

सकृद् यद् दर्शितं रूपं एतत्कामाय तेऽनघ ।

मत्कामः शनकैः साधु सर्वान् मुञ्चति हृच्छयान् ॥ २३ ॥

सत्सेवयाऽदीर्घया ते जाता मयि दृढा मतिः ।

हित्वावद्यमिमं लोकं गन्ता मज्जनतामसि ॥ २४ ॥

मतिर्मयि निबद्धेयं न विपद्येत कर्हिचित् ।

प्रजासर्गनिरोधेऽपि स्मृतिश्च मदनुग्रहात् ॥ २५ ॥

(इंद्रवंशा)

एतावदुक्त्वोपरराम तन्महद्

     भूतं नभोलिङ्गमलिङ्गमीश्वरम् ।

अहं च तस्मै महतां महीयसे

     शीर्ष्णावनामं विदधेऽनुकंपितः ॥ २६ ॥

नामान्यनन्तस्य हतत्रपः पठन्

     गुह्यानि भद्राणि कृतानि च स्मरन् ।

गां पर्यटन् तुष्टमना गतस्पृहः

     कालं प्रतीक्षन् विमदो विमत्सरः ॥ २७ ॥

(अनुष्टुप्)

एवं कृष्णमतेर्ब्रह्मन् असक्तस्यामलात्मनः ।

कालः प्रादुरभूत्काले तडित्सौदामनी यथा ॥ २८ ॥

प्रयुज्यमाने मयि तां शुद्धां भागवतीं तनुम् ।

आरब्धकर्मनिर्वाणो न्यपतत् पांचभौतिकः ॥ २९ ॥

कल्पान्त इदमादाय शयानेऽम्भस्युदन्वतः ।

शिशयिषोरनुप्राणं विविशेऽन्तरहं विभोः ॥ ३० ॥

सहस्रयुगपर्यन्ते उत्थायेदं सिसृक्षतः ।

मरीचिमिश्रा ऋषयः प्राणेभ्योऽहं च जज्ञिरे ॥ ३१ ॥

अंतर्बहिश्च लोकान् त्रीन् पर्येम्यस्कन्दितव्रतः ।

अनुग्रहात् महाविष्णोः अविघातगतिः क्वचित् ॥ ३२ ॥

देवदत्तामिमां वीणां स्वरब्रह्मविभूषिताम् ।

मूर्च्छयित्वा हरिकथां गायमानश्चराम्यहम् ॥ ३३ ॥

प्रगायतः स्ववीर्याणि तीर्थपादः प्रियश्रवाः ।

आहूत इव मे शीघ्रं दर्शनं याति चेतसि ॥ ३४ ॥

एतद्ध्यातुरचित्तानां मात्रास्पर्शेच्छया मुहुः ।

भवसिन्धुप्लवो दृष्टो हरिचर्यानुवर्णनम् ॥ ३५ ॥

यमादिभिर्योगपथैः कामलोभहतो मुहुः ।

मुकुंदसेवया यद्वत् तथात्माद्धा न शाम्यति ॥ ३६ ॥

सर्वं तदिदमाख्यातं यत्पृष्टोऽहं त्वयानघ ।

जन्मकर्मरहस्यं मे भवतश्चात्मतोषणम् ॥ ३७ ॥

सूत उवाच ।

एवं संभाष्य भगवान् नारदो वासवीसुतम् ।

आमंत्र्य वीणां रणयन् ययौ यादृच्छिको मुनिः ॥ ३८ ॥

अहो देवर्षिर्धन्योऽयं यत्कीर्तिं शार्ङ्गधन्वनः ।

गायन्माद्यन्निदं तंत्र्या रमयत्यातुरं जगत् ॥ ३९ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

प्रथमस्कन्धे व्यासनारदसंवादे षष्ठोऽध्यायः ॥। ६ ॥

श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध षष्ठ अध्याय श्लोक का हिन्दी अनुवाद

श्रीसूतजी कहते हैं ;- शौनकजी! देवर्षि नारद के जन्म और साधना की बात सुनकर सत्यवती नन्दन भगवान श्रीव्यासजी ने उनसे फिर यह प्रश्न किया ।

श्रीव्यासजी ने पूछा ;- नारदजी! जब आपको ज्ञानोपदेश करने वाले महात्मागण चले गये, तब आपने क्या किया ? उस समय तो आपकी अवस्था बहुत छोटी थी। स्वायम्भु! आपकी शेष आयु किस प्रकार व्यतीत हुई और मृत्यु के समय आपने किस विधि से अपने शरीर का परित्याग किया ? देवर्षे! काल तो सभी वस्तुओं को नष्ट कर देता है, उसने आपकी पूर्व कल्प की स्मृति का कैसे नाश नहीं किया ?

श्रीनारदजी ने कहा ;- मुझे ज्ञानोपदेश करने वाले महात्मागण जब चले गये, तब मैंने इस प्रकार जीवन व्यतीत कियायद्यपि उस समय मेरी अवस्था बहुत छोटी थी । मैं अपनी माँ का एकलौता लड़का था। एक तो वह स्त्री थी, दूसरे मूढ़ और तीसरे दासी थी। मुझे भी उसके सिवा और कोई सहारा नहीं था। उसने अपने को मेरे स्नेहपाश से जकड़ रखा था । वह मेरे योग क्षेम की चिन्ता तो बहुत करती थीं, परन्तु पराधीन होने के कारण कुछ कर नहीं पाती थी। जैसे कठपुतली नचाने वाले की इच्छा के अनुसार ही नाचती है, वैसे ही यह सारा संसार ईश्वर के अधीन हैं । मैं भी अपनी माँ के स्नेह बन्धन में बँधकर उस ब्राम्हण-बस्ती में ही रहा। मेरी अवस्था केवल पाँच वर्ष की थी; मुझे दिशा, देश और काल के सम्बन्ध में कुछ भी ज्ञान नहीं था । एक दिन की बात है, मेरी माँ गौ दुहने के लिये रात के समय घर से बाहर निकली। रास्ते में उसके पैर से साँप छू गया, उसने उस बेचारी को डस लिया। उस साँप का क्या दोष, काल की ऐसी ही प्रेरणा थी । मैंने समझा, भक्तों का मंगल चाहने वाले भगवान का यह भी एक अनुग्रह ही है। इसके बाद मैं उत्तर दिशा की ओर चल पड़ा । उस ओर मार्ग में मुझे अनेकों धन-धान्य से सम्पन्न देश, नगर, गाँव, अहीरों की चलती-फिरती बस्तियाँ, खानें, खेड़े, नदी और पर्वतों के तटवर्ती पड़ाव, वाटिकाएँ, वन-उपवन और रंग-बिरंगी धातुओं से युक्त विचित्र पर्वत दिखायी पड़े। कहीं-कहीं जंगली वृक्ष थे, जिनकी बड़ी-बड़ी शाखाएँ हाथियों ने तोड़ डाली थीं। शीतल जल से भरे हुए जलाशय थे, जिनमें देवताओं के काम में आने वाले कमल थे; उन पर पक्षी तरह-तरह की बोली बोल रहे थे और भौरें मँडरा रहे थे। यह सब देखता हुआ मैं आगे बढ़ा। मैं अकेला ही था। इतना लम्बा मार्ग तै करने पर मैंने एक घोर गहन जंगल देखा। उसमें नरकट, बाँस, सेंठा, कुश, कीचक आदि खड़े थे। उसकी लम्बाई-चौड़ाई भी बहुत थी और वह साँप, उल्लू, स्यार आदि भयंकर जीवों का घर हो रहा था। देखने में बड़ा भयावना लगता था । चलते-चलते मेरा शरीर और इन्द्रियाँ शिथिल हो गयीं। मुझे बड़े जोर की प्यास लगी, भूखा तो था ही। वहाँ एक नदी मिली। उसके कुण्ड में मैंने स्नान, जलपान और आचमन किया। इससे मेरी थकावट मिट गयी । उस विजन वन में एक पीपल के नीचे आसन लगाकर मैं बैठ गया। उन महात्माओं से जैसा मैंने सुना था, ह्रदय में रहने वाले परमात्मा के उसी स्वरुप का मैं मन-ही-मन ध्यान करने लगा ।

 भक्तिभाव से वशीकृत चित्त द्वारा भगवान के चरण-कमलों का ध्यान करते ही भगवत्-प्राप्ति की उत्कट लालसा से मेरे नेत्रों में आँसू छलछला आये और ह्रदय में धीरे-धीरे भगवान प्रकट हो गये । व्यासजी! उस समय प्रेमभाव के अत्यन्त उद्रेक से मेरा रोम-रोम पुलकित हो उठा। ह्रदय अत्यन्त शान्त और शीतल हो गया। उस आनन्द की बाढ़ में मैं ऐसा डूब गया कि मुझे अपना और ध्येय वस्तु का तनिक भी भान न रहा । भगवान का वह अनिर्वचीय रूप समस्त शोकों का नाश करने वाला और मन के लिये अत्यन्त लुभावना था। सहसा उसे न देख मैं बहुत ही विकल हो गया और अनमना-सा होकर आसन से उठा खड़ा हुआ । मैंने उस स्वरुप का दर्शन फिर करना चाहा; किन्तु मन को ह्रदय में समाहित करके बार-बार दर्शन की चेष्टा करने पर भी मैं उसे नहीं देख सका। मैं अतृप्त के समान आतुर हो उठा । इस प्रकार निर्जन वन में मुझे प्रयत्न करते देख स्वयं भगवान ने, जो वाणी के विषय नहीं हैं, बड़ी गंभीर और मधुर वाणी से मेरे शोक को शान्त करते हुए-से कहा । खेद है कि इस जन्म में तुम मेरा दर्शन नहीं कर सकोगे। जिनकी वासनाएँ पूर्णतया शान्त नहीं हो गयीं हैं, उन अधकचरे योगियों को मेरा दर्शन अत्यन्त दुर्लभ है ।

  निष्पाप बालक! तुम्हारे ह्रदय में मुझे प्राप्त करने की लालसा जाग्रत् करने के लिये ही मैंने एक बार तुम्हें अपने रूप की झलक दिखायी है। मुझे प्राप्त करने की आकांशा से युक्त साधक धीरे-धीरे ह्रदय की सम्पूर्ण वासनाओं का भलीभाँति त्याग कर देता है । अल्पकालीन संत सेवा से ही तुम्हारी चित्तवृत्ति मुझमें स्थिर हो गयी है। अब तुम इस प्राकृत मलिन शरीर को छोड़कर मेरे पार्षद हो जाओगे । मुझे प्राप्त करने का तुम्हारा यह दृढ़ निश्चय कभी किसी प्रकार नहीं टूटेगा। समस्त सृष्टि का प्रलय हो जाने पर भी मेरी कृपा से तुम्हें मेरी स्मृति बनी रहेगी। आकाश के समान अव्यक्त सर्वशक्तिमान् महान् परमात्मा इतना कहकर चुप हो रहे। उनकी इस कृपा का अनुभव करके मैंने उन श्रेष्ठों से भी श्रेष्ठतर भगवान को सिर झुकाकर प्रणाम किया । तभी से मैं लज्जा-संकोच छोड़कर भगवान के अत्यन्त रहस्यमय और मंगलमय मधुर नामों और लीलाओं का कीर्तन और स्मरण करने लगा। स्पृहा और मद-मत्सर मेरे ह्रदय से पहले ही निवृत्त हो चुके थे, अब मैं आनन्द से काल की प्रतीक्षा करता हुआ पृथ्वी पर विचरने लगा ।

     व्यासजी! इस प्रकार भगवान की कृपा से मेरा ह्रदय शुद्ध हो गया, आसक्ति मिट गयी और मैं श्रीकृष्ण परायण हो गया। कुछ समय बाद, जैसे एकाएक बिजली कौंध जाती है, वैसे ही समय पर मेरी मृत्यु आ गयी । मुझे शुद्ध भगवत्पार्षद-शरीर प्राप्त होने का अवसर आने पर प्रारब्ध कर्म समाप्त हो जाने के कारण पांच भौतिक शरीर नष्ट हो गया । कल्प के अन्त में जिस समय भगवान नारायण एकार्णव (प्रलयकालीन समुद्र)के जल में शयन करते हैं, उस समय उनके ह्रदय में शयन करने की इच्छा से इस सारी सृष्टि को समेटकर ब्रम्हाजी जब प्रवेश करने लगे, तब उनके श्वास के साथ मैं ही उनके ह्रदय में प्रवेश कर गया ।

 

एक सहस्त्र चतुर्युगी बीत जाने पर जब ब्रम्हा जगे और उन्होंने सृष्टि करने की इच्छा की, तब उनकी इन्द्रियों से मरीचि आदि ऋषियों के साथ मैं भी प्रकट हो गया । तभी से मैं भगवान की कृपा से वैकुण्ठादि में और तीनों लोकों में बाहर और भीतर बिना रोक-टोक विचरण किया करता हूँ। मेरे जीवन का व्रत भगवद्भजन अखण्ड रूप से चलता रहता है । भगवान की दी हुई इस स्वर ब्रम्ह से विभूषित वीणा पर तान छेड़कर मैं उनकी लीलाओं का गान करता हुआ सारे संसार में विचरता हूँ । जब मैं उनकी लीलाओं का गान करने लगता हूँ, तब वे प्रभु, जिनके चरणकमल समस्त तीर्थों के उद्गम स्थान हैं और जिनका यशोगान मुझे बहुत ही प्रिय लगता है, बुलाये हुए की भाँति तुरन्त मेरे ह्रदय में आकर दर्शन दे देते हैं । जिन लोगों का चित्त निरन्तर विषय भोगों की कामना से आतुर हो रहा है, उनके लिये भगवान की लीलाओं का कीर्तन संसार सागर से पार जाने का जहाज है, यह मेरा अपना अनुभव है । काम और लोभ की चोट से बार-बार घायल हुआ ह्रदय श्रीकृष्ण सेवा से जैसी प्रत्यक्ष शान्ति का अनुभव करता है, यम-नियम आदि योग मार्गों से वैसी शान्ति नहीं मिल सकती । व्यासजी! आप निष्पाप हैं। आपने मुझसे जो कुछ पूछा था, वह सब अपने जन्म और साधना का रहस्य तथा आपकी आत्मतुष्टि का उपाय मैंने बतला दिया ।

श्रीसूतजी कहते हैं ;- शौनकादि ऋषियों! देवर्षि नारद के व्यासजी के इस प्रकार कहकर जाने की अनुमति ली और वीणा बजाते हुए स्वच्छन्द विचरण करने के लिये वे चल पड़े । अहा! ये देवर्षि नारद धन्य हैं; क्योंकि वे सारंगपाणि भगवान की कीर्ति को अपनी वीणा पर गा-गाकर स्वयं तो आनन्दमग्न होते ही हैं, साथ-साथ इस त्रितापतप्त जगत् को भी आनन्दित करते रहते हैं ।

इस प्रकार श्रीमद्‌भागवत महापुराण का  पारमहंस्या संहिताया प्रथमस्कन्ध व्यासनारदसंवाद षष्ठोऽध्याय समाप्त हुआ ॥। ६ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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